परिवार के प्रति कितना समर्पण उचित? || आचार्य प्रशांत (2019)

Acharya Prashant

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परिवार के प्रति कितना समर्पण उचित? || आचार्य प्रशांत (2019)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, पहले मैं परिवार वालों के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित था। लेकिन अब उनसे हिसाब-क़िताब वाले सम्बन्ध हैं। क्या यह बदलाव सही है?

आचार्य प्रशांत: भक्ति सिर्फ़ भगवान की की जाती है। समर्पण सिर्फ़ सत्य को किया जाता है। ये पहली बात। घरवालों की भक्ति नहीं की जाती, देखिए। सुंदर सम्बन्ध होना, प्रेमपूर्ण सम्बन्ध होना, स्वस्थ सम्बन्ध होना, एक बात है। और आपने कहा अंधभक्ति, वो बिलकुल दूसरी बात है। दायित्वों का, कर्तव्यों का निर्वाह कर देना एक बात होती है लेकिन सिर तो झुकाया जाता है सिर्फ़ उस ऊपरवाले के सामने। एक ही मालिक है, एक ही परमात्मा।

आपके जीवन में जो भी लोग हों वो सम्मान्य हो सकते हैं, श्रद्धेय नहीं हो सकते। दोनों बातों में अंतर समझिएगा। माँ हों, पिता हों, दादा हों, चाचा हों, ताऊ हों, जो भी लोग हों बड़े-बुज़ुर्ग — ये सम्मान्य हो सकते हैं, श्रद्धेय नहीं हो सकते। श्रद्धा तो बस उसके प्रति ही रखी जा सकती है। जिसने उसके अलावा किसी और के प्रति श्रद्धा रख ली, उसे बड़ी सज़ा मिलती है।

वास्तव में भक्ति और अंधभक्ति में अंतर ही यही है — सत्य की ओर खिंचे चले जाओ तो भक्ति है और सत्य के अलावा किसी और के सामने झुक जाओ, तो अंधभक्ति है। भक्ति से बड़ा अमृत दूसरा नहीं और अंधभक्ति विष मात्र है।

तो अगर ऐसा हुआ है कि आप अंधभक्ति से बाहर आ गये, तो कुछ बुरा नहीं हुआ।

अब दूसरी बात पर आते हैं। आपने कहा आप हिसाबी-क़िताबी हो गये हैं, आप देखने लग गये हैं कि आप जो दूसरों को दे रहे हैं उसमें आपको क्या मिल रहा है, इत्यादि-इत्यादि। आप गणित करते हैं। ये बात बुरी नहीं है, अधूरी है।

दूसरों से अपने रिश्ते में हिसाबी-क़िताबी हो जाना ग़लत बिलकुल भी नहीं है पर घातक है यदि आपकी गणनाएँ अधूरी हैं। अधूरी गणना मत करना। किससे हमें क्या मिल रहा है और किसको हम क्या दे रहे हैं, इसको लेकर के हम बड़ी ओछी गणनाएँ कर लेते हैं। छोटी-छोटी बातें तो हम गिन लेते हैं। मैंने उसको कुछ कपड़े खरीद के दे दिए, उसने मेरा बिजली का बिल चुका दिया। मैं अस्पताल में दाख़िल हुआ था, उसने मेरे लिए दो लाख ख़र्च करे थे, मैंने उसको गाड़ी खरीद कर दे दी।

ये सब बातें तो हम लिख लेते हैं। पर जहाँ अरबों, करोड़ों और खरबों का लेन-देन हो रहा है, वो बातें हम खाते में प्रविष्ट करना ही भूल जाते हैं। वो प्रविष्टियाँ ही नदारद हैं। इसको कहते हैं पेनी वाइज़ पाउंड फुलिश। पैसों-पैसों का तो हिसाब रख लिया, रुपयों का लेन-देन भूल ही गये। उसका कोई हिसाब नहीं। छोटे-छोटे मूल्य की जो चीज़ें हैं वो तो याद रख लीं — तू मेरी चप्पल पहन के चला गया था महीनेभर पहले, अभी तक लौटाई नहीं तूने — और जो अमूल्य है उसको बिसरा ही दिया। क्या है जो अमूल्य है, क्या है जिसके आगे आँकड़ा लिखा ही नहीं जा सकता? क्या है?

