आचार्य प्रशांत: जीना तो वही चाहेगा जिसको मृत्यु आती हो। जिसके लिए मृत्यु ही एक अपरिचित और असंभावित शब्द है, उसको जीने की चाहत हो नहीं सकती। जिसकी मृत्यु असंभव है, वह चाहेगा जीना क्या? तो वह अमर हुआ। अमरता जीना नहीं चाहती। यहीं से आप समझ गए होंगे कि जीना कौन चाहता है। जीना वह चाहता है जिसे लग रहा है कि मृत्यु आती है। जहाँ मृत्यु का साम्राज्य है, वहीं जीवन है।
संसार में जो कुछ भी है वह प्रकृति मात्र है। दिख ही रहा होगा कि संसार में जो कुछ भी है वह मरते भी हैं, उन्हें मृत्यु भी आती है। जिसे मृत्यु आती है वह मृत्यु से बचता भी है, अमर भी होना चाहता है। संसार में जो कुछ भी है वह अमर हो जाना चाहता है। उसका बस चले तो कभी न मरे।
एक तरह की यात्रा पर है हर जीव और वो यात्रा है समय के माध्यम से, जीवन के माध्यम से और बेहतर हो जाने की। और बेहतर, और बेहतर, और बेहतर।
आप डार्विन से पूछेंगे, उसके विकासवाद को समझेंगे तो यही दिखायी देगा। जैसे बड़े-से-बड़े जानवर से लेकर छोटे-से-छोटा जीव भी प्रगति की एक यात्रा पर है। नीत्शे से आप पूछेंगे तो वो कहेगा कि अंततः मैन (मानव) को सुपरमैन (महामानव) बनना है इसीलिए वह जी रहा है।
यह क्या है? बेहतरी की उम्मीद क्या है? वो यही है कि अमर हो जाएँ। अमर हो जाएँ अर्थात ब्रह्म हो जाएँ। तो सबको क्या होना है? ब्रह्म ही होना है। बस प्रकृति को भ्रम यह है कि ब्रह्म हुआ जा सकता है, समय में यात्रा करके और प्रकृति के पास समय अनंत है। तो वह कह रही है कि और बेहतर होती जाऊँ, और बेहतर होती जाऊँ और अंततः एक दिन वह हो जाऊँ जिसमें कोई दोष नहीं, कोई विकार नहीं अर्थात ब्रह्म ही हो जाऊँ। जिसके ट्रेन में इतने दिन से यात्रा कर रही थी अंततः वैसे ही हो जाऊँ और उससे मिल जाऊँ। 'राँझा राँझा करती करती मैं, आपे रांझा होई।'
यह प्रकृति का कायदा है। वह इस तरीक़े से सत्य हो जाना चाहती है। इस तरीक़े से अमर हो जाना चाहती है कि मस्तिष्क का विकास होता रहा, बुद्धि का विकास होता रहा तो आदमी की तीक्ष्ण मेधा एक दिन सत्य को भी पा लेगी।
बन्दर मनुष्य बन गया, मनुष्य देवता हो जाएगा, देवता ईश्वर हो जाएगा, ईश्वर अमर हो जाएगा। यह प्रकृति का रास्ता है। कोई यह न सोचे कि प्रकृति बिलकुल ही पागल है। कोई यह न सोचे कि यूँही जीवन-मरण का चक्र चल रहा है। कोई यह न सोचे कि आदमी व्यर्थ ही जीने की भरसक कोशिश करता है। कोई यह न सोचे कि लोग दीवानें हैं इसलिए बच्चे पैदा किए जाते हैं।
प्रकृति का भी अपना तर्क है। तुम क्यों जीना चाहते हो पचास साल के बाद सौ साल, फिर सौ के बाद तुम्हारा बस चले तो दो सौ साल, फिर बस चले तो पाँच सौ साल, फिर बस चले तो कभी मरो ही नहीं? तुम इसीलिए जीना चाहते हो क्योंकि कुछ बाकी है, कुछ होना अभी बाकी है। तुम्हें लगता है न कि समय और मिल जाएगा तो जो होना बाकी है वो कर लिया जाएगा। अधूरे काम पूरे हो जाएँगे। लगता है न! यही प्रकृति का तर्क है। वास्तव में वो तर्क ही प्रकृति का है, तुम्हें लगता है तुम्हारा है। कि समय का और इस्तेमाल करो, समय का और इस्तेमाल करो, और फिर एक-न-एक दिन तो ऐसा समय आएगा कि जो नहीं है वो मिल जाएगा। सारी उम्मीदें पूरी हो जाएँगी।
