पक्षी, आकाश, नदी, और तुम || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2015)

Acharya Prashant

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पक्षी, आकाश, नदी, और तुम || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2015)

वक्ता: तो हम पूछ रहे हैं कि जब इन पक्षियों के पास कुछ करने को नहीं है तो यह इतने मज़े क्यों कर रहे हैं, इतना इधर-उधर भाग क्यों रहे हैं, उड़ क्यों रहे हैं?

क्योंकि तुम्हारा सबसे बड़ा खौफ़ ही यही है कि अगर तुम्हारे पास कुछ करने को नहीं होगा तो तुम मुर्दा जैसे हो जाओगे! यही खौफ़ है ना? और दुनिया तुम्हें यही बताती है कि अगर कोई उद्देश्य नहीं होगा, कुछ हासिल नहीं करना होगा, तो तुम बेकार हो जाओगे, आलसी।

यहाँ तो कहानी दूसरी है – जिनके पास कुछ करने को नहीं है वो अति उद्द्यमी हैं। कोई मोटी चिड़िया देखी है? मोटी मछली, (हँसते हुए) जो तैर नहीं पा रही है? एकदम-से मोटी हो गयी है, देखी है? अब उसको पीने को पानी मिला हुआ है, सब है, उसके बाद भी वो सही है, काम करती रहती है, मज़ेदार है एकदम! ये देखो (एक चिड़िया की तरफ इशारा करते हुए) चीं-चीं-चीं कर रही है। ये चीं-चीं करने से इसको कौन-सा खाना मिल गया? ये किस बात पर इतनी आवाज़ कर रही है? इसका क्या उद्देश्य सिद्ध हो रहा है? क्या हासिल हो रहा है?

श्रोता १: पता नहीं।

वक्ता: तो फिर क्यों? क्या है मतलब? कुछ तो बात होगी ना? इसका राज़ क्या है? उदास भी नहीं लग रही, या लग रही है? (चिड़िया को दिखाते हुए) देखो, तुम बैठे हो, वो ऊपर से देख रही है। किस बात की ख़ुशी है उसको?

श्रोता २ : उसको कुछ चाहिए नहीं।

वक्ता: तो फिर काम क्यों कर रही है?

श्रोता ३: सर, मज़ा मिल रहा है उसको।

वक्ता: मज़ा मिल रहा है, करने से?

श्रोता २: मज़ा मिला हुआ है, इसलिए करती जा रही है, करती जा रही है।

वक्ता: अच्छा, अगर एक प्रतियोगिता हो, मनहूसियत की, तो क्या लगता है कौन जीतेगा? जहाँ तक तुम्हारी आँख जाती है देखो, जहाँ तक तुम्हारे कान सुनते हैं सुनो और बताओ इस पूरे ब्रह्माण्ड में क्या मनहूस है? उदास, झड़ा हुआ सा, क्या है? जो कुछ भी दिख रहा है देखो, जो कुछ भी सुन सकते हो सुनो, जो छु सकते हो छुओ और बताओ – क्या है, जो कतई उदासियत, उब, बोरियत से भरा हुआ है? (हँसते हुए) अगर तुम्हें नाम देना हो, ‘झाड़े-लाल’, तो किसको दोगे? चिड़िया को दोगे? ‘उजाड़ सिंह’, ‘भिखारी राम’, इस तरह के नाम देने हों, देखो चारों तरफ देखो, किसको दोगे, बोलो? नदी को दोगे? वो तो बाँट रही है, बह रही है। पेड़ो की शक्ल देखो, चिड़िया की देखो, नदी की देखो, जानवरों की देखो और (मुस्कुराते हुए) इंसान की देखो। किसकी शक्ल पर मनहूसियत टपक रही है? किसकी शक्ल पर मनहूसियत टपक रही है? क्यों टपक रही है?

(सब चुप रहते हैं)

कोई गंजी चिड़िया देखी है आज तक? या एक चिड़िया, जो नक़ल उतार रही है कौवे की? कोई नकलची चिड़िया देखी है आज तक?