श्रोता: प्रेम।

आचार्य: हाँ। और हमारे बही खाते में प्रेम नाम की कोई प्रविष्टि होती ही नहीं। जबकि भूखे आप उसी के लिए हैं। चप्पल से और घड़ी से और गाड़ी से थोड़े ही भूख मिट जाएगी। हर जीव की भूख मिटनी है प्रकाश से, बोध से और प्यार से। ये हमको चाहिए।

दुनिया के बाज़ार में हम जो सौदा करने निकले हैं उसमें हमको चाहिए क्या? कोई ऐसा जो हमें दे दे रोशनी, कोई ऐसा जिससे हमें मिले बोध, कोई ऐसा जो हमारी बेचैनी खरीद ले और बदले में चैन दे दे।

तो हैं तो हम सब व्यापारी ही और एक-दूसरे के साथ हमारा जो लेन-देन है, जो सम्बन्ध है वो ट्रांजेक्शनल ही है। हर इंसान दूसरे इंसान से कुछ ले रहा है और कुछ दे रहा है। लेकिन आप ये अक्सर भूल जाते हैं कि आप वास्तव में क्या लेने निकले हैं, आपकी चाहत क्या है। तो छोटी-छोटी बातें तो खाते में दर्ज़ हो जाती हैं और जो आपको वास्तव में चाहिए, उसका आप कोई मूल्य ही नहीं करते।

अब आप कह रहे हो कि अब मैं लिखने लग गया हूँ किससे कितना लिया, किसको कितना दिया। तो पूरा लिखो न, पूरा लिखो। कोई अगर आपका मन गंदा करता है तो ये कितना बड़ा नुक़सान है। ये अमूल्य नुक़सान है, अनंत नुक़सान है। पर उसकी आप कोई प्रविष्टि ही नहीं करते।

छोटा सा उदाहरण ले लो, आप नौकरी करते हो। नौकरी से आपको एक लाख, दो लाख, तीन लाख कुछ तनख़्वाह मिलती है। आप ये तो कह दोगे कि मुझे प्रतिमाह एक लाख रुपया मिलता है और उस एक लाख को कमाने के लिए आप सुबह-शाम ट्रैफिक में एक-एक घंटा ज़हर पीते हो। और उससे जो तनाव आता है और उससे जो आपका सर्वनाश होता है उसकी तो आपने क़ीमत ही नहीं लगायी।

क्योंकि ये तो बात हाथ की है कि दिखा कि हर महीना एक लाख रुपए का, दो लाख रुपए का हाथ में आ गया चेक , बढ़िया लगा। एक के आगे कितने शून्य हैं, आपने गिन लिए। ये तो गिना ही नहीं कि दिनभर एक कुत्सित, गर्हित माहौल में जी रहे हो और मन को गंदा करे जा रहे हो। उसकी क्या क़ीमत है? क्योंकि वो कोई लिख के नहीं देता न।

वो ये तो बता देंगे कि तुम्हें एक लाख रुपया देंगे पर ये नहीं बताएँगे कि बदले में हम तुमसे क्या-क्या छीन लेंगे। हिसाब करना ही है तो पूरा हिसाब करो न। लिखो, एक लाख रुपया मिला और बदले में हर महीने पचास लाख रुपए की ज़िंदगी ख़राब करी। पूरा-पूरा हिसाब करो।

मर रहे हैं हम निराकार के लिए, और जिस निराकार के लिए मर रहे हैं उसको ही मूल्य नहीं देते क्योंकि साकार का मूल्य करा जा सकता है, निराकार का मूल्य करा ही नहीं जा सकता। कितनी अजीब बात है! जो चीज़ तुम्हें सबसे ज़्यादा चाहिए, उसको तुम कोई मूल्य ही नहीं देते। अमूल्य का मतलब होता है अनंत मूल्य या अमूल्य का मतलब होता है मूल्य हीनता? बताना।

कुछ अगर अमूल्य है तो इसका क्या मतलब है कि उसका मूल्य कितना है? अनंत। है न! या इसका ये मतलब है कि उसका कुछ मूल्य ही नहीं है, शून्य मूल्य है? पर हम अपने बही-खातों में क्या करते हैं — कुछ अगर अमूल्य है तो हम उसका मूल्य शून्य कर देते हैं। न लिखना माने कितना मूल्य कर दिया उसका? शून्य कर दिया न।

