प्रश्नकर्ता: सर, मैं दो बार एवरेस्ट पर चढ़ा हूँ, और जब दो-हज़ार-सोलह में पहली बार चढ़ा तब मैं अपने आहार से पूरी तरह से वीगन था, पर मैंने अपने शरीर पर जो जैकेट पहना था वो दुर्भाग्य से बतख़ो के पंखों का था। वो जैकेट, एवरेस्ट के शिखर पर जो माइनस पचास डिग्री सेल्सियस का तापमान होता है और सौ या एक-सौ-पचास किलोमीटर प्रति घंटे की रफ़्तार से जो हवाएँ बहती हैं, उससे बचाता है और ज़िन्दा रखता है।
दो-हज़ार-बारह से मैंने विश्व की सारी कम्पनियों को लिखना शुरू किया था कि वो लोग मेरे लिए एक जैकेट बनायें जो जीव हत्या से मुक्त हो। पर ज़्यादातर कम्पनियों ने बोला कि आर्थिक रूप से असम्भव है, किसी ने बोला कि तुम एक ही बन्दे हो जो पूरी दुनिया में ये जैकेट माँग रहे हो, बाक़ी कोई माँग भी नहीं रहा है। किसी ने बोला कि ऐसी तकनीक ही उपलब्ध नहीं है तो ये जैकेट बन नहीं सकता।
चार साल हो गये और मैंने एक प्रकार से इस प्रयास को छोड़ दिया था। अपने सपने को साकार करने के लिए एवरेस्ट पर चढ़ गया। जिससे कम-से-कम ये निश्चित हो जाएगा कि एक वीगन एवरेस्ट पर चढ़ सकता है। उस समय पर समझौता कर लिया। उसके बाद ठीक से सो नहीं सका, क्योंकि ज़मीर हमेशा बोलता था, ‘वीगन नहीं थे, जब एवरेस्ट पर चढ़े थे।’
दो-हज़ार-उन्नीस में एक इटेलियन कम्पनी के साथ मिलकर जीव हत्या मुक्त जैकेट बनाया, और वो जैकेट पहनकर मैं एवरेस्ट चढ़ा। और तब मैंने सबको बता दिया कि वीगन की तरह मैंने एवरेस्ट चढ़ लिया। मैं पूर्णता की बात नहीं कर रहा हूँ। मैंने सौ से ज़्यादा प्रतिशत प्रयास डालकर किया।
एक डर लगता है कि भविष्य में भी कुछ ऐसा आया तो क्या मैं अपनी नैतिकता के साथ समझौता कर लूँगा? और एक दुविधा मेरे दिमाग़ में रहती है कि मैंने वो क्यों किया। मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि क्यों मैंने अपने सपने को जानवरों की जान के ऊपर रखा। मैं उसका समाधान नहीं कर पा रहा हूँ।
आचार्य प्रशांत: नहीं, देखिए मैं मानता हूँ और हमेशा कहता हूँ कि किसी व्यक्ति को अगर आँकना है या देखना है कि उसको सम्मान कितना देना है, तो इस आधार पर होना चाहिए कि उसने चुनौतियाँ कौनसी उठायी हैं। ऐसे नहीं कि उसने हासिल क्या किया है, ऐसे देखना होता है कि किन हालातों में हासिल किया, उसके ख़िलाफ़ कौनसी स्थितियाँ थीं।
हम सब एक माहौल में पैदा होते हैं न। माहौल हमारे भीतर कल्चर (संस्कृति) बनकर घुस जाता है और माहौल बाहर रहता है समाज बनकर और बाज़ार बनकर। हम सब उसी संकृति से, उसी कल्चर से आ रहे हैं और हमारे बाहर समाज भी वही है और बाज़ार भी वही है। तो शुरुआत तो हम सब ने बड़े पीछे से करी है न। क्योंकि हमें जो संस्कृति दे दी गयी है उसमें हिंसा बहुत है।
देखिए, जहाँ कहीं भी इग्नोरेंस (अज्ञान) होती है न वहाँ हिंसा होती-ही-होती है। अज्ञान और हिंसा एक ही चीज़ के दो नाम होते हैं। तो हमारे दिमाग़ में हिंसा बहुत डली हुई है। और जब आप बाज़ार की ओर देखते हैं तो वो भी आप में लगातार हिंसा ही बढ़ाना चाहता है। तो स्थितियाँ बहुत हमारे विरपित रहती हैं, एडवर्स , प्रतिकूल रहती हैं।
उसमें आप दो-हज़ार-सोलह में वीगन होकर चढ़ गये और आपने बतख़ के परों का प्रोटेक्शन (आवरण) पहन रखा था; इस बात पर बहुत दोष नहीं दे सकता। क्योंकि मुझे ये देखना होगा कि बाज़ार आपको क्या देने को राज़ी है। ऐसा तो नहीं है कि बाज़ार आपको एक हिंसा मुक्त उत्पाद देने को राज़ी था आपने लिया नहीं या आपने कह दिया, ‘महँगा है साहब मैं नहीं खरीदूँगा।’ ऐसा तो नहीं था? और ये बाज़ार आपके नियन्त्रण में तो है नहीं।
इसी तरीक़े से, जन्म से न तो आप वीगन थे न जन्म से मैं वीगन था। मैं अपनेआप को कितना दोष दे दूँ कि अगर आज से दस, पन्द्रह साल पहले तक मैं ख़ासकर पनीर बहुत खाता था। इस समाज की पैदाइश हैं, इसी ने भीतर संस्कार और बाहर बाज़ार दिया है और संस्कार और बाज़ार दोनों कह रहे हैं कि पनीर खाओ, तो मैं भी खाता था।
सवाल ये है कि जब बात समझ में आने लगी उसके बाद क्या किया? ठीक है, शुरुआत बहुत पीछे से हुई थी, लेकिन आगे बढ़ गये, वयस्क हो गये फिर जानकारी मिलने लगी, जब आँख खुल गयी, तथ्य सामने आ गये, उसके बाद क्या किया? और आपने बहुत जल्दी बहुत कुछ कर दिया। दो-हज़ार-सोलह से दो-हज़ार-उन्नीस के बीच में ही आपने कह दिया कि साहब, खाता तो मैं हूँ ही नहीं कुछ भी ऐसा जिसमें कोई पशु पदार्थ सम्मिलित हो, मैं ऐसा कुछ पहनूँगा भी नहीं जिसमें कहीं से भी पशु हिंसा का तत्व हो।
और वो पहने बिना आप एवरेस्ट पर चढ़ गये। आप ऊँची-से-ऊँची बधाई के हक़दार हैं और इतनी सी बात नहीं है कि ऐवरेस्ट को फ़तह कर लिया। बहुत लोगों ने कर लिया अब तक, मेरे ख्याल से कितने…? सैकड़ों से ऊपर? बहुत सारे लोग होंगे अब तो?
