प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। मेरा नाम सत्यम प्रकाश है और मैं आईआईटी दिल्ली से पोस्ट ग्रेजुएशन कर रहा हूँ। अपने सब्जेक्ट के ऊपर आपके विचार जानना चाहूँगा। मैंने अपनी ग्रेजुएशन कंप्यूटर साइंस एंड इंजीनियरिंग में की है और जब मैं अंतिम वर्ष में था तब मेरे को एक एमएनसी से जॉब रोल ऑफर हुआ था। ख़ैर वो जॉब रोल मैंने लिया नहीं।
उसमें मुझसे ये एक्सपेक्ट किया जा रहा था कि मैं एक सॉफ्टवेयर प्लेटफार्म पर काम करूँ जिससे हम कंज्यूमर का कंज़म्प्शन बढ़ा सकें। तो *जस्ट टू गिव एन एग्ज़ांम्पल हम लोग जैसे 10 मिनट्स फूड डिलीवरी ऐप देखते हैं जिसमें इंटरफेस इतना इजी बनाया जाता है कि आप जो चाह रहे हैं आप फटाफट उसको बाय (खरीदना) करें और वादा किया जाता है कि 10 मिनट में आपके तक माल पहुँच जाएगा तो इससे कंज़म्प्शन ही बढ़ रहा है — एक कस्टमर का।
तो ये जानते हुए मैंने वो जॉब रोल नहीं लिया और लगभग उसी समय मेरे को आईआईटी दिल्ली में एक प्रोग्राम है मास्टर्स इन पब्लिक पॉलिसी स्पेशलाइज़ेशन इन साइंस टेक्नोलॉजी इनोवेशन एंड सस्टेनेबल डेवलपमेंट वो अच्छा लगा। मैंने एंट्रेंस एग्ज़ाम दिया और एडमिशन सिक्योर किया। तो यहाँ पर हमको जैसे *क्लीन एनर्जी, सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स, इक्वलिटी, वाटर रिसोर्स, एग्रीकल्चर*— इन सब के बारे में पढ़ाया जाता है जो कि बहुत ही अलग है इंजीनियरिंग की पढ़ाई से।
लेकिन जिन लोगों को जैसे मैं — मेरे को आनंद भी आ रहा है पढ़ने में। लेकिन जिन लोगों को मैं अपना करीबी मानता हूँ और जो मेरे साथ इंजीनियरिंग में थे उन लोगों का ये कहना है कि हम लोग अब एमएनएसी में हैं, सीनियर पोजीशन में वो लोग आने वाले हैं तो उनकी सैलरी लाख रुपए दो लाख रुपए महीने की है। फिर वो लोग कई बार रिलेटिव्स भी ये कहते हैं कि — जैसे मैं क्लाइमेट चेंज इन सब के बारे में पढ़ रहा हूँ, बात कर रहा हूँ। तो इससे क्या इतनी आमदनी है? तो कभी-कभी सेल्फ डाउट होता है कि जो मैंने रास्ता चुना है क्या वो ठीक है, नहीं है? और कभी-कभी थोड़ा डीमोटिवेट (हतोत्साहित) भी हो जाता हूँ। ये भी फियर (डर) रहता है कि अगर इस रास्ते पर चलता रहा तो ये सारे लोग हो सकता है मुझसे छूट जाएँ। सो हाउ टू फेस दिस थिंग?
आचार्य प्रशांत: नहीं वो छूट जाएँ वो तुम्हारे पास है ही कब? तुम मान रहे हो कि वो तुम्हारे पास हैं। वो मान रहे हैं कि उनके पास पैसा है — तो ये कैसे हो सकता है? तुम उनको अपने पास रखने की सोच रहे हो और वो तुम्हें अपनी सैलरी बताते हैं तो वो पैसे को अपने पास रखने की सोच रहे हैं तो ये दोनों चीज़ें साथ-साथ कैसे चलेंगी?
बहुत सारी चीज़ें जो हम माने होते हैं ना कि हमारी हैं वो हमारी होती नहीं है। हमारे पास उनकी कल्पना होती है। वो चीज़ हमारी नहीं होती। हमारी कल्पना होती है — ये मेरी है, ज़िन्दगी मेरी है, बीवी मेरी है, दोस्त मेरे हैं। फलाना मेरा है। तुम्हारा क्या है? तुम्हारा शायद वो चुनाव है तुमने जो करा है — अगर दिल से करा है तो।
समझते हो चुनाव क्यों करा है?
