प्रश्नकर्ता: प्रणाम सर। मेरा विवाह हुआ, उसके बाद दो बच्चे हुए हमें। पत्नी मेरी गृहणी हैं। और एक बेटा है पहले, फिर उसके बाद बेटी हुई। परन्तु कुछ मेडिकल कंडीशन (चिकित्सा स्थिति) के कारण उसकी मृत्यु हो गई थी। अभी एक लड़का ही है साढ़े तीन साल का। तो अब फिर से थोड़ा सा पत्नी की तरफ़ से भी और पत्नी के घरवालों की तरफ़ से भी, दबाव बन रहा है कि एक बच्चा और किया जाए। मैंने पत्नी को तो समझाया, परन्तु वो नहीं समझ पा रही। मेरे भी माता-पिता हैं या मेरी पत्नी के माता-पिता भी हैं जो, उनको ये चीज़ें समझाना कि पर्यावरण के लिए ख़तरा है या बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी है बड़ा मुश्किल हो रहा है।
अब, जो मेरी पत्नी है, उसके माँ-बाप चाहते हैं कि भई, ये कहीं उलझी रहे। तो उसको उलझाने के लिए वो चाहते हैं कि एक बच्चा पैदा हो जाए। यही परेशानी मेरे साथ है। अगर वो नहीं किसी और काम में लगी रहती है तो फिर मुझे परेशान करना थोड़ा सा चलता रहता है उसका। तो अब मुझे ये समझ नहीं आ पा रहा है कि मैं उसको कैसे समझाऊँ या उसके माँ-बाप को कैसे समझाऊँ? और अगर नहीं करता हूँ दूसरा बच्चा या कोई ऐसा चीज़ उसको नहीं देता हूँ, नौकरी वो करने में भी समर्थ नहीं है, पत्नी मेरी, तो अगर उसको वहाँ कहीं और नहीं उलझा सकता, तो फिर उसका क्या उपाय करूँ? कैसे इससे निकलूँ, समझ नहीं आ रहा?
आचार्य प्रशांत: समर्थ नहीं है नौकरी करने की, तो समर्थ बनाइए।
प्र: सर, शैक्षणिक योग्यता इतनी नहीं है।
आचार्य: तो बढ़ाइए, शैक्षणिक योग्यता। दसवीं, बारहवीं, मैट्रिक, कॉलेज, जो भी है पास कराइए। ये बात इतनी अविश्वसनीय क्यों लग रही है?
प्र: पढ़ाई की तरफ़ उसका इतना रुझान है नहीं।
आचार्य: रुझान तो सब लड़के-लड़कियों का एक ही तरफ़ होता है, है न? रुझान पैदा करवाना पड़ता है। नहीं तो आप, लड़के-लड़कियों को आठ-दस साल की उम्र से छोड़ दीजिए, एकाध-दो ही होंगे जो कहेंगे कि हम पढ़ना चाहते हैं, बाक़ी सब इसी में लग जाएँगे — गोद भरो आंदोलन!
