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पढ़ने वाला अँधा हो तो और पढ़ने से क्या होगा? || आचार्य प्रशांत (2016)

Acharya Prashant

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पढ़ने वाला अँधा हो तो और पढ़ने से क्या होगा? || आचार्य प्रशांत (2016)

आचार्य प्रशांत: देखो क्या है कि जितना दुनिया को देखोगे उतना समझोगे। जैसे कि ये लोग आये हैं चार लोग जो आये हैं, पाँच लोग; ये पता नहीं रीडिंग (पढ़ने) का कितना महत्व है? क्योंकि रूमी जैसा लिखना बहुत आसान है। मतलब जैसा रूमी ने लिखा है, मेरे ख्याल से आज भी हजारों ऐसे लोग होंगे जो रूमी से बेहतर लिख सकते हैं।

तो वर्ड्स (शब्दों) को देखकर ये बता पाना बड़ा मुश्किल है कि मामला क्या है। तुम बिलकुल नकली आदमी हो सकते हो और फिर भी हो सकता है कि तुम बिलकुल रूमी जैसा लिखते हो; बल्कि हो सकता है रूमी से बेहतर लिखते हों। तो गेम (खेल) तो किसी और चीज़ का ही है वर्ड्स का तो काफ़ी कम है। (गुनगुनाते हैं) या तो ये हो न कि, लम्बा-चौड़ा कोई एस्सेज़ (निबंध) हैं या टॉक (बात) है तो उसमें कलई खुलने के चांसेस (सम्भावनाएँ) रहते हैं, जब बहुत सारा लिखो तो उसमें कहीं-न-कहीं चूक कर जाओगे और तुम्हारी कलई खुल जाएगी, कि ये देखो क्या लिख रहा है। पर अब चार लाइन या चौदह लाइन की पोएम (कविता) है तो उसमें तुम्हें पता है कि किस तरह की बातें करनी है। तुम बिलकुल कर सकते हो। अब यही जो लिखा था कि तुम शराबी तो नहीं; मतलब तुम इस पोएम को किसी सूफ़ी के नाम से छाप सकते हो और बिलकुल वैसी ही लगेगी।

मतलब बेसिकली तुम एक फ़ैक्ट्री डाल सकते हो पोएम निकालने की, जहाँ से दिन में चालीस पोएम रोज़ निकल रही हैं, और बिलकुल सूफ़ियाना हैं। तो बड़ी हॉरिबल (ख़तरनाक) बात है ये, कि कोई रूमी जैसी पोएट्री (कविता) कर रहा हो, इससे ज़्यादा हॉरिबल बात नहीं हो सकती। नहीं समझ रहे हो?

कि जो किसी का हाईएस्ट एक्सप्रेशन (उच्चतम अभिव्यक्ति) है, वो भी किसी ने इंटर्नलाइज़ (उसी की तरह) कर लिया, वो भी विदाउट एनी इंटरनल चेंज (बिना किसी आन्तरिक बदलाव के)। कोई चेंज नहीं हुआ है, तुम वही के वही हो। और तुमने रूमी की पोएट्री भी को को-ऑप्ट कर ली (अपना लिया) है, तुमने वैसा लिखना भी शुरू कर दिया है।

इन-फ़ैक्ट (वास्तव में) अगर तुम वाक्यों की बनावट वगैरह पर गौर करो, तो सेंटेंसेज़ (वाक्यों) में तो हमेशा ही एक पैटर्न (स्वरूप) होता है, कॉपी करना हमेशा ही बहुत आसान है; उपनिषद भी कॉपी किये जा सकते हैं। पैटर्न ही तो है, यही लिखना है न — सारे पैराडॉक्सेस (विरोधाभास) एक साथ लिया दो — ’ही इज़ इन डे, एंड ही इज़ इन नाईट; ही इज़ नाइदर इन डे एंड नॉर इन नाईट।’ समझ रहे हो न? ’ही इज़ इन लैंड एंड ही इज़ इन वॉटर, ही नाइदर इन लैंड नॉर इन वॉटर।’ (‘वह दिन में है, वह रात में है। वह न दिन में है, न रात में है। वह ज़मीन में है और वह पानी में है, वह न ज़मीन में है और न पानी में’) ये लो बन गया, श्लोक बन गया।