प्रश्नकर्ता: हाँ।
आचार्य प्रशांत: अगर समझते हो तो वो तुम्हारे साथ चलेगा, ये दोस्त यार नहीं साथ चलने वाले। ये सब ऊपरी बातें होती हैं। स्वार्थ के सामने सब दोस्तियाँ यारियाँ एकदम बिखर जाती हैं — रेत की तरह। तुम्हारे साथ सिर्फ़ वो चीज़ चलेगी। ये सब आप लोग समझ लीजिए — भ्रम में मत रहिएगा नहीं तो दिल टूटता है। बहुत बुरा लगता है।
अपने साथ जो चले — जानने वालों ने उसको बस एक नाम दिया है। बोले तुम्हारे साथ जो चले वो वो भी नहीं हो सकता जो तुम्हारे बगल में खड़ा हो। वो, वो भी नहीं हो सकता जो तुम्हारी जेब में रखा हो। पैसा तुम्हारे बगल में खड़ा हो वो भी नहीं हो सकता। साथ कैसे चलेगा? वो बगल में है तो हट भी सकता है। जेब में है तो जेब कट भी सकती है। तो वो, वो भी नहीं हो सकता जो तुम्हारे शरीर में बसता है। क्योंकि जो शरीर में है वो भी तो निकल ही जाता है। लोगों की किडनियाँ निकल जाती है। बोल रहे हैं तो जो तुम्हारे साथ हमेशा चले वो सेल्फ होता है — सेल्फ — तुम ही सिर्फ़ अपने साथ चल सकते हो। तुम्हारे अलावा कोई तुम्हारे साथ नहीं चल सकता।
तो ये कौन सा सेल्फ है जिसकी बात होती है जो हमारे साथ चल सकता है? उसी को आत्मा कहा गया है — आत्मा। सिर्फ़ वो ही चीज़ चलेगी और कुछ नहीं है तुम्हारा। तो रिश्ते कैसे बनाएँ फिर जब कोई साथ नहीं चलना तो क्या बिल्कुल एकाकी जीवन जिए? नहीं, नहीं, नहीं। आत्मा की राह पर चल रहे हो। कोई हमराह मिल गया तो वो दोस्त हो सकता है तुम्हारा — पर राह आत्मा की होनी चाहिए। सही रास्ते पर चल रहे हो, कोई इसलिए मिल गया क्योंकि वो ख़ुद भी सही रास्ते पर चल रहा है तो वो तुम्हारा दोस्त बन जाएगा। गारंटी वो भी नहीं है कि वो भी उम्र भर के लिए बन जाएगा, पर वो अच्छा रहेगा — वो अच्छा है जो बनेगा। कम से कम उसने राह तो वो ही चुनी है ना जो तुम्हारी है। और दूसरे वो तुम्हारा साथ नहीं दे रहा — वो अपनी राह का साथ दे रहा है। तुम भी उसका साथ नहीं दे रहे — तुम भी अपनी राह का साथ दे रहे हो। अब एक ही राह पर चल रहे हैं। राह प्यारी है, मंजिल प्यारी है। तो अपना साथ चल लिए, हम राही हो गए, दोस्ती हो गई वो चल लेंगे साथ में।
पर जिनकी मंज़िल ही अलग और जिनकी राह आई है स्वार्थ से, समाज से, संयोग से, वो तुम्हारे दोस्त यार कहाँ से हो पाएँगे, भई? कहाँ से हो पाएँगे? वो वो भले ही तुम्हारे घर में तुम्हारा अपना सगा भाई हो, वो भी तुम्हारे साथ नहीं चलने वाला। ये बातें कड़वी लग जाती हैं, कहें ऐसा थोड़ी होता है — ऐसा ही होता है। तुम्हारे साथ सिर्फ़ वो ही चल सकता है जिससे आत्मिक रिश्ता हो — ना संयोगिक चलता, ना सामाजिक, चलता ना शारीरिक चलता।
संयोग का रिश्ता क्या होता है? हॉस्टल में बगल वाले रूम में था, बेस्ट फ्रेंड है या रूमी था। रूमी माने संत रूमी नहीं — रूममेट। ये रूममेट था तो इसीलिए मेरा ये बिल्कुल बेस्ट फ्रेंड हो गया। ये संयोग का रिश्ता है। कितने दिन चला लोगे? ये नहीं चलने वाला। क्यों बेकार में इसमें अपनी ऊर्जा, समय निवेशित कर रहे हो? फसो मत इसमें। कोई मेरा बेस्ट फ्रेंड इसलिए क्योंकि मेरे ही डिपार्टमेंट में है, उसका एंट्री नंबर बिल्कुल मुझसे सटा हुआ है क्योंकि उसी अल्फाबेट से उसका भी नाम शुरू होता है उसी लेटर से, ठीक है? तो अब मेरा भी — क्या नाम है आपका?
