प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी, मेरा जो प्रश्न है वो हाल ही में मेरे साथ हुए एक इन्सिडेन्स (घटना) से है। मेरी एक भांजी है जो एग्जाम में फेल होने के कारण और स्ट्रेस के कारण वो आठ दिनों से घर से भाग गयी थी और आठ दिनों के बाद हमें वो मिली है। और इसके बाद जो मैंने समझा है — हम एक छोटे शहर से आते हैं और मैंने उसको समझा कि ये क्यों हुआ है। तो मुझे पता चला कि पैरेन्ट्स के दबाव में और उसको ऐसा लगा कि 'मेरा करियर अब आगे बढ़ नहीं सकता, और मैं करियर में कुछ कर नहीं सकती।' हालाँकि वो पॉलिटेक्निक के सेकंड-ईयर (द्वितीय-वर्ष) में ही है और वो पढ़ाई के साथ आर्ट (कला) में भी अच्छी थी, पर स्ट्रेस (तनाव) और डिप्रेशन (अवसाद) के कारण वो समझ नहीं पायी और वो निकल गयी।
फिर मुझे ऐसा लगा कि हम लोग जब छोटे शहर से आते हैं तो हमें एजुकेशन का मतलब भी पता नहीं। एज़ अ पैरेन्ट्स (अभिभावक के रूप में) और एज़ अ स्टूडेंट (छात्र के रूप में) हम उसे समझ भी नहीं पा रहे। हम पढ़ाई भी इसलिए कर रहे हैं कि हम एक जॉब (नौकरी) कर सकें और उसके द्वारा हम अच्छे से कंसम्पशन (उपभोग) कर सकें। तो आचार्य जी एज़ अ पैरेन्ट्स और एज़ अ स्टूडेंट आप उनका मार्गदर्शन करें।
आचार्य प्रशांत: देखो, पढ़ाई की बहुत धाराएँ उपलब्ध हैं। जो एक धारा में किसी भी तरीक़े से मन लगा न पा रहा हो, उसको प्रयोग करके किसी दूसरी धारा को चुनने दो न। और इस मामले में तो शिक्षा पिछले बीस-तीस सालों में बेहतर ही हुई है। पहले इतने तरह के विकल्प ही नहीं होते थे। सबसे जो बढ़िया वाले होते थे उनको कहा जाता था इंजीनियरिंग ; जो थोड़े उनके आसपास के होते थे वो मेडिकल ; थोड़ा सा और इधर वाले हैं वो कॉमर्स ; बाक़ी बीएससी ; आख़िरी वाले बीए। बना हुआ था ढर्रा। अब ऐसा नहीं है। अब न जाने कितने तरह के विकल्प खुल गए हैं।
अब तो बहुत ग़ैर-ज़रूरी है कि आप बच्चों पर इतना दबाव बनाकर रखो कि तुम्हें फ़लानी चीज़ में इतने नंबर लाने ही लाने हैं। आने दीजिए मार्क्स (अंक) को। देख लीजिए किधर को उसका झुकाव है। उसके हिसाब से उसे कोई कोर्स (पाठ्यक्रम), कोई स्ट्रीम (धारा) चुन लेने दीजिए।
अगर वो घर से भागने जैसा कदम उठा रहा है, तो इसका मतलब घर में दबाव बहुत बनाया गया है।
प्र: हाँ।
आचार्य: हाँ क्या! क्यों बनाया है? कोई ज़रूरत नहीं है न उतना दबाव बनाने की। क्या होता है, वही महत्वाकांक्षा का खेल, माँ-बाप की अपनी जो ज़िन्दगी होती है वो होती है उजाड़। फिर जो अपने अधूरे अरमान होते हैं वो डाल देने हैं बच्चे के ऊपर कि अब तुझपर दारोमदार है, बाहर जा और वो सबकुछ पा कर दिखा जो हम नहीं पा सकें ताकि हम फिर थोड़े गौरव और संतोष के साथ कह सकें कि मेरा ऐसा निकला छौना।
