पत्नी के हाथ के पराँठे, माँ के हाथ की सब्ज़ी || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2022)

Acharya Prashant

20 min
105 reads
पत्नी के हाथ के पराँठे, माँ के हाथ की सब्ज़ी || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2022)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। आपकी बहुत सारी वीडियोज़ देखी थीं विमेन एँपावरमेंट (नारी सशक्तिकरण) को लेकर, तो उसमें आपने कई बार बोला है कि जो महिलाएँ घर पर बैठ कर काम करना पसंद करती हैं, उनका ज़्यादातर काम एक डोमेस्टिक हेल्प (घरेलू मदद कर्मचारी) से सब्स्टीट्यूट हो जाता है या कर सकते हैं। पर कई बार, जैसे जब मैं अपने दोस्तों से या उनकी माताओं से बातचीत करती हूँ या ख़ुद भी देखती हूँ जब घर जाती हूँ तो जो मम्मी के हाथ का खाना होता है, और जो डोमेस्टिक हेल्प खाना बनाती है, उसमें अंतर तो होता ही है। वो उतने प्यार से या उस श्रद्धा से हमारे लिए थोड़े ही न काम करेंगे जितना शायद एक माँ अपने बच्चे के लिए करे या एक पत्नी अपने पति के लिए करे। तो मैं इसपर आपके विचार जानना चाह रही थी, क्योंकि ये भी तो एक बहाना हो सकता है कि डोमेस्टिक हेल्प इतना अच्छा काम नहीं करती जितना हम कर सकते हैं अपने परिवार के लिए।

आचार्य प्रशांत: हाँ, और उसमें ये भी कहते हैं कि जब खाना बनाया जाता है तो उसमें 'प्राण' जागृत हो जाते हैं। है न? (श्रोतागण हँसते हैं) हाँ बिलकुल, प्राण शब्द का इस्तेमाल होता है। प्राण ऊर्जा वगैरह कहते हैं, कि जब एक गृहणी खाना बनाती है तो उसमें प्राण ऊर्जा रहती है और जब मेड (नौकरानी) बना देगी तो उसमें वो सब नहीं रहेगा।

आपने कहा स्वाद अच्छा रहता है माँ के हाथ के खाने का। देखो, मेरी माँ, मेरी बहन, मेरे घर की और कोई महिला सदस्या, भले ही उनके हाथ का खाना कितना भी स्वादिष्ट हो, मेरा ये धर्म है कि उनको बोलूँ कि अपनी ज़बान के स्वाद के लिए मैं आपको किचन (रसोईघर) में बंधक नहीं रख सकता। भली बात है कि आप स्वादिष्ट-पौष्टिक खाना बना देती हैं, मैं आपको लेकिन यहाँ नहीं रख सकता। ये मुद्दे का एक पहलू है, समझना। आपके भीतर लगाव है तो आप ये कर देती हैं कि खाना बनाना है। पर प्रेम हमें भी है न? हम ये कैसे कह दें कि आपका खाना खाने के लिए हम आपसे खाना ही बनवाते रहेंगे?

और कई बार महिलाएँ होती हैं, वो पाँच-पाँच, सात-सात लोगों के परिवार में तीन बार खाना बना रहीं होती हैं। ये जो खानेबाज़ी का चक्कर है, ये मुझे कहीं से नहीं सुहाता। और ना मैं समझता हूँ कि खाना बनाना बहुत बड़ी, बहुत आवश्यक कलाओं में से एक है, मैं बिलकुल ऐसा नहीं समझता। मेरी इस बात से उन लोगों को धक्का लगता है जिन्हें ज़िंदगी में खाना बनाने के अलावा और कुछ आता ही नहीं। उनका पूरा आत्मसम्मान ही इसी बात पर आश्रित होता है कि ये खाना बहुत अच्छा बनातीं हैं। और मैं कहता हूँ, खाना बनाना कहीं से कोई बड़ी बात नहीं हो गई।

