प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, रोज़मर्रा के जीवन में डर प्रतीत होता है। इसे कैसे दूर करें?
आचार्य प्रशांत: डर तो लक्षण है। डर तो ये बताता है कि मन ने किसी चीज़ को पकड़ रखा है और जिस चीज़ को पकड़ रखा है मन स्वयं भी जानता है कि वह चीज़ स्थायी नहीं है। जब भी कुछ ऐसा पकड़ लोगे जो स्थायी नहीं है, नित्य नहीं है, जानते हो कि परमानेंट नहीं है, डर में जियोगे।
डर का मतलब होता है ये विचार कि कुछ छिन जाएगा। डर का आशय होता है यह भाव कि तुमसे कुछ हट जाएगा, तुम छोटे हो जाओगे और जो हट रहा है तुमसे वह इस हद तक भी हट सकता है कि तुम मिट ही जाओ। तो डर होता है हानि का विचार। गहराई से देखें तो डर होता है मिट जाने का अर्थात् मृत्यु का विचार।
आपने अपनी पहचान इसके साथ जोड़ दी (बोतल दिखाते हुए)। आप कहते हो, ‘मैं वो जो इसका मालिक है, मैं वह जिसके हाथों में ये है।’ तो आपसे कोई पूछता है, ‘आप कौन हो?’ आप कहते हो, ‘बोतल का मालिक।’ आपकी परिभाषा ही अब बोतल से सम्बन्धित हो गयी। और ये बोतल चीज़ बाहरी है। हमेशा यह आपकी थी नहीं, हमेशा यह रहने वाली नहीं है। एक दिन आपने इसको उठाया था, एक दिन छोड़ना भी पड़ेगा। पर पकड़कर बैठे हैं अभी, और पकड़कर ही नहीं बैठे हैं, इसके साथ अपना परिचय ही जोड़ दिया है। इसके साथ अपना नाम, अपनी पहचान ही जोड़ दी है। कहने लग गये हैं, ‘बोतल है तो हम हैं, बोतल नहीं तो हम भी नहीं।’ कोई पूछता है, ‘आप हैं कौन?’ तो आप कुछ नहीं बता पाते। आप बोतल को केन्द्र में रखकर अपना परिचय देते हैं। आप कहते हैं, ‘मैं बोतल का मालिक।’ बोतल पहले आती है, मैं बाद में आता हूँ।
और सामने बैठे हैं इतने सारे लोग और बोतल चीज़ है बढ़िया! सबकी नज़र बोतल पर लगी हुई है, आप अच्छे से जानते हैं कि बोतल कभी भी छिन सकती है। कोई भी आएगा बोतल को ले जाएगा। और कोई और नहीं ले गया बोतल को तो भी वक़्त तो इसको ले ही जाएगा। कोई बोतल ऐसी नहीं है जिसको आप यूँ छोड़ भी दें (बोतल छोड़ते हुए) बिना छेड़े, तो अनन्त काल तक रखी रह जाए। उसका प्राकृतिक क्षरण होगा। समय हर चीज़ को ख़त्म करता है। आपने अगर किसी ऐसी चीज़ को पकड़ लिया है जिसे समय ख़त्म कर ही देगा, जिसे संसार और समाज कभी-न-कभी छीन ही लेंगे तो नतीजा होगा डर। डर आपको लग ही नहीं सकता बिना ग़लत एसोसिऐशन (साहचर्य) के। तो देखिए कि किस चीज़ से जुड़े बैठे हैं।
और यहाँ पर जो मैंने उदाहरण लिया, वह बड़ा स्थूल है। बोतल सामने थी मैंने उठाकर आपको दिखा दी। आवश्यक नहीं है कि मन ने किसी स्थूल वस्तु से ही तादात्म्य किया हो। किसी विचार से भी तादात्म्य कर सकते हैं। घर से तादात्म्य हो सकता है, सम्पत्ति से तादात्म्य हो सकता है, पद और प्रतिष्ठा से भी हो सकता है। ‘मैं कौन?’ — जिसकी बड़ी प्रतिष्ठा है। अब अगर आप वो हैं जो बहुत इज़्ज़तदार है तो आप लगातार डर में जिएँगे। अब इज़्ज़त कोई बोतल नहीं है कि उसे आप हाथ में पकड़े रहते हों, वो सूक्ष्म चीज़ है; ग्रोस (स्थूल) नहीं है, सटल (सूक्ष्म) है। पर जो इज़्ज़तदार है वो भी बहुत डर में जिएगा। कोई भी आकर के उसकी इज़्ज़त छीन सकता है। कहीं कोई छीटें न मार दे, कुर्ता सफ़ेद है; हम इज़्ज़तदार हैं!