तो प्राकृतिक रुझान तो सबका यही होता है। अब समस्या इसमें यह नहीं है कि आप जानते नहीं कि क्या करना चाहिए। आपको अड़चन ये आ रही है कि जो करना चाहिए उसमें श्रम बहुत लगेगा। ये है आपकी अड़चन।
तो उसमें तो मैं कोई सहायता नहीं कर सकता, वो श्रम तो आपको ही करना पड़ेगा। वो श्रम नहीं करेंगे तो फिर वही समाधान है, दूसरा बच्चा, तीसरा बच्चा; जो भी है करिए।
आपके लिए तो ये बात एक बड़ी ज़िम्मेदारी की तरह है न। पत्नी अगर बहुत पढ़ी-लिखी नहीं है, तो ये ज़िम्मेदारी की बात है कि अब उनको पढ़ाना-लिखाना है और यही तो पहला काम होना चाहिए। भई, आप अपनेआप को पति की तरह देखें या मित्र की तरह देखें या बाप की तरह देखें या सलाहकार की तरह देखें, तो आपके सामने कोई होता है तो आप उसको पहली सलाह क्या देते हो, पढ़ाई करो या बच्चा पैदा करो? कोई सामने है आपके और एक बच्चा पहले से है फ़िलहाल। तो उसको आप क्या सलाह दोगे, पढ़ो या बच्चा करो? पढ़ने की सलाह दोगे न।
तो हर नाते, आपका कर्तव्य यही है कि पढ़ने की ओर उनको प्रेरित करें। तो पहले तो पढ़ने में लग जाएँगे चार-पाँच साल, फिर पढ़ाई के बाद नौकरी ढूँढनी है, नौकरी में जमना है, उसमें और चार-पाँच साल लग जाएँगे। इतने में समय भी बीत जाएगा और बुद्धि भी थोड़ी विकसित हो जाएगी।
देखिए, जो भी लोग एक सही ज़िंदगी जीना चाहते हों, वो ये समस्या तो लेकर आएँ ही नहीं कि हम सही जिंदगी जीना चाहते हैं, ग़लत निर्णय से बचना चाहते हैं लेकिन लोग बहुत दबाव बना रहे हैं। लोग दबाव नहीं बनाएँगे तो क्या करेंगे? दबाव तो बनाना लोगों का काम है।
आप जो करना चाहते हो, आप जैसे जीना चाहते हो, वो बात लोगों के ढर्रे के विपरीत जाती है तो वो तो दबाव बनाएँगे ही। इसमें नई चीज़ क्या है? इसको लेकर के अब रोना क्या? ये तो होना ही है। इसका कोई समाधान नहीं। इसका तो यही है कि अच्छा तेरे पास समय ज़्यादा है, दिन भर खाली बैठी रहती है, चल तेरा एडमिशन (दाखिला) कराते हैं। कराइए एडमिशन या डिस्टेंस एजुकेशन जो भी हो, वो आपको देखना है कि कौनसा सार्थक तरीक़ा है उचित, उसको पढ़ाने के लिए।
जब ज्योमेट्री (ज्यामिती) की प्रॉब्लम सामने आएगी न, दिमाग़ से बाक़ी सब फितूर उतर जाएँगे!
क्यों भई? अब पूछ रहे हैं, ‘हाँ भई, बताओ ज़रा, इलेक्ट्रोलाइसिस (विद्युतलयन) की थ्योरी (सिद्धांत)।’ तो उसमें लोरी थोड़ी सुनाओगे? वही सब थ्योरी (सिद्धांत) पढ़ी नहीं है बचपन से इसलिए लोरी-लोरी ज़्यादा याद आता है। यह तो जाना हुआ, प्रमाणित, सिद्ध तथ्य है कि जिस भी समाज में, देश में, साक्षरता बढ़ती है, वहाँ प्रजनन दर अपनेआप कम हो जाती है। इन दोनों में इनवर्स को-रिलेशन (उल्टा सहसंबंध) रहता है, हमेशा, हर जगह।
कहने वाले यह भी कहते हैं कि 'लिट्रेसी इज अ ग्रेट कॉन्ट्रसेप्टिव' (साक्षरता एक बड़ा गर्भनिरोधक है)। जितना आगे पढ़ते जाओ, ये बच्चा पैदा करने का कार्यक्रम, अपनेआप ही कम होता जाता है। आप पीएचडी कर लीजिए, पीएचडी करते-करते ही आप तीस-पैंतीस के हो जाएँगे। टालते चलिए, टालते चलिए। और जब आप ख़ूब टाल लेते हैं, तो उसके बाद समझ में आ जाता है कि अच्छा ही किया, टाल दिया।
ऐसी नज़रों से मत देखो। मेरे पास इससे ज़्यादा कोई समाधान नहीं है। (श्रोतागण हँसते हैं) आगे की मेहनत आपको ही करनी है ।
प्र: आचार्य जी, एक प्रश्न और था मेरा। जैसे कोई ग्रस्त है अगर, तो अभी वो अध्यात्म की तरफ़ चलना शुरू कर दिया है। तो जो ये शरीर से सम्बन्धित जितने भी क्रिया हैं, मान लीजिए कामवासना है, सेक्स (संभोग) है। तो उसका एक गृहस्थ के जीवन में क्या स्थान रहता है? जैसे मैं अपना ही आपको दे देता हूँ उदाहरण। जैसे आपको सुनना शुरू किया है, तो मैंने थोड़ा सा कामवासना को अवॉइड करने की कोशिश करी। तो अब पत्नी की तरफ़ से फिर विरोध आ जाता है। उसको यह लगता है कि भई, पकड़ जो है, अब ढीली हो रही है, तो किसी और तरीक़े से कोशिश करती है पकड़ को मज़बूत करने की।
आचार्य: देखो, अध्यात्म का मतलब होता है बेहतरी, ऊँचाई इसकी ओर बढ़ना।
तो सीधा सा सवाल जो आपका है कि आध्यात्मिक आदमी की ज़िंदगी में सेक्स बचता है कि नहीं? और वो करता है तो किसके साथ, कैसे, कब, कहाँ, ये सब?