ये सब तुम्हें पाने का इतना शौक था तो ख़ुद ही पा लिया होता। अपने तो आए थे छत्तीस परसेंट। उसको छियानवे भी आ गया है तो ताना मार रहे हो कि 'अरे, बगल के बंटू के संतानवे आये हैं।' अपनी हसरतें अपने तक रखिए न! शिक्षा पर कोई उम्र की शर्त तो होती नहीं है। आपको यही देखना है कि मार्कशीट (अंकसूची) पर या डिग्री पर लिखा हो छियानवे परसेंट, तो आप ही किसी कोर्स में एनरोल (दाखिला) कर लीजिए और छियानवे परसेंट लाकर दिखाइए।
कोई यूनिवर्सिटी (विश्वविद्यालय) आपको मना नहीं करेगी कि आप चालीस साल के हो गए हो तो अब हम आपको दाखिला नहीं देंगे, आप ले लीजिए दाखिला। यूपीएससी थोड़ी है कि अपर एज लिमिट (ऊपरी आयु सीमा) होगी। और उसमें पा लीजिए आपको जितने नंबर पाने हैं। फिर बल्कि बच्चों पर कम दबाव बनाएँगे, बच्चा भी पलटकर पूछेगा, 'आपके कितने आए?' और बच्चे से कम ही आए होंगे।
समझ में नहीं आता मैं क्या बोलूँ इसपर। अब मूल पर जाऊँगा तो मूल तो ये है कि — कई बार बोल चुका हूँ — कि यूँही चलते-फिरते, साधारण समझ, साधारण बुद्धि के साथ बच्चे पैदा ही नहीं करने चाहिए ऐसे। अब जब जीवन को नहीं जानते, ख़ुद को नहीं जानते, तो औलाद पैदा काहे को कर दी? असली ग़लती तो वही कर दी थी, अब उसके बाद फिर सबकी ज़िन्दगी ख़राब करते हो, अपनी भी, बच्चे की भी।
'औलाद कैसे पैदा कर दी?' 'अज्ञान में।' 'ओह... शादी ही कैसे कर ली थी?' 'अज्ञान में।' 'पूरी ज़िन्दगी कैसे बितायी?' 'अज्ञान में।'
इतनी लंबी-चौड़ी कहानी है, उसके एक पक्ष को उठा करके मैं उसका क्या समाधान आपको बता दूँ? सबकुछ तो बेहोशी में चल रहा है।
एक आदमी टुन्न रहता है सुबह से लेकर शाम तक, और इस चक्कर मे वो कुछ गड़बड़ कर देता है। क्या गड़बड़ कर देता है? मान लीजिए, बिस्तर की चादर गंदी कर देता है अपने। अब आप पूछे कि आचार्य जी बिस्तर की चादर गंदी न हो इसका कोई उपाय बताइए। भाई, घर के बर्तन वो तोड़ता है, फ्रिज़ का दरवाज़ा वो खुला छोड़ देता है, कुत्ते को बाथटब में वो डाल आता है, दुनिया-भर के जितने उपद्रव हो सकते हैं वो सारे करता है। अब इन सारे उपद्रवों में तुम बस एक चीज़ का समाधान चाहते हो कि चादर न गन्दी हो। मैं क्या समाधान बताऊँ?
ऐसा घर जिसमें बच्चे पर इस तरह का दबाव बनाया जा रहा हो, ऐसे घर में क्या सिर्फ़ एक यही ग़लत काम हो रहा है? उसमें सौ तरह के ग़लत काम होते हैं। पर वो बाक़ी सब ग़लत काम छुपे रह जाते हैं, ये वाला सामने आ गया; सामने भी इसीलिए आ गया क्योंकि लड़की घर से ही भाग गयी — और सुनने में तो बिलकुल सही ही है, भाग ही गयी — तो वो चीज़ सामने आ गयी। वो अभी भागी न होती तो इसको भी नहीं मानते कि कुछ ग़लत हो गया है। कहते कि सब ठीक चल रहा है। ठीक क्या चल रहा है? अगर सौ काम करते हो दिन में तो सौ के सौ ग़लत कर रहे हो। ये है स्कोरकार्ड। कितने ग़लत किये? सौ के सौ।
लेकिन यह मानने में अहंकार को बड़ा बुरा लगता है कि हम जो करते हैं वही ग़लत होता है। तो कुल एक चीज़ ला करके आप सामने रख देते हो, 'आचार्य जी, ये एक चीज़ ग़लत हो गयी है।' जैसे कि बाक़ी निन्यानवे चीज़ें सही हों। सही कितना है? कुछ भी नहीं। सब कुछ तो ग़लत है, तो मैं क्या अब उनको सलाह दूँ?