प्रश्नकर्ता: सत्यम।
आचार्य प्रशांत: तो अब आप सत्यम हो, तो सत्यम और संतोष चड्डी बदल यार हो गए। क्यों? क्योंकि एक ही डिपार्टमेंट है और आमने-सामने के हैं और पता चला कि एक ही जिले से भी थे तो जब ब्रेक्स होते थे तो एक साथ ट्रेन का रिजर्वेशन करा के जाते थे और ट्रेन तक में अगल-बगल सीट होती थी — तो इसलिए दोस्त हो गए। ये नहीं चलने वाला, ये संयोग का रिश्ता है।
फिर शरीर का रिश्ता होता है कि किसी से रिश्ता बस इसलिए बनाया है क्योंकि शरीर की मजबूरी है तो रिश्ता बना लिया और शरीर और संयोग जब एक साथ मिल जाते हैं तो परिवार का रिश्ता कहलाता है। वो भी शरीर का ही है। परिवार जनों से और क्या रिश्ता होता है? शरीर का ही तो उनका डीएनए ही तो है तुम्हारे पास। वो भी वो भी नहीं चलने वाला। वो भी नहीं चलता।
कुरुक्षेत्र का मैदान है। अर्जुन का साथ ना तो उसके भाई खड़े हुए हैं वहाँ पर चार ना तो वो दे रहे हैं — ना माँ है वो दे रही है —ना पत्नी है वो दे रही हैं। वो वहाँ बिल्कुल पागल एकदम विह्वल कि केशव गांडीव काँप रहा है, टाँगे जल रही हैं, खड़ा भी नहीं हुआ जा रहा — कोई नहीं आ रहा साथ देने।
साथ तो वही आएँगे जो आत्मिक हैं तो भगवत गीता में उनके लिए नाम है — कृष्ण। तुम चाहो तो कोई और नाम दे सकते हो पर बात आत्मिक होनी चाहिए। समझे? ये तो कभी बुरा मानना ही नहीं कि फलाने लोग थे कभी साथ, अब साथ नहीं है। बुराई ये नहीं है कि वो अब साथ नहीं है। बुराई ये है कि तुमने उम्मीद रखी कि साथ चलेंगे। जो ये उम्मीद रखे हो पागल। क्यों ऐसी उम्मीद रख रहे हो?
तुम्हारी पहली निष्ठा होनी चाहिए एक सही ज़िन्दगी जीने की तरफ और उस सही ज़िन्दगी में क्लीन एनर्जी, सस्टेनेबिलिटी ये आते हैं, निसंदेह आते हैं। जो तुमने अपने लिए चुना है, वो तुम्हारी निष्ठा होनी चाहिए — मैं वो जिऊँगा और उस रास्ते पर चलते हुए हम कह रहे हैं कोई हमसफर मिल गया बहुत अच्छी बात है, अच्छा आदमी ही मिलेगा अच्छे रास्ते पर। और रास्ता ही गलत चुनोगे अगर — अब रास्ता ही जा रहा है वहाँ पर मछली बाजार की तरफ तो उसमें सब मच्छी खोर ही तो मिलेंगे, और वहाँ कौन मिलने वाला है?
सही रास्ता चुनो उस पर सही लोग मिलेंगे और अच्छी बात ये होगी कि उन्हें बाँध के नहीं रखना पड़ेगा क्योंकि वो ख़ुद उस रास्ते के प्यार में है। वो तुम्हारे साथ नहीं भी चलेंगे तो अपना रास्ता थोड़ी छोड़ने वाले हैं। वो वहाँ तुम्हारी खातिर नहीं चल रहे हैं वो भी अपनी खातिर चल रहे हैं। वो भी अपनी आत्मा की खातिर चल रहे हैं। वो संबंध अच्छे होते हैं। समझे?
और पैसा कि वो लोग अब लाखों में कमा रहे हैं जो भी है। पैसा चाहिए होता है, बिल्कुल चाहिए होता है पर देख तो लो कितना चाहिए है। पैसा तुम्हें अपने लिए चाहिए। है ना? सेल्फ। वो सबसे पहले आता है। कुछ भी तुम्हें किसके लिए चाहिए? अपने लिए चाहिए। पैसा, पैसे के लिए तो नहीं चाहिए। पैसा एक इनफाइनाइट नंबर बन जाए तो पैसा इनफाइनाइट हो गया ना। तुम थोड़ी इनफाइनाइट हो गए या हो गए?
