प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। जैसे मैं लोगों को सामान्यतया सुझाव देता हूँ कि आप ए.पी. सर्कल में जुड़िए, वहाँ पर संस्था की क्लोज़ गतिविधियाँ होतीं हैं वो देखने को मिलतीं हैं। तो काफ़ी लोगों ने पूछा है कि आपकी संस्था में ये ख़रगोश क्या कर रहा है। साधारणतया लोग जैसे कुत्ते-बिल्ली पालते हैं या फिर इस तरीके के पेट्स रखते हैं। तो इसका कुछ आध्यात्मिक कोण भी है?
आचार्य प्रशांत: अरे भैया, वो सब रेस्क्यूड (बचाए गए) ख़रगोश हैं!
पहले उधर कैंचीधाम वगैरह में शिविर हुआ करते थे, आपमें से कुछ लोग वहाँ गए भी होंगे। तो वहाँ पर दो–तीन दफ़े ऐसा हुआ कि लोगों ने पाल रखे थे पर छोटे-छोटे पिंजरों में रखे हुए थे। तो वहाँ से हम इनको ले आए, इनको रेस्क्यू कराया था। ले आए तो उसके बाद अब ये यहाँ पलने लगे, जब पलने लगे तब इनके लिए एक लॉन बनाया गया; फिर लॉन बना तो इनके लिए एक घर भी बनाया गया। तो अभी वो घर में रहते हैं, लॉन में खेलते हैं।
तो ये है, बाकी कोई आध्यात्मिक महत्व नहीं है कि किसी का कोई विशेष; वैसा कुछ नहीं है।
अब तो इनसे बहुत पुराना नाता हो गया है न! जो पहले ख़रगोश आए थे, दो थे, उनका नाम रखा गया था ‘हनी’ और ‘बनी’; वो आए थे शायद दस साल पहले।
ये सचमुच लोग पूछते हैं कि ख़रगोशों का आध्यात्मिक महत्व क्या है?
(श्रोतागण हँसते हैं)
प्र: हाँ, कुछ कहते हैं कि जैसे रमण महर्षि के पास एक गाय आती थी उनको सुनने, तो क्या आचार्य जी के पास ख़रगोश भी आया करते हैं।
(श्रोतागण हँसते हैं)
आचार्य: नहीं, सुनने तो आते हैं। गोलू ख़रगोश था एक, उसकी तो तस्वीरें हैं बहुत सारी। जब भी सत्र होने लगता था तो वो ठीक सबसे आगे बैठ जाता था, सबसे सामने आता था; बैठ जाता था और हिलता नहीं था, अपना ऐसे ही बैठा रहता था।
तो सुनते तो हैं ही, उन्हें शांति अच्छी लगती होगी सत्रों की, तो वो सत्र में आकर बैठ जाते हैं; अब नहीं, पहले जब उनका घर वहीं पर था जहाँ सत्र होता था, तब आकर बैठ जाते थे।
उनका आध्यात्मिक महत्व भी है एक तरह से – ये है कि संस्था आज जहाँ पहुँची है, शायद उसमें उनका भी योगदान है। खासकर वीगनिज़्म (शुद्ध शाकाहार) पर जितना ज़ोर हम देते हैं, उसमें तो इनका योगदान निश्चित रूप से है। फ़िल्म आयी थी न एक, ‘शिप ऑफ थिसियस’, तो उसमें एक दृश्य था जिसमें ख़रगोश के ऊपर ही दवा वगैरह का परीक्षण कर रहे हैं। वो ख़रगोश बिलकुल वैसा ही था जैसा मेरे पास है – सफ़ेद रंग का। तो फ़िल्म को देखते-देखते ही, उसी समय पर मैंने निर्णय कर लिया था कि दूध तो आज से छुऊँगा नहीं। क्योंकि बात ख़रगोश की नहीं है, बात हर प्रजाति की है; क्यों ऐसी ज़िंदगी जियुँ जिसमें दूसरे का खून या दर्द समाया हुआ है? तो संस्था पर भी इन्होंने प्रभाव तो डाला-ही-डाला है।
