प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मेरी उम्र ४८ साल है मेरी पत्नी की उम्र ४२ साल है और २८ साल हमारी शादी को हो गये है। मेरी पत्नी हमेशा कहती है, पैसे कमाओ, पैसे कमाओ। दो लड़कियाँ हो गयीं, लड़का नहीं हुआ, तो मैं ये सोचता रहता हूँ।
आचार्य प्रशांत: तो अपने देश की दो बाशंदों का जिक्र तो कर दिया। पहला बाशिंदा है पत्नी। वो कहती है, पैसे कमाओ, पैसे कमाओ। और मनोज कहते हैं, दो लड़कियाँ हो गयीं, लड़का क्यों नहीं हुआ।
प्रश्नकर्ता: मैं अपनी पत्नी को भी बोध सत्र में लाना चाहता हूँ, लेकिन वो तो इसी बात के पीछे पड़ी रहती है कि पैसा कितना लगेगा, कितना देना होगा, क्या मिलेगा। आचार्य श्री, कृपया मार्गदर्शन करें कि इस बिराने देश को केसे बदलूँ?, या फिर छोड़ ही दूँ?
आचार्य प्रशांत: मनोज, ऐसे छूटता है क्या? अपने भीतर लेकर घूम रहे हो। ऐसे छूटता है क्या? चप्पल है क्या कि उतार दोगे। बाल हैं क्या कि कटा दोगे। पानी है क्या कि फेंक दोगे। आग है क्या कि बुझा दोगे। ये जिसको तुम देश बता रहे हो, ये तुम्हारी गहरी-से-गहरी वृत्ति है। ऐसे ही थोड़ी २८ साल तुम अपनी पत्नी के साथ रह लिये। ऐसे ही थोड़ी तुमने दो सन्तानें भी जन्म दे दीं। ये कोई पहली बार थोड़ी हुआ है कि पत्नी ने कहा, पैसे कमाओ, पैसे कमाओ। या अचानक तुम्हें सदमा लगा है। कल रात कोई यकायक बोल उठी पैसे कमाओ, पैसे कमाओ। विवाह के अगले दिन से बोलने लगी होगी, पैसे कमाओ, पैसे कमाओ।
और कई बार तो तुम्हें उसकी ये वाणी बड़ी मीठी भी लगी होगी कि मेरी पत्नी अकेली है जो मेरी तरक्की देखना चाहती है। वही कहती है, पैसे कमाओ। दिक्कत शायद ये है कि तुम पैसे कमा नहीं पा रहे हो। समस्या तुम्हारी क्या ये है कि पत्नी कहती है, पैसे कमाओ, पैसे कमाओ या समस्या ये है कि तुम पैसे कमा नहीं पा रहे हो? पैसों को लेकर के तुम्हारे मन में कोई आसक्ति न होती, कोई आकर्षण न होता, तो तुम्हें ये बात चुभती ही क्यों कि पत्नी कहती है, पैसे कमाओ। पत्नी तो पचास चीज़ें और भी कहती होंगी। कहने दो न।
तुम्हें यदि असली बात पता हो तो तुम उन सब बातों की उपेक्षा कर जाओगे। और पैसा तो हमेशा असली चीज़ का विकल्प होता है। जब जीवन में मुक्ति नहीं होती, सत्य नहीं होता, प्रेम नहीं होता तो आदमी उस रिक्तता की पूर्ति करना चाहता है, पैसे से। पत्नी क्यों शोर मचा रही है पैसे के लिए? सोचो तो सही। और रिक्तता अगर वो मौजूद ही है, तो ये भी बता दो कि कहाँ मौजूद है? तुम्हारे भीतर ही मौजूद है न? तो फिर देश छोड़ कैसे दोगे? रिक्तता जब भीतर है तो उसको छोड़ कैसे दोगे? जहाँ जाओगे उस रिक्तता को साथ लेकर के जाओगे।
देखते नहीं हो कि तुम्हारा और तुम्हारी पत्नी का आचरण एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। तुम्हें क्यों चाहिए, लड़का भाई? पत्नी तो बड़ी बुरी है, कहती है पैसे कमाओ। भईया तुम भी तो बताओ, तुम्हें लड़का क्यों चाहिए? पैसे का अर्थ होता है, बल। लड़का भी क्यों चाहिए होता है? बल के लिए ही तो। और देखा जाए तो दुनिया की बाज़ार में लड़के की कीमत भी ज़्यादा लगती है। तो लड़के का भी तो सीधा-सीधा सम्बन्ध पैसे से ही हुआ न? तो तुम और तुम्हारी पत्नी तो बिलकुल ठीक जोड़ी हैं। दोनो एक ही चाल चल रहे हो। बिलकुल तुम्हारा अपना देश है। क्यों कह रहे हो कि देश बिराना है?