”रुखी सूखी खाय के ,ठंडा पानी पिव। देख पराई चुपड़ी मत ललचावे जीव।।“

~ कबीर साहब

"रुखी सुखी खाय के, ठंडा पानी पिव" – जो मिल गया, खा लो। और मैं नहीं कह रहा हूँ कि अच्छा मिल गया तो नहीं ही खाना है, मिल गया तो वो भी खा लो, उसमें क्या है? ज़बान को बहुत चटोरा बनाओ मत। "देख पराई चुपड़ी मत ललचावे जीव" – कि बहुत चुपड़ी-चुपड़ी चीज़ दिख रही है किसी के पास तो ललचाने लग गए । ‘हमें भी चुपड़ा मिल जाए कुछ’ – ये भी गहरा देह भाव है, खाना, खाना, खाना, लगे हुए हैं, खाना।

और ये माँ के हाथ का खाना क्या होता है? तुम माँ के हाथ के खाने की इतनी बात करते हो, तुम्हें समझ में नहीं आ रहा है कि वो जो तुम्हारे सामने लाया गया है, वो ज़िंदा चीज़ तो है नहीं। तो प्राण ऊर्जा वगैरह कहाँ से आ जाएगी उसमें?

वो तो क्या हैं? वो मॉलिक्यूलस (अणु) हैं, वो केमिकल्स (रसायन) हैं। और सोडियम और पानी को चाहे आपस में मैं मिला दूँ, चाहे आपस में आप मिला दो, चाहे आपस में आप मिला दो, बनेगा तो सोडियम हाइड्रोक्साइड ही। तो ये हाथ का खाना क्या होता है फिर? या मैं कहूँ कि 'ये मेरे हाथ का सोडियम हाइड्रोक्साइड है, इसमें प्राण ऊर्जा ज़्यादा है'?

खाना भी तो केमिकल्स ही होते हैं। कुछ और होते हैं? अब ऐसे तो कभी सोचा ही नहीं, कि ‘लौकी केमिकल है?’ हाँ, और क्या है? मिक्सचर ऑफ वेरियस काइंड्स ऑफ ऑर्गेनिक केमिकल्स (सभी प्रकार के कार्बनिक रसायनों का मिश्रण), कुछ इनॉर्गेनिक (अकार्बनिक) भी हैं उसमें सॉल्ट (नमक) वगैरह, बाकी तो सब एक ऑर्गेनिक केमिकल्स का एक तरह का मिक्सचर (मिश्रण) है। पानी बहुत है उसमें, लगभग ८० प्रतिशत पानी है। बाकी सब ऑर्गेनिक मैटर (कार्बनिक पदार्थ) है।

और हाथ का खाना क्या होता है? हाथ भी डालते हैं क्या उसमें, कि हाथ का खाना, हाथ भी मिला दिया है? क्योंकि माँ के पास जो एक अलग चीज़ है वो तो उसका हाथ ही है जो अलग है किसी और के हाथ से। तो माँ बनाए कि बावर्ची बनाए, मेड बनाए, कोई बनाए, केमिकल तो केमिकल है, उसमें अलग से कौनसी प्राण ऊर्जा आ जाएगी?

लेकिन इस खाने के चक्कर में हमनें माँओं को बर्बाद कर दिया। माँ से क्या करवाना है? 'पूड़ी बहुत अच्छा बनाती है, माँ चल पूड़ी बना।' वो पूड़ी ही बनाए जा रही है ज़िंदगी भर। मैंने पूछा था, 'माँ का जन्म पराँठे बनाने के लिए हुआ था?' तुम तो ज्ञान अर्जित करो, धन अर्जित करो, अनुभव अर्जित करो, अमेरिका की फ्लाइट (उड़ान) पकड़ो, और माँ का गौरव इसमें है कि वो तुम्हारे लिए खीर-पूड़ी बनाए? वो कभी बाहर ही ना आए रसोई से, ये माँ का काम है, चाहे बीवी का, चाहे बहन। और माँ रसोई में ही पड़ी रहे, इसके लिए क्या करो? उसके लिए साज़िश ये है कि खाने को बहुत बड़ी चीज़ बना दो, बोल दो, 'खाना बहुत बड़ी चीज़ है, खाना बहुत बड़ी चीज़ है। खाना!'