असल में इनकी बड़ी कहानियाँ हैं। नंदू, गोलू, शमशेर – ये सब हैं जो अब रहे नहीं, और कम-से-कम मेरे लिए इनका बड़ा महत्व रहा है। तो मेरे लिए अगर इनका महत्व रहा है तो इस तरह से संस्था पर भी इनका महत्व पड़ा है। खासतौर पर नंदू ख़रगोश होता था; होती थी, पर मैं उसको नंदू बोलता था। उसके पाँव में चोट थी, बल्कि जन्म से ही उसके पाँव में विकृति थी, तो उसके पंजे पर बाल नहीं थे। इनका माँस बड़ा मुलायम होता है, तो उसे चलने में काफ़ी दिक्क़त होती थी, तो वो उछल नहीं सकती थी बाकी ख़रगोशों की तरह। ज़मीन पर चल लेती थी थोड़ा बहुत, पर उछल नहीं सकती थी। और ज़्यादा चले तो खून आ जाए, तो उसके पंजे पर पट्टी करके रखना होता था।
डॉक्टर को दिखाया काफ़ी, तो उन्होंने तो बोल दिया कि इसे यूथेनाइज़ (क्रूरता के बिना किसी जानवर को मारना) कर दो। बोले, ‘इसको अब बहुत देखभाल की ज़रूरत पड़ेगी, उतनी देखभाल आप दे नहीं पाएँगे। रोज़ इसकी पट्टी बदलनी पड़ेगी और इसके खान-पान का भी ज़्यादा ध्यान रखना होगा। तो इसको ख़त्म ही कर दो।‘ तो हमने कहा कि नहीं, मारेंगे नहीं। तो उसको मैं अपने ही साथ रखता था हर समय, बाहर भी जाता था तो वो मेरे साथ ही जाता था। मैं काम भी कर रहा होता था तो मैं ऐसे काम कर रहा हूँ लैपटॉप पर, और यहाँ पर (बगल में) उसका छोटा-सा तौलिया और गद्दा होता था, वो उस पर बैठा रहता था।
आमतौर पर कुत्ते बिल्लियों जैसा स्वभाव ख़रगोशों का नहीं होता है। कुत्ते-बिल्ली बहुत ज़्यादा मिलनसार होते हैं, ख़रगोश इतने नहीं होते। पर जैसे मैं बैठा रहूँ, ये यहाँ पर (बगल में) होता था, तो मेरा हाथ ऐसे मेज़ पर रखा है तो वो मेरा हाथ चाटना शुरू कर देता था; और ऐसा नहीं कि थोड़ा-बहुत, (बल्कि) पूरी हथेली। जैसे उसको सब समझ में आता हो, जानता हो कि उसकी देखभाल की जा रही है, प्रेम ही हो जैसे उसको।
फिर उन दिनों मैं जहाँ काम करता था, वहीं उसी के नीचे चादर बिछाकर ज़मीन पर ही सो जाया करता था। लगभग आठ-दस साल मेरी ऐसी ही दिनचर्या चली है, कि यहाँ मेज़ पर काम किया, यहाँ बगल में फिर सो गए। और जब मैं काम कर रहा होता तो नंदू यहाँ मेज़ पर ही होता था। तो रात में जब मैं लेट जाऊँ, सब चले जाएँ और एकदम सन्नाटा हो जाए, अब मुझे नींद आ ही रही होती, तब नंदू के चलने की आवाज़ आए। दिनभर नंदू न चले, रात को जब सब चले जाएँ तो वो धीरे-धीरे चलकर चादर पर आ जाए, और देखूँ कि नंदू बिलकुल छाती पर चढ़कर बैठ गया है। तो ये नंदू की दिनभर की कुल गतिविधि होती थी, इसी में उसकी एक्सरसाइज़ (व्यायाम) होती थी।