ये जो पारंपरिक बात रही है कि अध्यात्म के साथ-साथ कामवासना क्षीण हो जाती है, वो बात अपनी जगह बिलकुल ठीक है। लेकिन उसमें यह बात भी है कि फिर आपकी वासना, आपके मूल्यों का एक प्रतिबिम्ब बन जाती है, एक उद्घोषणा बन जाती है कि मुझे क्या चीज़ पसंद है। पहले आप एक साधारण आदमी थे, जिसके साधारण बल्कि निम्न तल के मूल्य थे। तो उसी तल का आप कोई साथी भी चुन लेते थे। आध्यात्मिक व्यक्ति चूँकि ऊँचाइयों का प्रेमी होता है, उच्चता का। तो इसीलिए वो फिर सेक्स (संभोग) को एक साधारण मनोरंजन की तरह नहीं इस्तेमाल करता।
पत्नी ही हैं घर में, मान लीजिए, आपने कह दिया कि तुम्हें पढ़ना है, तुम्हें ग्रेजुएशन (स्नातक) करनी है। और वो पढ़ नहीं रही है, इधर-उधर की बात कर रही है जैसे आपने कहा, वो पकड़ टाइट करने की कोशिश कर रही है। ये सब है।
आध्यात्मिक आदमी ऐसी स्थिति में वासना की ओर बढ़ ही नहीं पाएगा। वो उत्तेजना अनुभव ही नहीं करेगा। उसने अपने शरीर को, अपने मूल्यों के साथ एलाइन (पंक्तिबद्ध) कर दिया है। आप उसको कह रहे हैं, ‘पढ़ो’; वो कह रही हैं, ‘मुझे पढ़ना नहीं है। मुझे तुम्हारे साथ सोना है।’ आप कहेंगे, ‘मैं सो नहीं सकता तेरे साथ, क्योंकि अभी जो तेरी हालत है, ये मेरे मूल्यों के बिलकुल विपरीत है। मैं आदर ही नहीं करता तेरी इस स्थिति की, और तेरे इस हठ की, इस जिद की। तो नहीं हो पाएगा।
हाँ, तू बहुत अच्छे नम्बर ला के दिखा दे! तू कोई ऐसा सवाल हल करके दिखा दे न, जो कठिन है, तुझसे हो नहीं रहा था। तू कहीं पर कुछ दिखा तो, जो तुझमें मूल्यवान है, सम्मानीय है। तब तू किसी सुख की हकदार बनेगी। और तब मैं भी अपनेआप को ये अधिकार दे पाऊँगा कि तेरे-मेरे बीच में सुख का आदान-प्रदान हो। नहीं तो, तेरे साथ होना ऐसी सी बात होगी जैसे कोई जानवर जा कर के कीचड़ में लोटे। उसमें क्या गरिमा हैं।’
तो आप जैसे होते हो, आपके जीवन के सारे कर्म वैसे ही होते हैं। आपकी सेक्सुअल एक्टिविटी (यौन गतिविधि) भी फिर वैसी ही हो जाती है। घटिया आदमी अपने लिए जो सबसे घटिया किस्म का साथी होगा, उसको चुन लेगा। एकदम ही सड़ा-गला! उसकी नज़र उसी पर जाएगी और नज़र ही उस पर नहीं जाएगी, उसको ख़ूबसूरत भी लगेगा।
आप सूअर के सामने फल रख दें ताज़े और मल रख दें। सूअर की आशिकी तुरंत किससे बैठ जाएगी? मल से बैठ जाएगी, फल उसको थोड़े ही पसंद आएगा! तो वैसे ही जब तक हम सूअर होते हैं, जितना मल होता है वही हमको परी समान लगता है। आप जो हो, उसी अनुसार प्यार हो जाएगा न! आप सूअर हो, तो सामने टट्टी है, उसी पर दिल आ गया।