पैसे का उपयोग तब तक है जब तक वो सेल्फ के काम आ रहा है — तुम्हारे। तुम्हें पता हो कि मेरा अभी जो लक्ष्य है मेरा हित है वो अभी पैसे से जुड़ा हुआ है तो ठीक है, पैसा होना चाहिए। पर एक सीमा के बाद आमतौर पर पैसे से हित सधता नहीं है। पैसे की भी जो मार्जिनल यूटिलिटी है ना वो एक बिंदु के बाद बहुत कम हो जाती है। ज़ीरो हो जाती है और आगे एक और बिंदु आता है जिसके बाद नेगेटिव हो जाती है उसके बाद सारी एनर्जी इसमें जाती है कि — पैसा संभाले कैसे?
पहले तो ये था कि समय बर्बाद हो रहा था कि पैसा कमाएँ कैसे? और फिर एक बिंदु आता है इतना पैसा हो जाता है कि पैसा संभाले कैसे? तो ले के जीने को तो अभी भी नहीं मिला। जब पैसा बहुत कम था तब भी नहीं जी पा रहे थे और जिनके पास पैसा ज्यादा हो जाता है वो भी नहीं जी पाते। तो तुम्हें बीच का एक-एक स्वीट रेंज खोजनी है कि इतना पैसा हो तो ठीक है — अब ये ना कम है ना ज्यादा है। पैसा कम भी नहीं होना चाहिए बहुत, इतना भी कम नहीं होना चाहिए कि तुम्हें सोचना पड़ रहा है कि यार खाने वग़ैरह का कैसे चलेगा? इतना भी कम नहीं होना चाहिए कि तुम अपने रहने के लिए कोई ठीक-ठाक जगह ना किराए पे ले सकते हो, ना खरीद सकते हो। इतना कम भी नहीं होना चाहिए पैसा। और पैसा इतना ज्यादा भी नहीं होना चाहिए कि उसी पैसे के लिए ज़िन्दगी लगाए दे रहे हो। एक बिंदु पर पहुँचकर समझ जाना चाहिए कि इससे ज़्यादा पैसा मुझे नहीं चाहिए। और जो अभी तुम्हारी उम्र है इस उम्र में तुम बहुत ज्यादा पैसे का करोगे क्या? ये तुम्हें ख़ुद से पूछना होगा। क्या करोगे बहुत पैसे का?
(2)
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी मेरा नाम आशीष है और मैं आईआईटी दिल्ली से मास्टर्स का फाइनल ईयर का स्टूडेंट हूँ। और एक बार फिर मैं आपका आईटी दिल्ली में दिल से वेलकम करता हूँ।
तो मेरा ये क्वेश्चन मेरे आईआईटी दिल्ली के एक्सपीरियंसेस पर बेसड है। एक स्टूडेंट के रूप में और एक फ्यूचर प्रोफेशनल के रूप में, जो या तो किसी ऑर्गेनाइजेशन में काम करेगा या अपना कुछ स्टार्ट करेगा। तो एक फीलिंग आती है कि मैं इनफ नहीं हूँ। जब मैं आईआईटी दिल्ली में अपने सर्कल के लोगों से बात करता हूँ तो लगता है कि हर कोई कुछ ना कुछ अचीव कर रहा है। एफर्ट डाल रहा है। फिर भी अंदर से लगता है कि मैं इनफ नहीं हूँ।
जैसे कि आप जानते हैं फैमिली से एक्सपेक्टेशंस हैं, दूसरों से एक्सपेक्टेशंस हैं, ख़ुद से भी एक्सपेक्टेशंस हैं। फिर भी मैं इस फीलिंग का शिकार हो जाता हूँ कि आई एम नॉट डूइंग वेल इनफ। यू नो एक तरह की सेल्फ क्रिटिसिज्म होती है, सेल्फ डाउट होता है और ये सब देश के मोस्ट प्रेस्टीजियस इंस्टीट्यूशन में भी देखने को मिलता है। और जब हम दूसरों से बात करते हैं, इवन यहाँ भी कुछ लोगों से मिला हूँ तो ये फीलिंग शायद और भी ज्यादा डीप दिखाई देती है। जैसे आपने आज रिलेशनशिप्स के बारे में बात की, फ्रेंडशिप्स के बारे में बात की, जो टाइम के साथ-साथ धीरे-धीरे फीकी हो जाती है। तो लगता है कि उन सबका कोई रियल मीनिंग नहीं रह गया है।
सब कुछ बस और ज़्यादा सरफेस लेवल सतही हो गया है। जैसे बचपन में मेरे इतने सारे दोस्त हुआ करते थे, लेकिन अब बस दो दोस्त बचे हैं। अब ट्रस्ट का इशू हो गया है। लोग अलग-अलग फिजिकल और मेंटल प्रॉब्लम से स्ट्रगल कर रहे हैं। अब क्योंकि मैं अब ग्रेजुएट करने वाला हूँ तो मैं किसी वर्क प्लेस में जाऊँगा जो बहुत फास्ट बेस्ड होगा। स्ट्रेस, एंजायटी तो है ही और स्पेशली हमारी जनरेशन के बारे में अक्सर बोला जाता है कि हमारा कोई फ्यूचर नहीं है। तो, मैं ये जानना चाहता हूँ कि आपके पास हम जैसे लोगों के लिए क्या मैसेज है? आपके अपने इंस्टट्यूट से कनेक्टेड लोगों के लिए और कंट्री और वर्ल्ड के यंग जनरेशंस के लिए। सो इसके लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद।
