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पढ़ने बैठो तो मन भागता है || आचार्य प्रशांत (2020)

Acharya Prashant

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पढ़ने बैठो तो मन भागता है || आचार्य प्रशांत (2020)

प्रश्न: आचार्य जी प्रणाम! मेरा प्रश्न कि – मन तो कैसे एकाग्र रखें? मैं कोई एक विषय पढ़ता हूँ तो दूसरे विषय में चला जाता हूँ। मन को कैसे एकाग्र रखूँ?

आचार्य प्रशांत: क्यों पढ़ते हो?

प्रश्नकर्ता: पढ़ाई में आगे बढ़ने के लिए।

आचार्य प्रशांत: तुमने ख़ुद चुना है पढ़ना?

प्रश्नकर्ता: चिकित्सा विज्ञान का छात्र हूँ, चिकित्सक बनकर लोगों की सेवा करनी है, तो पढ़ना तो पड़ता है।

आचार्य प्रशांत: यहाँ बैठकर मुझे सुन रहे हो, तो क्या मन जा रहा है चिकित्सा विज्ञान के विषयों की ओर? अभी पिछले दो घंटों में कितनी बार तुमने अपने चिकित्सा विज्ञान के पाठ्यक्रम का विचार किया कि – फलाने अध्याय में ये लिखा है, फलाना डायग्राम (आरेख) ऐसा है, फलाना रिएक्शन (रासायनिक प्रतिक्रिया) ऐसे होता है?

प्रश्नकर्ता: अभी तो नहीं।

आचार्य प्रशांत: तो क्यों नहीं किया?

प्रश्नकर्ता: जहाँ पर हूँ वहाँ पर फोकस करना चाहिए इसलिए।

आचार्य प्रशांत: क़िताब भी जब सामने रहती है तो उसपर फोकस क्यों नहीं कर लेते?

इसलिए नहीं कर लेते क्योंकि उसकी क़ीमत अपने आप को नहीं बताते हो। और आवश्यक नहीं है कि उसकी क़ीमत हो। क़ीमत तो व्यक्ति के परिपेक्ष में ही होती है। तुमने अगर ख़ुद चुनी है चिकित्सा विज्ञान की पढ़ाई, जैसा कि कह रहे हो कि डॉक्टर बनकर लोगों की सेवा करना चाहते हो, या हो सकता है मेवा खाना चाहते हो, अगर ख़ुद चुना है – सेवा चाहे मेवा- तो फिर तुम्हें पता होना चाहिए अपने चुनाव की क़ीमत का।

कोई चीज़ क़ीमती है, ज़रूरी है, तभी तो चुनी है। अगर वो ज़रूरी है, तो फिर वो तुम्हारा ध्यान खींचेगी। जैसी अभी यहाँ बैठे हो, और अगर तुमने ख़ुद चुना है यहाँ आना, तो यहाँ जो बात हो रही है वो तुम्हारा ध्यान खींचेगी। नहीं खींच रही है लेकिन, ये तुम्हारा अनुभव है, जैसा कि तुम्हारा कहना है। तो इसका मतलब ये है कि तुम जो कुछ कर रहे हो उसमें तुम्हारा चुनाव निहित नहीं है, कोई ज़ोर-ज़बरदस्ती चल रही है।

सच्चा चुनाव वास्तव में प्रेम होता है। इसीलिए वो अ-चुनाव होता है। इसीलिए उसमें चुनाव करने की प्रक्रिया में बहुत झंझट नहीं होती।

जैसे प्रेम में झंझट होती है क्या कि – “प्रेम करूँ या न करूँ?” है भई! सच्चा चुनाव एक तरह से विवश कर देता है तुमको, कि अब चुन लिया तो इसी के साथ हैं। मन इधर-उधर भाग ही नहीं सकता, ख़ुद ही तो चुना है। इश्क़ है भई, अब कैसे इधर-उधर भाग जाओगे? और अगर इधर-उधर भाग रहे हो तो इसका मतलब चुना ही नहीं है, या चुनाव बेहोशी में हुआ है।