किसी का दिल लगे रीडिंग में न, तो ये दिल बढ़िया है, ये मन बढ़िया है। तो रीडिंग एक इंडिकेशन (संकेत) ज़रूर है कि मन बढ़िया है पर रीडिंग ही कोई फ़ायदा देती है ये नहीं कह सकता मैं।

हाँ, जिसका मन रीडिंग में लग रहा हो वह मन खुद सही रास्ते पर जा रहा है तो ठीक चलेगा। तो रीडिंग एक तरह का इंडिकेटर (प्रतीक) है पर कॉज़ (कारण) नहीं है। दोनों बातों में अंतर समझो न। जैसे स्पीडोमीटर (गति बतानेवाला उपकरण) होता है, स्पीडोमीटर , स्पीड दिखाता है। पर स्पीडोमीटर कोई स्पीड का कॉज़ थोड़े ही होता है, इंडिकेटर होता है न बस। तो रीडिंग भी शायद बस इंडिकेटर है।

किसी का मन अगर रीडिंग में लग रहा है तो इट्स अ इंडिकेशन दैट द माइंड इज़ हेल्दी (ये इस बात का संकेत है कि मन स्वस्थ है)। पर, रीडिंग से ज़्यादा कीमत का तो शायद ऑब्ज़र्वेशन (अवलोकन) है। दोनों क़ीमती हैं पर ऑब्ज़र्वेशन दुनिया की…रीडिंग तुम्हें औक़ात में रखती है कि ज़्यादा होशियार मत बनो और ऑब्ज़र्वेशन तुम्हें होशियारी देता है। समझ रहे हो न?

रीडिंग का सम्बन्ध फ़ेथ है, ऑब्ज़र्वेशन का सम्बन्ध इंटेलिजेंस (बुद्धिमत्ता) से है; दोनों ज़रूरी हैं।

श्रोतागण: आपने ये बात इक्कीसवें वाले शिविर में कही थी, इन दोनों के बारे में कि दोनों साथ-साथ होने चाहिए।

आचार्य: अगर सिर्फ़ ऑब्ज़र्वेशन कर रहे हो तो उसमें खतरा ये है कि तुम कनिंग (शातिर) हो सकते हो कि तुम्हें पता चल गया है कि दुनिया ऐसे-ऐसे चलती है तो अब तुम इस चीज़ को मैनुपुलेट करो (चालाकी से काम निकालो)।

श्रोतागण: ह्युमिलिटी (विनम्रता) चली जाएगी।

आचार्य: हाँ, ह्युमिलिटी चली जाएगी। ठीक है, तुम्हें पता चल गया दुनिया के तरीके, तो उन तरीकों का अब तुम इस्तेमाल करने लग जाओ। सिर्फ़ रीडिंग से खतरा ये है कि तुम बिलकुल ही पता नहीं क्या बन जाओगे! दोनों एक साथ हों तो कुछ होता है।

पर अगर दोनों में किसी एक को चुनना हो तो मैं ऑब्ज़र्वेशन को ही चुनूँगा। (गुनगुनाते हुए)

श्रोतागण: सर, ये कैसे कब होता है कि पढ़ भी लिया बहुत कुछ पर वो अन्दर छू नहीं पायी, मतलब ये कैसा मन है?

