आचार्य प्रशांत: मुक्ति तो हो ही जानी है। जो हाथ आपको मुक्त करने के लिए आ रहा है, वो आपकी इच्छा की प्रतीक्षा नहीं करेगा, आपकी सहमति का इंतज़ार करता नहीं बैठेगा, हो जाएगा। पर आप ज़रा सुविधा दें, आप ज़रा स्वीकृति दें तो काम जल्दी बन सकता है। आरम्भ में ही हमने कहा था न कि आदमी के पास विकल्प रहते हैं।
अंततः तो मुक्ति है ही। मुक्ति ही आरम्भ है और वही अंत है। पर ये जो अंतराल है, ये जो मध्याह्न है, ये कितना लम्बा होगा, ये आप पर निर्भर करता है। आदि में भी मुक्ति है और अंत में भी, पर ये मध्य का काल कितना लम्बा होगा, वो आप जानो। थोड़ा सहयोग करोगे तो जल्दी होगा। अवधि को छोटा किया जा सकता है। और अड़े रहोगे, लड़े रहोगे, चोंच मारोगे, तो बात खिंचेगी। अंत में हारोगे, पर हो सकता है कि दो लाख वर्ष तक तुम सूरमाई झाड़ते ही रह जाओ, कि अभी तो लड़ रहे हैं। हारना जब है ही तो दो लाख साल बाद क्या हारोगे? अभी हार जाओ।
परमात्मा कोई घंटा बजाकर आएगा? दिन-प्रतिदिन दैनिक अवसरों में तुम्हें जो बुलावे आते हैं, वही परमात्मा है। नगाड़ें थोड़े ही बजेंगे, निमंत्रण-पत्र थोड़े ही आएगा परमात्मा का। रोज़मर्रा के अवसरों को भुनाना सीखो। यही विवेक है, यही प्रज्ञा है, इसी में होशियारी है। "अब न चूक, चौहान, आख़िरी मौका है।" आपकी भाषा में कहूँ तो 'चांस पे डांस’। मिला है मौका तो भुनालो।
यूँ तो बारिश लगातार ही हो रही है, पर ये जो छींटें तुम पर अभी पड़े हैं, कौन जाने, कल पड़ें न पड़ें? अनंत समय से हम सिर्फ़ चूके ही तो हैं, कितना और चूकोगे? जीवन भर मौके गँवाते ही तो आए हो, अभी और गँवाने हैं? परमात्मा का हाथ मदद के लिए प्रस्तुत है, तुम 'हाँ' बोलो। हाथ इत्यादि भी नहीं चाहिए। पिंजड़ा भी वही है, पिंजड़ा ही गल जाएगा, अचानक गायब हो जाएगा। पंछी कहेगा, पिंजड़ा था ही नहीं। हाथ इत्यादि की भी ज़रूरत नहीं पड़ेगी, तुम 'हाँ' बोलो।
और 'हाँ' बोलना मौखिक बात नहीं होती। जीवन तुम्हारा तुम्हारी 'हाँ' का सबूत होना चाहिए। हाँ, मैंने 'हाँ' बोली और ये मेरे जीवन में परिलक्षित होता है। देखो, मैं कैसे जी रहा हूँ; देखो, मैं कैसे खा रहा हूँ, पी रहा हूँ, कमा रहा हूँ; देखो, मैं कहाँ अब नहीं जाता; देखो, कहाँ अब मैं बार-बार जाता हूँ; देखो कि क्या पढ़ना छोड़ दिया; देखो कि क्या पढ़ना आरम्भ किया है। ज़िंदगी सबूत है कि अब मैंने 'हाँ' बोल दी है। ये थोड़े ही कि यहाँ बैठे 'हाँ' बोली और बाहर गए और मर गए, यानि कि बदल गए।
'हाँ' की गूँज निरंतर रहे, चौबीस घंटे रहे। तुम्हारे उठने-बैठने, चलने-फिरने, ओढ़ने में दिखाई दे कि इसने 'हाँ' बोली है, इसे आज़ादी चाहिए। ये कह रहा है कि "अब बस, बहुत हुआ। या तो सच्चाई या तो कुछ नहीं। ये झूठा और व्यर्थ का जीवन नहीं जीना। असली चीज़ दो। दाम चुकाने को तैयार हूँ और ज़िंदगी देखो मेरी, अब मैं दाम चुका रहा हूँ। अब जेब बाँधकर नहीं बैठा हूँ। अब देखो, दाम चुकाए। बोलो, क्या दाम चुकाना है? अहंकार अर्पण करूँ? विचार अर्पण करूँ? धारणा अर्पण करूँ? बोलो, क्या अर्पित करूँ? अपनी ही आहुति दे दूँ? बोलो, क्या दाम है? चुकाऊँगा।"
समय दो, समय, तुम्हारे पास वो बहुत सारा है। चौबीस घंटे दिन के, वो दिया करो, वही दाम है। और वो दाम तुम दे तो रहे ही हो। सत्य को नहीं दे रहे तो किसी और को दे रहे हो। चौबीस घंटे तो सबके पास होते हैं न? इधर नहीं देते तो उधर देते हो। जीवन को प्रमाण बनाओ। दिखाओ कि समय कहाँ दे रहे हो।
परमात्मा तो गुलाम है तुम्हारा, जैसे बाप बेटे का गुलाम होता है। 'पाछे-पाछे हरि फिरे', जैसे बाप बच्चे के पीछे फिरता है। तुम 'हाँ' तो बोलो!