आचार्य प्रशांत: देखो हम लोग भी ना मटिरियल चीज़ों के बस एग्रीगेट्स हैं। ठीक है? अब जैसे तुमने सवाल में पूछा तो मैं वैसे ही हिंग्लिश बोलूँगा। तो हम भी मटिरियल चीज़ों के एग्रीगेट्स हैं — ये वाक्य नहीं था, ये सच्चाई है जो सबको समझनी पड़ेगी। हम स्वीकार नहीं करते। हम अपने आपको बोलना चाहते हैं कि हम कुछ और हैं मटिरियल के अलावा। हम कुछ और हैं नहीं, एक भावना बस है कि हम पूरी तरह मटिरियल नहीं है। हमारे भीतर कुछ और है, कुछ है। कुछ है नहीं मटिरियल ही है।
और जिसको आप अपनी विचार भावना वग़ैरह बोलते हो ना कहते हो मटिरियल में थोड़ी ये सब होता है कि उसके पास विचार नहीं होता, भाव नहीं होता। वो भी मटिरियल चीज़ें ही है। विचार और भावना। और आपके शरीर से कुछ मटिरियल अगर निकाल दिया जाए तो ना विचार रहेगा ना भावना। और अगर आप में कोई भावना उठानी हो तो बस किसी मटिरियल का एक इंजेक्शन लगाना है और भावना उठ जाएगी, तो भावना भी मटिरियल है। माने ले दे के ऊपर से लेकर नीचे तक हम पूरे क्या हैं? मटिरियल ही मटिरियल है।
ऊपर से लेकर नीचे तक जिसमें सिर्फ़ शरीर नहीं आता जिसमें मन भी आता है जिसमें भावनाएँ भी आती हैं जिसमें विचार भी आता है हम पूरे ही क्या हैं मटिरियल है। ये बात अच्छे से पकड़ में आई। हम मटिरियल हैं। तुमने कहा आई एम नॉट गुड इनफ। क्यों? क्योंकि तुम किसी से तुलना करते हो और वहाँ पर अपने आप को किसी चीज़ में तुम कम पाते हो।
मटिरियल चीज़ों की तो जब भी तुलना होगी तो उसमें कोई एक चीज़ किसी पैरामीटर पर ऊपर होगी कोई दूसरी चीज़ किसी पैरामीटर पर ऊपर होगी। होगी कि नहीं होगी? जब भी मटिरियल चीज़ों की तुलना करोगे तुम कभी ये नहीं पाओगे कि कोई भी एक चीज़ किसी भी तत्व की किसी भी आकार की, किसी भी दूसरी चीज़ से — और वो दूसरी चीज़ भी किसी भी तत्व किसी भी आकार की हो सकती है। किसी भी दूसरी चीज़ से हर डायमेंशन हर मैट्रिक हर पैरामीटर में ऊपर ही ऊपर है। क्योंकि मटिरियल का लॉ ही यही है ना।
भूसा हो सकता है कि कीमत में हीरे से कम होता हो लेकिन वॉल्यूम में तो हीरे से वो बड़ा निकल गया। अब हीरा भी बोल सकता है — आई एम नॉट गुड इनफ। कंपैरिजन हमेशा उन्हीं चीज़ों का तो होगा ना जो क्वांटिफायबल है। मैं पूछ रहा हूँ उसे समझिए। जो चीज़ क्वांटिफाई नहीं हो सकती उसे कंपेयर कैसे करोगे? कंपेयर करने के लिए जो भी चीज़ आप कंपेयर कर रहे हो उसको नंबर्स में लिखना पड़ेगा तभी कंपेयर कर सकते हो। उसके बिना कंपेयर नहीं कर सकते। उसके बिना वो एक एब्स्ट्रैक्शन है, वो एक ऐसे ही सब्जेक्टिव ओपिनियन है। और नंबर में लिखने का मतलब ये होता है कि आप मटिरियल चीज़ की बात कर रहे हो। क्योंकि जो नंबर होता है वो हमेशा मटिरियल को ही पॉइंट करता है और किसी चीज़ को पॉइंट नहीं कर सकता।
अगर कुछ न्यूमेरिकली एक्सप्रेस हो सकता है तो मटिरियल है और आप कंपैरिजन करते हो उसी में आपको इनफीरियरिटी कॉम्प्लेक्स हो जाता है। माने आप कहीं ना कहीं कोई न्यूमेरिकल एट्रिब्यूट कंपेयर कर रहे हो। माने आप मटिरियल कंपेयर कर रहे हो। उसको क्यों कंपेयर कर रहे हो? आप उसके लिए कैसे जिम्मेदार हो गए? जिसको आप इंटेलिजेंस वग़ैरह बोलते हो। उसका बहुत सारा ताल्लुक़ ब्रेन से है और ब्रेन मटिरियल चीज़ है जो आपने चुनी नहीं, आपको आपके माँ-बाप ने दी है तो उसके लिए आप जिम्मेदार कैसे हो गए?