आचार्य: यार क्योंकि, देखो, जब-जब अभी हमने बात करी कि आज ही दुनिया में हजारों लोग होंगे जो रूमी की तरह लिख सकते हैं। इसका मतलब क्या है? इसका मतलब, मन में कैपेसिटी (क्षमता) है उन वर्ड्स (शब्दों) को सोख लेने की और को-ऑप्ट कर लेने की।

जब मन रूमी के वर्ड्स की नकल उतार सकता है, उन्हें प्रोड्यूस (पैदा करना) कर सकता है तो फिर जब रूमी के वर्ड्स आ रहे होंगे किसी मन तक, तो उसमें फिर ये भी ताकत है न कि उनको सोख ले। तो ये बिलकुल हो सकता है।

यू कैन बिकम यूज़ टू दैट काइंड ऑफ़ लैंग्वेज (आप उस प्रकार की भाषा के अभ्यस्त हो सकते हैं), कि रूमी इस-इस तरीके से बात करते हैं या उपनिषदों की भाषा ऐसी है या कुछ और या कबीर को...। अब कबीर के नाम पर जो दोहे चलते हैं उसमें से मुश्किल से बीस परसेंट कबीर के हैं। पर बाकी अस्सी परसेंट भी बता पाने मुश्किल होंगे कि कौन से वाले नकली हैं। जबकि पाँच में से चार नकली हैं।

क्योंकि बिलकुल कबीर जैसे दोहे लिखे जा सकते हैं। तुम एक बार कबीर का पैटर्न देख लो कि कैसे-कैसे, क्या-क्या बोलते हैं, फिर उसी पर लिखना शुरू कर दो। दोहे नहीं, भजन।

कबीर के अस्सी परसेंट जो कबीर के नाम पर भजन चलते हैं न, वो नकली हैं; वो किसी और के हैं या कबीर के ही किसी जो उनकी ट्रेडिशन है उसमें किसी और के हैं, उसने कबीर के नाम से लिख दिया है। और अब हो सकता है तमीज़ के लोगों के भी हों, पर कबीर के नहीं हैं।

ये तो कोई फ़क्र की बात हो ही नहीं सकती है कि कोई अच्छा राइटर (लेखक) या स्पीकर (वक्ता) है। नकली उपनिषद भी हैं तभी तो बारह पकड़ लिये गये हैं उनको बोला था, ‘यही प्रमुख हैं, बाकी हैं ही नहीं।’ इतने हैं उनमें पता लगाना मुश्किल है कि कौन कहाँ से आया, और कौन असली है, कौन नकली है। (गुनगुनाते हुए)

एक्चुअली (असल में) नहीं पता चलता यार ये ओरिजिनल (असली) वाली जो बात है न, फ़ैक्ट (तथ्य) ये है कि अगर किसी ने काम कर रखा है और तुम उसको देखकर के दोबारा कर रहे हो न, तो उससे बेहतर ही करोगे।

श्रोतागण: बल्कि ये गायन में भी रहता है कोई पुराने गायक का गाना रहता है, वो कहता यार इसने अब अच्छा गाया है उससे तो।

आचार्य: हाँ, उससे तुम बेहतर ही करोगे, इसमें कोई वो शक की बात ही नहीं है। इंफ़ैक्ट किसी ने अपना होमवर्क किया हो खुद, और फिर कोई उसकी नक़ल उतारे न, तो उससे बेहतर ही करेगा क्योंकि तुम उसकी गलतियाँ भी थोड़े ही हटा दोगे, ये वो।

जो ओरिजिनल काम होता है न, वो कभी परफेक्ट (पूर्ण) नहीं होता। क्रिएटिविटी (रचनात्मकता) में हमेशा इंपरफेक्शंस (अपूर्णताएँ) और लोचे रहते ही रहते हैं। क्योंकि वो स्पॉन्टेनियस (स्वतः) चीज़ है प्लांड (योजनाबद्ध) नहीं है। जो भी चीज़ स्पॉन्टेनियस होगी उसमें कहीं कुछ छोटी-मोटी कुछ-न-कुछ रह जाएगी।

नेचर में तुम कभी परफेक्ट फूल नहीं देखोगे फ़ॉर एक्साम्पल (उदाहरण के लिए)। पर एक आर्टिस्ट (कलाकार) का जो फूल होगा वह बिलकुल परफेक्ट हो सकता है।

ये बड़ी मतलब, दिस इज़ अ चैलेंज (ये एक चुनौती है) कि हाउ दैन बिकॉज़ ट्रेडीशन (तो कैसे क्योंकि परम्परा)...