प्र: विश्व में तो सात हज़ार लोगों ने कर लिया।
आचार्य: सात हज़ार लोग हो गये। तो वो अभी भी एक बिरली घटना होती है। लेकिन उससे कहीं ज़्यादा बिरली बात ये है कि एक आदमी सिर्फ़ बाहरी स्थितियों को ही नहीं चुनौती दे रहा है, वो अपनी आन्तरिक सीमाओं को भी चुनौती दे रहा है। तो उसके लिए आप बहुत सम्मान और बधाई के हक़दार हैं। कहते हैं न जब जागो तभी सवेरा।
आप किसी व्यक्ति का मूल्यांकन उसके अतीत के आधार पर थोड़े ही कर सकते हैं। मैं किसी को देखूँ और याद करने लगूँ कि ये व्यक्ति इतिहास में कैसा था, तो ये तो मेरी बेवकूफ़ी हो जाएगी। मुझे ये देखना है न कि इतिहास उसका जैसा भी था, वो वहाँ से उबरकर के, निकलकर के, चुनौती देकर के, आगे बढ़कर के आज कहाँ पहुँचा है।
भाई, आप अगर अतीत ही देखोगे तो अतीत में तो सब इतने ही बड़े थे, छोटे से (हाथों से छोटे शिशु का आकार बनाकर बताते हुए)। (मुस्कुराते हुए) और अतीत में तो कोई ठीक से बोल भी नहीं पाता था न कोई चल पाता था। तो आपको अगर अतीत ही देखना है, तो अतीत तो सबका ही यही है कि पड़े हुए हैं और जो लंगोट पहन रखा है वो भी गन्दा कर रखा है। अतीत तो सबका ऐसा है, दुर्गन्ध भरा।
अतीत की बात नहीं होती है, बात होती है अतीत को चुनौती देने की। अतीत कैसा है ये नहीं बात है, बात ये है कि अतीत जैसा भी था, उसको चुनौती दी की नहीं दी। सम्मान का हक़दार वो है जो चुनौती देता है। भले ही बहुत पीछे से आ रहा हो, भले ही चुनौती देने के बाद भी अभी वो बहुत पीछे हो। क्योंकि जब इतने पीछे से शुरुआत करोगे तो आगे बढ़ने के बाद भी थोड़े पीछे ही रहोगे। वो पीछे होकर भी बहुतों से बहुत आगे है, क्योंकि उसने आगे बढ़ने का साहस दिखाया।
यू हैव टू कंसीडर द ऑड्स अगेन्स्ट विच, अ पर्सन फॉट एंड एकमप्लिश्ड (आपको उन बाधाओं पर विचार करना होगा जिनके विरुद्ध एक व्यक्ति लड़ा और सफल हुआ) चुनौतियाँ क्या थीं? तो वो चीज़ देखनी होगी। आज भी हम ऐसे कहने लग जाएँ कि कोई इंसान है, मान लीजिए कि जो चालीस, पचास साल का हो गया, पूरी ज़िन्दगी माँस-ही-माँस खाया है, बहुत होते हैं ऐसे, और वो कहने लग जाए कि अजी साहब, अब हम क्या सुधरेंगे। आधी से ज़्यादा ज़िन्दगी तो निकल दी माँस खाते हुए, अब हम क्या सुधार जाएँगे।
नहीं, ऐसी बात नहीं है। आप खाते थे उसके पीछे कारण थे — बाहरी कारण भी थे, आन्तरिक कारण भी थे। हमने कहा, ‘बाहर समाज और बाज़ार है और भीतर संस्कार और अज्ञान।’ तो बाहरी-भीतरी कारण थे जिनके कारण आप आज तक हिंसा भरा जीवन जी रहे थे। आज कुछ नया कर दीजिए न। कोई व्यक्ति अपने आख़िरी क्षण में भी जग जाए, तो जग गया। जग तो गया न? कभी देर नहीं हो जाती है। तो उसमें बुरा मानने की कोई बात नहीं है।
बल्कि मैं क्या बोलूँ, जहाँ तक वीगन होने की बात है आप मुझ से तो बहुत आगे हैं। मुझे तो वीगन हुए अभी मुश्किल से आठ-दस बरस हुए हैं और आप उससे कहीं पहले से वीगन हैं। बीस साल से वीगन हैं। तो अगर मुझे इस आधार पर ही कहना होगा कि कोई दोषी है कि वो कभी कुछ खाया करता था या कभी उसने कपड़े पहन लिए जिसमें एनिमल-प्रोडक्ट (पशु-उत्पाद) था, तो सबसे बड़ा दोषी तो मैं ख़ुद ही हो जाऊँगा।
दोषी मैं हो जाऊँगा अगर आज सब जानने, समझने के बाद भी मैं नालायक़ी करता हूँ। दोषी मैं हो जाऊँगा आज जब मैं जान गया हूँ कि ये कितना महत्वपूर्ण मुद्दा है, उसके बाद भी मैं इसके बारे में दुनिया में जानकारी न फैलाऊँ। जो काम अभी हम कर रहे हैं ये काम मैं ईमानदारी से न करूँ, तो मैं दोषी हो जाऊँगा। दस साल पहले मैंने क्या किया, उससे मैं आज दोषी नहीं हो जाता। लेकिन आज सब जानते-बूझते भी मैं अपने कर्तव्य का निर्वहन न करूँ, तो मैं बहुत बड़ा दोषी हो जाऊँगा।
सबको ही जागना पड़ेगा। और जो ही जागेगा, उसके अतीत में तो नींद और अन्धेरा ही होगा न, नहीं तो जगने की क्या बात! तो जगने के विरुद्ध हम ये तर्क कैसे दे सकते हैं कि एक दिन इसकी चेतना में नींद थी और अन्धेरा था। (मुस्कुराते हुए) अरे! साहब, तभी तो वो जग रहा है अब। तो वो अन्धेरा जगने का कारण है। वो अन्धेरा जगने का विरोधी नहीं हो सकता।
प्र: एथिक्स (नैतिकता) पर मेरा एक प्रश्न है। मैं पाँच सालों से शाकाहारी हूँ और पिछले दो सालों से वीगन हूँ। मैं महिलाओं के साथ डेट (किसी से मिलने जाना) पर जाता था, जिनसे मैं डेटिंग ऐप पर मिला था। भले ही मैं पशु उत्पादों को नहीं खाता था, लेकिन वो खाती थीं तो मैं उसका भुगतान करता था। और मैं उन्हें कहता था कि ये तुम्हारी ज़िन्दगी है, तुम जो चाहो वो करो, ये तुम्हारा निजी फैसला है।
मैंने ऐसा इसलिए किया, क्योंकि मैं उम्मीद कर रहा था कि मैं उनके साथ सो पाऊँगा। और यदि मैंने कहता कि नहीं, तुम एक पशु हत्यारे हो, मैं इसका भुगतान नहीं करने वाला, तो वो उस पूरे माहौल को ख़राब कर देता। मैंने हमेशा इसके लिए ख़ुद को दोषी महसूस किया है।
जैसा कि आपने कहा और आपने जो किया उसमें मैं कभी भी सामंजस्य स्थापित नहीं कर पाया। इस तरह से मैं कभी भी ये नहीं देख पाया कि मैंने सचमुच एक निर्दोष, मासूम प्राणी को मारने के लिए भुगतान किया। जिसने मुझे कभी नुक़सान नहीं पहुँचाया, वो सिर्फ़ इसलिए मारा गया ताकि मैं शारीरिक सुख ले सकूँ। ये मेरे प्रश्न का पहला भाग है।
और दूसरा भाग ये है कि ऐसे कई मौक़े आते हैं, जब मैं सही काम करना चाहता हूँ मगर मुझे डर लगता है कि कहीं उसके कारण मैं अकेला न रह जाऊँ। यदि मैंने माँस भक्षण का विरोध किया तो…। मेरे कुछ दोस्त हैं जो मुझे सलाह देते हैं कि माँस खाने वाले व्यक्ति के साथ सम्बन्ध रखने में कोई बुराई नहीं है, वो ऐसा करते हैं मगर मैं नहीं करता। मैं इसलिए उनका आँकलन करता हूँ कि वो कैसे किसी के दुष्कर्मों को बढ़ावा दे रहे हैं। अगर तुम माँस नहीं खाते हो तो तुम क्यों ऐसे इंसान का पालन-पोषण करके माँस भक्षण का समर्थन कर रहे हो।
आचार्य: देखिए, जो इंसान आपके साथ आइसक्रीम खा रहा है, आइसक्रीम खाने के मौक़े पर वो व्यक्ति ठीक-ठाक, सही लगता है। आइसक्रीम ही तो खा रहा है। प्लेट में होगी आइसक्रीम या कोन में होगी। अब कोई कोन में आइसक्रीम खा रहा है, चॉकलेट आइसक्रीम है भूरे रंग की, उसमें खुशबू भी आ रही है, तो ऐसा तो कोई लगता नहीं कि उसमें बहुत बड़ा कोई पाप हो रहा है। नहीं लगता न? ठीक है नहीं लगता।
अब यही व्यक्ति आपके साथ है, आप डेट पर गये हैं और कोई महिला, कोई लड़की, आपके साथ है, आपके साथ डेट पर है और वो एक राह चलते बकरे को या घोड़े को पकड़कर, अचानक पकड़कर, अपनी जेब से एक खंजर निकल ले और खच-खच, खच-खच वहीं आपके साथ मारना शुरू कर दे, अब कैसा लग रहा है?