और फिर हम कहते हैं कि मुझ जैसा चतुर, चालाक, होशियार कोई नहीं। ये देखो मेरा लेजर , छोटी-से-छोटी एंट्री मौजूद है, कुछ छोड़ा नहीं है मैंने। बस वो छोड़ दिया है जिसका सबसे ज़्यादा मूल्य है, अनंत मूल्य है। उसको बस छोड़ दिया है, बाक़ी हर चीज़ लिख ली है।

और फिर हमें ताज्जुब होता है कि जीवन के हमारे सारे निर्णय ग़लत क्यों बैठ रहे हैं, जीवन में इतनी शुष्कता क्यों है। क्योंकि हम स्थूल के पुजारी हैं। रुपया स्थूल होता है, दिखाई देता है कि मिल गया। पर अभी इस चर्चा में आपको क्या मिल रहा है, वो सूक्ष्म है तो वो दिखाई नहीं देता। वो दिखाई नहीं देता तो आप उसका मूल्य ही नहीं करोगे। आप कहोगे, ‘नहीं, इसकी कोई क़ीमत नहीं है।’ उसकी क़ीमत बहुत बड़ी है, बस तुम उसकी क़ीमत कर नहीं पा रहे हो।

ये तुम्हारी सीमा, ये तुम्हारी कमज़ोरी है कि तुम्हें मूल्य करना नहीं आ रहा है प्रेम का। पर हम ये कैसे मान लें कि हमें तो प्रेम का मूल्य करना नहीं आता, बोध का, रियलाइज़ेशन का मूल्य करना नहीं आता, तो अपनी उस कमज़ोरी को छुपाने के लिए हम कहते हैं कि इनका कोई मूल्य है ही नहीं।

हमारी हालत उस परीक्षार्थी जैसी है जो प्रश्नपत्र के कुछ प्रश्नों को अटेम्प्ट ही नहीं करता क्योंकि उसे वो आते ही नहीं। और ये बात सही भी लगती है। भाई, जो चीज़ पता ही नहीं है उसकी कोशिश ही मत करो, कौन उलझे! प्रेम का हमें कुछ पता ही नहीं, तो कौन उलझे और पता करे कि प्रेम की क्या क़ीमत। बोध का हमें कुछ पता नहीं तो कौन उलझे और पता करे कि बोध की क्या क़ीमत। इससे अच्छा उनकी क़ीमत के आगे लिख दो — शून्य। कौन पता करे कि समय की कितनी क़ीमत है। कैसे पता करेंगे, बताइए। आपके जीवन के दो दिनों की क्या क़ीमत है, बताइए। और अगर कोई रोज़ दिन में आपके दो घंटे खाता हो चक-चक करके, तो माने आपके कितने रुपए खा गया? गिनिए। पर कोई आपका सौ रुपया चुरा के भाग जाए तो आप कहेंगे, 'चोर! चोर!' और कोई रोज़ चक-चक करके आपके दो घंटे खाता हो, तो आप कहेंगे, 'नहीं, जहाँ दो बर्तन होंगे वहाँ खन-खन तो होगी न।' ये दिख ही नहीं रहा है कि ये रसोई रोज़ आपको दो लाख का चूना लगा रही है, खन-खन-खन-खन।

ग़ौर करा है, कोई तुम्हारा सौ रुपया लेकर चला जाए, न लौटाए तो तुम्हें सालभर याद रहेगा, 'सौ रुपया नहीं लौटाया'। और किसी ने तुम्हारे दो घंटे ख़राब करे हों बेकार की बात करके, चक-चक,गौसिप करके, तो तुमको नहीं याद रहता। क्योंकि उन दो घंटों को तुम मूल्य देना ही नहीं जानते।

कोई आकर के आपका ये सफ़ेद कुर्ता-पैजामा गंदा कर जाए, आप तुरंत पकड़ लोगे, ‘निकाल ड्राई क्लीनिंग के दो सौ रुपए, निकाल।’ कोई गाड़ी में डेंट मार जाए, बीच सड़क में लड़ोगे, ‘निकाल पाँच हज़ार’। गाड़ी में धब्बा लग गया, आपको तुरंत समझ में आ जाता है पाँच हज़ार का नुक़सान हुआ। कपड़ों में दाग़ लग गया, तुरंत आप समझ जाते हो कि दो सौ का नुक़सान हो गया और जो कोई आ के आपका मन गंदा करता रहता हो, उससे आप कभी मुआवज़ा माँगते हो? माँगते हो मुआवज़ा? न तो मन को गंदा करने वाले से हम मुआवजज़ा माँगते हैं, न मन को साफ़ करने वाले के प्रति हम कृतज्ञता अनुभव करते हैं। क्योंकि उसकी क़ीमत लगानी आसान नहीं। क़ीमत लगानी आसान नहीं तो हम कहते हैं कौन झंझट में पड़े, सीधे लिखो जीरो, ख़त्म करो मामला। इतना कठिन सवाल है, छोड़ ही दो, आगे बढ़ो।