(हँसते हुए) मेरा सवाल ये है कि ‘मानुष क्यों मनहूस’ और ‘बन्दा क्यों गन्दा’? हमने ठेका ले रखा है सारी मनहूसियत का? अस्तित्व में हमारे अलावा कोई नहीं है जो गिरा हुआ, उदास, सूखा, निष्प्राण, झड़ा हुआ, उजड़ा हुआ, सिकुड़ा, सहमा, डरा, तेजहीन हो।

और हमारे अलावा कोई चश्मा भी नहीं लगाता। कभी देखा है कौवे को चश्मा लगाए? (एक श्रोता की तरफ़ इशारा करते हुए) तुम्हारे क्यों लग गया?

श्रोता ३: आँखें ख़राब हैं, सर।

वक्ता: क्यों हुई?

श्रोता ३: पता नहीं सर।

वक्ता: हाय!

श्रोता ३: भगवान का उपहार है, सर।

(सभी श्रोता हँसते हैं)

वक्ता: भगवान के ऐसे उपहार इंसान को ही क्यों मिलते हैं? तुम्हें क्यों ख़ास तौर पर चुना है भगवान ने ये उपहार देने के लिए? ये उपहार किसी मोर को क्यों नहीं देता? सोचो मोर घूम रहे हैं चश्मा लगा के। (सभी श्रोता हँसते हैं) और हाथी को कितना बड़ा चश्मा लगेगा! देखा है ना, वो किसी के चश्मे में वाइपर लगा हुआ होता है और हाथी का इतना बड़ा चश्मा! एक आदमी लगाना पड़ेगा सफ़ाई करने के लिए।

(सभी हँसते हैं)

श्रोता २: सर, कोई जरूरत नहीं थी यह सब कुछ करने की, इंसान ने बिना मतलब ही इतना कुछ पाल लिया। सब कुछ था, सब कुछ होते हुए भी पूरी व्यवस्था को अपने इर्द-गिर्द रचने की कोशिश करी और उसके कारण यह हुआ कि हमें इतना कुछ झेलना पड़ गया। जैसे बाकी सब सहयोग करते हैं प्रकृति के साथ, हम नहीं कर पाए, अपना ही कुछ अलग करना था। उस अलग करने में इंसान इतना अलग हो गया।

वक्ता: किसी ने कहा है, बिल्कुल ठीक-ठीक पंक्तियाँ मुझे याद नहीं है, पर ऐसा ही कुछ है –

हम एक ही भले थे , क्यों एक से दो हो बैठे ,

पाया हमने कुछ नहीं , जो हासिल था वो खो बैठे ।”

“हम एक ही भले थे, क्यों एक से दो हो बैठे। पाया हमने कुछ नहीं, जो हासिल था वो खो बैठे।” इसका क्या मतलब है?

श्रोता ५: हमने हमेशा अपने को अधूरा-अधूरा समझा है, पूरा तो कभी माना ही नहीं।

वक्ता: ये ‘दो हो बैठे’ का क्या मतलब है?

श्रोता ३: अपनेआप को अलग मानना।

वक्ता: एक, जो हम ‘हैं’ और एक जो हमें हासिल करना है। एक, जो हम ‘हैं’ और एक जो हमें हासिल करना है। ‘है’ माने जो हम अपनेआप को जान रहे हैं, सोच रहे हैं, जो अपना विचार बना रखा है। अपनी छवि – जो हमेशा अधूरी होगी और एक वो ख्याल कि “यह पा लूँ तो यह अधूरापन पूरा हो जाएगा” तो ये कहलाता है ‘दो’ होना, इसी को द्वैत कहते हैं। द्वैत समझे क्या है? द्वैत यही है। दो भाग, दो फाड़, दो हिस्से और दोनो अधूरे।

तो जो एक हिस्सा है, वो हमेशा किसकी तलाश में है?