वो आपके साथ एक चॉकलेट सॉफ़्टी खा रही है तो उसमें तो किसी को कुछ बुरा लगता ही नहीं। आप फ़ोटो भी खींच लोगे, बल्कि डाल दोगे, कहोगे, ‘ये तो अच्छी बात है, क्या हो गया!’ लेकिन वही महिला आपके साथ है, आप जिसके साथ डेट पर गये हैं, आपके साथ चल रही थी और प्यार भरी मीठी बातें चल रही थीं, रोमेंटिक और तभी उसको दिख गया सड़क किनारे एक घोड़ा या गधा या कुत्ता और उसने क्या किया? वो जानती नहीं है उसको। क्योंकि हम जिनका माँस खा रहे होते हैं, हम उनको जानते हैं क्या? जानते तो कुछ भी नहीं हैं, बस माँस खा जाते हैं किसी का। और उसको दिख गया वहाँ एक घोड़ा खड़ा हुआ है। वो एक बूढ़ा घोड़ा है। क्योंकि ज़्यादातर जो जानवर कटते हैं वो बूढ़े ही होते हैं। तो कूदकर गयी घोड़े को पकड़ा, गिराया और जेब से निकाला और…!
अब कैसा लग रहा है? कैसा लग रहा है? अब अच्छा नहीं लग रहा न? ग्रिज़ली, हॉरेफ़िक (भयानक), गोरी (रक्तमय), हिंसक। पर जो चॉकलेट कोन वाली स्थिति थी और जो घोड़े को गिराकर के क़त्ल करने वाली स्थिति है, इन दोनों में वाक़ई कोई अन्तर है क्या? बस माया का खेल है कि आँखों को, इन्द्रियों को दिखाई ही नहीं पड़ता। ‘व्हाट अ ग्रॉस एक्ट !’ ऐसे ही बोलेंगे न सब कि क्या चल रहा है! ‘दिस इज़ असॉल्ट ऑन द सेंसेज, हाउ कैन यू डू दिस !’ (ये इन्द्रियों पर हमला है, आप ऐसा कैसे कर सकते हैं) इस तरह के कमेंट्स आएँगे न? और वैसा कोई कॉमेंट नहीं आता है जब आप आइसक्रीम खा रहे होते हो। जबकि आइसक्रीम में जो दूध है वही सीधे-सीधे खून बन रहा है।
इतनी बार हम ये सवाल उठा चुके हैं कि आप सोचते क्यों नहीं हो कि दूध देने वाली एक मादा जो सात-आठ साल की उम्र के बाद दूध देना बन्द कर देती है — गाय हो, भैंस हो, बकरी हो, कोई हो — फिर उसका क्या होता है? क्योंकि अभी उसके पास जीने के लिए पाँच-सात बरस बचे हुए हैं। ऐसा तो नहीं है, जिस दिन दूध देना बन्द करती है उसी दिन मर जाती है, ऐसा तो नहीं होता। अभी तो उसके जीने के कई साल बचे हुए हैं, तो उसका क्या करते हैं?
जो किसान है उसको पालता रहता है कि दूध नहीं दे रही है फिर भी पालूँगा और रोज़ उसको खिलाऊँगा, किसान ऐसा करता है क्या, क्या होता है उसका? वो जाती है, कटती है, उसका माँस बनता है और भारत में माँस उतना ज़्यादा खाया तो जाता नहीं, तो वो सब एक्सपोर्ट (निर्यात) होता है। ये बड़ा सीधा सा गणित है, पर हमें समझ ने क्यों नहीं आता! कि वो जो आप आइसक्रीम खा रहे हो उसमें और एक भैंस को ज़मीन पर गिराकर के उसका गला रेत देने में कोई अन्तर नहीं है।
आपकी स्वीट हार्ट भैंस पर चढ़कर बैठी हुई है और उसका खून पी रही है, अब कैसा लग रहा है सोचने में? ब्रूटल (क्रूर) लग रहा है न? अब यही बोलोगे, ‘शी इज़ अ ब्रूट' (वो पाशविक है)। पर जब चॉकलेट कोन है तो शी इज़ सो क्यूट। वो जो क्यूट है वही तो ब्रूट है, ये हमें समझ में ही नहीं आता। तो बात इसमें एथिक्स की भी कहाँ है बताओ? ये तो बात सीधे-सीधे फ़ैक्ट (तथ्य) की है कि देखो तो वो एक ही घटना है।
तो जब कोई आपके साथ है और कह रहा है कि डेटिंग पर आयें हैं, प्रेम की बात आगे बढ़ेगी और वो ये सब करने लगे, तो उसके साथ वही व्यवहार करिए जो आप उस व्यक्ति के साथ करेंगे, जो एक घोड़े को या एक भैंस को ज़मीन पर गिराकर उसका गला रेत रहा होगा। उसके साथ आप क्या व्यवहार करेंगे? उसके साथ आप डेटिंग करेंगे और?
वैसे ही वो चॉकलेट थोड़ी सी नाक पर लग जाती है खाते-खाते। कई बार होता है, यहाँ नाक पर लग गयी, होंठ पर ऊपर लग गयी, तो क्यूटनेस में और इज़ाफा हो जाता है। उसको ऐसे देखिए कि किसी के मुँह पर खून पुता हुआ है, अब कैसा लग रहा है? और प्रेमिजन तो अक्सर एक-दूसरे के मुँह पर चॉकलेट लगी होती है तो चाट भी लेते हैं, उससे प्यार और बढ़ता है। पीडीए का अब ये तरीक़ा भी काफ़ी प्रचलित हो गया है — एक ही कोन में साथ-साथ खाओ। जब थोड़ा सा कोन हो उसमें दोनों साथ-साथ खाओगे तो और चॉकलेट लग जाएगी तो उसको चाटो। खून भी क्यों नहीं चाट लेते! उसके चेहरे पर किसी का खून लगा है, चटोगे क्या?
तो उसमें एथिकल बात क्या है, हत्या-तो-हत्या है, चाहे वो चॉकलेट कोन के नाम पर की जाए, प्यार के नाम पर की जाए, व्यापार के नाम पर की जाए, धर्म, संस्कार के नाम पर की जाए, हत्या-तो-हत्या है! और अभी भी हमें यहाँ पर थोड़ी गुंजाइश हो जाती है कि अभी बात हो रही है किसी थोड़ी सी अपरिचित महिला की जो डेटिंग पर मिली है। अब वो व्यक्ति अपरिचित न हो, अपने ही घर का हो, तो क्या करोगे? मान लो वो वॉना बी या वुड बी भी नहीं है, वो आपकी वाइफ़ ही है। वो कह रही है, ‘मुझे तो चॉकलेट, स्ट्रॉबेरी कोन चाहिए-ही-चाहिए।’ अब क्या करना है, अब बताओ न? वही करना है। आपकी पत्नी हो, आपका पति हो, आपका बाप हो, आपकी माता हों, आपके दोस्त-यार हों, आप इनमें से किसी को पाएँगे किसी का क़त्ल करते हुए, तो जो करेंगे वो तब किया करिए जब वो ज़ोर देते हैं कि हमें दूध तो पीना ही है।
प्र: (स्वयंसेवक की ओर से) सर, बात फिर उस रिश्ते की गुणवत्ता पर ही आ जाती है न। मेरे ख़्याल से आपको और गहराई से जाना पड़ेगा। जैसे इन्होंने डेटिंग का उदाहरण दिया, अब वो जो उद्देश्य है डेटिंग पर जाने का, वो उद्देश्य तो…।
आचार्य: बहुत बढ़िया, एकदम सही बात है! डेटिंग पर तो इसलिए गये हो न कि प्यार गहराएगा। अब कुछ बोल दें, भले हम ये बोल दें, ‘जस्ट वॉन्टेड टू हैंग आउट एंड हैव अ नाइस इवनिंग' (बस बाहर घूमने और एक अच्छी शाम बिताना चाहता था) ऐसे ही बोला जाता है, जस्ट टू शो दैट, यू नो देट यू आर नॉट डीपली इंवेस्टेड इन इट (बस यह दिखाने के लिए, आप जानते हैं कि आपने इसमें बहुत अधिक निवेश नहीं किया है)। लेकिन दिल-ही-दिल में तमन्ना तो यही होती है कि बात आगे बढ़े। और, और आगे बढ़े, फिर एकदम ही आगे बढ़ जाए। (मुस्कुराते हुए) जो व्यक्ति इतना हिंसक है वो तुमसे प्रेम कैसे कर लेगा भाई! उससे प्यार ही तो माँगने जा रहे हो, उसके पास प्यार है ही नहीं, तो आपको कैसे दे देगा।
और प्यार तो सूरज की तरह होता है। वो तो चमकता है और चमकता है तो किरणें सब पर पड़ती हैं। यदि प्रेम होता है तो प्रेम होता है फिर। आप ऐसा थोड़े ही कर सकते हो कि अपने बच्चे के लिए बहुत प्रेम है और कुत्ता है उसको लात मार रहे हैं। वो तो प्रेम नहीं है फिर। वो कोई और चीज़ है। हार्मोनल है, भावनात्मक है, कुछ और चीज़ है वो।
