प्रश्नकर्ता: ग्रैटिट्यूड एंड ब्लिस (आभार और आनन्द) के स्टेट (अवस्था) में हमेशा कैसे रहें?
आचार्य प्रशांत: ग्रैटिट्यूड तो तभी आएगा जब दिखायी देगा कि क्या-क्या ख़तरे हो सकते थे, कहाँ-कहाँ फँस सकते थे, कितना आसान था किसी गड्ढे में गिर जाना, किसी जाल में फँस जाना, और बच गये।
वो ऐसे नहीं होगा कि जो डेली लाइफ़ (दैनिक जीवन) चल रही है, उसमें ही ग्रैटिट्यूड आ गया। ग्रैटिट्यूड तो तब आएगा जब जिसको आप अपनी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी, दैनिक जीवन बोलती हैं, उसमें छुपे ख़तरों का आपको पता चलने लगे और आप फिर उन ख़तरों से बचना शुरू कर दें। तब भीतर कृतज्ञता आती है कि मैं तो फँस ही गयी थी, बचा दिया तूने! (आकाश की ओर नमस्कार करते हुए)
अगर ये पता ही नहीं चल रहा है कि कितने ख़तरे हैं, आपको फँसाने के लिए कितने जाल माया ने रच रखे हैं, क़दम-क़दम पर शरीर की वृत्तियाँ पाश में आपको लेने के लिए कितनी आतुर हैं, तो फिर ग्रैटिट्यूड भी नहीं आएगा। ग्रैटिट्यूड कोई ख़याल थोड़े ही होता है, ग्रैटिट्यूड कोई कर्तव्य थोड़े ही होता है, वो तो अपनेआप भीतर से उठता है जब कहते हो, ‘अरे रे रे! जान बची, थैंक यू (धन्यवाद)।‘ तब बोलते हो कि नहीं बोलते हो?
ये हुआ है कि नहीं हुआ है कि किसी ने कठिन घड़ी पर मदद कर दी है तो बिलकुल हाथ-में-हाथ उसका लेकर के सौ बार बोला है कि अनुगृहीत हुए! अनुगृहीत हुए! बोला है कि नहीं बोला है — थैंक यू सो मच! थैंक यू सो मच! बोला है कि नहीं? वो तभी तो बोलोगे न जब पहले दिखायी दे कि ख़तरा बहुत बड़ा था, मुसीबत बहुत बड़ी थी, फँस ही गये थे, मर ही गये थे, किसी ने बचा दिया। अगर ख़तरे का पता ही न चले तो काहे का ग्रैटिट्यूड। अधिकांश लोग जो ग्रैटिट्यूड के प्रैक्टिश्नर्स (अभ्यासी) होते हैं, उनके लिए ये एक रस्म है, एक रवायत है कि सुबह उठकर बोलना ’थैंक यू लॉर्ड!’ , या कहना कि अहोभाव, अहोभाव! अरे! काहे का अहोभाव? ज़िन्दगी पहले भी गड़बड़ थी, अभी भी गड़बड़ है, किस बात की कृतज्ञता ज्ञापित कर रहे हो?
समझ रहे हैं?
पता चलना चाहिए, साफ़ पता चलना चाहिए कि हम बच रहे हैं। दिखना चाहिए कि अभी-अभी आ रही थी गोली हमारी तरफ़ और न होती सावधानी, तो खेल ख़त्म था। पर अवधान है — अवधान माने ध्यान — ध्यान है इसलिए बच गये। धन्यवाद उनका जिन्होंने हमें ध्यान सिखाया, ध्यान न होता तो आज ये गोली हमको लील गयी होती।
तो जीवन में जब आतंरिक तरक़्क़ी होती है, उसके साथ अनुग्रह अपनेआप आ जाता है। और आतंरिक तरक़्क़ी न हो रही हो और आप ज़बरदस्ती का अनुग्रह लायें जीवन में, तो वो तो तरक़्क़ी की राह में और बाधा बन जाएगा न।
बात समझ में आ रही है?