अध्यात्म आपको भीतर से बेहतर कर देता है। आप ऊँचे हो जाते हो, फिर आपको व्यक्ति भी ऊँचा ही पसंद आता है। और ऊँचे लोग बहुत कम होते हैं, वो मिलते नहीं। तो इसलिए आपकी जो आवृत्ति है, सेक्सुअल एक्ट (यौन क्रिया) की, वो अपनेआप कम हो जाती है। आप यह नहीं कर पाओगे कि कहीं भी जाकर के कूड़े-कचड़े में मुँह मार आए हैं। आप से होगा ही नहीं! आप चाहो तो भी नहीं होगा। आपको वैश्यालय भेज दिया जाएगा। वहाँ ये सब तैयार खड़ी हैं, पैसा दो, सेक्स करो; आप से होगा ही नहीं, आप वापस लौट आओगे। अध्यात्म ये कर देता है आपके साथ। और यही वास्तविक ब्रह्मचर्य भी है।
ब्रह्मचर्य कहता है, ‘ब्रह्म में चर्या करना’ और जिसके जीवन में ब्रह्म बिलकुल नहीं है, मैं उसके साथ चर्या कैसे कर लूँ? भले ही वो मेरी भार्या हो; पर उसके जीवन में जब ब्रह्म नहीं है, तो मैं उसके साथ चर्या कैसे कर लूँगा? और ब्रह्म बहुत कम लोगों के जीवन में होता है। इसलिए सेक्सुअल एक्ट की, मैं कह रहा हूँ, फ्रीक्वेंसी (आवृत्ति) एक आध्यात्मिक आदमी की बहुत कम हो जाती है। उसे कोई मिलता नहीं अपने लायक़।
बात आ रही है समझ में?
तो सेक्स बिकम्स एन एक्सप्रेशन ऑफ़ व्हाट यू स्टैंड फॉर, योर डीपेस्ट, योर हाईएस्ट वैल्यूज! (तो सेक्स आप जो हो, आपके जो सबसे गहरे और उच्चतम मूल्य हैं, उसकी अभिव्यक्ति बन जाता है।) यह नहीं कि कहीं भी कुछ भी मिला गंदा-संदा, मुँह मार दिया। छी! हट!
और बात थोबड़े की नहीं है कि मुँह से कितनी ख़ूबसूरत हो। बात ज़िंदगी की है! हृदय में ब्रह्म बैठा है कि नहीं बैठा है? अगर है तो, तुमसे हमारी निभेगी, मित्रता हो जाएगी। मित्रता में, शरीर का भी आदान-प्रदान हो सकता है। कोई ऐसा नियम नहीं है कि सेक्स नहीं ही करना है। पर ये नियम ज़रूर है कि कीचड़ में नहीं लोटना है।
कोई इस लायक़ मिले कि उसके साथ तुम निर्वस्त्र कर सको अपनेआप को; तो ही करना है। और शरीर से जब आप कपड़े उतारते हो, उस चीज़ का एक आध्यात्मिक महत्व है। वो चीज़ एक आध्यात्मिक प्रतीक के रूप में भी समझी जा सकती है। कपड़ों का उतारना माने जो भीतर है उसको अनावृत्त करना। और आध्यात्मिक दृष्टि से देखें, तो एकदम जो भीतर है, वो आत्मा है। और आत्मा उसी के सामने उघाड़ी जाती है, जिसके पास आत्मा को देख पाने की आँख हो। नहीं तो ये बड़ी गरिमाहीन, इनडिग्निफाइड (अपमानजनक) स्थिति होती है कि आपने अपनेआप को उघाड़ दिया और किसी ऐसे के सामने उघाड़ दिया, जो देख भी नहीं सकता कि आप दिखाना क्या चाह रहे हो। उसको बस शरीर दिख रहा है।
तो शरीर उसके सामने नग्न करो जिसके सामने आत्मा अनावृत कर सकते हो। इस बात को नियम की तरह पकड़ लो। तू मेरी आत्मा अगर देख सकता है, तो ही मेरा शरीर देखना। और जो तुम्हारी आत्मा देखने की आँख ही नहीं रखता, औकात ही नहीं रखता, उसको फिर शरीर भी मत दिखाओ अपना।
बात समझ में आ रही है?