तो आप किसी ऐसे व्यक्ति के साथ हो जो एग्नोरेंस में धँसा हुआ है, हिंसा में फँसा हुआ है, वो व्यक्ति आपसे भी प्यार कैसे कर लेगा? और ये तो हम चॉकलेट कोन की बात कर रहे हैं, यहाँ तो डेटिंग के समय पूरा-पूरा तंदूरी मुर्गा…।
आप दोनों में प्यार बढ़ रहा है और वो मुर्गा कह रहा है, ‘मैं तो जान से गया, मेरा क्या था इसमें!’ और कई बार वो एक बेबी लैंब होता है, छोटा मेमना। एक छोटा बच्चा, मेमना और आप कह रहे हो, हम दोनों प्रेम की बातें करने आये हैं और सामने वो भुना हुआ मेमना रखा हुआ है। ये कौन-सा प्यार है! और उस मेमने की लाश पर ये जो प्यार परवान चढ़ रहा है, ये कितनी दूर तक जाएगा? क्या ये दोनों व्यक्ति आपस में भी एक-दूसरे को प्रेम कर सकते हैं, सम्भव है क्या? सोच के देखिएगा।
मैं उस मेमने के प्रति इतना क्रूर हूँ, इतना क्रूर हूँ, मैं माँस चबा रहा हूँ, मैं एक बच्चे का माँस चबा रहा हूँ, मैं किसी से भी क्या प्यार करूँगा! क्या प्यार करूँगा! कोई कहे, ‘लोनली (अकेले) हो जाते हैं।’ ठीक है, राक्षसों की संगत से तो बेहतर है अकेले ही रह लो। राक्षस हों, राक्षसनिया हों। उसे खून पीना है साहब, आप उसकी संगत करोगे तो, आपका पियेगी। आपको बहुत शौक हो किसी को खून पिलाने का तो रक्तदान कर दीजिए, किसी की जान बचेगी। आप किसी ऐसे के साथ क्यों डेटिंग कर रहे हैं जिसकी हॉबी (शौक) है खून पीना। वो व्यक्ति आपका भी तो खून ही पीयेगा न।
जितनी आबादी थोड़े समझदार लोगों की है अगर वही ये निश्चय कर लें कि हिंसक लोगों को मुँह नहीं लगाएँगे, तो भी हिंसक लोगों को थोड़ा झटका लगेगा, थोड़ी आँख खुलेगी और हिंसा के लिए उनको थोड़ा डिसइनसेंटिव (निरुत्साहित) मिलेगा — ‘ये देखो बुरा काम करा तो उसका नतीजा ये हुआ कि एक बढ़िया आदमी हाथ से निकल गया।’ लेट्स कॉल इट ऑफ़ राइट नाउ (चलिए इसे अभी ही ख़त्म करते हैं), क्यों नहीं बोल सकते हैं? द मोमेंट देयर इज़ द मेनू एंड शी पिक्स द रॉन्ग आइटम्स फ्रॉम द मेनू, व्हाय कान्ट यू गेट अप दैट मोमेंट इटसेल्फ़ ? (जिस क्षण मेनू आता है और वो मेनू से गलत वस्तु चुनती है, आप उस क्षण क्यों नहीं उठ सकते) नहीं भाई, ठीक है, हो गया। हो गया देवी जी, हो गया। देवी जी हों, देवता जी हों, कोई हो। बात महिलाओं, पुरुषों दोनों के लिए है।
प्र: (प्रश्नकर्ता की ओर से) तो, हम बात कर रहे थे कि वीगन को वीगन से ही डेट करना चाहिए। मूल रूप से विचार था कि जो करुण व्यक्ति है, जो आध्यात्मिक व्यक्ति है अगर हम उनको ही डेट करें तो ज़्यादा बेहतर रहेगा। लेकिन फिर दिक्क़त ये आ जाती है कि वीगंस अगर वीगंस को डेट करेंगे तो हमारी जनसंख्या तो घटती रहेगी और जो हिंसक लोग हैं उनकी जनसंख्या बढ़ती रहेगी, तो ऐसे तो हम परिवर्तन भी नहीं कर पाएँगे।
आचार्य: एक-दूसरे को सब प्रभावित करते हैं। कोई भी चीज़ आइसोलेशन (एकाकी) में नहीं होती न। अगर कहीं ऐसी ज़बरदस्त दिव्य घटना घट रही होगी कि एक समाज, एक समुदाय, कम्युनिटी ही बन रही है जिसमें सब लोग — महिला हों, पुरुष हों —सब लोग एकदम जाग्रत हैं, तो ये कम्युनिटी बड़े आनन्द की होगी। सफरिंग (कष्ट) का स्तर इसमें काफ़ी कम होगा। और जब ऐसी कोई चीज़ विकसित होती है, चारों ओर से और लोग को आकर्षित करती है। क्योंकि दुनिया में हर आदमी तलाश क्या रहा है? एंड ऑफ़ सफरिंग (कष्ट का अन्त)। और वो एंड ऑफ़ सफरिंग अगर कहीं दिखाई देगा, तो सब लोग अपनी ओर खिंचे चले आएँगे।
अगली बात, ऐसा नहीं है कि आपको एक वीगन को ही डेट करना है। देखिए, हमने बार-बार कहा है कि आप किसी व्यक्ति का मूल्यांकन उसके अतीत से ही तो नहीं कर सकते। अब कोई पैदा ही हुआ है माँसाहारी घर में और वो एक-डेढ़ साल का था तभी उसके मुँह में माँस ठूँस दिया गया। ऐसे ही करते हैं माँ-बाप। माँस में बच्चों की आम तौर पर प्राकृतिक तौर से कोई रुचि होती नहीं है, उन्हें ठूँसा जाता है — कई बार तो धर्म के नाम पर ठूँसा जाता है — तो उसका हम कितना कसूर मान लें।
या उसके बाद कोई व्यक्ति है, वो किसी ऐसे माहौल में रहने चला गया जहाँ मीट-मटन खूब चलता था — पढ़ाई के समय या नौकरी के समय — तो उसका कितना दोष मान लें। पर इतना तो होना चाहिए न कि जब वो किसी वीगन के सम्पर्क में आये तब कम-से-कम तैयारी दर्शाये कि नहीं, मैं ग़लत था और मैं माँस और हिंसा छोड़ने को तैयार हूँ। ये भी हो जाए तो कोई कम नहीं है, बहुत अच्छा है।
तो आपको बने-बनाये वीगन तो कहाँ ही मिलेंगे; बहुत कम होते हैं, बनाने पड़ते हैं। और बनाने के लिए हमारे पास बड़ा दिल और पैने तर्क होने चाहिए। दोनों बातें हैं — दिल बड़ा हो और तर्क पैने हों, शार्प आर्ग्युमेंट्स , तब जाकर बात बनती है। इससे बड़ी बात क्या हो सकती है, चमत्कार सा ही है न कि एक व्यक्ति जो पूरी तरह माँसाहारी था, उसको दिन में तीनों समय माँस चाहिए होता था, वो माँस क्या दूध भी छोड़ दे। ऐसा जब कुछ होता है तो आपको बड़ी ऊर्जा, बड़ी प्रेरणा मिल जाती है, और आगे बढ़ने को।
जैसे कि आपका सारा काम किसी ने सत्यापित कर दिया हो, मोहर लगा दी हो, वैलिडेट कर दिया हो। वही चीज़ तो है जो आपकी संस्था को इतना चलाए रखती है। रोज़ ही दर्जनों में, सैकड़ों में लोगों की आप बीती आती है, लोगों के टेस्टीमोनियल्स (शुक्रगुज़ार) आते हैं कि किस तरह कोई किसी दुखद स्थिति से उबरा है, किसी ने माँस छोड़ा है, कोई आत्महत्या की कगार पर था वहाँ से बचा है, कोई एक साहसिक कैरियर का निर्णय ले पाया है, कोई किसी ग़लत रिश्ते से बाहर आ पाया है। जैसे मैंने कहा कि ये सब भी उसमें खूब शामिल होता है कि अब छः महीने हो गये दूध छोड़े हुए और दूध की कोई तलब भी नहीं लगती। एकदम याद ही नहीं आता दूध।
वो जो आपसे बोल रहा था न पहले कि जब आप आध्यात्मिक होते हो तो ये हिंसा और हिंसा से जुड़ी चीज़ें बस छूट जाती हैं, आपको बहुत कोशिश भी नहीं करनी पड़ती। कई बार तो जब चीज़ें छूट जाती है तब आपको बाद में पता चलता है कि अरे! छूट गयी क्या। कोई और आकर आपको याद दिलाता है, कहता है, ‘तीन महीने हो गये तुमने फ़लानी चीज़ अभी तक करी नहीं या खायी ही नहीं।’ तो आप कहते हो, ‘अच्छा, उस चीज़ के प्रति तो अब कोई रुचि ही नहीं रही।’