जो कुछ भी आप पकड़ेंगे, वही आपको डर में धकेल देगा। डर में अगर नहीं जीना है तो ग़ौर से देखिए कि किन चीज़ों से जुड़े हुए हैं। ये पहला चरण कि देखिए किन चीज़ों से जुड़े हुए हैं और फिर देखिए कि उनसे जुड़कर आपको लाभ क्या मिल रहा है। डर लाभ कहलाता है क्या? इससे (बोतल दिखाते हुए) जुड़कर के अगर मुझे भय मिल रहा है तो यह मेरे लिए लाभप्रद है क्या? तो यह मैंने कैसा सौदा किया? लाभ की जगह मैंने भय ख़रीदा है। ये तो मैं बढ़िया व्यापारी निकला नहीं। बोतल के साथ-साथ डर ले आया; नकली सौदा।
अपने में स्वतः सम्पूर्ण होकर के जियें। अगर आप सहज हैं अपने साथ तब भी जब कुछ बाहरी न जुड़ा हो आपसे, मात्र तभी आप एक स्वस्थ जीवन जी रहे हैं। अगर आप अपने साथ सहज सिर्फ़ बहुत कुछ बाहरी जोड़कर हो पाते हैं तो जीवन बीमार है, जीवन व्यर्थ जा रहा है। और जीवन व्यर्थ जाए, ऐसी कोई अनिवार्यता नहीं है। स्वस्थ जीवन जिया जा सकता है। कोई भी ऐसी चीज़ जो आपके लिए भय का कारण बनती है, वो जीवन में व्यर्थ ही मौजूद है।
और जब मैं कह रहा हूँ कि जीवन में व्यर्थ ही मौजूद है तो मैं ये नहीं कह रहा हूँ कि उस चीज़ को हटा दीजिए, मैं कह रहा हूँ, उससे आपकी जो आसक्ति है, उसको हटा दीजिए। बोतल उठाकर फेंक नहीं देनी है, बोतल की उपयोगिता है पानी मिलेगा इससे। तो बोतल को फेंकने की बात नहीं हो रही है, बोतल के साथ जो आसक्ति है उसकी कोई ज़रुरत नहीं। बोतल रखी है, रखी रहने दीजिए, भई। बोतल को ऐसे भींचने की ज़रुरत क्या है (कसकर पकड़ते हुए)? रखी है, रखी रहने दीजिए। छिन तो वो तब भी जाएगी अगर आपने उसे मुट्ठी में भींच रखा है। मुट्ठी में भींच करके आप उसको कोई अतिरिक्त सुरक्षा तो दे भी नहीं पा रहे। तो इससे अच्छा है वह जहाँ रखी है, रखे रहने दीजिए; आप अपने में मग्न, मस्त रहिए।
हममें कर्ताभाव बड़ा प्रबल होता है। हम सोचते हैं कि अगर हमने किसी चीज़ को ज़ोर से पकड़ लिया तो हमने उसको ज़्यादा सुरक्षित कर लिया। नहीं, ऐसा बिलकुल भी नहीं है। आप अगर ग़ौर से देखेंगे, ईमानदारी से देखेंगे, तो आपको पता चलेगा कि कोई भी चीज़ आपके पकड़ लेने के कारण, आपकी ग्रिप (चंगुल) के कारण और ज़्यादा सुरक्षित नहीं हो जाती। बल्कि ये ज़रूर हो सकता है कि उस चीज़ को पकड़ने के कारण आप असुरक्षित हो जाते हों। वस्तु तो सुरक्षित हुई नहीं, आप असुरक्षित हो गये।
प्र: आचार्य जी, आपने बोतल का उदाहरण देकर समझाया कि भय ज्ञात वस्तु के छिनने का होता है। तो फिर अज्ञात का भय क्या होता है?
आचार्य: आप पूछ रहे हैं कि अभी मैंने कहा कि भय तब है जब बोतल हाथ में है। बोतल यदि हाथ में है तो पता तो है न कि हाथ में है। तो बोतल नोन है, ज्ञात है और फिर लग रहा है कि ये जो ज्ञात वस्तु है ये कहीं छिन न जाए। तो कह रहे हैं कि फिर अज्ञात का भय क्या होता है। अज्ञात का भय कुछ होता ही नहीं। अज्ञात का भय जिसे हम कहते हैं, सुनिए वो क्या है, वो है फ़ियर ऑफ़ द नोन कमिंग टू एन एन्ड (ज्ञात के ख़त्म होने का भय)।
वी लाइक टू लिव इन द नोन , हम चाहते हैं कि हम ज्ञात में जियें क्योंकि उसमें हमें सुरक्षा, सिक्योरिटी का अनुभव होता है न। आप जब ऐसी जगह जाते हैं जिस जगह को आप जानते हैं या आप कोई ऐसा रास्ता लेते हैं जिससे आप परिचित हैं, तो कैसा अनुभव होता है? सुरक्षा, सिक्योरिटी का, है न? हम नोन में जीना चाहते हैं, हम ज्ञात में जीना चाहते हैं। तो फिर जब भी कभी अन्देशा खड़ा होता है कि कुछ अज्ञात आ जाएगा, आप डर जाते हैं।
अज्ञात से तो आप डर सकते ही नहीं, क्योंकि डरने के लिए विषय चाहिए। अज्ञात माने वह जिसका कोई विषय नहीं है, विषय अभी स्पष्ट ही नहीं हुआ। तो डर जो हमें लगता है वो अज्ञात का, अननोन का कभी नहीं लगता। डर हमेशा हमें यही लगता है कि कहीं ये जो मेरा ज्ञात दायरा है, मुझे इससे बाहर न जाना पड़े। छोटे बच्चे को डर लगता है कहीं मुझे अपने घर से बाहर न जाना पड़े। घर ज्ञात है, नोन है, बाहर अननोन है। वहाँ कुछ भी हो सकता है, मुझे क्या पता क्या हो सकता है!
बाहर क्या है, मुझे पता नहीं, पर भीतर मुझे पता है कि बड़ी सुविधाएँ हैं। भीतर मुझे पता है कि कोई चुनौती नहीं। भीतर जो कुछ है वो पुराना है, बासी है, जाना हुआ है और मुझे उसकी आदत लग गयी है, मुझे लत लग गयी है घर के भीतर रहने की। ये जो चार दीवारें हैं, ये मुझे सुरक्षा देती हैं। घर में जितने लोग हैं उन्हें मैं जानता हूँ। मैं ये भी जानता हूँ कि मैं उनसे क्या कहूँगा तो मेरी माँग पूरी हो जाएगी। बाहर? बाहर पता नहीं क्या हो। तो आदमी इसलिए अज्ञात से घबराता है। अज्ञात से नहीं, वो ज्ञात के अन्त से घबराता है।
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