एक तरह की वो लव स्टोरी (प्रेम कहानी) ही थी, जहाँ पर वो मुझसे मिलने तभी आता था जब कोई और नहीं होता था; फिर मुझे नींद आ जाए थोड़ी देर में, और जब उठूँ तो पाऊँ कि वो वापस अपनी जगह पर चला गया है।
फिर उसको जीना तो था ही नहीं बहुत दिन, क्योंकि खरगोशों का पाचन-तंत्र बड़ा कमज़ोर होता है। तो उतना जब वो एक्टिविटी (गतिविधि) नहीं कर पाता था तो उसके पचने में समस्या आने लगी। और कुछ मेरा दोष; उस वक़्त मैं बहुत ज़्यादा जानता नहीं था तो इंसानों की खाने-पीने की चीज़ें एक दिन दे दीं उसको। एक दिन क्या, जब हम कुछ खाते थे तो उसका थोड़ा दे देते थे, और वो भी उसको स्वाद से खा ले। पता नहीं चला कि ये चूँकि कमज़ोर है और ये सब चीज़ें देनी नहीं चाहिए। उसके पेट में, गैस्ट्रो कुछ बोलते हैं ख़रगोशों का, वो हो गया; और मेरे ही हाथ में उसने दम तोड़ा।
उतना गहरा रिश्ता किसी पशु से मेरा पहले कभी नहीं बना था, और ये मैं बिलकुल साफ़ अनुभव कर पाया कि उस रिश्ते ने और उस घटना ने मुझे बदल-सा ही दिया भीतर से बिलकुल; और रोया बहुत, फिर उसको ले गया उधर दफ़नाने वगैरह के लिए।
उसके अगले दिन, नीमराणा में एक एनआईआईटी यूनिवर्सिटी है, तो वहाँ पर मुझे बोलना था। मैं वहाँ बोलने गया, ऐसे ही हॉल (सभागार) था, सामने सब बैठे थे श्रोता, और उस हॉल के बाएँ तरफ़ बड़ा भारी पारदर्शी शीशा था। शीशे के उस तरफ़ बहुत बड़ा लॉन था, और लॉन में घास थी, और घास नंदू खाता था। अब मैं बैठा हूँ, मुझे बोलना है, और उधर घास देख रहा हूँ और बस रोए जा रहा हूँ। किसी ने पूछ भी लिया, मैंने कहा, ‘आँखों में इंफ़ेक्शन है।‘ तो ऐसे करके दो घंटे का पूरा सेशन (सत्र) ही ले लिया मैंने, और आँखों से आँसू गिरे ही जा रहे। उसका वीडियो होगा; पर तब एक ही कैमरा से करते थे, दूर से रिकॉर्डिंग, तो पता नहीं उसमें आया होगा या नहीं।
एक कहीं पर मैंने बोला भी है न, कि जब तक किसी जानवर से आप दोस्ती नहीं करते तब तक आप इंसान भी पूरे नहीं बन पाओगे। मुझे तो लगता है मुझे उसी दोस्ती ने थोड़ा-सा इंसान बना दिया।
फिर उसके बाद और भी हुए; गोलू हुआ, शमशेर हुआ। शमशेर तो ऐसा था, उसका मुझ पर इतना भरोसा था कि वो उल्टा हो जाता था। ख़रगोश आमतौर पर बहुत डरपोक होते हैं, पर वो मेरे सामने उल्टा हो जाता था और सो जाता था; पीठ के बल हो जाता था, चारों पैर ऊपर करके सो जाता था, हाथ में। यहाँ हाथ में उसे बैठा दूँ, वो ऊपर को देखता रहे और मैं गुदगुदी करता रहूँ; वो ऊपर देखता रहे और सो जाए। ऐसा ख़रगोश करते ही नहीं कभी। पर पशुओं में भी प्रेम होता है, भरोसा होता है, आस्था होती है। मैं सोचता था, ‘ये इतना-सा है, मैं चाहूँ तो एक हाथ में इसका काम तमाम कर दूँ, पर इसको पूरा भरोसा है कि मैं ऐसा कुछ करूँगा नहीं, ये जानता है कि मैं कुछ नहीं करूँगा।‘