बहुत संभावना है कि घर में धर्म का भी ग़लत तरह से पालन किया जाता होगा। बहुत संभावना है कि नाश्ते में बच्चे ब्रेड-ऑमलेट खा रहे होंगे। बहुत संभावना है कि पिताजी व्यापार में टैक्स चोरी करते होंगे या दफ़्तर में घूस लेते होंगे। बहुत संभावना है कि माताजी दिनभर बैठकर के घटिया गॉसिप (गपशप) वाले टीवी सीरियल देखती होंगी। बहुत संभावना है कि बहन की शादी के लिए दहेज इकट्ठा किया जा रहा होगा। ये सब उसी घर में चल रहा होगा।
सब कुछ ही तो ग़लत चल रहा है। मैं एक चीज़ पर तुम्हें कैसे सलाह दे दूँ कि इस एक चीज़ को ठीक कर लो? कैसे कर लूँ?
मूल से इलाज करना होता है। ये ऐसी सी बात है किसी को कैंसर हो गया हो, उसे कीमोथैरेपी होने लगे तो उसके बाल गिर जाएँ, तो आप कहो कि ये लो ये खानदानी नूरानी तेल, ये लगाने से खोपड़े में बाल उग आते हैं। अरे, उसकी समस्या क्या ये है कि उसके बाल झड़ रहे हैं? तुझे पता भी है उसकी समस्या क्या है, क्या है उसकी समस्या? उसे कैंसर है। और तुम उसके लिए दादी-माँ के नुस्ख़े वाला नूरानी तेल लेकर के आए हो।
तो आप जब पूछते हो तो मैं कुछ सतही बातें बता भी देता हूँ कि बच्चे पर दबाव मत डालो, अलग-अलग तरीक़े की स्ट्रीम्स हैं, कोर्सेज हैं उसमें से उसको चुन लेने दो। लेकिन असली बात ये है कि मूल समस्या तो माँ-बाप के अज्ञान में बैठी हुई है। उसका इलाज नहीं होगा तो एक समस्या ठीक करोगे, दूसरी खड़ी हो जाएगी।
अज्ञानी आदमी से बहुत बचना। ऐसों से रिश्ते नहीं बना लिया करते। उसके पास पैसा हो तो भी उससे रिश्ता मत बना लेना, वो देह रूप से बहुत आकर्षक हो तो भी उससे रिश्ता मत बना लेना। ज़िन्दगी भर भुगतोगे। तुम भी भुगतोगे, तुम्हारे बच्चे भी भुगतेंगे। क्यों बड़ा लम्बा-चौड़ा नर्क खड़ा करना चाहते हो? अज्ञानी माने अज्ञानी, भले ही कितना भी क्यूट लगता हो। पर तब तो चुमू-चुमू के आगे होश ही नहीं खुलता, तब तो कहते हैं झट से बस, 'यही तो है।' वो जितनी बेवकूफ़ी की बातें करे उतना क्यूट लगता है। 'शोमू कितना क्यूट है, आज एकदम नेगेटिव आईक्यू की बात करी!' बिदककर भागा करो, जैसे बिजली का झटका लग गया हो, इतनी ज़ोर से भागा करो।
जहाँ किसी मूरख को देखो, बचा करो। उससे एक ही रिश्ता बनाया जा सकता है — उसको सुधारने का। उसको जीवन-साथी नहीं बनाते, उसको ये नहीं कहते, 'आजा मेरे मन-मंदिर की देवी बनकर बैठ जा या देवता बनकर बैठ जा, जो भी।' उसको अधिक-से-अधिक मदद दी जा सकती है और देनी चाहिए। करुणा की बात है कि कोई मूरख है तो उसको मदद दे देंगे। जीवन-साथी थोड़ी बना लोगे उसको! कि जैसे डॉक्टर मरीज़ से बोले, 'तुम मेरे जीवन-साथी हुए।' भैया, इलाज कर दो उसका। वरमाला थोड़ी डालनी है!
फिर बच्चे पैदा हो जाते हैं। वो घर से भाग जाते हैं। मैं क्या करूँ, बताइए। साधारण बात थोड़ी है भारत में कि कोई लड़की घर से भागे। जब बहुत ही उसको एकदम मसाला बना दिया होगा पीस-पीस कर तब भागी होगी।
'आचार्य जी भाव को नहीं समझते, इमोशन की कोमलता ये नहीं जानते।' तुम तो जानते हो न? देख लो अपने भावों का और अपनी कोमलता का अंजाम।