इसीलिए बहुत सारे लोग इतने हाई आईक्यू वाले होते हैं और ज़िन्दगी उनकी बिल्कुल कचरा होती है। आप बिल्कुल हो सकता है आपने जेई क्रैक कर दिया हो। कॉम साइंस डिपार्टमेंट आपको मिल गया हो आईआईटी में और अगर आपकी लाइफ ट्रेस की जाए तो 10 साल बाद पता चले कि आप तो वैसे ही हो जैसे दूसरे होते हैं मिडियोकर और बहुत सारे तो इवन, बिलो एवरेज लाइफ जी रहे हैं। बिल्कुल हो सकता है। क्योंकि आपको एक मटिरियल एट्रिब्यूट मिल गई थी रैंडमली। क्या? — आईक्यू। एक रैंडम कॉजेस की वजह से जो आपने नहीं चुनी इसलिए रैंडम है।
रैंडम कॉजेस से आपको एक मटिरियल एट्रिब्यूट मिल गई थी। उस मटिरियल एट्रिब्यूट को जहाँ तक काम करना था उसने करा उसके बाद वो काम नहीं कर रही है तो आपकी जिंदगी खराब है बिल्कुल।
कंपैरिजन करने पर उतरोगे तो हो ही नहीं सकता कि इनफीरियोरिटी में नहीं फँसो और अगर कंपैरिजन कर रहे हो और अभी इनफीरियोरिटी नहीं दिख रही है तो इसका मतलब कि जो सेट है जो सैंपल साइज है कंपैरिजन का वो बहुत छोटा है। बहुत छोटा है।
यहाँ पर कोई बैठा होगा जिसका कद सबसे ऊँचा होगा। कोई ना कोई तो होगा। 6 फुट से ऊपर वाले कितने हैं? — 4' 5” ही हैं। 6’ 2” से ऊपर कितने हैं? — कोई भी नहीं। और एनबीए में शायद जो सबसे नाटा बंदा है वो 6’ 6” का होगा। होगा अब इनका क्या होगा? कितनी इन्होंने ऐसे ठसक से हाथ उठाया था। तो बहुत खुश हो रहे थे कि हम तो देखो क्या हाइट निकाली है — 6’ 1” अगर खुश हो रहे हो तो इसका मतलब अभी ऊँट पहाड़ के नीचे आया नहीं है। और ये इनफाइनाइट यूनिवर्स कहते हैं ना हम इसको तो यानी यहाँ पर कितना भी ऊँचा ऊँट हो उससे ऊँचा पहाड़ होगा ही होगा।
तो यानी अगर कंपैरिजन कर रहे हो तो इनफीरियरिटी में तो मरोगे ही मरोगे। तुम कितने भी ऊँचे हो तुमसे ऊँचा कोई ना कोई तुम्हारा बाप तो निकलेगा ही निकलेगा। तो पहली बात तो इनफोरिटी में फँस रहे हो। दूसरी बात ऐसी चीज़ के लिए फँस रहे हो जिसमें ना तुम्हारा कोई श्रेय है ना तुम्हारा कोई अपराध है।
6’ 1” वाले ने क्या करा कि उसकी 6’ 1” हो गई हाइट। ऐसा तो कुछ करा नहीं। लोग कुछ-कुछ करते हैं, लटकते-वटकते हैं उसेसे 2- 4 सें.मी. का फर्क पड़ जाता होगा। माने 1 इंच अधिक से अधिक से अधिक उतना भी पड़ता है कि नहीं मालूम नहीं, पर जो बेचारा इतना सा रह गया उसने क्या कंप्रेसर में सर डाला था। उसका क्या गुनाह है कि वो इतना सा रह गया? वो क्यों परेशान हो उसने क्या करा है?