एक दिन तो वह समय आएगा कि समय के अंत पर पहुँच जाएँगे। इसलिए यह आपके चारों ओर अद्भुत नाच चल रहा है। यह संसार यूँही नहीं है। यह पूरा संसार ही एक यात्रा पर है। सबको वहीं पहुँचना है। इरादा एक है और इरादा नेक है। भूल छोटी सी है। भूल यह है कि प्रकृति के पास समय है तो वह समय का ही इस्तेमाल करके सत्य तक पहुँचना चाहती है। यानी कि वह अपने भीतर रहते-रहते समय तक पहुँचना चाहती है और अपने भीतर रहकर तो कोई सत्य तक नहीं पहुँच सकता है। और यही गलती हर जीव करता है।
हम सबकी चेतना का एक दायरा होता है, एक घेरा होता है। हम उसके भीतर रहते-रहते सत्य को पा लेना चाहते हैं। पर उसके भीतर रह कर नहीं पाओगे। प्रकृति भी यही गलती करती है। प्रकृति और हमारी गलती एक है क्योंकि हम भी प्रकृति ही हैं। यह जो बुद्धि है, यह जो मस्तिष्क है यह भी प्रकृति ही है। तो हम वही गलती कर रहे हैं जो कि एक व्यापक दृष्टि से देखें तो प्रकृति कर रही है। अणु भी वही गलती कर रहा है जो सागर कर रहा है। सागर और अणु की गलती तो एक होनी ही है न।
भाई, वैज्ञानिकों की भी मानिए तो ब्रह्माण्ड बहुत पुराना है। तेरह सौ करोड़ वर्ष पुराना है, तेरह बिलियन साल। और इंसान तो बहुत नया है। अभी-अभी आया है बस। पृथ्वी भी बहुत नयी है। अगर ब्रह्माण्ड की उम्र आप तेरह सौ करोड़ साल मानोगे तो इसमें दो तिहाई समय तक तो पृथ्वी ही नहीं थी। फिर पृथ्वी आयी और इंसान तो बस समझ लीजिए कि कल परसों आया है, इतना नया है।
तो इंसान जो भी गलती कर रहा है, अपनी बुद्धि से, अपनी मस्तिष्क से, वह गलती भी उसने कब करनी शुरू करी है? अभी-अभी। प्रकृति तो यही गलती (अनंत काल से करती आ रही है)। सदी तो बहुत छोटा कालखंड है, सदी तो ऐसे जैसे पलक का झपकना। ब्रह्माण्ड के पैमाने पर देखेंगे तो सदी क्या है? कुछ नहीं है। फिर तो आपको कल्पों की बात करनी पड़ेगी, युगों की बात करनी पड़ेगी। तो प्रकृति तो यह गलती समय के पहले पल से कर रही है। जिस दिन समय शुरू हुआ था उस दिन यह गलती शुरू हुई थी। आपने तो यह गलती आज करनी शुरू की है और आपकी गलती है वही जो प्रकृति की गलती है। जिस दिन समय शुरू हुआ था, उस दिन प्रकृति की भूल शुरू हुई थी। क्या थी वह भूल? कि यह जो समय शुरू हुआ है — समय शुरू हुआ है अर्थात मैं (प्रकृति) शुरू हुई हूँ। प्रकृति ही तो शुरू हुई है, उसी को तो समय कहते हैं — प्रकृति की भूल यह थी कि 'यह जो समय शुरू हुआ है, यह मुझे...कहाँ तक ले जाएगा? सत्य तक ले जाएगा। एक दिन ऐसा आएगा जब परमात्मा से मिलन होगा।' और इंसान भी क्या यही बात नहीं कहता? इंसान भी क्या भविष्य से उम्मीद नहीं रखता?