अब मन होता तो बहुत तार्किक है। उसके बाद जब नंदू चला गया तो मैंने सर्फ़िंग करी, तो उस समय, आज से छः-सात साल पहले एक वेबसाइट मिल गई – रेनबो ब्रीज़, - कुछ ऐसे। तो मैं उसको रात में पढ़ रहा था, उसमें लिखा था कि वो एक श्रद्धांजलि देने की वेबसाइट थी जिसमें जितने भी पेट ओनर्स होते थे वो आकर के लिखा करते थे उन पेट्स के बारे में जो अब रहे नहीं, तो वो वहाँ पर आकर उनके लिए संदेश छोड़ा करते थे। तो मैं उसको अपना बैठा पढ़ता रहा, कि लोगों ने अपने पेट्स के बारे में क्या लिखा है, और उसके होमपेज पर लिखा था कि एक जगह है ऐसी जहाँ वो सारे पशु पहुँच जाते हैं जो असमय मर गए होते हैं; कल्पना ही है, कुछ और नहीं।
‘और फिर जब आप मरते हो तो आप वहाँ जाते हो, तो फिर वो दूर से दौड़ते हुए आते हैं आपके पास।‘ मैं वो सब देख रहा था, रातभर पढ़ता रहा। फिर सुबह हो गई, मैं बाहर निकला। अब पता नहीं आँखों का धोखा था या क्या था, मैं देखता हूँ वहाँ आसमान पर रेनबो (इंद्रधनुष) है। फिर मैंने किसी से पूछा भी नहीं कि आज तुमने भी देखा था क्या आसमान पर इंद्रधनुष। मुझे लगा कि बोल देंगे नहीं है तो मुझे अच्छा नहीं लगेगा, तो मैंने पूछा ही नहीं; पर मुझे लगता है मैंने देखा था।
उनका संस्था में होना बहुत ज़रूरी है। वो कोई बहुत सक्रिय काम नहीं कर रहे, बस उपस्थित रहते हैं, लेकिन उनके होने से बहुत बड़ा फ़र्क पड़ता है। और हम जान नहीं पाएँगे, संस्था के भीतर जो हैं उन्हें भी पता नहीं चलेगा कि उनके होने से क्या अंतर पड़ता है, पर पड़ता बहुत है। अभी जब ब्रेक में गया तो रोहित ने आकर बताया कि एक की तबीयत ख़राब है, तो अभी डॉक्टर को बुलाया था, शायद ठंड लगी है या ऐसा कुछ है। तो अभी ऊपर कमरे में पहुँचाया है, जाकर वापस देखूँगा क्या हाल है।
हम संरक्षक हैं, हम कस्टोडियन (संरक्षक) हैं, हम ट्रस्टी (जिस पर भरोसा किया जा सके) हैं। ये जितने भी पृथ्वी पर जीव-जंतु हैं, हम इनके माँ-बाप हैं। ये हमको दिए गए हैं ताकि ये हमारी सुरक्षा में सहजता से अपना प्राकृतिक जीवन गुज़ारें। ये हमारे ही लिए हैं बेशक, पर ये हमारे प्यार के लिए हैं, हमारे भोग के लिए नहीं।
चेतना के तल पर पृथ्वी पर हम सबसे वरिष्ठ हैं, हम बुज़ुर्ग हैं। मनुष्य इस पृथ्वी पर समस्त प्रजातियों में सबसे वरिष्ठ है, सबसे बड़ा है। और ये सब छोटे हैं, चेतना के तल पर हमसे छोटे-छोटे हैं। तो हम इनके अभिभावक हैं, हम इनके माँ-बाप हैं। चाहे ख़रगोश हो, चाहे शेर हो, कोई भी हो; हमारा काम इनका शोषण नहीं हो सकता, ठीक जैसे माँ-बाप का काम बच्चों का शोषण नहीं है। इनकी ज़िम्मेदारी हमारे ऊपर है, हम उस ज़िम्मेदारी से पीछे नहीं हट सकते। और वो ज़िम्मेदारी ऐसी नहीं है कि जिसमें आपका समय ही ख़राब होगा या आपको कष्ट होगा। नहीं! आप वो ज़िम्मेदारी निभाते हैं तो आपको मिलता भी बहुत कुछ है। उस ज़िम्मेदारी को निभाइए, आप बहुत कुछ सीखेंगे।