पर हम होते हैं क्योंकि हम उन चीज़ों को कंपेयर कर रहे हैं जो मटिरियल है और रैंडमली मटिरियल है।
जहाँ तुम्हें ना तो अपराध बताया जा सकता है ना श्रेय दिया जा सकता है उसको लेके खुश हो रहे हो हैंडसम है प्रिटी है सेक्सी है — तुमने क्या किया है इसमें?
अच्छा हो सकता है चलो ठीक है बॉडी फिट रखी है, अच्छा उसकी आँखें बहुत सुंदर है आँखें भी फिट रखते हो? कौन-कौन आंखों से डंबल उठा आता है। अब है तो है जन्मजात बात है, क्यों परेशान हो रहे हो तुम?
ज़्यादातर चीज़ें जिनके साथ तुम अपनी सेल्फ वर्थ आत्मसम्मान बिल्कुल बाँध देते हो। वो ऐसी चीज़ें हैं जिसमें तुम्हारा कोई योगदान है ही नहीं — तुम क्या कर लोगे?
मैं 95 में आया था कैंपस में आईआईटी में बड़े-बड़े प्रांत थे भारत में उस समय जहाँ से हमारे हॉस्टल में एक-एक, दो-दो ऐसे — उड़ीसा से रहा होगा कोई, एक आध कोई रहा होगा उतना भी नहीं मालूम पता नहीं। बिहार से भी बहुत ज़्यादा लोग नहीं थे। हॉस्टल में जो सबसे बड़ा दल था कंटिंजेंट वो किसका था मालूम है? दिल्ली वालों का।
दिल्ली जिसको ठीक से स्टेट भी नहीं बोला जा सकता। ठीक है? तब तो एनसीआर भी नहीं चलता था। दिल्ली माने दिल्ली ही होता था। दिल्ली जिसको पूरा राज्य भी नहीं बोला सकता। इतने सारे यहाँ से और वो बहुत खुश हो रहे हैं। उनमें से बहुतों की रैंक भी बहुत अच्छी-अच्छी है और — मुझे लग रहा है यूपी वाले दिल्ली से कम रहे होंगे।
तब दिल्ली की करोड़ डेढ़ करोड़ की आबादी रही होगी। यूपी की रही होगी 15 करोड़ की, —ये कैसे हो गया? कुछ नहीं हो गया। सुर्ख़ाब के पर थोड़ी लगे हैं। तुम ऐसी जगह पैदा हुए हो जहाँ पैसा थोड़ा ज़्यादा है चलो पैसा ज्यादा है, उल्टा बोल दिया — गरीबी थोड़ी कम है। वहाँ वो जो यूपी का है उसके पास स्कूल की फीस देने के पैसे नहीं है। वो जाकर कोचिंग की फीस कैसे देगा? कैसे दे देगा?
तो नहीं पहुँच रहा है यहाँ पे।
तो जो पहुँच गया है उसने क्या उखाड़ लिया है? वो किस बात पे इतना खुश हो रहा है? तुम यहाँ सिर्फ़ इसलिए पहुँच गए हो क्योंकि 95 का जेई मुश्किल से 1.5 लाख लोगों ने दिया था। 1.5 लाख लोगों ने दिया था और करीब 1500 उसमें से सफल हो गए थे — 1%।
वो डेढ़ लाख लोगों की जगह 20 लाख लोगों ने दिया होता तो तुम्हारा क्या होता? तो तुम्हारा जो सिलेक्शन है उन 18.5 लाख लोगों की वजह से है जो बेचारे कभी जेई दे ही नहीं पाए और जिन्होंने नहीं दिया उनमें भी 350 का बैच था उसमें 13 लड़कियाँ थी। इतनी तो नहीं बेवकूफ होती।
उसको 10वीं के बाद पढ़ने ही नहीं दिया गया वो जेई क्या क्लियर करेगी? वो जो भी कर रही है 12वीं में। उसके बाद बोल दिया यहाँ से चले जाओ ये छोटूमल कॉलेज है उसमें तू जाके होम साइंस पढ़ ले, होम साइंस से मुझे कोई समस्या नहीं है। पर ऐसा होता है हमारे यहाँ वो कर ले — वो जेई क्या क्लियर करेगी।
तो अगर वो बेचारी कहीं छोटे कस्बे में मुश्किल से वो कहीं से बीए कर पा रही है मुझे बीए से भी कोई समस्या नहीं है पर भारत में बीए का कुछ और अर्थ होता है इसलिए बोल रहा हूँ। तो किस बात के लिए अपने आप को दोष दे? वो अपनी स्थितियों की मारी हुई है। और जो यहाँ दिल्ली वाला आकर के बैठ गया है चढ़कर के कि मैं तो जेई वन हूँ — तू क्यों इतना खुश हो रहा है? तू दिल्ली की जगह पैदा हुआ होता छत्तीसगढ़ में तो बात करते। तो बात करते ना।
जहाँ पर हफ्ते में दो घंटे के लिए लाइट आती है वहाँ होता तो बात करते। इस बात पर इतना खुश हो रहा है जहाँ पर बाप की गाड़ी है जो तुझे कोचिंग ले जाती है वहाँ से तू वापस आता है शॉफ़र ड्रिवन गाड़ी और उसके बाद तुझे हर तरीके का मटिरियल मिल रहा है पढ़ने को, सुख सुविधा मिल रही है — कहा जा रहा है बेटा तुझे कोई काम नहीं करना है। सारे समय पढ़ने में लगा दे।
तुम्हारा ब्रेन और अच्छा होता रहे उसके लिए उसको तरह-तरह की रेसिपीज — बादाम में अखरोट घोल करके पिलाया जा रहा है दूध के साथ। तो ये नहीं जेई टॉप करेगा तो कौन करेगा? समझ में आ रही है बात?