खाना खा लो यार। इतनी दुकानें हैं, बहुत मिलता है, खा लो यार। 'जी, दुकान का खाना खा-खा कर तो हम...' मेरी सबसे बढ़िया सेहत रही है जब छः साल मैं हॉस्टल (छात्रावास) में रहा हूँ, मस्त। वहाँ नहीं मुझे घर का खाना मिलता था। और मेरे घर का खाना कोई ज़हरीला नहीं होता है। (श्रोतागण हँसते हैं) मेरी भी माँ हैं, और बहुत बढ़िया खाना बनातीं हैं। लेकिन मुझे नहीं कोई तकलीफ़ हो गई थी। छः साल हॉस्टल में रहा बिलकुल मस्त, बल्कि एकदम ऐसे दुबला हो गया था। आई.आई.एम से जब लौटा था तो ६८ किलो का था, पहलवान जैसा जिस्म था, और घर का कोई खाना नहीं मिल रहा था मुझे। तो ये क्या आग्रह है कि ‘माँ के हाथ का खाना’?

और बड़ी बुरी नज़र से देखा जाता है, कोई महिला रसोई की ओर कम ध्यान दे, तो कहेंगे, 'ये देखो, कुलटा। खाना नहीं बनाती, खाना बना!' और कई बार तो वो पाँच-छः अलग तरीके का खाना बनाती है। क्यों? क्योंकि ससुर जी को डायबिटीज़ (मधुमेह) है, तो उनके लिए बिना शक्कर का और बिना चावल का अलग तरह का बनाना है।

सास को गठिया है, तो उनके लिए अलग तरीके का बनाना है। छोटे बच्चे हैं, उनके लिए कुछ और बनाना है; जवान लड़का है, वो स्वाद माँगता है, उसके लिए अलग बिरयानी बनाना है। तो तीन दफ़े सात लोगों के लिए बनाना है, वो भी भाँति-भाँति का – ये नारी जीवन का सार्थक सदुपयोग हो रहा है? और फिर कहेंगे कि 'नहीं, हमें तो गुरुजी ने बताया है कि जब पत्नी बनाती है तो उसके हाथों में विशेष रस होता है।' ये हाथ में कौनसा रस होता है, बताओ? हम भी जानना चाहते हैं।

जितनी यहाँ महिलाएँ हैं वो पानी में हाथ डालें, हमें बताइए रस कौनसा खास होता है? ये क्या अनपढ़ बातें हैं कि माँ बनाएगी तो उसमें उसके भाव की प्राण ऊर्जा आ जाती है, वो अपने इमोशंस (भावनाओं) से बनाती है। खाने में इमोशंस (भावनाएँ) डलते हैं? सोडियम प्लस वाटर प्लस इमोशंस? (सोडियम और पानी और भावनाएँ?) तो क्या बनेगा? सोडियम हाइड्रोक्साइड इमोशनोफ़िल? अरे यार, केमिकल से केमिकल बनेगा तो केमिकल ही तो होगा! और क्या होगा उसमें?

'ये आचार्य जी भावना नहीं समझते। ये बस केमिकल की बातें करते रहते हैं। इन्हें प्यार की मिठास का कुछ पता नहीं।' प्यार की मिठास माने क्या? 'जब हमारे यहाँ चाय उबल जाती है, तो हम अपनी बीवी से उस उबलती हुई चाय में ऊँगली डलवाते हैं, शक्कर बच जाती है – ये होती है प्यार की मिठास।' (व्यंग करते हुए) ये प्यार की मिठास है! बीवी उबलती हुई चाय में अपनी ऊँगली डालती है तो चाय मीठी हो जाती है। शक्कर का खर्चा भी बच जाता है, और बीवी तो सावित्री है, तो उसकी ऊँगली को थोड़े ही कुछ होगा। भारत में पतिव्रता स्त्रियाँ अग्नि से भी गुज़र जाएँ तो उनका बाल नहीं बाँका होता।