आप जो भविष्य को लेकर उम्मीद रखे हुए हो न, चाहे वो उम्मीद यह हो कि कल बच्चे का ब्याह हो जाएगा, कल बीवी तृप्त हो जाएगी, कल मकान मिल जाएगा, कल पैसे बहुत आ आएँगे, कल इज्ज़त — इस तरह की उम्मीदें हम रखते हैं। तो यह जो आम आदमी की भविष्य से उम्मीदें हैं, यह उम्मीदें बहुत पुरानी हैं। हमें तो भविष्य से उम्मीद करनी ही पड़ेगी क्योंकि हमारी जो शारीरिक माता है प्रकृति देवी, वही लगातार भविष्य से उम्मीद रखती है। जैसे अभी कहा एक श्रोता ने ‘छोटे-से-छोटा कीड़ा भी जीना चाहता है’ और सवा सौ साल का अतिवृद्ध मनुष्य भी अभी कहता है, ‘थोड़ा और जी लें।’ जीना सब चाहते हैं और बड़ा सही प्रश्न है — क्यों जीना चाहते हैं? यह जिजीविषा है ही क्यों?
हमारी सारी इच्छाओं के पीछे जो एक मूल इच्छा होती है वह यही तो होती है — जिजीविषा; जिए जाओ, जिए जाओ। क्यों होती है? इसीलिए होती है क्योंकि हमें लगता है कि और जिएँगे तो कल वो मिल जाएगा। और मैं आपसे कह रहा हूँ कि वह इच्छा मात्र मनुष्य की नहीं है, मात्र पशु की नहीं है, मात्र कीट-पतंगे की भी नहीं है, वह इच्छा समस्त संसार की है अर्थात प्रकृति मात्र की है।
ग्रह भी इसीलिए घूम रहे हैं, तारे भी इसीलिए जल रहे हैं, ब्रह्माण्ड भर की सारी गति इसीलिए हो रही है कि गति करते-करते कहीं वह मिल जाए। जैसे सब भटक रहे हैं। किसकी तलाश में? उसकी तलाश में। चाँद-सूरज क्यों घूम रहे हैं? इसलिए नहीं घूम रहे हैं कि उन्हें आपको रोशनी देनी है, इसलिए घूम रहे हैं कि उन्हें लगता है कि घूमते-घूमते किसी दिन वह मिल जाए, क्या पता रास्ते में। तो इसीलिए कैसा भी प्राणी हो, चाहे वह पागल ही क्यों न हो गया हो फिर भी वह जीना चाहता है और उसमें कामवासना भी रहती है। कामवासना क्यों रहती है? ताकि प्रकृति का कल आ सके। तुम मर भी जाओ तो पीछे बच्चे रहें। कल बचा रहे, कल बचा रहे।
प्र: जैसे बैटन की रेस?
आचार्य: हाँ, बहुत बढ़िया। कुछ देर तक तुम दौड़ कर गए और फिर तुमने बैटन दूसरे को थमा दिया। तुम भले ही रुक गए लेकिन दौड़ चल रही है। दौड़ इसलिए चल रही है कि आगे उम्मीद यह है कि परमपिता खड़ा हुआ है, दौड़ते-दौड़ते-दौड़ते-दौड़ते एक दिन, क्या पता वह मिल ही जाए।
इसीलिए कैसा भी व्यक्ति हो उसमें आप यह दोनों तमन्नाएँ ज़रूर पाएँगे। पहली यह कि खा लूँ और दूसरी कामवासना। जीना है और जीवन पैदा भी करना है। यह मूलतः आध्यात्मिक इच्छा है।
यह पूरा संसार ही आध्यात्मिक है। यहाँ जो कुछ हो रहा है वो वहीं से आरम्भ हुआ है और उसी की ओर जाना चाहता है। कोई अगर आपको बहुत नारकीय कृत्य भी करता दिखे, कोई लड़ रहा है, झगड़ रहा है, हत्या कर रहा है तो भी आप यही जानिएगा कि यह बहका हुआ तो है लेकिन चाहता यह भी वही है। तलाश इसको भी शांति की ही है। हाँ, शांति की तलाश में यह घोर अशांति कर रहा है।
किसी को आप पाएँ घोर अशांति करते हुए भी तो भी यह स्पष्ट जानिएगा कि उसको चाहत शांति की ही है क्योंकि और कोई चाहत होती नहीं। सारी चाहतें प्राकृतिक हैं और प्रकृति की तो एक ही चाहत है — पुरुष। आपकी हर चाहत के पीछे एक ही चाहत है तो फिर आम चाहत और अध्यात्म में क्या अंतर हो गया!