तो ये सब चीज़ें होती हैं, इनका प्रयास करना चाहिए। और जब इसमें सफलता मिलती है बड़ा आनन्द आता है। सफलता नहीं भी मिलती तो भी भीतर जज़्बा तो बना ही रहता है, क्योंकि काम अच्छा है। इस तर्क पर कभी मत जाइएगा कि सब अच्छे लोग अगर अपनी तादाद कम कर लेंगे तो बुरे लोग तो हावी हो जाएँगे न। मैं ये तर्क बहुत सुनता हूँ। नहीं, ऐसा नहीं है। ऐसा इसलिए नहीं है क्योंकि सबको अच्छा बनना है। ये लगभग वही तर्क है कि दुनिया में अगर सब गौतम बुद्ध हो गये, तो दुनिया कैसे चलेगी या सब अगर समझदार हो गये और ऊँचे ही काम करने लगे, तो समाज को चलाने के लिए सब घटिया काम करने होते हैं वो कौन करेगा; तो ये सब नहीं सोचना है।
प्र: (कार्यकर्ता की ओर से) संख्या बढ़ाने का तरीक़ा सिर्फ़ पैदा करना थोड़े ही होता है। अब जो हैं उनको ही बढ़िया बना दो।
आचार्य: कितनी अच्छी बात कही है! अगर वीगन लोगों की, अच्छे लोगों की संख्या बढ़ानी है, तो उन्हें पैदा ही काहे को करना है, जो अच्छे नहीं हैं उन्हें अच्छा बना दो, वैसे भी तो संख्या बढ़ती है। बहुत बढ़िया!
प्र: (कार्यकर्ता की ओर से) इसी पर जो चर्चा हुई उसमें एक बात कही कि हिंसा-तो-हिंसा होती है। कई लोग इसको कुतर्क की तरह भी इस्तेमाल करते हैं। वो वीगंस को कहते हैं कि आप भी तो पेड़-पौधों को खा रहे हैं। पौधें भी महसूस कर सकते हैं और जानवर भी, और वो वैज्ञानिक तर्क भी देते हैं कि ऐसा पाया गया है। तो इस पर हम उनको कैसे ज़बाब दें?
आचार्य: आप बोलेंगे। (संस्था के कार्यकर्ता द्वारा प्रश्न पूछे जाने पर आचार्य जी प्रश्नकर्ता को जवाब देने के लिए प्रोत्साहित करते हैं) क्या करना है ऐसे लोगों का जो बोलते हैं किप्लांट्स में भी तो जान होती है, फीलिंग होती है।
प्र: मैं तो बीस साल से वीगन हूँ और मैंने इतनी बहस की है इन लोगों से कि अभी अगर मुझे कोई बोलता है कि पौधों में भी महसूस करने की शक्ति होती है, तो मैं तो सीधा उपेक्षा करके टाटा! बाय! बाय! करके निकल जाता हूँ। इनसे बहस करना मतलब दीवार पर सिर पटकना है। पर आचार्य जी के पास बहुत सारे और अच्छे-अच्छे तर्क होंगें।
आचार्य: नहीं, मैं उनकी बात से सहमत हूँ कि जब वो कहते हैं कि पौधों में भी तो कॉन्शियसनेस होती है, जीवन होता है। मैं मानता हूँ। आपको पौधों से इतना प्यार है और उस प्यार का मैं सम्मान करता हूँ, तो चलिए पौधे ही बचाते हैं, जानवरों को छोड़ते हैं। तो पौधे कैसे बचाएँ? पौधों को भी बचाने का सबसे अच्छा तरीक़ा है माँसाहार न करना।
देखिए साहब, मान लीजिए मैं हूँ शुद्ध शाकाहारी, तो मैंने क्या खायी? मान लीजिए मैंने खाया आधा किलो साग। उससे मेरी पूर्ति हो गयी। मैंने आधा-किलो साग खाया, बढ़िया, मस्त, मेरी पूर्ति हो गयी। आप हैं शुद्ध माँसाहारी। आपको चाहिए आधा-किलो मटन। मैंने जब आधा-किलो साग खाया तब उसमें कुल कितने ग्राम, कितने वज़न के पौधे मारे गये? अरे! आधा किलो साग बना है, तो मान लीजिए एक-किलो वज़न के पौधे उस आहार के लिए इस्तेमाल हो गये।
आपने अगर मटन खा लिया आधा-किलो, आप मटन क्यों खा रहे हो? क्योंकि आपको पौधों से प्यार है। आपको पौधों से इतना प्यार है कि आप कह रहे हैं कि साहब, मैं मटन खाने को तैयार हूँ, पौधे नहीं खाऊँगा, पौधों की जान बची रहनी चाहिए। तो आपने मटन उठा रखा है। अब वो आधा-किलो मटन का माँस बकरे के शरीर में कैसे बना होगा? कैसे बनता है? थोड़ी साधारण बुद्धि की बात है। आधा-किलो बकरे का माँस तैयार हो, उसके लिए बकरे ने कितने किलो पौधे खाये होंगे? दस किलो, बीस किलो।
प्र: पूरी उसकी ज़िन्दगी का सवाल है। सात-आठ साल वो बकरा बड़ा हुआ, उसने इतने सारे पेड़-पौधे खाये होंगे।
आचार्य: खाता-ही-गया, खाता-ही-गया। तो आपकी प्लेट पर जो माँस रखा है अगर उसका प्लांट इक्विवलेंट (पौधे के बराबर) रख दिया जाए कि वो जो माँस है वो कितने पौधों को मारकर तैयार हुआ है, तो आपकी प्लेट पर एक पूरा जंगल होगा। जंगल नहीं होगा तो कम-से-कम पूरा एक खेत होगा, खेत नहीं होगा तो कम-से-कम पूरा एक बाग़ होगा। आपकी प्लेट में समाएगा नहीं, इतने आपने पौधे मार दिये।
तो जो लोग ये भी तर्क देते हैं कि पौधों को भी तो बचाना ज़रूरी है, अरे! वीगंस , वेजिटेरियंस तुम लोग तो बात करते हो सिर्फ़ जानवरों की, पौधों को भी तो बचाना ज़रूरी है। मैं उनसे कह रहा हूँ, ‘मैं आपसे सहमत हूँ पौधों को भी बचाना ज़रूरी है। और पौधों को बचाने का एक ही तरीक़ा है, जानवरों को मत खाओ। क्योंकि जब तुम जानवर का आधा-किलो माँस खाते हो, तो तुमने सौ-किलो पौधे मार दिये। वो माँस कहाँ से आ रहा है वरना।’
कहेंगे, ‘नहीं, नहीं, हमारे यहाँ तो जो बकरे होते हैं वो धूल पर पलते हैं। पानी पीते हैं, साँस लेते हैं, धूल चटाते हैं और इतने में तीस किलो के हो जाते हैं। थोड़ा होश में आओ! दुनिया में इंसानों द्वारा जो निन्यानवे प्रतिशत माँस खाया जाता है, वो फार्म्स से आता है। सड़क के चूज़ों, मुर्गों, बकरों, भैंसों से नहीं आता। ये एक इंडस्ट्री है पूरी। यहाँ तक कि दुनिया की — चौंकाने के लिए सब तैयार रहिएगा बिलकुल — सत्तर प्रतिशत खेती सिर्फ़ जानवरों को खिलाने के लिए होती है।
कैसा लगा? दुनिया की सत्तर प्रतिशत खेती होती है जानवरों को खिलाने के लिए। और ये जानवरों को खिलाने के लिए जो खेती की जा रही है ये इंसानों में कुपोषण और भुखमरी का एक बड़ा कारण है। क्योंकि जो अन्न पैदा हो रहा है वो किनको जा रहा है? जानवरों को। जानवरों को क्यों जा रहा है? ताकि कुछ हवसी लोग माँसाहार कर सकें। जिनकी वहशत और जिनकी ज़ुबान काबू में ही नहीं आ रही, उनकी खातिर सत्तर प्रतिशत जो एरीबल लैंड है, जिस पर खेती की जा सकती है, उस पर जानवरों को खाने के लिए चारा उगाया जा रहा है, अन्न उगाया जा रहा है।
इतना ही नहीं, चूँकि ये माँसाहारियों की तादाद, भूख और हवस बढ़ती ही जा रही है, तो ज़मीन नहीं है जिस पर जानवरों के लिए चारा उगाया जा सके, तो क्या किया जा रहा है? जंगल साफ़ किये जा रहे हैं पूरे-के-पूरे ताकि और ज़मीन हो जिस पर और जानवर पैदा किये जा सकें, उन्हें खाना खिलाया जा सके, ताकि फिर उसका कोई माँस खा सके — ये चल रहा है। इनके पास चेहरा है, ये हिम्मत कर लेते हैं बोलने की कि हमें तो पौधों से प्रेम है। ‘पौधों की भी तो जान जाती है। तुम पौधों को खाते हो, हम जानवरों को खाते हैं, दोनों में जान है, बात बराबर हो गयी।’ शाबाश!