वैसे भी सबसे अच्छा खाना वो होता है जो सबसे कम प्रोसेस्ड (प्रक्रमणित) और सबसे कम कुक्ड (पकाया गया) हो। ये एक मूल सिद्धांत है, जानते हो कि नहीं जानते हो? तो माँओं को और पत्नियों को क्यों दुखी कर रहे हो? सेब खा लो, गाजर खा लो, गोभी खा लो। ये जो बनवाते हो पराँठे-रोटी, ये तो ऐसे ही सेहत के लिए बहुत हानिकारक हैं, ग्लूटेन ही ग्लूटेन भरा हुआ है उसमें। आज से १०० साल पहले तो गेहूँ इतना चलता भी नहीं था। तमाम तरीके के अन्न होते थे, ज्वार, बाजरा, रागी, सब होता था, और लोग अपना मज़े में खाते थे। अभी तुमको आलू का पराठा बनवाना है और फिर कहते हो कि 'अरे, हार्ट अटैक (हृदयाघात) क्यों आ गया?' वो बीवी का प्यार है (श्रोतागण हँसते हैं)। उसने बढ़िया अपनी सारी प्राण ऊर्जा और मिठास जो है, वो आलू के पराठे में डाल दी है, ऊपर से मक्खन और लगाया है बढ़िया, शुद्ध भारतीय गाय का। क्या बोलते हैं उसको? ए.टू , हाँ, जिसका खूब आजकल विज्ञापन आता है कि इसका घी खाओ। मैं कहता हूँ, कभी उस विज्ञापन में गाय की भी तो सहमति दिखा दिया करो कि गाय भी बोल रही है, 'हाँ, मैं तुम्हारे लिए घी दे रही हूँ, खाओ'।

और ये तो छोड़ दो कि समाज ताने मारेगा, महिलाओं के मन में भी ये बड़ी ग्लानि, अपराध बोध बैठ जाता है। वर्किंग विमन (कार्यरत महिलाएँ) कई बार आतीं हैं, कहतीं हैं, 'मुझे भीतर-ही-भीतर ये बात बहुत गिल्ट (ग्लानि) देती है।' क्या? 'मैं अपने पति और बच्चों को अपने हाथ से बनाकर नहीं खिला पाती।' एक देवीजी को आना था यहाँ शिविर में, वो आयीं नहीं। मैंने पूछा, 'क्यों?' बोलीं, 'आपके जो सारे शिविर हैं न, वो वीकेंड (सप्ताहाँत) पर होते हैं।' मैंने कहा, 'तो?' बोलीं, 'वीकेंड पर मैं अपने हाथों से कुकिंग करती हूँ।' मैंने पूछा, 'क्यों करती हो?' 'क्योंकि वीकडे पर नहीं कर पाती न, तो अपनी गिल्ट (अपराधभाव) कम करने के लिए मैं वीकेंड पर खूब बना-बनाकर खिलाती हूँ।'

अरे! बनाकर खिलाने का सारा ज़िम्मा स्त्रियों ने ही ले रखा है? मैं तो होटल्स (भोजनालयों) वगैरह में देखता हूँ, बड़े-बड़े शेफ़ (बावर्ची) तो सारे मर्द होते हैं, शादियों में हलवाई भी सारे मर्द होते हैं। तो वो जो बनाते हैं वो खाकर लोग मर जाते हैं क्या? या सारी प्राण ऊर्जा, सारी मिठास महिलाओं के ही हाथ में होती है? हमारे हलवाई के आत्मसम्मान का भी तो कुछ ख़याल करो। नहीं तो होगा कि तोंद उसकी इतनी बड़ी है और आत्मसम्मान इतना छोटा। कह रहे हैं, 'हम बनाते हैं तो इसमें कहाँ से मिठास और प्राण ऊर्जा आएगी? महिला बनाती है तभी तो आती है।'

आप तमाम तरीके के सृजनात्मक काम कर सकतीं हैं जीवन में, और खाना बनाना तमाम तरीके के कामों में, मैं समझता हूँ, निचले दर्जे के कामों में से एक है। अभी मेरी यह बात सुनकर खलबली मच जाएगी, बहुत सारे घरों में धुग-धुग-धुग-धुग-धुग हो जाएगा, खासतौर पर जहाँ पर जितने चटोरे मर्द होंगे उस घर में उतनी खलबली मचेगी मेरी ये बात सुनकर। कहेंगे, 'ये देखो, इसको रसोड़े से आज़ाद किए दे रहे हैं। रसोईघर ही तो पूजाघर है, आचार्य जी। आप भारतीय नारी के उज्ज्वल आदर्श को धूमिल किए दे रहे हैं? पूरा वेदान्त हल्दी के डब्बे में समा जाता है। अष्टावक्र की धार घी के पात्र से बहती है। भगवद्गीता का क्या मुकाबला जीरे और हींग से!'