आम चाहत अंधी है। वो हिंसा कर के अहिंसा तक पहुँचना चाहती है और अशांति से शांति तक पहुँचना चाहती है। उसे पास जाना है तो वह दूरी का सहारा लेती है। उसे मौन होना है तो शोर मचाती है। ऐसी है आम चाहत। इसीलिए आम चाहत सफल नहीं हो पाती क्योंकि विक्षिप्त है।
आध्यात्मिक मन जो चाहता है वह सीधे चाहता है। वो यह नहीं कहता कि मौन चाहिए तो शोर मचाओ। वह यह नहीं कहता है कि थमना है तो दौड़ जाओ। वह कहता है कि थमना है तो थमो, चुप होना है तो चुप हो जाओ। तमाम तरह की चालाक विधियाँ मत लगाओ।
आध्यात्मिक मन वह जो सीधे उधर को जाए जिधर प्रेम है, विधियाँ न लगाए। विधियाँ असफल है और इसका सबसे पहला और सबसे ठोस प्रमाण है प्रकृति। प्रकृति ने स्वयं विधि लगा रखी है सत्य को पाने की और वह विधि हम जानते हैं कि असफल हो रही है। प्रकृति की विधि अगर सफल हो रही होती तो इतने जानवर हैं और इतने समय से वे अपना वंश, अपनी पीढ़ी बढाए ही जा रहे हैं, मिल गयी होती उन्हें मुक्ति। प्रकृति की विधि तो यही है; परमात्मा को पाना है तो बच्चे पैदा करो, समय मिल गया और।
प्रकृति की विधि समझ रहे हैं? सत्य को पाना है तो शरीर को बचाए रखो। शरीर बचा हुआ है तो एक-न-एक दिन सत्य मिल ही जाएगा। और यह तर्क क्या बहुत लोगों का नहीं है। 'परमात्मा तो तब मिलेगा न जब पहले शरीर बचा रहेगा। चलो बेटा, पहले शरीर को बचाने का, दाने-पानी का जुगाड़ करो।' सुनी है न यह बात, सुना है न यह तर्क? ठीक यही तर्क प्रकृति का है।
प्रकृति कहती है, ‘शरीर को चलाए रहो। शरीर अगर है तो कभी-न-कभी वह घटना भी घट ही जाएगी।’ तो प्रकृति सबका शरीर चला रही है — कीट-पतंगा, गधा, सूअर, कौवा, चील। सब अपना-अपना शरीर बचाए चल रहे हैं, चल रहे हैं। पर शरीर बचाए रखने भर से किसी को सत्य मिल गया क्या? नहीं मिला न! विधि असफल हो गयी। जब प्रकृति की विधि असफल हो रही है तो इंसान की विधि कहाँ से सफल हो जाएगी?
विधियों की असफलता का सबसे निकट और प्रत्यक्ष प्रमाण है यह शरीर। यह शरीर क्या है? प्रकृति की विधि है। प्रकृति शरीर को आगे बढ़ाये जा रही है कि शरीर बढ़ता रहे। शरीर के होने मात्र से कोई मुक्त हो गया क्या? शरीर तो स्वयं बन्धन है।
प्र: तो क्या यह विधि स्वाभाविक रूप से, बाय डिज़ाइन गलत है?
आचार्य : पता नहीं किसका डिज़ाइन है पर जिसका भी है काम तो नहीं कर रहा है। समय के साथ इंसान का मस्तिष्क बेहतर हुआ है लेकिन परमात्मा को पाने की संभावना नहीं बेहतर हो गई। इस बात को गौर से समझिए। तकनीक बेहतर हो गयी है, बुद्धि तीक्ष्ण हो गयी है, सांसारिक मसलों में आदमी और ज़्यादा अधिक होशियार हो गया है। यह सब काम समय में हो जाते हैं कि समय जितना आगे बढ़ता चलेगा, इंसान द्वारा रचित चीज़ें उतनी बेहतर होती चली जाएँगी। किस अर्थ में बेहतर होती जाएँगी? इंसान की कामनाएँ पूरी करने के अर्थ में बेहतर होती चली जाएँगी। लेकिन समय के आगे बढ़ने से वह नहीं मिल जाता। यह दोनों अलग-अलग आयाम हैं। यह ज़मीन का आयाम है और वो आसमान का आयाम है। यह एक्स और वो वाय। एक्स पर कितनी भी दौड़ लगा लो वाय पर कितना उठे? शून्य।
