पढ़ाई में मन नहीं लगता क्योंकि वो पढ़ाई शायद तुम्हारे लिए है ही नहीं। वो पढ़ाई तुम कर ही रहे हो उनके दबाव में जो तुमको एक तरह से स्पॉन्सर कर रहे हैं कि ‘तू घर बैठ, तुझे रोटी-पानी की फ़िक्र करने की अभी कोई ज़रूरत नहीं साल-दो-साल, तू बैठ और तू तैयारी कर।‘
वो तैयारी तुम्हें करनी ही नहीं है। सबका अपना व्यक्तित्व, अपना मन, अपना जीवन होता है, सबको एक तरफ़ नहीं जाना होता है। ये तुम्हारा दायित्व है कि ये बात सीधे-सीधे तुम माँ-बाप से बोल दो। समझो भाई, वो तुम पर वो निवेश कर रहे हैं, तुम पर वो पैसा लगा रहे हैं, और तुम ही ने कहा कि वो अपेक्षाएँ रख रहे हैं आगे के लिए। उनको बता तो दो तुम्हारे इरादे क्या हैं, तुम्हारा मन किधर को जा रहा है। नहीं तो उनको भी धोखा होगा। ये मैं निवेश की दृष्टि से बोल रहा हूँ।
प्रेम की दृष्टि से बोलूँ तो भी यही बात है – अगर माँ-बाप और संतान में प्यार है वास्तव में तो वो एक दूसरे से खुल करके दिल की बात करेंगे कि नहीं करेंगे?
ऐसे रिश्ते को हम क्या समझें जहाँ बेटा माँ-बाप से अपना हाल बता ही नहीं पा रहा।
ये बात घर बैठ कर माँ-बाप से करो!