(व्यंग करते हुए) कोर स्पेशलाइज़ेशन (मुख्य विशेषता) है ज़िंदगी की यही। कोर स्पेशलाइज़ेशन क्या है? हींग। तुम्हें क्या आता है? 'मुझे हींग आती है।' (सर पटकते हुए) ले, ज़िंदगी में क्या अर्जित करा? जीरा, हींग। और वो भी ऐसा नहीं है कि गृहणियाँ बहुत कोई ज़बरदस्त ही खाना बना देतीं हैं – थोड़ा-सा मुझे साफ़ बात बोलने दीजिए – वो एक ही तरह का खाना बनातीं हैं, ४० साल वही बनाती रहतीं हैं। कई बार आप देखिएगा, पूरा परिवार जब जाएगा अगर, किसी रेस्टोरेंट में बैठेगा, तो जो घर की महिला होती है, बार-बार बोलेगी, 'इसमें क्या खास है?' उसको ईर्ष्या हो जाती है।

ईर्ष्या क्यों हो जाती है? क्योंकि जितने लोग बैठे होते हैं, वो सब बड़े चाव से खा रहे होते हैं। क्योंकि वो जो शेफ़ ने बनाया है, वो चीज़ दूसरी है। वो उस महिला को बनाने आयी ही नहीं ४० साल में। तो कुल क्या बनाना आता है? वही, अरहर की दाल, और उसमें थोड़ा जीरा डाल दिया। और वहाँ वो बैठा हुए है शेफ़ (बावर्ची), वो ७० तरीके के व्यंजन बना रहा है और महिला को ईर्ष्या हो गई, 'इसमें क्या है, ये तो हम भी बना सकते हैं। और यही हम बना दें तो तुमलोग नहीं खाओगे। यहाँ पर आकर होटल में, जब २००० का बिल आ रहा है, तो तुमलोग खा रहे हो!' ये सब सुना है कि नहीं सुना है?

उनको आईडेंटिटी क्राइसिस हो गई भाई, कि ‘अगर ये काम भी शेफ़ मुझसे बेहतर कर ले रहा है, तो फिर मैं किस मूल्य की बची? क्योंकि कुल एक काम आता है मुझे, क्या? खाना बनाना। और वो काम भी दिखाई पड़ रहा है कि शेफ़ मुझसे बेहतर करता है, तो फिर रह क्या गया? मेरा कुछ नहीं रह गया।‘ तो फिर परेशान हो जाती हैं, बोलती हैं, 'छी, गंदा है। ये तुमको रोटी इसलिए ज़्यादा पसंद आ रही है, इसमें मैदा ज़्यादा है न? ये आँत में चिपक जाएगा, कल टट्टी होगी नहीं।' और ये अलग बात है कि तभी उन्होंने एक नान ख़ुद उठा लिया, देवीजी ने। क्योंकि उनको भी पता है कि शेफ़ ने जो बनाया है वो बेहतर है उनके अपने भोजन से। और वो कई बार सिर्फ़ स्वाद में ही नहीं, पौष्टिकता में भी बेहतर होता है।

मैं एक बात पूछ रहा हूँ, आप इतना बोलते हो कि घर की नारी के द्वारा बनाया गया भोजन अमृत होता है – भारत दुनिया की हार्ट अटैक कैपिटल (दिल के दौरों की राजधानी) है, ये तो जानते होंगे? कार्डिएक डिज़ीज़ (हृदय रोग) में हम दुनिया में नंबर एक हैं। और इतना पैसा तो है नहीं भारत में कि हर आदमी रेस्टोरेंट में खा रहा है, अमेरिका तो है नहीं ये। ९०-९५ प्रतिशत हर आदमी घर का ही खाना खा रहा है, तो भारत में ही दुनिया में सबसे ज़्यादा हार्ट अटैक क्यों पड़ रहे हैं?

तुम्हें दिखाई नहीं दे रहा कि घर की गृहणी जो खाना बना रही है वो खाना भी गड़बड़ है, और तुम बता रहे हो उसमें प्राण ऊर्जा है! मरे जा रहे हैं सब, प्राण त्यागे दे रहे हैं, वहाँ आई.सी.यू में, सब वही बैठे हुए हैं जिन्होंने ज़िंदगी भर घर का ही खाना खाया है, उनके छटपटाए हैं प्राण, और बोल रहे हैं प्राण ऊर्जा है घर के खाने में। 'ये तो माँ के हाथों का रस है।' तो डायबिटीज़ काहे को हो गया तुमको? काहे को हो गया? दुनिया की ना जाने कितनी बीमारियाँ हैं जो भारतीयों को ही ज़्यादा होती हैं। खाए हुए हैं घर का खाना, खाओ घर का खाना, खाओ।