समय यह आयाम है, एक्स का। इस पर आगे बढ़ोगे तो सफलता तो मिलेगी पर क्या सफलता मिलेगी? सांसारिक सफलता मिलेगी। वो वाली सफलता नहीं मिलेगी। इंसान अगर बचा रहा तो आप पाएँगे आज से पाँच सौ साल बाद, हज़ार साल बाद यह दुनिया आज की दुनिया से बहुत अलग होगी। संसार में आदमी ने बहुत सारी ऐसी चीज़ें निर्मित कर ली होंगी जिसके बारे में आप आज सोच भी नहीं पाएँगे।
जैसे आज से हज़ार साल पहले के आदमी को आज की दुनिया अपरिचित लगेगी वैसे ही आप अगर किसी तरीक़े से आज से हज़ार साल बाद में जा सकें तो आपको तब की दुनिया भी अपरिचित लगेगी। दुनिया बहुत बदल गई होगी लेकिन उसको पाने की संभावना तब भी उतनी ही होगी, जितनी आज है। आज कितनी है? जितनी आज से हज़ार साल पहले थी, करीब-करीब शून्य।
करोड़ में एक होता है जो उधर पहुँचता है। हज़ार साल पहले भी करोड़ में एक था जो उधर पहुँचता था। आज भी करोड़ में एक है जो उधर पहुँचता है और हज़ार साल बाद भी यही बात होगी। हाँ, घर बदल गया होगा, इंसान की गाड़ियाँ बदल गयीं होंगी। आज जैसे हम हवाई जहाज में बैठ करके दिल्ली पहुँच जाते हैं, लन्दन पहुँच जाते हैं, वैसे शायद आज से हज़ार साल बाद आप अंतरिक्ष यान में बैठ करके कभी मंगल ग्रह पहुँच रहे होंगे, कभी शुक्र ग्रह पहुँच रहे होंगे। कभी इस ग्रह के चाँद पर कुछ हो रहा होगा, तब कुछ और हो रहा होगा। तब कोई बैठे होंगे आचार्य प्रशांत, जो ब्रहस्पति ग्रह के किसी चन्द्रमा पर विश्रांति आयोजित कर रहे होंगे। तो यह सब चल रहा होगा। ऐसी ही बातें हो रही होंगी लेकिन कुछ है जो तब भी नही बदला होगा। क्या नहीं बदला होगा?
प्र: मन।
आचार्य: इंसान की बेचैनी, मन। और वो बेचैनी हज़ार साल पहले भी थी, आज भी है, आगे भी रहेगी। वह बेचैनी इंसान की भी नहीं है, वह बेचैनी प्रकृति की है।
प्रकृति स्वयं बेचैन है। इसीलिए तो प्रकृति से उठी हुई हर चीज़ बेचैन है। पतंगे की बेचैनी देखी है जब वो जाता है प्रकाश के पास? वो पतंगे की बेचैनी नहीं है, वो प्रकृति की बेचैनी है और वही बेचैनी इंसान के खोपड़े को भी मिली हुई है। वही बेचैनी हमारे मस्तिष्क को, हमारी एक-एक कोशिका को भी मिली हुई है। वह बेचैनी बनी रहेगी और अब तो जिस तरह के काम हो रहे हैं, इंसान के डीएनए पर और इंसान के क्लोनिंग इत्यादि पर, यह भी हो सकता है कि इंसान को इच्छा मृत्यु उपलब्ध हो जाए। कि आप मरोगे ही तब जब आप चाहो। या कि अगर कोई बिलकुल ही आपका गला इत्यादि ही काट दे, आपको पीस दे तभी आपकी मृत्यु होगी, अन्यथा आप मरोगे ही नहीं। इच्छा मृत्यु भी उपलब्ध हो गयी।
इच्छा मृत्यु भी उपलब्ध हो जाए आदमी को तो भी आदमी की बेचैनी नहीं दूर होनी वाली है। प्रकृति का तरीक़ा ही गलत है और प्रकृति का तरीक़ा हमारे लिए क्या हुआ? बुद्धि का तरीक़ा। तो ले दे कर बात यह आयी कि यदि आप सत्य की आकांक्षा रखते हैं तो बुद्धि का मार्ग नहीं चलेगा। क्योंकि बुद्धि का मार्ग प्रकृति का मार्ग है। बुद्धि का मार्ग माने मस्तिष्क का मार्ग। बुद्धि कहाँ से आती है? मस्तिष्क से आती है न!