अगर जीवन में तरक़्क़ी हो ही नहीं रही और आप कह रहे हैं, ’आइ एम सो ग्रेटफ़ुल’ (मैं बहुत आभारी हूँ), कोई पूछे, ’फॉर व्हाट?’ (किसलिए?) तो उसके लिए भी आजकल एक जुमला चलता है, ’फॉर नथिंग, आइ एम जस्ट ग्रेटफ़ुल।‘ (किसी चीज़ के लिए नहीं, मैं बस आभारी हूँ।) ये बेवकूफ़ी की बात है। आप कृष्ण और कबीर नहीं हो कि आप कह दो कि आइ एम जस्ट ग्रेटफ़ुल।
ये सब बातें उसको शोभा देती हैं जो आत्मस्थ होता है न। फिर अनुग्रह उसकी आत्मिक स्थिति होती है। वो अनुग्रह है लय हो जाने का, मिल जाने का। वो कोई भाव नहीं है, वो कोई विचार नहीं है। तो ये मत कहिएगा जल्दी से, ’आइ एम जस्ट ग्रेटफ़ुल।‘ आप तो जब ग्रेटफ़ुल हों, तो आपके पास कारण होना चाहिए।
मुझे मालूम है मेरी ये बात बहुत सारे आध्यात्मिक लोगों को विचित्र लगेगी क्योंकि ये आजकल प्रचलन चला है — ’डोंट सर्च फ़ॉर अ रीज़न टु बी ग्रेटफ़ुल, जस्ट बी ग्रेटफ़ुल।‘ (कृतज्ञ होने का कारण मत खोजो, केवल कृतज्ञ बनो।) और मैं आपसे ज़ोर देकर कह रहा हूँ कि ये बात घातक है और मूर्खता की है।
वी नीड रीज़न्स टु बी ग्रेटफ़ुल, बिकॉज़ वी हैव ऑल द रीज़न्स इन अवर लाइफ़ टु बी मिज़रेबल (हमें कृतज्ञ होने के कारणों की आवश्यकता है क्योंकि हमारे जीवन में दुखी होने के सभी कारण मौजूद हैं)।
जब जीवन में दुख के इतने कारण मौजूद हैं, इतना सारा दुःख मौजूद है, तो अनुग्रह बिना कारण के कैसे आ जाएगा? अनुग्रह ऐसे आना चाहिए कि दुख हटा, अनुग्रह बढ़ा, और अनुग्रह इसी वजह से बढ़ा कि दुख हटा। दुख नहीं हट रहा तो अनुग्रह की बात ही क्यों कर रहे हैं भाई? आपको मिला क्या है कि आप कह रहे हैं, ‘थैंक यू’ ? ये बात बड़ी रोमांटिक लगती है, बड़ी फ़िल्मी लगती है। लोग करते हैं। ये सब आजकल खूब होने लगा है।
कॉलेजों में होता है, लड़के जाएँगे लड़कियों के पास और कहेंगे, ’अनदर थिंग, जस्ट वांटेड टु से थैंक यू।‘ (एक और बात, बस धन्यवाद कहना चाहता था।) वो बिलकुल बीविलडर्ड (व्यग्र होकर) पूछेगी, ’फॉर व्हाट?’ (किसलिए?) कहेंगे, ‘ऐसे ही; यूँही।‘ ये सब लौंडे-लौंडियाबाजी के लिए ठीक है। अध्यात्म, गम्भीर अध्यात्म में, गहरे अध्यात्म में, इन सब चीज़ों की कोई जगह नहीं है।
समझ में आ रही है बात?