श्रोता ४: कुछ पाने की।

वक्ता: दूसरे की, द्वैत का मतलब ही क्या है – तलाश। द्वैत का क्या मतलब हुआ?

श्रोता *(सभी एक स्वर में)*: तलाश।

वक्ता: तो द्वैत का क्या मतलब हुआ? तड़प। ये बात समझे? द्वैत का मतलब हुआ तड़प। “मुझसे बाहर कुछ है जो मुझे पाना है और मुझे उसकी तलाश है। जब तक मिल नहीं रहा, मैं तड़प रहा हूँ, इसी का नाम द्वैत है।”

और ‘हम एक ही भले थे’ माने कुछ हासिल नहीं करना था, कुछ पाना नहीं था, जैसे चिड़िया! “हम एक ही भले थे, व्यर्थ एक से दो हो बैठे, पाया हमने कुछ नहीं, जो हासिल था वो खो बैठे।”

क्या हासिल था? यही, सुबह की हवा, चहचहाना, मौन, शांति, आनंद, मस्ती।

दिल्ली तो आ जाओगे, पर फिर ये कहाँ पाओगे? कहाँ गंगा दिल्ली में, कहाँ ये पेड़ और कहाँ ये चबूतरा?

पर दो तो हुए पड़े है ना? दूसरे की तलाश लगातार है, फिर बाद में पछताते हैं कि पाया हमने कुछ नहीं, जो हासिल था…?

श्रोता *(सभी एक स्वर में)*: वो खो बैठे।

वक्ता: क्या है वो ‘दूसरा’ जिसकी तलाश रहती है?

श्रोता ६: सर, बहुत कुछ पाना चाहते हैं।

वक्ता: अरे, क्या पाना चाहते हो, बता दो।

(हँसते हुए)

“हजारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पर दम निकले। बहुत निकले मेरे अरमान, लेकिन फिर भी कम निकले।”

हजारों ख़्वाहिशें! अरे, एक-दो नहीं! हजारों अरमान! एक-दो हो तो क्या पता पूरा भी कर दे कोई और अगर एक ही अरमान हो तो पूरा हो भी जाता है । पता है तुम्हें?

श्रोता १: यस सर।

वक्ता : सिर्फ़ एक हो, तो पूरा हो भी जाता है पर जहाँ हजारों हो गए… (एक श्रोता की तरफ इशारा करते हुए) यहाँ तो लाखों हैं। (हँसते हुए) और इसके आगे भी ग़ालिब कहते हैं “बहुत बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले”। तो जब हजारों ख़्वाहिशें होंगी तो बेआबरू तो होगे ही ना। (हँसते हुए, एक श्रोता से) क्या चाहिए? यूँ ही नकल नहीं करता बन्दा! कुछ चाहिए होता है, तभी करता है। दिल ही दिल में मचल तो रहे हो, सुलगते अरमान, तड़पते सपने!

(आसमान की ओर देखते हुए)

वक्ता: आसमान क्या कह रहा है?

श्रोता ६: सर, आसमान कह रहा है कि मुझे कैद करके दिखाओ!

वक्ता: अरे! क्या बोल रहे हो? आसमान को तुमसे क्या मतलब है? तुम इतने छोटे, वो तुम्हें चुनौती भी क्यों देगा? तुमसे उसे पड़ी क्या है?

हमने कहा, “पंछी हमें डोलता नजर आता है, गाता नजर आता है। आसमान न डोलता है, न गाता है, तो वो क्या कह रहा है?

श्रोता ३: सर, वो शांत है और हर समय हमारे ऊपर भी रहता है।

वक्ता: ऊपर रहता है, नीचे नहीं रहता? तुम्हारे पाँव के नीचे क्या है? मेरे पाँव के नीचे देखो अभी क्या है?