वो बात जो न आपको ऐसे बातचीत में मिलेगी सीखने को, न किसी धर्मग्रंथ में मिलेगी सीखने को, वो बात जब आप प्रकृति की, पशुओं की ज़िम्मेदारी लेते हैं तब आपको सीखने को मिल जाती है। उसको सीखने का शायद और कोई तरीका नहीं है, यही है – बड़प्पन दिखाओ, बड़े बनो, और वरिष्ठ होने के अपने कर्तव्य का निर्वाह करो।
प्र२: प्रणाम आचार्य जी। मेरी सात साल की एक बच्ची है। ए.पी. सर्कल पर ही देखकर ख़रगोश, वो ज़िद में आ गई है, कि आप आचार्य जी को मानते हैं, हम लोग भी मानने लगे हैं, ख़रगोश हमको अच्छा लगा, आप मेरे जन्मदिन पर मुझे ख़रगोश ही गिफ्ट दीजिए। मेरा जानवर पालने पर विश्वास नहीं है, मैं सोचता हूँ वो हिंसा है।
आचार्य: नहीं, हमें गिफ़्ट (उपहार) में नहीं मिले थे, हम उनको रेस्क्यू करके लाए थे। कृपा करके ख़रगोश पाल मत लीजिएगा; बहुत नाज़ुक होते हैं और बहुत जल्दी मर जाते हैं। आप अगर थोड़ी-सी तेज़ आवाज़ भी कर देंगे, तो हो सकता है वो सदमे से ही मर जाएँ। हमने किसी शौक में इनको नहीं पाला है। ये बहुत बुरी हालत में थे कहीं पर, हम वहाँ से इनको बचाकर लाए थे। ख़रगोश पालने वाले जीव नहीं हैं, मत पालिएगा!
फिर हमारे पास एक लॉन है बड़ा, हम व्यवस्था कर पाते हैं, आप घास वगैरह का प्रबंध कहाँ से करेंगे रोज़-रोज़? तो ख़रगोश मत पालिए। आप खरीदोगे अगर, तो बाज़ार में उनके व्यापार को प्रोत्साहन भी मिलता है; तो बाज़ार में फिर उनको छोटे-छोटे पिंजड़ों में रखकर उनको बेचने के लिए उनको इधर-उधर करते हैं, और वो बहुत क्रूरता हो जाती है। तो खरगोशों के क्रय-विक्रय को प्रोत्साहन मत दीजिए।
पालना मुझे नहीं लगता अपनेआप में कोई बड़ी अच्छी बात है; ज़रूरी तो बिलकुल नहीं है, कोई अच्छी बात है ऐसा भी मैं नहीं कह सकता। कुछ प्रजातियाँ हैं – जैसे कुत्ते हैं – वो मनुष्यों की संगति अच्छे से स्वीकार कर लेते हैं। पर बाकी प्रजातियाँ तो बिलकुल पसंद भी नहीं करतीं कि उन्हें इंसानों के साथ रहना पड़े। उनको उनका जो प्राकृतिक स्थान है, नेचुरल हैबिटेट , उनको वहीं रहने दीजिए। बाकी आप ये कर सकते हैं कि चिड़िया हैं, वो घोंसला बना लें, वो उनकी स्वेच्छा है। बल्कि उनको तो घोंसला बनाने की जगह आपको देनी ही चाहिए, वो अच्छी बात है, वो अपनेआप आकर आपके घर में घोंसला बना गईं। लेकिन चिड़िया पाल मत लीजिएगा!