आपके मस्तिष्क पर चोट हो जाए तो बुद्धि बचेगी क्या? तो बुद्धि का सुझाया जो भी मार्ग होगा वो वास्तव में किसका मार्ग है? प्रकृति का मार्ग; और प्रकृति का मार्ग आज से नहीं, समय की शुरुआत से असफल मार्ग है। उस मार्ग पर मत चलिएगा। कोई और मार्ग चाहिए, कोई और तरीक़ा।
देखिए, जब भी दुनिया की गति को, तो यह मत समझिएगा कि यूँही है। कोई यूँही नहीं भाग रहा। दीये की लपट यूँही नहीं तड़प रही है, फहरा रही है, नाच रही है। उसे वह चाहिए। और उसे वही चाहिए जो आपको चाहिए। चाहे महानगर की सड़कों का ट्रैफिक हो और चाहे सागर में मछलियों का नृत्य। जहाँ कहीं भी गति देखो एक बात पक्की समझना। सब दीवानें उसी के हैं। सबको चाहिए वही। तो दुनिया क्यों चल रही है? यह पूरी बात यहाँ सामने आ गयी है —
भंवरे हैं अगर, मदहोश तो क्या? परवाने भी हैं खामोश तो क्या? सब प्यार के नगमे गाते हैं, सब यार की बातें करते हैं।
तो यहाँ जो कुछ भी चल रहा है, बोल रहा है, गति कर रहा है, उठ रहा है, गिर रहा है वो सब काम एक ही कर रहा है। क्या काम कर रहा है? ‘सब प्यार के नगमे गाते हैं, सब यार की बातें करते हैं।’ यहाँ और कुछ नहीं हो रहा है। सड़क के ट्रैफिक को भी आप देखिए, लगेगा ऐसे कि यह सब अपने-अपने दफ़्तर जा रहे हैं। वो दफ्तर नहीं जा रहे। दिली ख्वाहिश उनकी यह है, यह गाड़ी किसी तरह जन्नत ही पहुँच जाए।
पहुँचना सबको वहीं है। हाँ, सबने एक विधि ढूँढ ली है, एक तरीका ढूँढ लिया है। विधि क्या है? टू हेवेन वाया ऑफिस , यह विधि है, कि जन्नत मिलेगी दफ़्तर के मार्ग से। और विधियाँ असफल होती हैं तो फिर लोगों की इच्छाएँ भी असफल हो जाती हैं। जो चाहिए वह सीधे नहीं माँगते। मध्यस्थ खोज लेते हैं, अक्लबाज़ी कर लेते हैं, होशियारी दिखा देते हैं। पतंगे को शान्ति चाहिए तो वह सीधे शान्ति नही माँगता है। वह कहता है, ‘शान्ति मुझे मिलेगी आग में जाने से।’ तो लौ के चारों ओर नाचेगा, नाचेगा। कहेगा, ‘यहाँ शान्ति मिलेगी।’
तुझे शान्ति चाहिए कि तुझे लौ चाहिए? चाहिए शान्ति और चक्कर किसके काट रहा है? लौ के। बस इसीलिए कुछ मिलता नहीं, जल और जाता है। तो यहाँ कोई नहीं है जो पापी है। लोग ग़लतफ़हमी में हैं। पाप कोई नहीं कर रहा। इश्क़ सबको एक से ही है बस लोगों के पास अपने-अपने तरीके और अपनी-अपनी ज़िद भी है।
वे कहते हैं, ‘प्यार तो करेंगे पर अपने-अपने तरीक़े से।’ वो तरीक़े भारी पड़ रहे हैं। लोग प्रेमी तो हैं पर सरल प्रेमी नहीं हैं। देखा है न आशिक़ को कई बार! प्रेम तो होता है लेकिन अकड़ भी पूरी होती है। तो लड़ाई कर के बैठे हैं। महीने भर से बात नहीं हो रही है और दिल ही दिल में जले जा रहे हैं, घुटे जा रहे हैं लेकिन अकड़ पूरी है, बात नहीं करेंगे।
प्रकृति ऐसी ही है। परमात्मा उसे चाहिए। उसको पाने के लिए वो आदिकाल से दीवानी है लेकिन वो अपना दायरा भी नहीं छोड़ना चाहती। वो कहती है, ‘मेरा दायरा है संसार। मेरा दायरा है समय। मैं रहूँगी इसी दायरे के भीतर और इसी दायरे में प्रगति करते-करते मैं एक दिन सत्य को पा लूँगी।’ बड़ी अकड़ू है, बड़ा ज़िद्दी प्रेम है और यह ज़िद भारी पड़ रही है।