देखो रीडिंग भी ट्रेडिशन (परम्परा) ही है न? एनीथिंग कमिंग फ़्रॉम द पास्ट इज़ ट्रेडिशन, ट्रेडिशन इज़ नॉट हेल्पिंग, सो यू रिक्वायर समथिंग एब्सोल्यूटली फ्रेश। (अतीत से आने वाली कोई भी चीज़ परम्परा है, परम्परा मदद नहीं कर रही है, इसलिए आपको कुछ बिलकुल ताज़ा चीज़ की आवश्यकता है) वो तो ऑब्ज़र्वेशन (अवलोकन) ही हो सकती है और कुछ भी नहीं।

श्रोतागण: सर, सामान्यतया टीचर्स (गुरु) जो उनकी खुद की अगर जो राइटिंग्स (लिखाई) होती हैं वह शायद ज़्यादा प्रभावी रहती है, बजाय इसकी कि वो प्रीवियस स्क्रिप्चर्स (पुराने ग्रन्थ) कि मतलब जैसे रीडिंग्स हैं उसकी…

आचार्य: नहीं तो रूमी की अपनी ही तो हैं। स्क्रिप्चर्स (ग्रन्थ) भी तो किसी की राइटिंग (लिखाई) ही है न? अब उपनिषद किसी ऋषि की राइटिंग हैं, और क्या है? जैसे रूमी कुछ कह रहे हैं लिख रहे हैं, वैसे ही ऋषिओं ने भी किया है ये ही।

श्रोतागण: नहीं सर, मतलब जैसे कि ये जो आप ही की जो राइटिंग है अब तक जो लेक्चर्स (व्याख्यान) हुए हैं अगर उन्हीं के ऊपर कोई इंट्रोडक्ट्री लेक्चर्स (परिचयात्मक व्याख्यान) हैं वो एक रीडिंग्स (पठन) के तौर पर दिये जाएँ और उसके बाद फिर या तो उसी बिन्दु से एक अगले स्तर से शुरू किया जाए। क्योंकि अगर वो ही जो आप कहते हैं कि जो लोग बोल गये वो उससे पहले एक अलग सन्दर्भ में बोल गये एक अलग पारम्परिक तरीके से अपनी चीज़ें रख गये, वो शायद अभी के लोगों को एकदम प्रभावित न करे ज़्यादा सब लोगों के ऊपर...

आचार्य: नहीं, मैं दूसरों के इम्पैक्ट करने की बात नहीं कह रहा हूँ, मैं पॉइंट (बिन्दु) थोड़ा सा अलग है, मैं ये कह रहा हूँ कि बिना कोर सब्सटेंस (मूल तत्त्व) हुए भी आपका एक्सप्रेशन (अभिव्यक्ति) बिलकुल रूमीयाना हो सकता है।

आप भीतर से हो सकता है बिलकुल खत्म हों, खाली, सड़े-गले, एकदम कुछ भी नहीं लेकिन आपका एक्सप्रेशन फिर भी रूमीयाना हो सकता है। तो एक्सप्रेशन को ही देख रहा था कि एक्सप्रेशन की तो कोई कीमत ही नहीं है, दो टके की कोई कीमत नहीं है।

आज वाली जो एक्सर्साइज़ (अभ्यास) थी तुमने यदि सीरियसली (गम्भीरता से) किया होता न तो तुम पाते कि तुमने रूमी से बेहतर कविता बना दी है, तुमने रूमी से बेहतर कविता बना दी है। ये कितना डेंजरस ऑब्ज़र्वेशन (खतरनाक अवलोकन) है।