श्रोता ३: ज़मीन।

श्रोता ४: कुछ नहीं।

वक्ता: अरे पगलों, आसमान है। आसमान किसको कहते हो? आसमान नहीं है पाँव के नीचे मेरे? मान लो वहाँ ज़मीन पर कोई चींटी चल रही हो और वो ऊपर को देखे, मेरी चप्पल की ओर तो वो क्या कहेगी? आसमान है ना? आसमान नहीं है मेरे पाँव के नीचे? है कि नहीं है?

श्रोता *(सब एक स्वर में)*: जी सर।

वक्ता: ऊपर भी आसमान, नीचे भी आसमान, दायें भी आसमान, बायें भी आसमान, जहाँ जगह है, वहाँ आसमान, जहाँ स्थान, वहाँ आसमान, पेट के अन्दर क्या है?

श्रोता *(सब एक स्वर में)*: आसमान।

(सब हँसते हैं)

वक्ता: गड़बड़ हो गयी ना? ऊपर आसमान, नीचे आसमान, दायें आसमान, बायें आसमान और भीतर भी…?

श्रोता *(सब एक स्वर में)*: आसमान।

वक्ता: तो क्या कह रहा है आसमान? आसमान में चिड़िया भी है और आसमान में ये भी है (एक इंसान की तरफ इशारा करते हुए) ये देखो। क्या चाहिए इसे? (सभी श्रोता हँसते हैं) बोलो? अब आसमान में चिड़िया फुदक रही है और आसमान में इंसान गन्दा, काला धुआँ भी फैला देता है। आसमान क्या कह रहा है तुमसे?

श्रोत४: सर, जिस तरीके से आप बता रहे हैं, उस हिसाब से तो आसमान यही बता रहा है कि सहन करने की क्षमता होनी चाहिए।

वक्ता: आसमान बर्दाश्त कर रहा है क्या तुमको? बर्दाश्त करने का तो मतलब यह होता है कि थोड़ा दर्द हो रहा हो, तो ही बर्दाश्त करना पड़ता है। तुम कुछ कर लो, आसमान का क्या बिगड़ जाएगा? तुम कितना भी धुआँ फैला लो, आसमान गन्दा हो जाता है क्या? तुम भर दो आसमान को धुएँ से, आसमान गंदा होता है क्या? किसी ने छुआ है आज तक आसमान को? कोई उसे गन्दा कर सकता है? वो तो अस्पर्शित रहता है ना, अनटच्ड।

चिड़िया से ज़रा अलग है, हिलता-डुलता है ही नहीं, अचल है बिल्कुल; ना शब्दों में तुम उसका गीत सुन सकते हो। क्या कह रहा है? अनछुए रहो, इतने बड़े रहो कि सब तुममें समाया रहे लेकिन कुछ भी तुम्हें हैरान, परेशान, व्यथित ना कर पाए। गन्दा ना कर पाए, निशान, दाग-धब्बे ना छोड़ पाए। सब तुममें होता रहे, लेकिन सब होने के बावजूद तुम, तुम रहो।

और इंसान कैसा है?

श्रोता ३: बदल जाता है।

श्रोता ५: कुछ और होने में लगा रहता है।

वक्ता: आसमान में इतना कुछ चलता रहता है, आसमान को फ़र्क नहीं पड़ता और तुम्हारे दिमाग में ज़रा कुछ चलता है तो तुम दुम-दुम-दुम-दम(विचलित हो जाते हो)। आसमान में पूरी दुनिया चल रही है और आसमान को…

श्रोता: फ़र्क नहीं पड़ता।

वक्ता: (हँसते हुए) और तुम्हारे दिमाग में भी एक दुनिया चल रही है जो बड़ी छोटी-सी है। जितने छोटे तुम, उतनी ही छोटी तुम्हारी दुनिया, लेकिन तुम्हारी दुनिया तुमको क्या कर देती है? नचा देती है, गिरा देती है, कँपा देती है, डरा देती है, बेहोश कर देती है।