पत्नी आ जाएगी बोध सत्र में। अपनेआप आ जाएगी। थोड़ा उसे प्रमाण तो दो। वो नहीं आती सत्र में, तुम तो आते हो न? तो पत्नी को प्रमाण किसकी हस्ती से मिलेगा? तुम्हारी हस्ती से। पत्नी ने तो स्वाद चखा हीं नहीं, तुमने तो चखा है। पत्नी तो किसी प्रक्रिया से गुजरी ही नहीं, तुम तो गुजरे हो। तो बताओ तुम्हें क्या लाभ हुआ? और अगर तुम्हें कोई लाभ नहीं हुआ तो पत्नी भी सत्र में क्यों आये? वो जो लाभ है, वो झलकना तो चाहिए। जताने और बताने की चीज़ थोड़ी होती है, आध्यात्मिक उन्नति। तुम्हारे दर्शन में गहराई आनी चाहिए, तुम्हारे आचरण में शान्ति आनी चाहिए, नज़र तुम्हारी पैनी हो जानी चाहिए, प्रेम तुम्हारा निर्मल हो जाना चाहिए।
और जब ये सबकुछ होता है, तो सबको पता चल जाता है। पत्नी को भी बिलकुल जाहिर हो जाता। और जब जाहिर होता तो वो खुद तुमसे मिन्नत करती कि मुझे सत्र में ले चलो न। तो तुम अपनी प्रगति को उस मुकाम तक आने दो जहाँ दूसरे तुमसे देखकर के पूछें कि तुममें ये सब परिवर्तन कैसे आ रहें हैं, ये जादू कैसे हो रहा है। और फिर तुम उनको कहो, वो जादू इसलिए हो रहा है, क्योंकि पाया है, कुछ पाया है। फिर वो अपनेआप तुम्हारे पीछे-पीछे चले आएँगे।
कई बार तो ऐसा भी हो जाता है मनोज कि जो नया-नया साधक होता है, वो औरों को अपने गुरु के पास इसलिए भी लाना चाहता है ताकि वो उन पर मानसिक रूप से दबाव बना सके। ताकि वो उनपर मानसिक रूप से हावी हो सके। अच्छा लगता है न बताना कि देखो कितनी ऊँची चीज़ थी। किसे मिली? मुझे मिली। और अब मैं तुम्हें दिखा रहा हूँ। और अगर गुरु की कुछ बातें जचती हों, किसिका, गुरु की कुछ बातें तुम्हारे विचारों से मेल खाती हों, तो तुम्हे और अच्छा लगता है कि गुरु की उन्हीं बातों को सहारा बनाकर फिर तुम दूसरों पर तर्क के तीर छोड़ सकते हो।
तुम कहते हो, ‘देखो हम जो कह रहे हैं, वो हम ही नहीं कह रहे हैं। बड़े-बड़े लोग कहते हैं। हम तो जब कहते थे, तब तुम हमसे तर्क करती थी। हमारी बात काट देती थी। अब सुनो जो बात हम कहते थे वही बात गुरुजी कह रहे हैं। तो गुरुजी की बात मानों। तुम ये थोड़ी चाहते हो कि वो गुरुजी की बात माने। तुम चाहते हो वो गुरुजी की वो बात मानें जो तुम्हारी बात से मेल खाती है। तो ले-देकर तुम यही चाहते हो कि वो तुम्हारी बात मानें। मैं नहीं कह रहा हूँ कि तुम्हारे मामले में भी आवश्यक रूप से ऐसा ही हो रहा है। पर अक्सर ऐसा भी होता है। सावधान रहना।
तुम जाओ किसी गुरु के पास जो तुम्हारी अहंता को छिन्न-भिन्न कर देता हो, जो तुम्हारी धारणाओं को तोड़े चले जा रहा हो, जिसकी हर बात तुम्हारी धारणाओं के विपरित जाती हो, धारणाओं पर आघात करती हो, जिसके पास तुम्हारी अहंता बिलकुल लहू-लुहान हो जाता हो, चोटिल हो जाता हो, जिसके सामने तुम अनुभव करते हो कि हम तो महामूर्ख हैं, क्या तुम ऐसे गुरु के सामने, अपने दोस्तों, यारों, परिवार जनों को ले जाना चाहोगे? बोलो? क्या तुम सबके सामने जाहिर करना चाहोगे कि तुम मूर्ख हो? नहीं करना चाहोगे।
बहुत लोगों की इच्छा होती है कि वो गुरु को साधन बना लें दूसरों पर राज करने का। वो गुरु को साधन बना लें दूसरों से अपनी बात मनवाने का। सावधान रहना कहीं ऐसा न हो जाए। रही पत्नी को मनवाने की बात, सत्र में लाने की बात, वो स्वयं आएगी। पत्नी है तुम्हारी, २८ साल की हमसफर है। अच्छा हीं लगेगा उसे, अगर तुममें प्रगति देखेगी, तुममें गहराई देखेगी, तुममें शीतलता देखेगी, तुम्हारे ध्यान को पाएगी कि और मजबूत हो रहा है। तुम्हारे प्रेम को पाएगी कि और मीठा हो रहा है। अच्छा ही लगेगा उसे। फिर खुद-व-खुद आएगी।