तो जैसे-जैसे मोरैलिटी (नैतिकता) के प्रिंसिपल्स (सिद्धान्त) होते हैं वैसे ही स्पिरिचुअलिटी (अध्यात्म) के भी प्रिंसिपल्स बन गये हैं। अब तुमको पता है कि इस-इस तरीके की बात कर दो तो स्पिरिचुअल कहलाओगे, तो बड़ा बोरिंग और बड़ा प्रिडिक्टेबल (पूर्वकथनीय) और गंदा गेम हो गया ये।

मतलब पाँच-सात तरीके की बातें अगर तुम करते हो, फ़र्स्ट — आइ एम नॉट द बॉडी, सेकेंड — एवरीथिंग इज़ माइंड, थर्ड देयर इज़ ओनली वन ट्रुथ (पहली, मैं शरीर नहीं हूँ; दूसरी, हर चीज़ मन है, तीसरी केवल एक सत्य है)

श्रोतागण: “अहम् ब्रह्मास्मि।”

आचार्य: हाँ, और इस तरीके की अगर तुम पाँच-छह चीज़ें बोलना जानते हो, तो यू आर द स्पिरिचुअल टाइप (तुम एक आध्यात्मिक तरीके के हो।) तुम्हें पता है ज़्यादातर जो ओरिजिनल सूफ़ी सॉन्ग है न, वो इतने अनअट्रैक्टिव (अनाकर्षक) हैं कि पूछो मत।

चाहे वो उमर खय्याम हों अमीर खुसरो हों कोई हों, इनके दो-ही-चार है वह बढ़िया वाले जिन पर कव्वाली चलती है और गाने बन गये हैं, नहीं तो बाकी सब बड़े बोरिंग (उबाऊ) हैं।

तो फ़ैक्ट (तथ्य) ये है कि आज के लिरिसिस्ट (गीतकार) जो सूफ़ियाना कलाम लिखते हैं, वो उमर खय्याम से ऊपर का है। अब आप उमर खय्याम हुए बिना उमर खय्याम से कहीं बेहतर कलाम लिख सकते हो। मैं ये भी नहीं कह रहा मैचिंग (मिलान); उससे बेहतर।

मैं कह रहा हूँ कि तुममें इंप्रूवमेंट (सुधार) हो रहा है ये इसका कोई बहुत डेफिनिट (निश्चित) बैरोमीटर ये नहीं है कि तुम अब रूमी की तरह बोलने लग गये हो, क्योंकि एक-से-एक फालतू बैठे हैं जो रूमी की तरह बोल रहे हैं। बल्कि उस पर तो शक ही करो जो रूमी की तरह बोलता हो, उसको तो ऐसी…।

यार, ये लोग कहीं से किसी से मिलकर आये हैं अभी वो उसने पूरा समझाया इनको अहिंसा क्या होती है। और ये जब से उससे मिलकर आये हैं इनका गला खराब है। क्योंकि वो बहुत बड़ी मोनेस्ट्री (आश्रम) में अन्दर बैठता है और जूते उतरवा देता है बाहर बिलकुल गेट के, और उसके आगे लगे हुए हैं तगड़े पत्थर तो वो ठंड में वो ठंडे पत्थर बिलकुल बर्फ़ रहते हैं। और अब आपको उनपर चलकर कम-से-कम, पता नहीं कितने मीटर; सौ मीटर, दो-सौ मीटर, जाने कितना फिर पहुँचना है स्वामी जी तक। और उस चक्कर में ये खा गये हैं ठंड। स्वामी जी तक पहुँचे और फिर वहाँ वेट करा स्वामी जी ने फिर दर्शन दिये और फिर ये लौटे तो इतने में ठंड लग गयी है।

श्रोतागण: अहिंसा बताये।

आचार्य: हाँ, वही कह रहा था कि अहिंसा का कुछ उनको दीक्षा-विक्षा दिये, व्रत-व्रत भी दिया है और ये कर दिया है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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