परम आनंद माने क्या? || आचार्य प्रशांत (2016)

Acharya Prashant

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परम आनंद माने क्या? || आचार्य प्रशांत (2016)

प्रश्नकर्ता: सर, क्या एक बार परम आनन्द को पा लेने के बाद — जिसकी हम यहाँ पर बात कर रहे हैं — सर, क्या उसके बाद भी कोई ऐसा तरीक़ा होता है कि वहाँ से वो हट जाए?

आचार्य प्रशांत: वो पीछे एक बैठा है उसने परम शान्ति पायी है (पीछे बैठे सदस्य की ओर हास्यपूर्ण संकेत करते हुए)। परम को जो लोग पा लेते हैं मुझे ज़रा उनसे डर-सा लगता है। क्या परम आनन्द, कहाँ है परम आनन्द, कौन-सा?

प्र: सर, जिसकी हम यहाँ बात कर रहे हैं।

आचार्य: मैंने तो कोई बात नहीं करी। कैसा परम? मैंने कहा है मदहोशी में होश है। मैंने ये थोड़े ही कहा है, 'मदहोशी में बेवकूफ़ी है।' परम आनन्द माने क्या? नाचोगे, कूदोगे, गुलाटी मारोगे, क्या करोगे?

प्र२: बेफ़िक्र हो जाएँगे।

आचार्य: हाँ?

प्र२: बेफ़िक्र हो जाएँगे।

आचार्य: तो हो जाओ। उसको परम आनन्द क्यों बोल रहे हो। फिर वही विराट वाली बात है न, कि छवि बनानी है, परम आनन्द!

प्र: सर, अभी पता नहीं है न, क्या चीज़ है वो।

आचार्य: अगर नहीं पता है तो यहाँ क्या कर रहे हो? अगर नहीं पता है तो सुबह उठते क्यों हो बिस्तर से? क्या करने उठते हो? नहीं पता है तो एक-एक साँस ले क्यों रहे हो? नहीं पता है तो जिये क्यों जा रहे हो, नहीं पता है तो रात में सोने क्यों जाते हो? खाना क्यों खाते हो?

ये जो शरीर की इच्छा है आगे बढ़ने की, ये जो मन भविष्य का निर्माण करता है, ये जो पूरी जिजीविषा है; देखते नहीं कि इसकी वजह क्या है? क्यों तुम्हें अभी कल चाहिए, क्यों तुम्हें अभी सुबह चाहिए?

क्योंकि कुछ शेष है, कुछ पाना बाक़ी है। और तुम न जानते कि क्या पाना बाक़ी है तो तुम इतनी उत्कंठा से जिये जाते क्या? फिर यहाँ बैठकर कहते हो, 'हम जानते नहीं परम आनन्द क्या होता है।' नहीं जानते और उसकी ओर दौड़े चले जाते हो, नहीं जानते और उसको जीने का आधार बनाते हो, नहीं जानते और हर चेहरे में उसी को तलाशते हो।

हाँ, विचार में नहीं जानते, चेतना में नहीं जानते, पर आत्मा में जानते हो। ख़्याल नहीं कर सकते उसका, पर ज़रूरी थोड़े ही है कि ख़्याल से ही जाना जाए। जानते तो हो ही।

अब उलझो मत, पकड़ो मत कि क्या जानते हैं, कैसे जानते हैं। वो तुम नहीं पकड़ पाओगे। इसीलिए कहता हूँ कि होशियारी बड़ा बन्धन है तुम्हारा। जो भी बात बोलो, उसका अर्थ निकालने की कोशिश करते हो कि किसी तरह समझ में आ जाए कि बोला क्या।

प्र३: तो परम आनन्द को जानना ज़रूरी नहीं है, समझदारी को ख़त्म करना ज़रूरी है?