श्रोता २: सर, वही आसमान दुनिया को चला रहा है और दुनिया हमें चला रही है।

वक्ता: आसमान तुमसे कह रहा है – विराट, विशाल, असीम! लेकिन ऐसे असीम कि अपनी मौजूदगी का एहसास भी न कराओ। तुमसे कोई कहे, “बताओ यहाँ क्या-क्या रखा है? यहाँ क्या-क्या है?” तो तुम दस चीज़ें गिनाओगे, पर आसमान कभी नहीं गिनाओगे। मैं कहूँ, “यहाँ क्या-क्या है?” तो तुम कहोगे, “ये है, ये है, ये है।” पर क्या यह कहोगे, “आसमान है”? कहोगे? वो तो नहीं गिनाओगे ना?

बड़ी मज़ेदार बात है। सब कुछ उसमें है लेकिन उसे कोई सरोकार नहीं है अपनी मौजूदगी का एहसास कराने में। आसमान को ही ख्याल में ले करके किसी ने कहा था, “*हो भी नहीं और हर जगह हो” * इसलिए परम सत्य के लिए, परमात्मा के लिए अक्सर आसमान की उपाधि दी जाती है। ‘आसमान’ यह वाला नहीं जो आँखों से दिखता है – उदाहरण के तौर पर, अनंत व्यापकता के तौर पर।

दिल कैसा हो? आसमान जैसा। इतना बड़ा, इतना बड़ा, कि उसमें सबके लिए जगह हो। तुम्हारे दिल में है सबके लिए जगह? तुम तो कहते हो, “तुझे दिल में बसा लिया, अब दरवाजे बंद हैं, अब कोई और न आएगा” (डराते हुए) “और न तुझे बाहर जाने दूँगा।” (सभी श्रोता हँसते हैं) यह होता है कि नहीं होता है? होता है, सो तो होता ही है और तुम्हारे इरादे भी तो यही हैं।

और मन कैसा हो? पक्षी जैसा। जो उस आसमान में उड़ रहा है।

मन मुक्त पक्षी जैसा, दिल आसमान जैसा। इस आसमान को आत्मा कहते हैं और आत्मा के ही आसमान में मन खुश रहता है, पक्षी की तरह। वो कहीं और नहीं खुश रह सकता। मन को आत्मा चाहिए, जैसे पक्षी को आकाश। समझ रहे हो बात को? पक्षी को पिंजड़े नहीं चाहिए। पक्षी को क्या चाहिए? आसमान, तभी वो ऐसे रहता है, मस्त! वैसे ही मन को आत्मा चाहिए, वो और नहीं कहीं खुश रह सकती। (नक़ल करनेवाले श्रोता की तरफ, हँसते हुए) याद करोगे? दोहराओगे?

वक्ता: नद! नदी क्या सिखाती है?

श्रोत४: सर, नदी यह बताती है कि अपने रास्ते खुद बनाओ, दूसरों के ऊपर निर्भर मत रहो।

वक्ता: (हँसते हुए) कर्मठ, कुदाल ले कर के पैदा हुआ था?

(सभी श्रोता हँसते हैं)

श्रोता ४: यही सब सुनते आ रहे हैं, तो बता दिया, सर।

वक्ता: सब सुनी- सुनाई ही बोलोगे या कुछ दिल से भी निकलेगा?

श्रोता ७: सर, नदी अपनी तरंगो को दिखा रही है।

वक्ता: एक बात समझो साफ – साफ, पूरे अस्तित्व में किसी को दिखाने से कोई प्रयोजन नहीं है। इंसान अकेला है, जिसे दिखाना अच्छा लगता है। पक्षी तुम्हें सुनाने के लिए गा नहीं रहा, आकाश तुम्हें कोई चुनौती दे नहीं रहा, और नदी भी तुम्हें दिखाने के लिए नहीं तरंगित हो रही है। सब अपने में है, किसी को यह बीमारी नहीं है कि “दिखाऊं, प्रदर्शन करूं, प्रभावित करूं।” इंसान अकेला है जिसकी पैदाइश ही नुमाइश होती है। इतनी चीज़ें पैदा होती रहती हैं, कभी देखा है उन्हें कहते हुए कि “देखो-देखो-देखो”? हमारी तो पैदाइश ही नुमाइश होती है।

क्या कह रही है नदी?