इसीलिए तो मैं यहाँ भी बोला करता हूँ कि क्यों आप शिविर शुरू होने से पहले ही शुरू हो जाते हैं, “गुरुर्ब्रह्मा, गुरुर्विष्णु”? मुझसे आपको कुछ मिला हो तो हाथ जोड़ें, नहीं तो बेईमानी है। और मुझसे आपको कुछ मिला हो, वो बात आपकी ज़िन्दगी में दिखायी देनी चाहिए। ज़िन्दगी अगर ऐसी है ही नहीं जिसमें आपको मुझसे कुछ लाभ, कुछ फ़ायदा हुआ हो, तो आप अनुग्रह किस बात का व्यक्त कर रहे हैं? और अगर कुछ फ़ायदा हो गया आपको मुझसे वास्तव में, तो आपको जो फ़ायदा हुआ है, वही बहुत बड़ा ’थैंक यू’ है, फिर आपको मुँह से कहने की ज़रूरत नहीं। लेकिन ये खूब चलता है। भाई मुझसे कुछ मिला हो तो बोलो शुक्रिया, कुछ मिला ही नहीं, ज़बरदस्ती शुक्रिया बोलोगे तो मैं मोगैम्बो हूँ क्या कि खुश हो जाऊँगा? बिना बात के खुश हो रहे हैं!
सारा अनुग्रह जिसको व्यक्त किया जाता है, वो बाप है हमारा। और वो हमसे एक ही चीज़ चाहता है, क्या? हमारी बेहतरी, हमारी भलाई। आपकी जैसे-जैसे भलाई होती जा रही है, समझ लीजिए कि आप शुक्रिया अदा करती ही जा रही हैं।
तो आपने पूछा, ‘कैसे लगातार ब्लिस में और ग्रैटिट्यूड में रहें?’ निरन्तर अपनी भलाई करते हुए, निरन्तर आतंरिक रूप से तरक़्क़ी करते हुए। आप आतंरिक तौर पर जैसे-जैसे भ्रमों से मुक्त होंगी, आप जैसे-जैसे और प्रेमपूर्ण होंगी, जैसे-जैसे आपके भीतर से राग-द्वेष कम होंगे, आसक्तियाँ कम होंगी, जैसे-जैसे मद-मात्सर्य, ये सब हटेंगे आपके भीतर से, जैसे-जैसे भीतर से तुरन्त रिएक्ट (प्रतिक्रिया) करने की वृत्ति हटेगी, जैसे-जैसे देहभाव घटेगा, वैसे-वैसे समझ लीजिए कि एक अव्यक्त धन्यवाद, एक अव्यक्त थैंक यू आसमान की दिशा में जा रहा है आपकी तरफ़ से। आपको कहना नहीं पड़ेगा।
समझ रहे हैं न?
वो बाप है, वो यही तो चाहता है कि उसकी बच्ची खुश रहे। और खुश माने वो वाली खुशियाँ नहीं, असली आनन्द। जैसे-जैसे आप असली आनन्द को पाती चलेंगी, वैसे-वैसे समझिए कि आपने उसको थैंक यू बोल दिया। और असली आनन्द पाये बिना, आतंरिक रूप से अपनी वृत्तियों को जीते बिना, अपनी मुसीबतों को घटाये बिना, भ्रमों का जाल काटे बिना अगर आपने यूँही थैंक यू बोल दिया, तो फिर कोई बात नहीं बनेगी, उससे कुछ नहीं होता।
प्रार्थना के साथ ये बड़ी गड़बड़ चीज़ है, ये सब जान लें। हमें बताया जाता है कि बस! मैं कुछ सालों तक कॉन्वेंट में पढ़ा हुआ हूँ, वहाँ रोज़ थैंक यू कहलवाते थे लॉर्ड (ईश्वर) को। अरे! जिससे कहलवा रहे हो 'थैंक यू' , उसको कारण भी तो दो थैंकफ़ुल महसूस करने का। ये बात दिल से उठनी चाहिए न कि मुझे कुछ मिला है बहुत बड़ा और जिसने दिया है, शुक्रिया उसका। ये बात उठनी चाहिए न! उसके लिए पहले कुछ बहुत बड़ा मिलना भी तो चाहिए।