ये कंपैरिजन इन आधारों पर कभी करा ही मत करो जो क्वांटिफायबल है। कभी मत किया करो। अगर तुलना करनी भी है ना तो हमेशा ख़ुद से ख़ुद की करो।
पहले तो समझो कि जिंदगी में कौन सी चीज़ है तुम्हारे लिए जो सचमुच जरूरी है और फिर ये मत देखो कि दूसरे उस चीज़ में कहाँ पर खड़े हुए हैं। जिस राह तुम्हें जाना है पहले ये तय करो और ये पूछो कि इस राह पर मैं कल कहाँ था और आज कहाँ पर हूँ। अपने आप से पूछो।
दूसरे कितनी तेज चल रहे हैं। ये उनकी रैंडम सरकमस्ट्ससेस पर निर्भर करता है। एक आदमी अगर अपनी तुलना दूसरे से कर रहा है तो मूलत: वो ये इग्नोरेंस का अज्ञान का काम कर रहा है।
तुलना करनी चाहिए हमेशा तो सिर्फ़ ख़ुद से।
आप जिम जाते हो बगल में पहलवान खड़ा हो गया है। और आप कह रहे हो यार ये इतना उठा रहा है सीधे इसने 70 किलो ले लिया। मुझसे 25 वाला भी नहीं उठता। नहीं ये नहीं है। पूछो कि पिछले महीने 25 उठा रहा था। इस महीने 30 करा कि नहीं करा? ये तरीका है तुलना करने का। तुम नहीं जानते हो पहलवान 70 क्यों उठा पा रहा है? हो सकता है उसका खानदानी पेशा हो। क्यों नहीं हो सकता?
तुम्हारे हाथ में कलम दी गई थी, उसके हाथ में? वो 70 तो उठाएगा ही ना। इसमें तुम्हें इनफीरिओरिटी अनुभव करने की क्या जरूरत आ गई?
तुम बस किसी भी प्रोसेस का एंड प्रोडक्ट देख पाते हो। इसलिए अपने आप को इंफीरियर फील करते हो। क्योंकि मटिरियल तो प्रोसेस से ही होकर गुजरता है ना हमेशा। कोई भी मटिरियल होता है एक प्रोसेस का ही नतीजा होता है। जब पूरा प्रोसेस देखोगे तो समझ में आएगा कि कुछ भी नहीं है — प्रकृति है और प्रक्रियाएँ हैं।
प्रकृति है, प्रक्रियाएँ हैं। कोई लहर कभी ऊँची उठ जाती है ज़्यादा, कोई लहर कभी गिर जाती है। जो लहर नीचे गिर गई है, उसी के एटम्स अगली लहर में एकदम ऊँचे उठ जाएँगे। इसमें बुरा मानने की कोई बात नहीं है।
मुझे ये देखना है कि क्या मैंने साफ-साफ समझा कि मेरी इस ज़िन्दगी को जीने लायक कौन सी चीज़ बनाती है। मेरे डर कहाँ है? मेरे भीतरी बंधन कहाँ है? मुझे ये देखना है। मुझे ख़ुद को देखना है। मुझे दूसरे से तुलना बाद में करनी है। मुझे ख़ुद को देखना है। मैंने अपने आप को देखा। मैं यहाँ फँसा हुआ हूँ। और अगर मुझे आजाद होना है तो ये मेरी राह है।
मुझे देखना है इस राह पे मैं कल की अपेक्षा आज आगे बढ़ा कि नहीं बढ़ा। बस यही मेरा काम है। ऐसे करनी है तुलना।