आचार्य: हाँ। तुम बर्फ़ के गोले हो; बर्फ़ हो तुम जो जाम में पड़ी हुई है। कह रही है, 'मुझे चढ़ नहीं रही है।' (श्रोतागण हँसते हैं) अब तुम्हारे लिए शराब को जानना ज़रूरी है या उसमें मिल जाना? मिल जाओ, जान जाओगे। पर जब मिल गये तो दावा कैसे करोगे कि जान गये? अपनी हालत देखो, चारों ओर से शराब ही शराब है।

घिरे हुए हो सौन्दर्य से, घिरे हुए हो सुरूर से। फिर कहते हो, 'चढ़ नहीं रही।' बर्फ़ को चढ़ती है कभी? पानी बन जाओ, एक हो जाओ, फिर नहीं पूछोगे। तुम्हारा विगलित होना ज़रूरी है। तुम गये नहीं कि फिर जो होना है वो अपनेआप होगा और उसका कोई आश्वासन नहीं, गारंटी मत माँगना। और आश्वासन नहीं दिया जा सकता इसकी वजह ये नहीं है कि बात कुछ पक्की नहीं है। आश्वासन नहीं दिया जा सकता उसकी वजह ये है कि सत्य अप्रमेय है, उसे सिद्ध नहीं किया जा सकता। उसकी आश्वस्ति शब्दों से और प्रमाण से नहीं हो सकती।

इसलिए कह रहा हूँ कि कोई गारंटी , सुरक्षा, आश्वासन नहीं। 'हमें तो पीनी थी, हमें बनना थोड़े ही था।' ये ऐसा नशा है जिसमें तुम्हें ही मधु, तुम्हें ही प्याला बनना पड़ता है। तुम्हें वो हो जाना पड़ता है जिसके तुम अभिलाषी हो। ये वो प्रेम है जिसमें तुम्हें ही वो बन जाना पड़ता है जिसकी तुम्हें हसरत है।

दूसरे शब्दों में, तुम्हें अपनी ही तलाश है। इस प्रेम में प्रेमी को अपने से बाहर नहीं पाओगे। दुनिया में खोजोगे, मिलेगा नहीं, लेकिन फिर भी तुम्हें चाहिए। दुनिया में मिलेगा नहीं तो कहाँ मिलेगा? तुम्हें ही वो हो जाना पड़ेगा जो तुम्हें चाहिए। फिर अपने प्यार में पड़ जाओगे, अपने लिए प्रेम गीत गाओगे फिर कहीं इधर-उधर नहीं जाओगे। स्वयं से प्रेम करोगे, स्वयं की पूजा भी करोगे।

“न नमाज़ आती है, न वज़ू आता है; सजदा कर लेता हूँ जब सामने तू आता है।” अब ये 'तू' कौन है? अपनी ही बात कर रहे हो। प्रेम जब पूजा बन जाए तब समझना कि प्रेम है। पूजा नहीं है तो वासना है। जब तक बाहर की ओर देख रहा है, वासना है।

“जहाँ हमने सिर को झुका दिया, वहीं एक काबा बना दिया।” सिर झुकाने का क्या मतलब है? यही मतलब है — होशियारी से बाज़ आओ। तुम्हारी आँखों में इतना गणित है; तुम्हारा दिमाग नहीं है कैलकुलेटर (गणक) है। चेहरा नहीं है, जोड़-भाग की किताब है। सिर झुकाने का मतलब है कि आग लगाओ इन किताबों को, फेंक दो लाभ-हानि के कैलकुलेटर (गणक)।

कितना सुन्दर है न — “अर्थ रहितो अहम्”, “अर्थ रहितो अहम्”! हम वो जो मतलब से आगे के हैं। अर्थ माने ‘मतलब’, अर्थ मतलब ‘चाहत’, अर्थ मतलब ‘कामना’, अर्थ मतलब ‘आगे का कुछ’। “अर्थ रहितो अहम्”, ये है सिर का झुकना। यहाँ तो अर्थ-ही-अर्थ भरा है। (सिर की ओर इशारा करते हुए) यहाँ तो मतलब-ही-मतलब है। “अर्थ रहितो अहम्” मतलब — बेमतलब।

YouTube Link: https://www.youtube.com/watch?v=6276M5G-iVE

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