इसीलिए ज़रूरी है कि कम-से-कम तीसरी क्लास तक की शिक्षा तो सबके लिए अनिवार्य कर दी जाए। जो लोग इस प्रकार के तर्क दे रहे हैं, ये या तो कभी स्कूल गये नहीं या नर्सरी में ही ड्रॉप-आउट (छोड़ देना) हुए हैं। अगर ये तीसरी कक्षा तक भी पढ़े होते तो ये इस तरह का भयानक मूर्खतापूर्ण तर्क नहीं दे सकते थे कि पौधों में भी तो जान होती है। और अभी मैं जो इसके बायोलॉजिकल एस्पेक्ट्स (जैविक पहलू) हैं उन पर तो आया ही नहीं हूँ। साहब, पौधों में नर्वस सिस्टम (तन्त्रिका तन्त्र) होता कहाँ है कि उनको दर्द होगा। साहब, पौधों में तो कई अंग ऐसे होते हैं जिनको पौधा स्वयं चाहता है कि आप खाएँ।
उदाहरण के लिए जब आप एक पौधे का फल खाते हो तो पौधा बहुत प्रसन्न होता है। आपने पौधे पर एहसान किया। आप जब फल खा रहे हो तो आप उस प्रजाति का बीज जगह-जगह पहुँचा रहे हो। पौधा आपको धन्यवाद बोलता है कि अच्छा किया तुमने मेरा फल तोड़ लिया और खा लिया या सब्ज़ी ले ली और खा ली। पौधा चाहता है कि आप ऐसा करें।
प्र: और हमने पूरे पौधे को भी नहीं मार दिया।
आचार्य: आपने पूरे पौधे को भी नहीं मार दिया। इतना ही नहीं, पौधा ऐसा है जो स्वयं अपनी पत्तियाँ गिरता रहता है। और पौधा ऐसी चीज़ होता है जिसकी एक डाल टूट गयी तो दूसरी उग आती है। जानवर की एक टाँग काट देंगे, दूसरी नहीं उग आती है। आपको पौधे और जानवर में अन्तर नहीं दिख रहा? तो ऐसों की बुद्धि अभी तीसरी कक्षा में भी पहुँची ही नहीं है, इनसे क्या बात करें! (मुस्कुराते हुए) कोई आध्यात्मिक तर्क क्या दूँ, थोड़ा-बहुत विज्ञान पढ़ लें, थोड़े-बहुत तथ्य जान लें, इतना ही पर्याप्त है।
प्र: (कार्यकर्ता द्वारा प्रश्न) सर, अभी जो आपकी बातचीत चल रही थी, उसमें कुछ चित्र मेरे दिमाग़ में उठ रहे थे। पहले तो जैसे आपने ही बताया कि कोई आइसक्रीम खा रहा है, तो आपको लगता है कि सब ठीक है, आइसक्रीम ही तो खा रहा है। पर अगर वही आदमी कोई मेमने को पकड़कर क़त्ल कर रहा है या फिर ऐसी कोई विडियो हो तो उसमें बहुत ज़्यादा हिंसक सामग्री दिख जाती है। तो ज़्यादातर जब हम पशु अधिकार के जो विडियोज़ को देखते हैं फेसबुक या इंस्टाग्राम पर, तो उसमें नीचे लिखा आता है संवेदनशील सामग्री। खासकर उस सन्दर्भ में कि आप उस वीडियो को खोलना चाह रहे हैं या नहीं। और ज़्यादातर हम टाल देते हैं, क्योंकि ऐसा लगता है कि पता नहीं अन्दर क्या होगा। किसी जानवर को काटा जा रहा होगा, किसी जानवर को फाड़ा जा रहा होगा।
तो मेरे दिमाग़ में यही आया कि ऐसी कोई वीडियो बने जिसमें लिखा हो संवेदनशील सामग्री और जब हम उसको खोलें, तो एक आदमी अन्दर बैठकर आइसक्रीम खा रहा हो। मैं सोचता हूँ कि शायद हमारे दिमाग़ को वो जल्दी से आघात करेगा। क्योंकि वो ऐसा दिखेगा कि जब आप आइसक्रीम खा रहे हैं, तो वो एक साधारण सी घटना है, लेकिन वो उतनी ही क्रूर है जितना कि किसी जानवर को मारना।
आचार्य: बिलकुल सही बात है। एकदम सही बात है। किसी मेमने की हत्या की जा रही हो तो स्क्रीन पहले ही ब्लर (धुँधली) हो जाती है सोशल मीडिया पर और लिख दिया जाता है व्यूवर डिस्क्रिशन एडवाइस (दर्शकों को सुझाव), एज रिस्ट्रिक्शन (आयु की पाबन्दी) लगा देंगे, सत्तर चीज़ें कर देगें। ये बड़ी गज़ब बात है! और दिन-रात हम उन्हीं हत्याओं में साझीदार हो रहे हैं, तब क्यों नहीं उसमें व्यूवर डिस्क्रिशन लगता? कोई अगर स्क्रीन पर धूम्रपान कर रहा हो, तो नीचे लिख देंगे बड़ा-बड़ा कि धूम्रपान सेहत के लिए हानिकारक है। और स्क्रीन पर कोई दूध पी रहा है, तब वहाँ क्यों नहीं लिखा जाता कि ये एक हिंसात्मक कृत्य है सावधान! तब क्यों नहीं लिखा जाता?