सेब सेब होता है, ख़ुद ही उठाकर खा लो, बीवी को क्यों परेशान कर रहे हो? उसे ज़िंदगी में कोई सार्थक काम करने दो। और किसी बहुत विशेष व्यंजन की लालसा हो तो विशेषज्ञ बैठे हुए हैं रेस्टोरेंट में, उनसे मँगवा लो। और ये भी मत बोल देना कि वहाँ जो मिलता है रेस्टोरेंट में, उसमें तो घी-तेल ज़्यादा होता है – नहीं, ऐसा नहीं है। बहुत तरह के रेस्टोरेंट हैं, फ़ूड सप्लायर्स (खाद्य आपूर्तिकर्ता) हैं जो बिना घी-तेल का पौष्टिक खाना भी तुम्हारे घर पहुँचा देंगे। इस ज़िम्मेदारी से घर की नारियों को मुक्त करो।

रसोई में समाधि नहीं लगती। 'पर बच्चों के प्रति हमारा प्यार है, बच्चों को तो अपने हाथ का खिलाना चाहते हैं न।' बच्चों को ज्ञान दो, जो कि तुम नहीं देते। शरीर का भोजन बाद में आता है, पहले मन को सही भोजन देना सीखो। शरीर को भोजन मिलता रहा, मन को नहीं मिला, तो शरीर का भोजन खा-खा कर, खा-खा कर वो राक्षस निकलेगा।

'राक्षस' कौन है? जिसने शरीर में खूब खा रखा है और मन में कचरा भरा हुआ है, उसको ही तो राक्षस बोलते हैं। राक्षस पैदा कर रहे हो क्या घर में अपने उन्हें खिला-खिला कर? तुम सारा समय अपना खाना बनाने और खिलाने में लगाओगे तो ख़ुद कब ज्ञान पाओगे और बच्चे को कब ज्ञान दोगे?

खाना बनाना कोई इतनी विशेषज्ञता का काम नहीं है। अगर आपके पास संसाधन हैं तो कृपा करके किसी को सहायता के लिए रख लीजिए। पैसा देना पड़ेगा, बहुत ज़्यादा पैसा नहीं देना पड़ता, कोई आकर खाना बना देगा। अगर ये आग्रह है कि ‘नहीं, मुझे ख़ुद ही बनाना है’, तो भी रसोई में कम-से-कम समय गुज़ारिए। और कम-से-कम समय गुज़ारने का मतलब ये नहीं है कि बाज़ार से पैकेज्ड (पैक किया हुआ) माल ले आकर खिला दिया सबको। कम-से-कम समय गुज़ारने का मतलब ये है कि पकाओ कम। पकाने में ही तो बहुत समय लगता है न? कहते हैं, 'धीमी आँच पर चार घंटे तक इसको धीरे-धीरे उबालना होता है, तब स्वाद आता है। अहा ज़ायका आया!' ये क्या बेवकूफ़ी है – 'धीमी आँच पर चार घंटे तक'?

कह रहे हैं, 'दो दिन पहले भिगो कर रख दो।' अब दो दिन से वो भीग रहा है, उससे क्या बनेगा? कुल कोई ऐसी चीज़ जो पाँच मिनट में ख़त्म हो जानी है, पेट में चली जानी है, फिर उसका मल बन जाना है। और दो दिन पहले भिगो कर रखी गई है, और गृहणी एकदम बिलकुल ऐसे घूम रहीं हैं गौरव में, 'मैं दो दिन पहले भिगो कर रखती हूँ और फिर बहुत बढ़िया खाना बनाती हूँ। फिर उसे धीमी आँच में चार घंटे तक हौले-हौले पकाती हूँ।' तुम्हारे जीवन के चार घंटे इसलिए थे कि धीमी आँच में हौले-हौले उसको उबालो? तुम जीवन का अर्थ समझते हो? जीवन समय है। तुम्हारा समय धीमी आँच में हौले-हौले पकाने के लिए था?