सेक्स का मुद्दा बहुत छोटा हो जाता है, जब प्रेम का मुद्दा बहुत बड़ा हो जाता है। उसके बाद आपको पूछना नहीं पड़ता कि सेक्स अच्छी चीज़ है, बुरी चीज़ है? करें कि नहीं करें? फिर होना है, तो होगा; नहीं होना, तो सालों तक नहीं होगा। कोई फ़र्क नहीं पड़ता। फिर वो एक सहज बात होती है। उतना बड़ा हौवा नहीं होता।
लेकिन, क्योंकि हमारा समाज ऐसा है जिसमें प्रेम और अध्यात्म शून्य है बिलकुल, तो हमारे लिए सेक्स ही बहुत बड़ी बात है। हर आदमी पगलाया घूम रहा है, 'सेक्स मिल जाए, सेक्स मिल जाए' और समाज पगलाया घूम रहा है कि कोई सेक्स करता पकड़ा जाए तो तुरंत उसकी पिटाई लगाएँ।
पिटे वो लोग जाने चाहिए न जिनके जीवन में प्रेम नहीं है? पर समाज उनकी पिटाई बिलकुल नहीं लगाता। सबसे बड़ा गुनाह क्या है? एक प्रेमहीन, लवलेस जीवन जीना! इससे बड़ा कोई गुनाह हो सकता है? ये तो आपने अस्तित्व के प्रति ही अपराध कर दिया कि आप बिना प्रेम का जीवन जी रहे हो। लेकिन इस चीज़ की समाज में कोई सज़ा नहीं, किसी कानून में कोई प्रावधान नहीं। नहीं तो, जब कानून लिखे जाएँगे, तो विधानों में सबसे पहला अपराध और सबसे बड़ी सज़ा इसी बात की होगी — देखो, प्रेमहीन कौन है, जो प्रेमहीन है, इसको ज़रा ठोक-बजाकर सही करो।
उससे हमें कोई मतलब नहीं। हमें मतलब ये रहता है 'देखो सेक्स कहाँ चल रहा है, सेक्स कहाँ चल रहा है?' चार लोग मिलेंगे और वहाँ शुरू हो जाए गप्पबाजी। निश्चित ही विषय यहीं पर आकर टिकेगा कि कौन किसके साथ आजकल सो रहा है। और ये बात बिलकुल महत्वहीन होनी चाहिए।
महत्व की बात होनी चाहिए प्रेम की। और प्रेम है अगर, तो सेक्स अपनेआप सही जगह पर आ जाएगा। बहुत ज़्यादा वो बचेगा ही नहीं, और जितना बचेगा, उसमें फिर सुगंध होगी, कीचड़ की बदबू नहीं। और सेक्स भी एक बहुत ऊँचा काम हो सकता है, अगर सही केंद्र से किया जा रहा हो तो। हमें उस केंद्र की परवाह करनी चाहिए, सेक्सुअल एक्ट की उतनी परवाह नहीं करनी चाहिए।
‘ज़िंदगी, क्या मैं सही केंद्र से जी रहा हूँ? मुझे सही साथी चुनना आता है? वो अगर कुछ बोल रहा है, तो क्या मुझे उसे सुनना आता है? जब मैं एक इंसान को देखता हूँ, तो क्या मैं उसकी आँखों में उसकी आत्मा को पढ़ पाता हूँ?’