श्रोता ५: एक समान रूप से बस बहती ही जा रही है। कुछ भी रास्ते में हैं आए तो बस बगल से निकल रही है।

श्रोता ६: वो चिपकी नहीं पड़ी है किसी से, बस चले जा रही है। उसको ये भी नहीं है कि उसको कोई रास्ता दिखाए। उसे जहाँ जगह मिल रही है, बहे जा रही है। कितनी भी परेशानियाँ आयें वो जगह बदल लेती है। उसके लिए वो परेशानी नहीं है, उसका बहाव ही सबसे बड़ा है उसके लिए।

श्रोता ७: सर, नदी में सरलता है, शीतलता है, शांत है और सिर्फ़ नदी ही नहीं, नदी के अंदर का जीवन भी शांत है।

श्रोता ३: सर, नदी को किसी चीज़ की तलाश नहीं है, उसे जो करना है वो करेगी, जहाँ जाना है वहाँ जाएगी।

वक्ता: नदी जब चलती है, तो क्या उसे पता होता है कि वो समुद्र के पास जा रही है? उसे ये पता भी होता है कि वो कहीं भी जा रही है?

वो तो एक कदम लेती है। उसको यह पता है कि अभी रुक नहीं सकते। वो चलती है, समुद्र हो जाती है। जब चल रही है, तो दिखाई पड़ता है कि चल रही है। जब समुद्र हो जाती है तो लगता है कि यात्रा का अंत हो गया।

फिर समुद्र से उठती है तो बादल बन जाती है, फिर वहाँ से बर्फ़ बन जाती है। पहाड़ पर गिरती है, बर्फ़ बन जाती है, फिर वहाँ से चलती है तो नदी हो जाती है।

जो ध्यान से नहीं देखते, वो कहते हैं, “नदी है”। जिन्होंने थोड़ा ध्यान दिया, वो कहते हैं, “यात्रा है, नदी को सागर की तलाश है।” वो कहते हैं, “नदी अपनी ज़िन्दगी सार्थक कर रही है। जो छोटा है, वो जाकर विराट में मिल रहा है।” फिर वो कहते हैं, “यह ऐसा ही है जैसे भक्त भगवान में मिल जाए, आत्मा परमात्मा में मिल जाए। जैसे विशाल हो जाए, जैसे बंदा ख़ुदा में फ़ना हो जाए।” वो नदी के सम्मिलन को कुछ ऐसा कहते हैं।

पर जिन्होंने और जाना है, वो कहते हैं, “कुछ हो ही नहीं रहा है। तुम क्यों परेशान हो रहे हो? एक ही तत्व है। नदी कहो, चाहे समुद्र कहो, चाहे भाप कहो, चाहे बादल कहो, चाहे बर्फ़ कहो, एक ही तत्व है। तुम्हारी आँखों का धोखा है कि तुम्हें इन बदलते रूपों के पीछे एक तत्व दिखाई नहीं देता है।” कुछ हो ही नहीं रहा है, इन चक्करों में पड़ना ही मत कि यह हो रहा है और वो हो रहा है।

इस सारे बदलाव के पीछे, इस पूरे बहाव और प्रवाह के पीछे जो नहीं बह रहा है और जो नहीं बदल रहा है, उसको ज़रा देखो। नदी भी बदल रही है, सागर भी बदल रहा है, बादल भी बदल रहा है, और बर्फ़ भी बदल रही है। पर उसको देखो जो नहीं बदल रहा है और उसी को देखने के लिए ध्यानियों ने, योगियों ने नदी के तटों पर साधना करी है। क्योंकि नदी आँखों को साफ़-साफ़ यह एहसास कराती है कि कुछ बदल रहा है। कुछ बह रहा है और वो लगातार बहती ही रहती है, लगातार बदलती रहती है।