प्र: और जोड़कर बोलूँ तो शरीर के लिए भी ख़राब है। जैसे आपने कहा न कि धूम्रपान में लिखा हुआ आता है कि धूम्रपान स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है, तो उसी स्थिति में दूध के लिए भी कुछ ऐसा…।
आचार्य: बिलकुल। डेयरी में भी ये क्यों नहीं लिखा आता कि ये जो चीज़ है ये आपकी सेहत के लिए भी ख़राब है। कुछ भीतरी अज्ञान है और कुछ बाज़ारू स्वार्थ है और नहीं कोई बात है, इतना ही सा है।
प्र: (कार्यकर्ता की ओर से) इसी में एक दूसरी बात पर बात करना चाहूँगा। अभी-अभी हम डेटिंग पर बात कर रहे थे। तो हाल ही में सोशल मीडिया में काफ़ी ज़्यादा प्रचलन में रही है ये घटना कि जहाँ प्रेमी ने अपनी प्रेमिका को पहले मारा और फिर बड़ी क्रूरता से उनके टुकड़े-टुकड़े करके उनको ठिकाने लगाया। तो अगर हम उसी के सापेक्ष में देखें तो यही प्रेमी-प्रेमिका कुछ ही दिन पहले एक साथ बैठे हैं, आइसक्रीम खा रहे हैं और उनके मुँह पर क्रीम लगी हुई है, हँस रहे हैं और ये सब चीज़ें क्यूट लग रही हैं।
तो अगर हम देख पायें तो ठीक वैसे ही वहाँ पर भी हो रहा है, पर हमें दिख नहीं रहा। जब एक आदमी आइसक्रीम खा रहा है और जब उसके मुँह पर वो पूरा क्रीम लगा हुआ है, हाथों में क्रीम लगा हुआ है और वो चाट भी रहा है, तो अगर इस घटना को हम पहले इसी के सापेक्ष में प्रेमिका की मौत से पहले देख पाते तो उनके लिए काफ़ी मददगार साबित होता।
आचार्य: मैं तो कहता ही हूँ न कि इन्हीं में से जो सबसे सनसनीखेज़ हादसा हुआ था उसमें प्रेमिका की लाश को पैंतीस टुकड़ों में काटा गया और वो जो चाकू था, वो जानवर का माँस काटने का चाकू था। और ये बात बड़ी सिम्बोलिक है, प्रतीकात्मक है कि तुमने जिस हथियार का निर्माण करा था जानवरों को काटने के लिए उसी से इंसान कट रहा है। और यही हश्र होगा सब इंसानों का। तुमने जो-जो चीज़ें इजाद करी हैं दूसरों पर ज़ुल्म करने के लिए, वो तुमको ही खा जाएँगी।
तो कबीर साहब का है कि जाका गला तुम काटिहो सो फिर काट तुम्हार। जिसका तुम आज गला काट रहे हो, वो कल तुम्हारा गला कटेगा। अब ये मत पूछना कि ये तो अब मर गया अब ये कैसे कटेगा। बस काट देता है। और ये बात किसी व्यक्ति को नहीं बोली गयी है, ये बात पूरी मानवता को, पूरी मैनकाइंड को बोली गयी है।
प्र: (कार्यकर्ता का प्रश्नकर्ता से प्रश्न) आपने बताया कि आपने दो बार एवरेस्ट पर चढ़ाई की है। मैंने कई ऐसी घटनाएँ पढ़ी हैं जिसमें जो लोग काफ़ी ऊँचाइयों पर होते हैं और तापमान बहुत कम होता है वहाँ ऐसा भी हुआ है कि जानवर छोड़िए, उन्होंने अपने ही साथी को मारकर खाया है। तो मैं ये जानना चाहता हूँ कि विषम परिस्थितियों में क्या सम्बन्ध रहता है एक जानवर के साथ?
प्र: (प्रश्नकर्ता की ओर से) पहले तो ये मनुष्य और जानवरों का सम्बन्ध नहीं है। आप किसी कमर्शियल एक्सपीडिशन (वाणिज्यिक अभियान) पर जा रहे हो तो वहाँ पर आप घरेलू जानवरों का इस्तेमाल कर रहे हो। अगर मैं हिमालय की बात करूँ, ख़ासकर एवरेस्ट की बात करूँ तो गधे और याक इस्तेमाल किये जाते हैं। याक को वहाँ की अधिक ऊँचाई पर रहने वाली गाय बोल सकते हैं। खाने-पीने का और काफ़ी सारा सामान गधों और याक की पीठ पर लादकर गाँवों तक पहुँचाया जाता है।
एक्सपीडिशन में सत्तर-अस्सी किलो जितना सामान एक आदमी लेकर जाता है। तो हमारा भी सारा सामान जैसे खाना, गियर , रस्सियाँ बेसकैंप पर पहुँचने में याक का इस्तेमाल किया जाता है।
मेरा सारा खाना वीगन है, मेरा सारा पहनावा भी वीगन है, मैं, मेरा ख़ुद का सामान भी कुछ हद तक ख़ुद ही उठा रहा हूँ, जितना मेरे से बन पा रहा है। मेरा और भी जो ज़्यादा समान है वो मैंने हेलीकॉप्टर में भेज दिया। मैंने ह्यूमन पोरटर्स (मानव कुली) कर लिये जिनको मैंने अच्छे से भुगतान किया, लेकिन कई बार चीज़ें नियन्त्रण में नहीं होती हैं। कभी-कभी दो-तीन-चार टन जितना सामान हेलीकॉप्टर से भेजना महँगा होता है, तो वहाँ के लोग याक या गधों का इस्तेमाल करते हैं।
तो मैं कभी-कभी अपनेआप को भी प्रश्न करता हूँ कि क्या मेरा एक्सपीडिशन सच में सच्चा वीगन एक्सपीडिशन था, क्योंकि किसी हद तक जानवर तो इस्तेमाल हुए ही हैं, मतलब कहीं तो शोषण हुआ ही है। और कितना भी बोल लो अगर आप वहाँ के गधों को देखोगे तो चमड़ी पूरी उखड़ी हुई है, पूरी उनकी हड्डी दिख रही है। अगर एक गधा ज़्यादा-से-ज़्यादा तीस-पैंतीस किलो वज़न उठा सकता है तो उस पर साठ-सत्तर किलो डाल दिया जाता है।
जैसे सर ने बोला कि हमेशा इकोनॉमिक्स की बात आ जाती है इन सब चीज़ में, आप कैसे अपने लाभ को अधिकतम कर सकते हो, वहाँ भी वो याक के साथ ऐसा व्यवहार करते हैं कि…। पूरे खुंबू क्षेत्र में मतलब पूरे एवरेस्ट क्षेत्र में ऐसे बोला गया है कि याक का स्लॉटर (वध) नहीं हो सकता है। पर आप जैसे ही पूरे रैली के रास्ते जाओगे और हर रेस्टोरेंट में जाओगे तो याक का माँस मिलता है।
अभी एक जगह पर आप बोल रहे हो कि याक का स्लॉटर नहीं हो सकता है, पर दूसरी तरफ़ तो सब जगह याक का माँस मिल रहा है। तो वो लोग घाटी में स्लॉटर नहीं करेंगे, पर याक थोड़ी बड़ी हो गयी तो उसको काठमांडू भेज देगें। वहाँ स्लॉटर करके वही याक को वापस लेकर आएँगे और वही याक को खाएँगे।
तुम याक को अपनी माँ मानते हो। तुम याक की इतनी देखभाल कर रहे हो, पर जब वो बूढ़ी हो गयी तो क्या किया? अन्त में उसका क़त्ल करके उसको खा गये। अगर वो याक चालीस से पचास किलो उठा सकती है तो उसके भी ऊपर सौ किलो डाल दिया जाता है। कितनी सारी चोटें आती हैं। आये दिन आप यूट्यूब पर वीडियो देख सकते हैं कि याक कहीं गिर गयी पहाड़ से, क्योंकि उसको बहुत ज़्यादा ओवरलोड कर दिया था। सर ने भी केदारनाथ पर बोला था कि वहाँ भी खच्चरों पर कितनी क्रूरता की जाती है। यही सारी समस्याएँ सारे-के-सारे एवरेस्ट और पहाड़ों के क्षेत्र में भी हैं।
जानवरों का शोषण किया जाता है उनको यातायात में इस्तेमाल करने के लिए, पर जैसे ही वो इस्तेमाल ख़त्म हो गया उनका क़त्ल करके जितना माँस खा सकते हैं, खा लिया। जितना चमड़े में इस्तेमाल कर सकते हैं, कर लिया। हड्डियों को पीसकर उनका पाउडर बनाकर कहीं बेच देंगे, जिलेटिन बना दिया, ये सब कर दिया। उसका एक मशीन की तरह पूरा इस्तेमाल करके उसका पूरा लाभ ले लिया जाता है।
सर, ये प्रश्न मुझे पूछना ही था आपसे। मैंने पूरा प्रयास किया, मेरा सारा गियर , सारा खाना, सबकुछ मैंने अपनेआप उठाया। जितना मेरे नियन्त्रण में था, उतना मैंने किया, लेकिन कभी-कभी ऐसा लगता है कि मेरे नियन्त्रण के बाहर भी बहुत चीज़ें थीं और वहाँ भी जानवरों का बहुत शोषण हो रहा था। तो मैं इन सब से कैसे उबरूँ और मेरा क्या माइंडसेट होना चाहिए?
