पारिवारिक माहौल से विचलित मन || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2015)

Acharya Prashant

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पारिवारिक माहौल से विचलित मन || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2015)

श्रोता: सर, कई बार ऐसा होता है कि हमारे परिवार में कोई समस्या होती है जिसके कारण हमारा मन बहुत परेशान हो जाता है, तो हम पढ़ाई पर ध्यान नहीं दे पाते। तो कुछ ऐसी बातें बता दीजिए जिससे हम इन परेशानियों से निकलने की कोशिश करें, और पढ़ाई पर मन लगा सकें।

वक्ता: जिस क्षण में ये घटना घट रही है न कि पढ़ाई पर मन नहीं लग रहा, उस क्षण में उपचार मत खोजो! जिसको हृदयाघात आ ही गया है, वो अब यह न कहे कि, “मैं क्या खाऊं जिससे कोलेस्ट्रोल ख़त्म हो जाए या कि दौड़ लगाऊं तो वजन कम हो जाए?” मन के रुझान क्या हैं? मन की वृत्तियाँ क्या हैं? ये एक लम्बी प्रक्रिया है, ये चौबीसों घंटे चलती है, इसको चौबीसों घंटे देखना होगा।

परिवार में कुछ हुआ, पढ़ाई करनी है; मन चुनेगा कि या तो पारिवारिक उलझनों से भरा रहूँ या पढ़ाई पर ध्यान दूँ और यही दो विकल्प नहीं होंगे। इनके अलावा और भी तीसरा, चौथा, पांचवा विकल्प भी होगा: दौड़ आऊं, घूम आऊं, कुछ खा लूं या सो ही जाऊं। हज़ार विकल्प हमेशा होते हैं मन के सामने; मन कैसे चुनेगा इनमें से कि क्या महत्त्वपूर्ण है? ‘’उलझनों में घिरा रहूँ कि पढाई कर लूं, कि ये कर लूं, कि वो कर लूं।’’ मन चुनेगा कैसे कि क्या महत्वपूर्ण है? क्या ये समझ पा रहे हो कि इसमें चुनाव शामिल है? क्या ये दिख रहा है? किसी भी समय पर तुम्हारे पास हज़ार विकल्प होते हैं कि नहीं?

मन का अर्थ ही वही है कि जो विकल्पों में जीए; संकल्प, विकल्प में जीता है मन। अभी भी तुम्हारे पास कई विकल्प हैं: तुम सुन सकते हो या तुम नहीं सुन सकते। तुम अपने पड़ोसी की तरफ़ देख सकते हो या नहीं देख सकते, तुम ये विचार कर सकते हो कि भूख लग रही है, खाना, खाना है या तुम ये विचार न करो। और तुम उठ कर के भी जा सकते हो, और तुम अपने पेन के साथ छेड़-खानी कर सकते हो या तुम अपने कागज़ पर कुछ लिख सकते हो। कितने विकल्प हैं तुम्हारे सामने, हैं न?

प्रतिक्षण मन के सामने विकल्प ही विकल्प होते हैं। हम जान नहीं पाते क्योंकि हम ध्यान नहीं देते कि लगातार चुनाव की प्रक्रिया चल ही रही है। मन किस आधार पर चुनाव करता है?

मन इस आधार पर चुनाव करता है कि उसको क्या बता दिया गया है कि महत्त्वपूर्ण है। तुम जो भी कुछ मन को बता दोगे कि महत्त्वपूर्ण है, मन उसी को आधार बना कर के निर्णय ले लेगा!

अब उदाहरण के लिए, तुमने अगर अपने मन में ये बात भर ही रखी है कि ऊंचे से ऊंचा सुख है अय्याशी; जो कि हमारे मन में बहुत रहती है। तुम किसी से पूछो कि, ‘’पढाई क्यों कर रहा है?’’ तो वो क्या बोलेगा? ‘’नौकरी के लिए।’’ ‘’नौकरी क्यों चाहिए?’’ ‘’पैसे के लिए;’’ ‘’करोगे क्या पैसे का?’’ ‘’जिम्मेदारियाँ पूरी करूँगा;’’ पैसा जिम्मेदारियाँ पूरी करने लायक हो जाए तो ठीक है? नहीं, और भी चाहिए। तो करोगे क्या पैसा का? वो अंततः इस बिंदु पर आ जाएगा कि “मैं उस पैसे को उड़ाऊँगा और मज़े करूँगा।” तो आख़िरकार वो जो भी कुछ कर रहा है, वो किस लिए कर रहा है? मज़े के लिए कर रहा है।