पर मज़ा बड़ा आता है, 'पति के दिल का रास्ता उसके पेट से होकर जाता है।' ये बड़ी बुढ़ियों ने घर में सीख दी है, 'पति को अगर मुट्ठी में रखना है तो उसके पेट में घुस जाओ।' ये नहीं पता कि पेट में जो कुछ भी घुसता है उसका क्या होता है, वो फ्लश किया जाता है, टट्टी बनता है। यही बनना है? पेट से कभी कुछ भी दिल की तरफ़ आया है क्या? थोड़ा-सा भी बायोलॉजी (जीवविज्ञान) नहीं पढ़ी? पेट का दिल से कोई सम्बन्ध है? पेट से कोई भी नस-नाड़ी ऐसी नहीं है जो दिल में आती हो। या तो मुँह में आती है मुखद्वार की ओर, नहीं तो मलद्वार की ओर। सही है, घुसो पति के पेट में, वो मल बना देता है फिर।

आधी आबादी महिलाओं की है, फिर हम बात करते हैं कि देश की तरक्की क्यों नहीं हो रही! इस देश की आधी आबादी अपना आधा या आधे से ज़्यादा समय कहाँ लगा रही है? रसोड़े में। अब तरक्की होगी देश की? पढ़-लिख गई है, बी.ए कर लिया, बी.एस.सी कर लिया, बी.टेक कर लिया, एम.बी.बी.एस कर लिया, फिर पी.एच.डी भी कर ली, फिर पोस्ट डॉक्टरेट भी कर ली – अब क्या करती है? अब रसोड़ा करती है। गज़ब हो गया! (व्यंग करते हुए) ये व्यक्तिगत उन्नति चल रही है, इससे समाज की, राष्ट्र की उन्नति होगी, रसोड़े से।

और मैं पुरुषों से पूछना चाहता हूँ, तुम्हें अपने हाथ से बनाकर खाने में क्या दिक्क़त है भाई? कहते हो कि स्त्रियों के हाथ में रस होता है, हमारे हाथ में क्या है? कचरा? हम अपना खाना ख़ुद क्यों नहीं बनाकर खा सकते? ये किस तरह की निर्भरता है? पुरुषों से पूछ रहा हूँ अब। बहुत सारे तो इसी चक्कर में शादी कर लेते हैं, कहते हैं, ‘खाना मिलेगा’। और फिर ज़िंदगी भर रोते हो कि खाना मिल जाए, खाना... तकलीफ़ क्या है? सब्जियाँ लो, काटो और उनको हल्के से तेल में सॉटै (हल्के से तलना) कर लो, और अपना मस्त खाओ। क्या दिक्क़त है?

यहाँ तक कि जो लड़के हॉस्टल में रहे होते हैं, और हॉस्टल में कई बार अपनी पैंट्री (छोटा रसोड़ा) होती है। जिन्होंने ये जाना होता है किस तरह ख़ुद ही अपना काम-धाम कर लेना है, वो भी जब घर जाते हैं, वो कहते हैं, 'माँ बनाएगी तो ही खाएँगे।' और माँ नहीं बनाएगी तो भूखे रह जाएँगे और जताएँगे कि 'देखो, तुमने नहीं पकाया तो हम भूखे हैं', ताकि बेचारी को और ग्लानि हो। जब शादी हो जाएगी तब खाना बनाने का काम बीवी का है, जीने मत दो उसको, 'खाना बना!'

ख़ुद बनाओ; कुछ नहीं है खाने में ऐसा। और जल्दी से बनाना सीखो, कि जो खाना है १५ मिनट में तैयार, खाए-पिए, मस्त सो गए। लंबे-चौड़े व्यंजन जिस दिन खाने हों, उस दिन रेस्टोरेंट चले जाओ। रोज़ का खाना अपने हाथ से तैयार करना सीख लो। चावल-दाल बनाने में बहुत बड़ा विज्ञान है क्या, कि उसके लिए एक विशेषज्ञ महिला चाहिए? तो ख़ुद कर लो न।

'रोटी बेलनी नहीं आती', उसकी भी मशीन आती है। आटा अंदर जाएगा, रोटी बाहर आएगी। कोविड में हमने सब कर लिया, लॉकडाउन लगा था, कोई आता थोड़े ही था खाना बनाने के लिए। महिलाएँ वैसे ही नहीं हैं, कुक भी गायब हो गया। ख़ुद ही बनाते थे, ढाई-ढाई किलो के पराँठे बनाए। सब सीख लिया, खट से सीख लिया, कोई समय नहीं लगा।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
Comments
Categories