तो वो जो बड़ा है उसको पाइए, यही ग्रैटिट्यूड है। रोज़-रोज़ पाइए, क़दम-क़दम पाइए। अपने छोटेपन को, जहाँ भी क्षुद्रताएँ हों, पेटिनेसेज़ (क्षुद्रताऍं) हों, उनको पीछे छोड़ते चलिए। जीवन अपनेआप बिलकुल अनुग्रह से भरा हुआ होगा। सबसे बड़ा अनुग्रह है एक स्वस्थ जीवन; वो अनुग्रह का सबसे सशक्त वक्तव्य है।
प्र: मैं वास्तव में आपके प्रति आभार महसूस करती हूँ। मैंने बहुत कुछ पाया है आपसे और मैं उस स्थिति में हूँ कि मैं ख़ुद को कह सकूँ, ‘परमात्मा ने मुझ पर आनन्द बरसाया है। और मैं बहुत सी ऐसी परिस्थितियों से बाहर आयी हूँ।
आचार्य: बहुत अच्छे! और, और आगे बढ़ते रहिए, और आगे बढ़ते रहिए। और आगे बढ़ते रहिए। जितना आप आगे बढ़ेंगी, जितना आप आतंरिक रूप से मुक्त होती जाएँगी, आनन्दित होती जाएँगी, समझिए कि जिससे आपको मिला है उस तक एक बहुत मोटा सा थैंक यू अपनेआप पहुँच रहा है, अपनेआप पहुँच रहा है; आपकी ज़िन्दगी ही धन्यवाद है बहुत बड़ा।
प्र२: गुरुजी, दुख जब हटता है, तब तो हम धन्यवाद देते हैं ईश्वर को, लेकिन अभी आपने बताया कि सुख भी तो दुख का कारण है, अगर हमारे अन्दर से सुख हटे तब हमारे अन्दर धन्यवाद देने की स्थिति आ जाए — ये स्थिति आने के लिए कैसे, क्या अभ्यास किया जाए?
आचार्य: अगर कुल मिला-जुलाकर के आपको यही एहसास है कि दुख ही बढ़ा है तो धन्यवाद मत दीजिए भाई, बिल्कुल मत दीजिए।
सवाल समझ गये हैं? ये कह रहे हैं कि दुख घटे, तब तो धन्यवाद देना आसान होता है, हम अपनेआप को उस हालत में कैसे लायें कि सुख भी घटे तो भी धन्यवाद दे दें? धन्यवाद तभी दीजिए जब कुल मिला-जुलाकर के — ये घटा ये बढ़ा, ये घटा ये बढ़ा, लेकिन सबकुछ मिला-जुलाकर के देखा तो हमें लाभ ही हुआ। जब कुल लाभ दिखायी दे तो धन्यवाद दे दीजिएगा, बल्कि वो लाभ ही अपनेआप में धन्यवाद है।
क्यों?
जो सुख घट रहा है, आपको दिख नहीं रहा क्या कि वो सुख कितने दुखों का कारक था? तो धन्यवाद देंगे कि नहीं देंगे? देंगे कि नहीं देंगे? कि अच्छा हुआ ये सुख घटा, इस सुख के साथ-साथ पीछे दस दुख आते थे, अच्छा हुआ ये सुख घटा, धन्यवाद! क्यों कह रहे हैं कि धन्यवाद? इसलिए नहीं धन्यवाद दे रहे हैं कि सुख घटा है, धन्यवाद इसलिए दे रहे हैं क्योंकि सुख के साथ-साथ बहुत सारा दुख घटा है।
सुख दिखायी देता था, दुख अदृश्य था, लेकिन अब हमें दिखने लगा है, हमारी दृष्टि पैनी हो गयी है। हमें दिखने लगा है कि सुख और दुख साथ-साथ ही चल रहे थे, भला हुआ ये सुख गया, इसके साथ-साथ दुख से भी पिंड छूटा। फिर धन्यवाद दीजिए। धन्यवाद देना बड़ी पात्रता की बात है। हर किसी को हक़ भी नहीं है धन्यवाद ज्ञापित करने का।
बात समझ रहे हैं?
धन्यवाद तब दिया जाए न जब पहले कुछ ऐसा हासिल किया हो जिसके लिए धन्यवाद दिया जा सकता है। तो पहले वो क़ाबिलियत दिखाइए, कुछ हासिल करिए, फिर धन्यवाद दीजिएगा।