अब तुम पढ़ने बैठे हो और तुम्हारे सामने किताब है, और तभी तुम्हारे सामने एक विकल्प और आ जाता है, मज़ा करने का। तो तुमने मन को पहले से ही शिक्षा क्या दे रखी है कि ऊँचे से ऊँची बात क्या है? मज़ा करना! तो अगर किताब सामने हो और साथ ही साथ मज़ा करने का विकल्प सामने हो, तो तुरंत मन किसको चुन लेगा? मज़ा करने को! और फिर तुम कहोगे, “सर ये बात समझ में नहीं आती है, पढने बैठते हैं, तो मन भटक जाता है!” मन भटक नहीं गया है; मन ठीक वही कर रहा है जो तुमने उसे करना सिखाया है। तुमने ही तो मन को बोला न कि, “बेटा पढ़ ले, पढने से मज़ा मिलेगा!”

अब शिक्षक कहते हैं कि “ये है, वो है, आजकल के ये सब छात्र हैं और इनमें नैतिकता तो बिलकुल रही ही नहीं।’’ इंटरनेट ने सब कुछ और भ्रष्ट कर दिया है, असाइनमेंट दो तो इंटरनेट से चुरा कर दे देते हैं, ये कर देते हैं, वो कर देते हैं।” अच्छा किसलिए कर देते हैं ये सब कुछ? कुछ नहीं, अंको के लिए। अच्छा! तो इसका मतलब ये है कि ये सबसे ज़्यादा वरीयता अंको को देते हैं और इन्हें ये सिखाया किसने कि सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण अंक हैं? स्वयं आपने सिखाया; आपने ही तो कहा कि “बेटा पढ़ो, नहीं तो फेल हो जाओगे।” आपने ही तो कहा “कि ये बहुत होनहार है क्योंकि अस्सी प्रतिशत आए हैं।” आपने ही कहा न कि ऊँची से ऊँची बात क्या है? अंक! जब ऊँची से ऊँची चीज़ अंक हैं तो जब भी उसके पास विकल्प होगा तो वो कौन सा काम करेगा? नैतिकता चुनेगा या अंक चुनेगा? ऊँचा क्या है? अंक हैं! तो अंक चुनता है, नहीं चुनता नैतिकता!

अब आप परेशान क्यों हो रहे हो? आप ही ने तो सिखाया था! जब आप उसे बार-बार बोलते हो कि “नंबर काट लूँगा”, तो आप उसे क्या संदेश दे रहो हो? कि सबसे बड़ी बात क्या है? क्या आप उसे ये बोलते हो कि “ये न करो, इसे करने में दुःख है।” आपने उसे कभी सत्य- असत्य नहीं पढ़ाया; अपने उसे कभी विवेक-अविवेक नहीं पढ़ाया; आपने तो उसको अंको की शिक्षा दी है! तो वो अंको के पीछे दौड़ता है, अब अंक चाहे जैसे लाने हो। कुंजी से चुरा कर लाने हो, नकल कर के लाने हो या कुछ भी और करके; मारपीट करके लाने हो तो वैसे भी लाएगा। परीक्षा केन्द्रों में चाकू भी चलते हैं क्योंकि सबसे बड़ी बात क्या है? अंक! चाहे जैसे आएँ।

अब तुम अपने-आप से पूछो कि तुमने अपने मन को क्या शिक्षा दी है। अगर मन को ये बताओगे कि परिवार बहुत महत्त्वपूर्ण है, इससे ऊंचा तो कुछ हो ही नहीं सकता तो मन लगातार उसी में लगा रहेगा। अगर मन को बोलोगे कि कुछ और बहुत महत्त्वपूर्ण है, उसे ऊँचा कुछ हो नहीं सकता, तो मन उसमें लगा रहेगा; फस गए! क्योंकि मन तो यंत्र है, उसमें तुमने जो भर दिया वो उसी के अनुसार काम करता रहेगा। वो अपनी प्रोग्रामिंग से हट के तो कुछ करेगा ही नहीं।