तो क़िताबों को छोड़ो, सबसे पहले अपने आप से ये मूलभूत सवाल पूछो – “ये चिकित्सा विज्ञान की पढ़ाई मैं कर क्यों रहा हूँ?” ख़तरनाक सवाल है। क्योंकि इसका ये भी जवाब आ सकता है कि -“मुझे कोई रुचि है नहीं वास्तव में डॉक्टर बनने में। किसी ने मेरे सामने मेवा लटका दिया है, लालच के कारण मैं पढ़े जा रहा हूँ कि डॉक्टर बन जाऊँगा, मेवा खाऊँगा।” ये भी हो सकता है कि चिकित्सा विज्ञान की पढ़ाई ही छोड़नी पड़े। छूटती है तो छूटे, भले ही तीन साल- चार साल जितना भी पढ़ लिया है। ज़िंदगी भर बर्बाद रहोगे, उससे अच्छा है कि अभी छोड़ दो।

लेकिन अगर उत्तर ये आया कि – “वास्तव में बनना है डॉक्टर, और मैं चुन रहा हूँ डॉक्टर बनना,” तो फिर अगली बार क़िताब से ध्यान भंग नहीं होगा। ज़िम्मेदारी तो लो न अपने ऊपर।

होता क्या है न छात्र जीवन में, तुम्हारा जो साप्ताहिक टाईमटेबल (समय सारणी) है, वो भी कोई और बना देता है। परीक्षाओं का भी कार्यक्रम बाहर से आता है। क़िताबें भी किसी और की लिखी हुई हैं। जो विषय तुम्हें ठीक नहीं भी लग रहा, उसमें भी पिछत्तर प्रतिशत उपस्थिति दर्ज करानी ही करानी है।

तो मन को ऐसा लगने लगता है कि ये सब उसके साथ ज़बरदस्ती हो रहा है, कि – “आ गया नया सेमेस्टर, और आ गई नई क़िताब, और ये सामने रख दी गई”, “हमने तो नहीं कहा था कि बारह अप्रैल से परीक्षाएँ हों। लो आ गया बारह अप्रैल, हमसे पूछकर तो नहीं तय किया था।” पूछकर नहीं तय किया मतलब? “हमारे साथ ज़बरदस्ती हो रहा है। और जब हमारे साथ ज़बरदस्ती हो रहा है, तो हम क्यों करें?”

आदमी ये भूल ही जाता है कि ये ज़बरदस्ती तुमने ख़ुद स्वीकार की है। ये ज़बरदस्ती तुम्हारे साथ हो रही है क्योंकि ख़ुद तुमने उस क़िताब से, उस चिकित्सा विज्ञान से प्रेम का वादा किया है। और वादा करने के बाद अब मुकर नहीं सकते, अगर वादा सच्चा है। और वादा नहीं किया है, तो मैं कहता हूँ कि छोड़ दो कॉलेज को और बाहर आ जाओ। बुरा लगेगा, फ़ीस भी दे दी होगी बहुत सारी। तीन-चार साल भी लगा दिए हैं। तीन-चार साल ही तो लगाए हैं, तीस-चालीस साल तो बच जाएँगे।

इस प्रक्रिया में याद आ जाए अगर कि – “भले ही क्लास में पढ़ाने वाला डॉक्टर कोई और हो, भले ही क़िताब किसी और ने लिखी हो, भले ही परीक्षाओं में मेरा मूल्यांकन कोई और कर रहा हो, लेकिन इस इस कैंपस में, इस कॉलेज में, इस हॉस्पिटल में मैं हूँ तो स्वेच्छा से। अपने चुनाव से, अपने प्रेम से।” उसके बाद फिर क़िताब से ध्यान नहीं भागेगा।