ये होने चाहिए महत्वपूर्ण प्रश्न। इन प्रश्नों का जवाब खोजिए। ये प्रश्न अगर ठीक चल रहे हैं, तो सेक्स छोटी बात है। इतना उसपर शोर-शराबा मचाना नहीं चाहिए। न वो इतनी बड़ी हवस बन जानी चाहिए कि कह रहे हैं ‘नहीं!’ अरे यार, दूसरी चीज़ पर ध्यान दो न, असली चीज़ पर। सेक्स को पीछे रखो। होना होगा, तो हो जाएगा; नहीं होना होगा, तो नहीं होगा।
ये जो हमारी सेक्स ऑब्सेस्ड सोसाइटी (संभोग के प्रति आसक्त समाज) है, इसका ऑब्सेशन (जुनून) इशारा करता है एक बड़ी एम्टिनेंस (शून्यता), एक वॉइड (रिक्त) की ओर। चूँकि हमारे पास कुछ नहीं है, इसीलिए हमारे दिमाग़ में सिर्फ़ और सिर्फ़ बहुत सारा सेक्स है।
ज़िंदगी को उच्चतर मूल्यों से भर दो। दो परिणाम होंगे — पहली बात तो ये हवस-वग़ैरा के लिए इतना समय नहीं मिलेगा और हर किसी को हवस की नज़र से देख ही नहीं पाओगे। जब एक ऊँचे इंसान बन जाते हो न तो कोई साधारण स्त्री, साधारण पुरुष जा रहा हो उसको देख कर तुम्हें कामना उठेगी ही नहीं। वो नंगा भी हो जाए तुम्हारे सामने, तो भी तुम्हें कोई कामना नहीं उठेगी। क्योंकि तुम एक तल पर पहुँचे हुए आदमी हो।
तुम ऐसे थोड़े कि किसी ने कपड़े उतार दिए और तुम उत्तेजित हो जाओगे, होगा ही नहीं! पहली चीज़ ये। जो पहली चीज़ है, इससे क्या होगा? पहली चीज़ से होगा कि जो तुम्हारा समय जाता है सेक्सुअल थॉट्स (यौन विचारों) में, परवर्जन (विकृति) में, वो बहुत कम हो जाएगा। और जो दूसरी चीज़ है, वो यह होगी कि जब तुम सेक्सुअल एक्टिविटी करोगे तो उसका एक अर्थ होगा, उसमें एक सुंदरता होगी, उसमें एक सुगंध होगी। वो सही ज़िंदगी जीने के पुरस्कार की तरह एक घटना होगी, 'मैंने भी सही ज़िंदगी जी, तुमने भी सही ज़िंदगी जी और हम दोनों ने आज अपनेआप को यह पुरस्कार दिया है।' वो फिर ऐसा नहीं होगा कि तुम भी दिनभर लतियाए गए हो और मैं भी दिन भर गरियाई गई हूँ; तो रात में दोनों मिल कर चलो मनोरंजन की तरह पलंग तोड़ें।
ज़्यादातर ऐसा ही होता है। स्त्री-पुरुष दोनों ने दिनभर एक थकी, बदहाल, बेकार ज़िंदगी जी होती है। तो रात को अपनेआप को थोड़ा तनाव मुक्त करने के लिए, मनोरंजन की तरह फिर वो सेक्स-सेक्स करते है। ये सबसे घटिया तल है सेक्स का।
सही सेक्स बेकार जीवन के तनाव को हटाने की विधि नहीं बन जाएगा। सही सेक्स एक ऊँचे जीवन को जीने का पुरस्कार बनेगा। ‘मैं भी सही जी रहा हूँ, तुम भी सही जी रहे हो। मैं भी दिनभर सही लड़ाई लड़ कर आया हूँ। ज़ख़्म देखो मेरे, ख़ून है! और तुमने भी दिन भर डट के चुनौतियों का सामना किया है। आज, अब आज हम दोनों इस बात के अधिकारी हैं कि साथ सो सकते हैं। हमारी-तुम्हारी आत्मा एक है। वो जो एक सत्य है, उसी के लिए दिनभर मैं भी लड़ा हूँ और उसी के लिए दिनभर तुम भी डटी हो। एक सत्य के लिए हम दोनों डटे हैं, तो हम दोनों भी अब एक हो सकते हैं; शारीरिक तल पर भी एक हो सकते हैं। ये होता है सही सेक्स। और कोई अनिवार्यता नहीं है कि हम दोनों ही उस एक लक्ष्य के लिए ही समर्पित रहें हैं, तो शरीर से भी एक होना है। कोई अनिवार्यता नहीं है। पर अगर होना है, तो ठीक है। अब ठीक है। अब अनुमति है।
ये थोड़े ही कि फूटे हुए गोलगप्पे सी ज़िंदगी। कोई ऊपर से कुछ डाल भी रहा है, तो नीचे से बाहर जा रहा है। और कूद रहे हो सेक्स के लिए! न पढ़े, न लिखे, न ज्ञान, न ध्यान; चाहिए संतान! ये कौनसी पाशविकता है भाई?