चिड़िया आपके घर में घोंसला बना ले, वो एक बात है, और आपने चिड़िया पिंजरे में डाल दी, वो बिलकुल दूसरी बात है। जिस तरह गिलहरियाँ होतीं हैं, आप उनको अगर दाने डालना शुरू कर दें, तो वो आपके पास आने लग जातीं हैं। अब आपसे उसकी दोस्ती हो जाए तो उस कारण से वो आ जाया करे आपके पास रोज़ सुबह, वो एक बात है; और आप उसको पकड़कर के रख ही लें, वो बिलकुल दूसरी बात होती है।
तो किसी भी जानवर को आप किसी बाड़े में या पिंजड़े में न रखें, वो उसके साथ बड़ा अन्याय होता है। ये प्रकृति के बच्चे हैं। जो एक चीज़ इनको बहुत पसंद होती है वो है स्वछंदता, उन्मुक्तता, कि जहाँ चाहो जाओ, जैसे रहना है रहो, जो करना है करो – ये चीज़ उनको बहुत पसंद होती है। तो उनको ज़बरदस्ती बंद करके नहीं रखना चाहिए। और इतना ही अगर शौक लगे कि रखना है, तो फिर उनको वैसा ही वातावरण दीजिए जैसा उनको बाहर प्रकृति में मिलता है; उसी तरह का खाना-पीना भी देना पड़ेगा, उसी तरह का घास, पत्ती, पानी, सब। वो मुश्किल होता है, उतना इंतज़ाम हम नहीं कर पाएँगे। ठीक है?
प्र३: प्रणाम आचार्य जी। जैसे भगवद्गीता में श्रीकृष्ण भगवान ने कहा है कि इस संसार में जो कुछ भी होता है वो प्रकृति के तीन गुणों द्वारा ही होता है। तो जैसे कि मैं जो कार्य कर रहा हूँ, नौकरी या कुछ भी, तो नौकरी तो हम कर रहे हैं, तो ये कैसे हो गया कि प्रकृति हमसे करवा रही है?
आचार्य: चिड़िया क्यों जाकर इधर-उधर दाने दिनभर उठाती है?
प्र३: भोजन के लिए।
आचार्य: वैसे ही! ख़ुद को भी भोजन करना है, फिर अपने बच्चों को भी भोजन देना है – यही तो प्रकृति है! वैसे ही तुम नौकरी करते हो। हो गया न प्राकृतिक काम? चिड़िया घोंसला बनाती है, तुम नौकरी करके घर बनाते हो; हो गया न प्राकृतिक काम। नहीं हो गया? बस।
प्र४: प्रणाम आचार्य जी। आचार्य जी, ये जो आपने जानवरों के बारे में बात की, उसी से सम्बन्धित प्रश्न है मेरा। मुझे भी कुछ दिन पहले एक कुत्ता मिला था जो बहुत बीमार था, तो उसका एक महीने इलाज चला फिर ठीक हुआ। कमज़ोर थी इसीलिए पहले उसको घर में ही रखना शुरू कर दिया, कि बाहर निकालूँगी तो खाना इसे आता नहीं अभी। तो ऐसे करके वो साथ में रहने लग गया। पर अब मेरे को ऐसा लगने लगा जैसे मैंने उसे बाँध दिया हो। छोटा-सा घर है हमारा, मुझे लगता है जैसे मैंने उसे बंधन में डाल दिया हो, और मेरे दिमाग में ये चलता रहता है कि मैंने ग़लत कर दिया इसके साथ भी। और मैं इसको अननेचुरल (अप्राकृतिक) तरीके से चीज़ें सिखाने की कोशिश भी कर रही हूँ, कि जैसे मेरे साथ चलना-वलना सीखे; पर ये मुझे सही नहीं लगता।
आचार्य: नहीं, छोड़ दो! जब लगे कि अब ये बाहर अपना ठीक-ठाक प्रबंध कर लेगी, तो उसको छोड़ दो।