ज़िम्मेदारी अपने ऊपर लो। कहो, “ये जो कुछ भी हो रहा है ये मैंने स्वयं आमंत्रित किया है। मैं चाहता हूँ कि मुझे रगड़ दिया जाए। मैं चाहता हूँ कि वाईवा (मौखिक परीक्षा) में मुझसे ख़तरनाक प्रश्न पूछे जाएँ। मैं चाहता हूँ कि पाठ्यक्रम कठिन हो। ये सब मैंने ख़ुद चुना है।” ये बात याद रखनी होगी कि तुम्हारे साथ ज़बरदस्ती नहीं हो रही है, ये तुमने ख़ुद चुना है। उसके बाद फिर तुम ये नहीं कर पाओगे कि – “देखो, आज ये नोटिस लग गया। मैं तो शिमला घूम आना चाहता था, ये तो क्लास का नोटिस लग गया।”

ऐसा होता है न कि जल जाती है बिल्कुल? और जब जल जाती है तो आदमी बदला किसपर निकालता है? क़िताबों पर – “नहीं पढ़ता।” मत पढ़ो! तुम्हारी ज़िंदगी है।

याद रखना – तुम्हारी ज़िंदगी तुम्हारा चुनाव है। कुछ भी ज़बरदस्ती नहीं हो रहा है।

प्रश्नकर्ता २: आचार्य जी, मैं आयुर्वेद की पढ़ाई कर रहा हूँ, और उसमें गहन अध्ययन की ओर जाना चाहता हूँ। लेकिन जब गहन अध्ययन में उतरता हूँ, तो ऐसा लगता है कि अहम भाव और शरीर भाव बढ़ रहा है। ऐसा महसूस होता है कि गहन अध्ययन में उतरते ही शरीर भाव बढ़ने लगता है। अध्यात्म की दृष्टि से तो शरीर भाव बढ़ा तो शरीर ही रह जाएँगे।

आचार्य प्रशांत: सांसारिक जितने भी विषय हैं, उनमें सब में शरीर भाव बढ़ेगा।

तुम चिकित्सा विज्ञान पढ़ोगे, तुम इंजीनियरिंग (अभियांत्रिकी) पढ़ोगे, तुम प्रबंधन पढ़ोगे, तुम गणित पढ़ोगे, तुम साहित्य पढ़ोगे, तुम दर्शन-शास्त्र पढ़ोगे, तुम जो पढ़ोगे, हर चीज़ किसके बारे में है? दुनिया के बारे में है। और ‘दुनिया’ माने शरीर, भौतिक। तो शरीर भाव तो बढ़ेगा ही बढ़ेगा, जब तुम दुनिया की कोई भी चीज़ पढ़ोगे। पर इसका ये मतलब थोड़े ही है कि पढ़ना ही छोड़ दो।

दुनिया की सारी पढ़ाई, ‘दुनिया’ की ही तो पढ़ाई है। तुम संसार के बारे में ही तो जानते हो। तो संसार को जितना पढ़ोगे, उसमें ये संभावना तो होगी ही कि संसार फिर और ज़्यादा सच लगने लगेगा, क्योंकि बड़ा मुश्किल है कि – मैं मैकेनिकल इंजीनियर (यांत्रिकी अभियंता) हूँ, मैं बीम के बारे में पढ़ूँ, स्ट्रैस (प्रतिबल) के बारे में पढ़ूँ, और फिर मैं कहूँ, “द बीम डस नॉट एक्सिस्ट। सब मिथ्या है।”

ऐसा होगा नहीं न।

जब आप चिकित्सा विज्ञान की पढ़ाई कर रहे हो, और बहुत जान लगाकर किसी मरीज़ की चिकित्सा कर रहे हो, या समझना चाह रहे हो कि गुर्दा कैसे काम करता है, उस समय तो ये संभावना है ही कि ये प्रतीत होगा कि – ये जो शरीर है ये सच है – क्योंकि बड़ी दिक़्क़त हो जाएगी कि एक ओर तो तुम शरीर की चिकित्सा पढ़ रहे हो, शरीर के भीतर की सारी प्रक्रियाएँ पढ़ रहे हो, और साथ ही साथ कहते जा रहे हो, “ये शरीर तो मिथ्या है।” ऐसा हो नहीं पाएगा। सांसारिक शिक्षा तो तुम जो भी लोगे उसमें ये होगा ही होगा। साथ ही साथ आध्यात्मिक शिक्षा भी लेते रहो ताकि ये जो भी बाहर से अविद्या हो, उसका दंश कटता रहे।