हेराक्लिटअस ने कहा था “यू कैन नॉट स्टेप इन्टू द सेम रिवर ट्वाइस (एक ही नदी में दो बार पांव नहीं रखा जा सकता)।” नदी ऐसे ही बदल रही है कि जब तक दूसरा कदम रखो, बदल जाती है और उसके तट पर बैठ कर जो साधना करता है वो उस बदलाव को देखते-देखते वहाँ पहुँच जाता है, जहाँ कुछ बदल नहीं रहा है। आ रही है बात समझ में?

इस पूरे प्रवाह में, इस पूरे बदलाव में उसके प्रति लगातार सजग रहो जो प्रवाहित हो कर भी अप्रवाहित है। आ रही है बात समझ में?

श्रोता ४: सर, थोड़ा और स्पष्ट कीजिये।

वक्ता: तुम्हारी आँखें बेटा, जब भी देखती हैं, वो सिर्फ़ बदलते हुए को देखती हैं। अगर कुछ भी बदल ही ना रहा हो तो तुम्हारी आँखे उसे देख नहीं सकती हैं। सच तो ये है कि देखने की प्रक्रिया में ही तुम जिसको देख रहे हो, वो बदल जाता है। अगर कुछ ऐसा हो जो बिल्कुल ही नहीं बदल रहा, तो तुम उसे देख नहीं पाओगे।

इलेक्ट्रान होता है ना, तुम उसे जब देखते हो तो देखने-देखने में तुम उसे बदल देते हो। तुम बिना बदले, इलेक्ट्रान को देख ही नहीं सकते। तो इसी बात से हाइज़नबर्ग का अन्सर्टन्टी *प्रिन्सिपल*सम्बंधित है। जो बदला नहीं, उसे देखा नहीं जा सकता क्योंकि आँखें सिर्फ़ बदलाव देख सकती हैं, स्थिरता देख ही नहीं सकती हैं। ये बड़ी अजीब बात है, तुम कहते हो, “पेड़ स्थिर है, दिख तो रहा है, ना!” जो बदल रहा है, वो दिख रहा है, जो स्थिर है वो नहीं दिखेगा।

इसी तरीके से कान भी सिर्फ़ तब सुन सकते हैं जब कुछ बदला हो। जब कुछ बदलेगा तभी उसमें से तरंगे निकलेंगी। कुछ ऐसा हो जो बदल ही ना सकता हो, तो तुम तो उसे छु भी ना पाओगे। तो हमारा जो पूरा का पूरा तंत्र है, जो पूरी व्यवस्था है, वो सिर्फ़ बदलाव को देखने के लिए बनाई गयी है।

असली आदमी वो है जो बदलाव के बीच उसको देख ले जो बदल नहीं रहा है। क्योंकि अगर तुम सिर्फ़ बदलाव को देखोगे तो जिंदगी खौफ़ में बीतेगी। तुम्हें लगातार यही लगता रहेगा “मेरा क्या होगा, मैं भी बदल जाऊँगा, नष्ट हो जाऊँगा।” आखिरी बदलाव तो मौत है ना?

आँखें जब भी देखेंगी, जो भी दिखाई देगा, वो तुम्हें मौत की याद दिलाएगा क्योंकि वो बदल रहा है। कान जब भी सुनेंगे, मौत की याद दिलाएंगे। दिमाग जब भी सोचेगा, मौत की ही याद दिलाएगा – क्योंकि बदलते हुए को ही देखेगा, उसी का विचार करेगा। नदी तुमसे कह रही है, “मुझे ध्यान से देखो, लगता है बदल रही हूँ, पर बदल रही नहीं हूँ। जो मूल तत्व है मेरा, वो अपरिवर्तनीय है। सूख भी जाऊँ तो भी बदली नहीं, तुम्हारी आँखों का धोखा है कि तुम्हें दिख नहीं रहा।” वो है , कहीं चला नहीं गया, नष्ट हो ही नहीं सकता! हाँ, उसके रूप और आकार बदल जाते हैं।

तो डरो नहीं, बिल्कुल डरो नहीं! मौज में जियो, मस्ती में जियो, खौफ़ की कोई जरुरत ही नहीं है, यह नदी का सन्देश है।

याद रहेगा?