बिलकुल यही स्थिति हमारे साथ भी हुई थी। दो छोटे-छोटे कुत्ते के बच्चे मिल गए थे, एक का नाम रखा गया था सोहम, एक का कोहम। जब वो छोटे थे तब तो अपना ऊपर ही रहते थे, मेरे साथ ही। फिर जब वो बड़े होने लगे तो उन्होंने बहुत शोर मचाना शुरू किया। और मुझे हो गया मोह, उनको ऊपर अपना रखे हूँ, उनके लिए घर-वर भी बनवा दिया। उनके घर में रख दो तो और शोर मचाते थे, क्योंकि घर छोटा हो गया, वैसे तो पूरी छत पर घूमते थे। तो बहुत शोर मचाएँ, बड़े भी होने लग गए थे। तो फिर एक दिन मैंने उनको कहा, ‘अच्छा जाओ’।
और फिर बहुत अद्भुत चीज़ दिखी, मैंने जब उनको छोड़ दिया तो वो चले गए और फिर जा-जाकर वापस आ जाते थे। मैंने कहा, ‘ये होता है सही रिश्ता! तुझे पूरी छूट है जाने की, पर तू ख़ुद ही जाएगा और बीच-बीच में लौटकर यहीं आ जाएगा।‘ और इतना ही नहीं, ये बात हो गई होगी अब दस साल पुरानी, सोहम अभी भी हमारे साथ है। छूट उसको पूरी रहती है, वो जहाँ जाना चाहे जा सकता है; और वो चला भी जाता है, कई बार हफ़्ते-हफ़्ते भर को गायब हो जाता है, फिर लौट आता है।
प्र४: वही मोह भी दिखता है मुझे अपने अन्दर, कि अब होने लग गया है उससे मोह।
आचार्य: नहीं, अगर रिश्ता अच्छा है तो तुम छोड़ दो, उसे बाहर जाने दो। इंसान अकेला अभागा है जो बंधन स्वीकार कर लेता है, कोई भी पशु-पक्षी बंधन बिलकुल स्वीकार नहीं करता और बहुत छटपटाता है तुम उसे पिंजरे में या किसी भी तरह के खूँटे में डाल दो तो; बस वो बोल नहीं सकता, उसमें ज़बान नहीं है। तो उनको छोड़ दो। बाकी वो समझते हैं, स्नेह समझते हैं, तुम उनको छोड़ोगे वो ख़ुद ही लौट-लौटकर आया करेंगे।
ये कोहम-सोहम जाते थे, फिर लौटकर आते थे, दो-दो दिन फिर साथ रहते थे; फिर चले जाते थे, फिर वापस आ जाते थे। ये नियम बना लिया था कि जब मैं गाड़ी से वापस आऊँ – और देर रात में लौटता था अक्सर – तो मैं गाड़ी से आ रहा हूँ, एक गाड़ी के इस तरफ़ से दौड़ना शुरू करे, एक दूसरी तरफ़ से। तो इस तरह ये लगभग आधे किलोमीटर पहले से मुझे एस्कॉर्ट करके गेट तक लेकर आते थे। तो ये इनकी अपनी अदा थी। और गाड़ी पहचान जाते थे; एक ही गाड़ी नहीं, दूसरी भी गाड़ी हो तो भी न जाने कैसे सूँघ लेते थे कि इस वाली गाड़ी में हैं, और साथ में दौड़ना शुरू कर देते थे।
उनको छोड़ दो, रखोगे तो बहुत भौंकेगी।
प्र४: भौंकती भी है और करना सही तो यही दिखता है, पर एक जो चीज़ मेरे को लगती है अभी, कि छोड़ तो दूँ, पर बाहर बहुत कुत्ते हैं, घर के बाहर।
आचार्य: नहीं, देखो, सुनो; मैंने क्या बोला? हमें काम उनके अभिभावक की तरह करना है। अगर अभी लगता है कि जल्दी छोड़ दोगे तो बाहर वाले कुत्ते नुकसान पहुँचा देंगे, तो अभी मत छोड़ो। कुछ दिन और इंतज़ार कर लो, खाना-पीना देख लो। किस विधि से उसे छोड़ना है, ये तुम्हें तय करना है, लेकिन अंततः तो उसे मुक्त करना ही है।
ठीक है?