विद्या-अविद्या दोनों साथ होने चाहिए। इस डर से कि अविद्या तुममें देहभाव और प्रबल कर देगी, अविद्या को छोड़ा नहीं जा सकता। दुनिया के बारे में भी जानना ज़रूरी है। एकदम कुछ नहीं जानोगे, भोंदू रहोगे, कुछ पता ही नहीं है दुनिया का, तो फिर अध्यात्म भी तुम्हें समझ नहीं आएगा।

आयुर्वेद की पढ़ाई कर रहे हो, वो शरीर की ही पढ़ाई है। पूरी-पूरी वो सांसारिक, भौतिक पढ़ाई है। तो उसको उसी तरीक़े से करो जैसे कोई भी पढ़ाई की जाती है। और साथ ही साथ अध्यात्म की भी शिक्षा लेते रहो।

प्रश्नकर्ता ३: जो आरम्भिक शिक्षा है बच्चों के लिए, क्या उसका हमें बहिष्कार करना चाहिए?

आचार्य प्रशांत: क्यों बहिष्कार करना चाहिए?

प्रश्नकर्ता ३: क्योंकि मुझे लगता है कि वो अस्वाभाविक है।

आचार्य प्रशांत: स्वाभाविक क्या है?

प्रश्नकर्ता ३ : जिस तरीक़े से शिक्षा पढ़ाया जाता है, कक्षा एक से बाहरवीं तक, वो तरीक़ा मुझे सही नहीं लगता। उससे बच्चे यांत्रिक बन जाते हैं।

आचार्य प्रशांत: तो जैसा सही है वैसा करो।

प्रश्नकर्ता ३: तो आवश्यक नहीं है कि हम उनको स्कूल में भेजें?

आचार्य प्रशांत: स्कूल बहुत तरीक़े के हैं। स्कूल तो बहुत-बहुत तरीक़े के हैं। इसमें मैं कैसे कुछ भी बता दूँ।

शिक्षा की एक व्यवस्था है। उस व्यवस्था में भी कई विकल्प हैं। तुम्हें उन विकल्पों से ज़्यादा बेहतर कोई विकल्प मिल रहा हो, तो जो शिक्षा की मुख्यधारा की व्यवस्था है, उससे हटकर कोई और व्यवस्था आज़मा लो, जैसे होम स्कूलिंग वगैरह। लेकिन इन नए विकल्पों को आज़माने से पहले ये सुनिश्चित कर लेना कि नए विकल्प, पुराने विकल्पों से बेहतर हैं। ये न हो कि बच्चे को स्कूल से तो हटा दिया, और उसको जो घर पर विकल्प दिया है वो स्कूल से बदतर है।

और ऐसा होता है।

स्कूली व्यवस्था की ख़ामियाँ हम सभी जानते हैं। स्कूली व्यवस्था में जो दोष हैं वो बहुत प्रकट हैं, और लोगों को पता हैं। लेकिन तुम जो स्कूली व्यवस्था से हटकर अपनी व्यवस्था करोगे, उसमें कितने दोष होंगे ये तुम जानो। क्योंकि ये बड़ी ज़िम्मेदारी की बात है तुम उस स्कूली व्यवस्था से अपने बच्चे को हटाकर, अपने दम पर कोई और व्यवस्था दे रहे हो। फिर भी अगर ये निर्णय लेना चाहते हो, तो पहले ये सुनिश्चित कर लेना कि बच्चे को बेहतर व्यवस्था ही दे रहे हो, पहले से भी बदतर नहीं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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