क्या कह रही है नदी? बेखौफ़ बहो ! बेखौफ़ वही बह सकता है जिसे पता हो कि कितना भी बह लेंगे, मिटेंगे नहीं। जल जाएँ, भाप बन जाएँ तो भी मिटे नहीं। जमीन पर नज़र ही ना आएँ, बादल बन जाएँ, तो भी मिटे नहीं। पिघल जाएँ तो भी मिटे नहीं, जम जाएँ तो भी मिटे नहीं। हमें कोई मिटा नहीं सकता, और हमारी कोई मंजिल नहीं है। कोई ना सोचे कि नदी की मंजिल है सागर। क्या मंजिल है सागर? जो सागर तक पहुँचा है वो सागर से उठ जाना है। तो फ़िर तो सागर की मंजिल है बादल। न, कोई मंजिल-वगैरह कुछ नहीं। बहते रहो, कोई जगह है ही नहीं पहुँचने के लिए। (हँसते हुए) बह के भी क्या होगा? मनोरंजन है! ऐसे ही जैसे अपना ही घर हो और घूम-फ़िर रहे हो – एक कमरे से दूसरे कमरे, मज़े ले रहे हो। आलीशान महल है, मज़े ले रहे हो, एक कमरे से दूसरे कमरे।

एक कमरे में नदी हो, जल हो , दूसरे कमरे में बर्फ़ हो, तीसरे कमरे में भाप हो, चौथे कमरे में किसी और तत्व से मिल-जुल गए तो कुछ और बन गए! पर मिट थोड़े ही गए। पानी अगर हाइड्रोक्साइड बन जाए, सोडियम हाइड्रोक्साइड, तो वास्तव में मिट थोड़े ही गया है! अरे, थोड़ी देर के लिए हाइड्रोक्साइल आयन अलग हो गया और हाइड्रोजन कहीं और जाकर बैठ गया है। आएगा, फ़िर-से आ जाएगा हाइड्रोजन फ़िर-से मिलेगा किसी ओ. एच. से, फ़िर-से पानी आ जाएगा। कुछ मिट थोड़े ही गया है।

तुम अमर हो।

श्रोता ३: सर, इंसान के मरने पर क्या होता है? यहाँ तो आपने बता दिया, नदी बादल बन जाती है पर इंसान को तो जला दिया जाता है, फ़िर हम कहाँ जाते हैं?

वक्ता: हाइड्रोजन और हाइड्रोक्साइल अलग-अलग हो गए, अब हाइड्रोक्साइल को वही वाला हाइड्रोजन मिले, पुराना वालाएटम, तो ही पानी बनेगा या कोई भी मिल जाए तो बन जाएगा?

श्रोता *(सब एक साथ)*: सर, कोई भी मिल जाए।

वक्ता: तो हो गया। पर तुम क्या करते हो कि तुम नाम लिख देते हो। तुम कहते हो “यही, जो देह है, यही मैं हूँ! कोई और देह होगी तो वो मैं नहीं हूँ।” ये गड़बड़ हो जाती है ना। नदी ऐसी मुर्खता नहीं करती। तुम्हारा तो बस चले तो पानी पर भी नाम लिख दो!

एक ग्लास पानी पीते हो, फिर दूसरा ग्लास पानी पीते हो तो दोनों अलग-अलग हैं क्या? एक ही तत्व तो है। या ऐसा कहते हो कि अभी ‘राजू’ पानी पिया था, अब ‘काजू’ पी रहे हैं?

(सभी श्रोता हँसते हैं)

~‘संवाद-सत्र’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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