बिलकुल देखिए, कोई ग़लती नहीं कर रहे हैं आप अगर मन गणित करता है, तुलना करता है, हिसाब करता है। हिसाब करिए। हिसाब इसलिए करिए क्योंकि आपको साँसें भी हिसाब से मिली हुई हैं। कहाँ नफ़ा हो रहा है, कहाँ नुक़सान हो रहा है, ज़रूर गिनिए। इसलिए गिनिए क्योंकि आपको दिन भी गिनकर मिले हुए हैं।

दिन आपको अनंत मिले हैं क्या? तो दिन जब आपको गिनकर मिले हैं तो ये भी गिनिए न कि अपने दिन बिता कहाँ दिए। जब दिन गिनकर मिले हुए हैं तो ये गिनती करोगे न कि इन दिनों को बिताया कहाँ, ख़र्च कहाँ किया। या ये गिनती करोगे ही नहीं? अगर तुम अमर होते, अनंत समय होता तुम्हारे पास तो जितना समय तुम चाहते बर्बाद कर सकते थे। पर जब देने वाले ने ही गिनती करी, तो तुम्हें भी गिनती करनी ज़रूरी है। गिनती करो, ज़रूर करो, बस मैं ये कह रहा हूँ कि वो गिनती पूरी करो, पूरा हिसाब करो।

प्र: पहले तो शर्त कुछ था ही नहीं, जो भी था पूरी तरह से बेशर्त था। लेकिन आज के दिन में अगर मुझे कोई कुछ कहता है करने के लिए या मुझे कोई ऐसा अवसर दिखाई पड़ता है कुछ करने के लिए तो मेरे मन में आता है उसने मेरे लिए क्या किया? अगर नहीं किया तो मुझे लगता है मुझे नहीं करना चाहिए।

आचार्य: तो यही साफ़-साफ़ देखना है कि क्या किया। यही तो गणित साफ़ लगाना है कि किससे क्या मिला और बदले में मैंने क्या दे दिया। यही तो देखना है। और ये देखना कोई पाप की बात नहीं है, ये ज़रूर देखिए। आपमें से कुछ लोगों को लग रहा होगा कि अरे! प्रेम में तो हिसाब-क़िताब रखा नहीं जाता और आचार्य जी कह रहे हैं रखो हिसाब-क़िताब। मैं कह रहा हूँ, ज़रूर रखो।

प्रेम तो पूर्ण हिसाब-क़िताब की कला है, इसीलिए तो प्रेम में जान भी दे दी जाती है। क्योंकि पता होता है कि जान देकर भी जो मिल रहा है वो अमूल्य है, अनंत है। प्रेम में यूँही जान नहीं दे दी जाती, वहाँ भी बड़ा स्वार्थ होता है, बड़ा हिसाब-क़िताब होता है। तुम कहते हो — जान छोटी चीज़ है और जो मिला वो बहुत बड़ी चीज है, इसलिए जान दे रहे हैं।

प्रेम के पास इतना अनंत कारण होता है कि तुम कह देते हो कि प्रेम अकारण होता है। अकारण वास्तव में नहीं होता, कारण में अनंतता होती है।

ग्लानि मत लीजिए, ये बिलकुल कोई अपराधभाव लेने की बात नहीं है कि मैं क्यों अब पहले जैसा नहीं हूँ, पहले मैं अनकंडिशनली — आपके शब्दों में—बाँटता ही रहता था, देता ही रहता था और अब क्यों मेरे मन में ये विचार आता है कि क्यों दूँ, इतना तो इसको दिया, इससे मुझे मिला क्या। ये विचार बुरा नहीं है। अगर बुरी है तो इस विचार की अपूर्णता। ये विचार पूरी तरह आये, पूरी तरह आये। जब ये विचार पूरी तरह आएगा तो अपने साथ न जाने कितनी रोशनी लेकर आएगा।