कुछ समझ में आ रही है बात?
प्र: आचार्य जी, इसमें एक चीज़ और थी, जो मैं पूछना चाहता था कि जैसे-जैसे मैंने थोड़ा-थोड़ा आपको सुनना शुरू किया, पढ़ना शुरू किया; तो जो मेरी काम वासना थी, वो अपनेआप कम होती गई। तो पत्नी से फिर दूरी बनती गई। अब समस्या यह हो जाती है कि जैसे पत्नी है, अपने माता-पिता के साथ डिस्कस (चर्चा) करती है ये बातें, सारी की सारी। तो फिर वहाँ से एक दबाव आ जाता है कि भाई, इसका ध्यान कहीं और तो नहीं। या फिर मान लो, जो एक पुरुष के अहंकार को बहुत ज़्यादा प्रभावित करता है, वो नपुंसकता; कुछ ऐसा तो नहीं हो गया इसको? तो फिर इन सब बातों को अवॉइड ही करना पड़ेगा?
आचार्य: तो बुराई क्या है? हो गया नपुंसक!
(श्रोतागण हँसते हैं)
अच्छी बात है ये तो। इससे अच्छा तोहफ़ा कोई आपको दे सकता है? आप घोषित ही कर दीजिए न। बहुत सारे ऐसे मिल जाएँगे डॉक्टर! सौ-पचास ले कर के वो दे देंगे आपको, पूरा सर्टिफ़िकेट (प्रमाणपत्र), बनवा लाइए। कहे, ‘इनका असाध्य है रोग! इनका कुछ नहीं हो सकता।’ बुराई क्या है? ठीक है।
अज्ञान के प्रति, जीवन के निचले तलों के प्रति; हाँ हम हो गए हैं नपुंसक! उनको लेकर हममें कोई कामना उठती ही नहीं। हम बिलकुल नपुंसक हो गए हैं और ऐसी नपुंसकता बहुत शुभ है, बिलकुल शुभ है। हमारे सामने तुम जानवर खड़ा कर देते हो, हमें कोई उत्तेजना नहीं होती। हम नपुंसक हो गए हैं, बिलकुल हो गए हैं। क्या बुराई है ऐसी नपुंसकता में? सबको मिले ऐसी नपुंसकता। बस ठीक है।
“भला हुआ मोरी गगरी फूटी।“ आप सारी गगरियाँ फोड़ दीजिए; फूट गई। “रोज़-रोज़ के पनिया भरन से मैं छूटी,” पानी भरने की भी अब कोई ज़िम्मेदारी नहीं है; गगरी फूट चुकी है।
प्र: एक अंतिम बात मैं कहना चाहूँगा, आचार्य जी। एक बार आप एक सत्र की बात थी, उसमें आपने कोई छोटा बच्चा था उसकी मन की स्थिति के बारे में आप बता रहे थे। तो आपने कहा कि ‘उस बच्चे ने आपको देखा, तो उसने बोला बियर (भालू)। वो बच्चा माशा बियर एक कार्टून सीरीज़ आती है, वो देखता था। तो उसने आपको देखा, तो उसने कहा बियर। तो मेरा भी बेटा है छोटा, तो मैं एक दिन उसके साथ माशा एंड बियर देखने लगा था; तो मुझे लगा कि उस बच्चे ने आपको बिलकुल सही पहचाना। उसमें छोटा बच्चा जिसका नाम माशा है, वो रहता है, दुनिया भर की शरारतें करता है, दुनिया भर की धमा-चौकड़ी मचाता है। हर काम उल्टे करता है, पर जो बियर होता है, बियर उसके सारे काम सुधारता चला जाता है। तो मुझे उसको देख कर ये फ़ीलिंग आती है कि मैं माशा हूँ, हम सब माशा हैं और आप सच में बियर हैं।
धन्यवाद आचार्य जी। प्रणाम।