अब जीवन बहुरंगा है, स्थितियां ऐसी भी होती हैं जब तुमको पढ़ाई छोड़ करके किसी और चीज़ पर ध्यान देना चाहिए और स्थितियाँ ऐसी भी होती हैं, जब सब कुछ छोड़ करके पढने पर ध्यान देना चाहिए। पर मन के पास वो क्षमता ही नहीं कि वो ये जान सके कि कब क्या महत्वपूर्ण है; वो तो अपने संस्कारों पे चलता है। उसको बता दिया, “मज़ा महत्त्वपूर्ण है”, तो कोई भी स्थिति तो उसे मज़े ही करना है।

मैंने शमशान में लाशों के जलते समय भी लोगों को गपशप करते देखा है। वहाँ लाश जल रही और वहाँ जो साथ में आए थे, वो तीन-चार इकट्ठा हो करके प्रॉपर्टी के रेट। हंसो मत, ये हमारे आस-पास की ही दुनिया है; ये हम ही हैं। तुम जानते हो इन लोगों को! अब वो जल रहा है मुर्दा, और यहाँ चार-पाँच इकठ्ठा हो गए है कि उस इलाक़े में आजकल क्या रेट चल रहा है क्योंकि इनके लिए सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण क्या है? जो इन्होनें शिक्षा पाई है।

तो दिक्कत हो गई! स्थिति कुछ भी हो, मन तो एक दिशा चलेगा जो उसको बता दी गई है, चूक होती ही रहेगी। एक ही समाधान है: उसे कोई भी शिक्षा न दो; उसको समस्त शिक्षा से खाली कर दो! उसको जो भी बता रखा है, जान जाओ कि अधूरा है क्योंकि प्रतिक्षण कुछ नया है, जो महत्त्वपूर्ण होता है। पुराने ख्यालों से काम नहीं चलेगा; पहले से तय करके नहीं बैठा जा सकता। कभी उठना महत्वपूर्ण है, कभी सोना भी महत्त्वपूर्ण है, और पहले से तय कैसे करोगे? कभी दांया महत्त्वपूर्ण, कभी बांया महत्त्वपूर्ण है; कभी बचाना महत्त्वपूर्ण है, कभी मारना भी महत्त्वपूर्ण है। पहले से तय कैसे करोगे?

अब ये बात हमें ज़रा बुरी लगती है, ‘’पहले से तय हो तो अच्छा है! एक बात बता दीजिए! पैसे के पीछे भागें, या परिवार के पीछे भागें, या प्रतिष्ठा के पीछे भागें। एक बता दीजिये तो हम आँख बंद कर के उधर को ही भाग लें। तसल्ली रहती हैं न कि अब पता चल गया कि सबसे महत्त्वपूर्ण क्या है? प्रतिष्ठा! तो बाकी सब पीछे; प्रतिष्ठा की दौड़ चल रही है।

पर मैं जो तुमसे बात कर रहा हूँ, वो बात थोड़ी मेहनत की है, वो जागरूकता की है। मैं तुमसे कह रहा हूँ प्रतिक्षण कुछ अलग है, जो महत्त्वपूर्ण होता है, नया। हर क्षण नया है न? या उससे पहले गुज़र चुके हो? जब हर क्षण नया है, तो हर क्षण में जो करणीय है, वो भी नया है! और ये सिर्फ उस क्षण में उपलब्ध हो करके, प्रस्तुत हो करके, ही जाना जा सकता है। अगर मन पर भार है इस धारणा का कि ‘परिवार-परिवार,’ तो फिर उसी पर चलती रहोगी। और बात खतरनाक हो जाएगी क्योंकि भूलना नहीं ये मशीन है और इसको जो प्रोग्राम कर दिया गया है, ये फिर वही करेगा। फिर ऐसा ही नहीं है कि पढ़ाई के क्षण में परिवार हावी हो जायेगा; फिर काम के क्षण में भी परिवार हावी हो जाएगा!