फिर सड़क के किसी कुत्ते को पाँच रोटी देते वक़्त आप ये नहीं सोचोगे कि मैंने इसे पाँच रोटी दी। आप पूरा हिसाब लगाओगे, कहोगे, ‘मैंने तो जो दी वो बस पाँच रोटियाँ हैं और इससे जो मुझे मिला, वो शायद पाँच हज़ार, पाँच लाख की चीज़ है।’

आप निर्गुण के गुण गाने लगोगे, आप अमूल्य का मूल्य लगाने लगोगे। क्योंकि कुत्ते ने आपको रुपया तो दिया नहीं, पर दिया तो है कुछ। कुछ दिया कि नहीं दिया? जो दिया आपको उसकी क़ीमत समझ आने लगेगी। और जब क़ीमत समझ आने लगेगी तो आप छाती तान के नहीं घूम पाओगे कि अरे! मैंने इस कुत्ते को पाँच रोटी दे के इस पर एहसान किया, अब आप अनुगृहीत रहोगे।

अब आप कहोगे, ‘मैंने तो दी, श्वान देवता, तुमको बस पाँच रोटियाँ और तुमसे जो मुझे मिला, वो था पाँच लाख का।’ अब आप कहोगे, ‘अनुगृहीत हूँ मैं कि तूने मेरे हाथों से रोटियाँ ग्रहण की।’ अब आप ये नहीं कहोगे कि कुत्ते को रोटी फेंक दो पाँच। आप कहोगे, ‘मैं तुझे दे रहा हूँ, तू ले रहा है, तू मुझ पर उपकार कर रहा है। क्योंकि अभी-अभी मैंने पूरा हिसाब करके देखा कि दे तो कम ही रहा हूँ, ले बहुत ज़्यादा रहा हूँ।’

अब आपको जीवन जीने का एक नया तरीक़ा, एक नया आयाम मिल जाएगा। अब आपको साफ़ समझ में आने लगेगा कि नफ़ा कहाँ है, नुक़सान कहाँ है। और जो जानने लग जाता है कि लाभ कहाँ और हानि कहाँ, उसका लाभ बहुत हो जाता है।

आप तो क्षोभ में लग रहे हैं, ऐसा लग रहा है जैसे आपको बुरा लग रहा है कि आप क्यों अब बेशर्त दे नहीं पाते, क्यों अब विचार करते हैं और हिसाब करते हैं। बिलकुल आप ग़लत नहीं कर रहे हैं। संतों ने इतना तो चेताया है न कि अरे! लुटे जा रहे हो, लुटे जा रहे हो। यही तो बता रहे थे वो।

कबीर साहब इतना तो बताते हैं कि "देख तेरी गठरी में लागा चोर मुसाफ़िर।" माने क्या है? तुम लुटे ही जा रहे हो। यही है न! "होशियार रहना रे नगर में चोर आएगा", यही तो बता रहे हैं कि लुटे जा रहे हो। संतों ने इतना तो समझाया कि अरे! कुछ तो देखो, कुछ तो हिसाब करो, तुम लुटे ही जा रहे हो।

लेकिन हम हिसाब के कच्चे होते हैं तो इसीलिए ग़लत जगहों पर धन भी ख़र्च करते हैं, समय भी ख़र्च करते हैं, ध्यान भी ख़र्च करते हैं और सही जगहों पर न समय ख़र्च करते हैं, न धन ख़र्च करते हैं, न श्रम ख़र्च करते हैं, न ध्यान ख़र्च करते हैं। हम अपनेआप को ही ख़र्च कर देते हैं बिलकुल ग़लत जगहों पर क्योंकि हमारा हिसाब ग़लत है। सही जगह पर अपनेआप को ख़र्च करिए।

कोई आपने अपराध नहीं कर दिया अगर किसी ग़लत सौदे से हाथ वापस खींच लिया। आप पर कोई ज़िम्मेदारी नहीं है कि कोई ऐसा सौदा करते ही जाओ जिसमें आप रोज़ लुट रहे हो। और अगर कोई ऐसा सौदा है जिसमें अनंत दे रहे हो, अनंत पा रहे हो, तो उस सौदे में और निवेशित हो जाओ। उसमें अपनेआप को और संलग्न कर दो। चतुर व्यापारी बनो भई! जहाँ नुक़सान है वहाँ से पीछे हटो, जहाँ फ़ायदा है वहाँ और कूद जाओ।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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