आचार्य: बड़ी ताक़तों के साथ लड़िए और क्या। ये बिलकुल सही बात है कि अगर दुनिया की हवा ख़राब हो गयी हो तो आप अपने घर की हवा साफ़ नहीं रख सकते। आप कोशिश पूरी कर लीजिए, कुछ हद तक आप सफल भी हो जाएँगे, पर गन्दगी तो घुस ही आएगी। अगर मोहल्ला ही पूरा गन्दा हो तो आप ये नहीं कर पाएँगे कि आपके घर में इन्फ़ेक्शन (संक्रमण) न आये। भले ही आपने अपना घर व्यक्तिगत तौर पर कितना भी साफ़ रखा हो।
तो सफ़ाई से जब प्रेम हो तो बड़ी चुनौती उठानी पड़ेगी न। फिर जो बाहरी और बड़ी ताक़तें हैं उनसे लड़ना पड़ेगा। फिर इतना ही पर्याप्त नहीं रहेगा कि मैं तो पाक़ साफ़ हूँ न, मैं तो शुद्ध हूँ न। तो फिर उस इंडिविजुअल प्यूरिटी (व्यक्तिगत शुद्धता) की महत्ता बहुत नहीं रह जाती है। वो फिर ज़्यादा यही हो जाता है कि जैसे कोई ख़ुद को दिलासा दे रहा हो कि हमारा सब साफ़ है, हमारे घर में सफ़ाई है, मोहल्ला बहुत गन्दा है।
नहीं, पूरी दुनिया को साफ़ करने के आन्दोलन से जुड़ना पड़ेगा। नहीं तो आप यही पाएँगे कि कहीं-न-कहीं दाग़ बचा रह जाता है। पहले बतख़ के पंख की प्रोटेक्टिव गियर थी, फिर आपने पाया कि याक का और गधों का तो अभी भी इस्तेमाल किया ही गया। तो एकदम और कठोर होकर के मूल्यांकन करें तो अभी भी क्रूरता तो हो ही गयी।
तो दाग बचा रह जाएगा। उस दाग को हटाने के लिए बड़ी लम्बी लड़ाई लड़नी पड़ेगी उम्र भर, और पूरी व्यवस्था ही बदलनी पड़ेगी। पूरी व्यवस्था बदलने के लिए जो लोग व्यवस्था बनाते हैं मतलब आम जनमानस — लोकतन्त्र है न — आम जनमानस को बदलना पड़ेगा।
इस बातचीत के माध्यम से वही काम हम यहाँ भी करने की कोशिश कर रहे हैं। क्योंकि मैं कहूँ, मैं अच्छा आदमी हो जाऊँ और दुनिया बुरी पड़ी रहे; तो ये सम्भव नहीं है। आध्यात्मिक सन्दर्भ में अगर मैं कहूँ कि मुझे मुक्ति मिल जाए और दुनिया बन्धन में पड़ी है तो पड़ी रहे; वो सम्भव नहीं है। मैं कहूँ कि मुझे आनन्द मिल जाए, दुनिया पड़ी है पड़ी रहे; वो सम्भव नहीं है।
मुक्ति मिलेगी अगर तो सबको साथ ही मिलेगी। इस यात्रा में हम सब साझेदार हैं। तो संयुक्त प्रयास करते हैं, डटकर लगे रहते हैं। जन्म लिया है तो इसी संघर्ष के माध्यम से जन्म लेने का ये ऋण है जो आजन्म चुकाना होगा। तो उसको करते रहते हैं।
प्र: (कार्यकर्ता प्रश्नकर्ता से) अभी आपने बताया कि याक को मुख्य रूप से हिमालय का जो क्षेत्र है वहाँ पर स्लॉटर नहीं किया जाता, लेकिन हाल ही में मैं ये पढ़ रहा था कि सरकार ने अब याक को भी…।
आचार्य: आप नेपाल की बात कर रहे हैं। (प्रश्नकर्ता को सम्बोधित करते हुए)
प्र: मैं नेपाल की बात कर रहा हूँ। खुंभू क्षेत्र, एवरेस्ट क्षेत्र की बात कर रहा हूँ जहाँ याक का क़त्ल करने की कानून पाबन्दी लगायी गयी है। लेकिन हर जगह कोई-न-कोई कमी हमेशा खोज ली जाती है और उसी कमी का ग़लत इस्तेमाल करते हैं। प्राकृतिक तौर से याक मर गयी, ये एक दूसरा लूप होल है। अभी आपने उसको कुछ दे दिया और मार दिया या फिर जो कुछ भी हुआ है, लेकिन उसको अभी प्राकृतिक तौर से मरना नहीं चाहिए था, लेकिन वो मर गयी, फिर आपने उसका क़त्ल करके उसका माँस खा लिया।
अन्ततः वो लोग याक का भी गाय की तरह उपयोग करते हैं। याक का भी कृत्रिम गर्भाधान होता है, उसका दूध निकालते हैं, उसका चीज़, उसका पनीर बनाते हैं। गाय जिन अवस्थाओं से जाती है उसी से होकर याक भी जाती है। अनुपयोगी है तो उसका क़त्ल करके उसका माँस खा गये। तो वही समस्या वहाँ भी है जो यहाँ है। सिर्फ़ वहाँ इतना औद्योगिक तल पर नहीं हो रहा है। सम्भवतः छोटे स्तर पर हो रहा है, पर समस्या तो वही है।
उस जानवर की स्वीकृति ही नहीं शामिल है किसी चीज़ में। उसका कृत्रिम गर्भाधान भी उसकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ हुआ है। हमारे और जानवरों के बीच में वो सम्बन्ध ही नहीं है कि उनकी स्वीकृति ली जाए।
प्र: (कार्यकर्ता का प्रश्न आचार्य जी से) सर, इसी सन्दर्भ में मैं बात करना चाहूँगा कि अभी हम छठे सामूहिक विनाश की ओर बढ़ रहे हैं। क्लाइमेट चेंज और वीगनीज़्म और इस तरह के विषय जो वर्तमान समय में ज्वलन्त विषय होने चाहिए, लेकिन हम इसके बजाय ये देख रहे हैं कि जो सरकार है वो इन सब विषयों के बारे में भूल चुकी है। वो इन सभी विषयों पर बात भी नहीं करती है।
आचार्य: सरकार की दृष्टि अगले चुनाव तक जाती है। उसके आगे कौनसा एक्सटिंगशन आएगा उससे सरकार को क्या लेना-देना। अब पाँच साल के अन्दर सब एक्सटिंट (विलुप्त) तो हो नहीं जाएँगे वोटर। अगर कोई ऐसी आपदा आ रही होती कि सरकार का जो पूरा वोटरबेस है वो पाँच साल में मिटने वाला है तब सरकार ज़रूर कुछ करेगी। क्योंकि लोग मर गये तो वोट कौन देगा?
तो आप बात करते हो उन आपदाओं की जो दस-बीस-पचास साल आगे हैं और सरकार को मतलब है बस उन चीज़ों से जो एक-दो साल अधिक-से-अधिक चार-पाँच साल आगे हैं। तो कोई सरकार उतनी दूरदृष्टिता दिखाएगी नहीं।
इंसान को ही जागना पड़ेगा। आन्तरिक जागरण के अलावा और कोई रास्ता नहीं है। सरकारों पर निर्भर नहीं रह सकते। हाँ, ये है, आप अगर जग जाओगे तो फिर आप ख़ुद ही एक बेहतर सरकार चुन लोगे। लेकिन आप ये सोचो कि आप जैसे हो वैसे ही बने रहो और सरकार आकर आपका नेतृत्व और उद्धार कर दे, तो वो नहीं होने वाला।