देखो, आज दुनिया भर में कोशिश चल रही है कि लड़कियों को, महिलाओं को काम के और ज़्यादा अवसर दिए जाएँ ताकि उनके पास आर्थिक ताकत आ सके। उनको समानता के और अवसर मिल सकें, वो आगे बढें, उनका शोषण कम हो, ये सब चल रहा है। लेकिन, इन कोशिशों के रास्ते में जो तमाम बाधाएं हैं, उनमें एक बड़ी बाधा स्वयं महिलाएं हैं क्योंकि उन्होंने ही तय कर रखा है कि हमें प्राथमिकता तो परिवार को देनी है। उन्होंने नहीं तय कर रखा, उनको बता दिया गया है, उनके ऊपर संस्कारों का बोझ हावी है।

अब तुम कहीं काम करने गए हो, वो तुमको कोई ज़िम्मेदारी का काम कैसे दे देगा; अगर उसको अच्छे से पता है कि तुम परिवार के लिए कभी भी भाग सकती हो। स्थिति समझ रहे हो न? मेरे साथ के लोग हैं, वो अपनी कम्पनियां, उद्योग, धंधे अब चलाते हैं। उनसे पूछो, तो वो यही कहते हैं कि, ‘’मुश्किल हो जाता है एक तल के बाद, लड़कियों को, औरतों को तरक्की देना या ज़िम्मेदारी देना क्योंकि उनका पता नहीं वो कब भाग जाएँगी; क्योंकि उन्होंने मन में बैठा ही रखा है कि वो जो दूसरी दुनिया है वो ज़्यादा कीमती है।’’ और उस दुनिया के आगे वो कुछ समझती नहीं, और कोई ज़िम्मेदारी वो मानती नहीं! वैसे ठीक है, जब तक उस दुनिया से बुलावा नहीं आया है, तब तक बहुत अच्छी हैं पर ज्यों ही उस दुनिया से बुलावा आता है, वो इधर का सब भूल जाती हैं।

तो बात सिर्फ़ ये नहीं है कि अभी तुम पढ़ने बैठती हो और पारिवारिक उलझन तुम्हारे सामने आती है, तो पढ़ने में तुम्हारा जी नहीं लगता। जिस दिन काम करने जाओगी न, उस दिन भी काम कर रही होगी और पारिवारिक उलझन सामने आएँगी, तुम काम छोड़ के भाग जाओगी!

जो काम छोड़ कर भागे, अगर वो आर्थिक रूप से विपन्न और निर्भर रह जाए तो किसकी ज़िम्मेदारी? और जो आर्थिक रूप से किसी पर निर्भर है, जीवन में उसे दुःख के अलावा क्या मिलेगा? बताओ? जो लड़की अपनी रोटी खुद नहीं कमा सकती, अब अगर दूसरे उस पर हावी हो और उसका शोषण करें, तो इसमें अचरज क्या है? ये तो होगा ही न! और इसी तरीके से शोषण होता रहा है।

लड़की को बता दो कि तेरा घर ही तेरा स्वर्ग है; लड़की को बता दो कि तेरा बच्चा ही तेरा देवता है और तेरा पति ही तेरा भगवान है। अब शोषण तो होगा! और ये सब किसने बताया है? ये पतियों ने ही बताया है, वो और क्या बताएँगे। पति परमेश्वर है, ये पत्नियों को किसने बताया? पतियों ने ही तो बताया, वो और क्या बताएँगे?

अब पत्नियाँ बेचारी सीधी हैं थोड़ी! थोड़ी उनमें चतुराई उठे तो वो भी बताना शुरू कर दें कि, “पत्नियाँ देवी हैं, पूजा करो हमारी!” पर उतनी उनमें चालाकी होती नहीं। उनकी चालाकी दूसरे तरीकों से अभिव्यक्त होती है; होती खूब है, पर उसकी अभिव्यक्ति के तरीके दूसरे हैं। वो वृत्ति पर आधारित होते हैं।

संस्कारों पर मत चलो, वृत्तियों पर मत चलो, ठहरो और देखो! हर पल नया है, और तुम्हारे पास समझने की काबीलियत है। समझो, कि वास्तव में हो क्या रहा है! मशीन की तरह न चले जाओ।

समझ सकते हो न? परिपक्व हो, सब कुछ ठीक है! समझ सकते हो, जानो!

शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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