प्रश्नकर्ता: आचार्य जी प्रणाम, आप हमेशा बोलते हैं कि ऊँचे उद्देश्य रखने चाहिए जिससे कि उसमें किसी भी तरीक़े का कोई डेविएशन नहीं होता है। अब ऊँचे उद्देश्य रखने की सामर्थ्य और साहस नहीं मिल पाता है क्योंकि अपनेआप को बहुत जगह मैं बेहोश पाता हूँ। कभी कुछ चीज़े साफ़ नहीं दिख पाती हैं तो एक कॉन्फिडेंस नहीं आ पाता है। ऊँचे यदि मैं उद्देश्य रखता भी हूँ तो उसके प्रति गम्भीरता सी नहीं आती है, बनावटी सी लगती है। यह भी नहीं समझ में आता है कि आप जैसे बोलते हैं, ‘बहुत श्रम करो, समय बहुत कम हैं।’ तो बहुत बार यह कंफ्यूजन होता है कि क्या श्रम करें? थोड़ा मार्गदर्शन कीजिए।
आचार्य प्रशांत: जी धन्यवाद आपने बड़ा महत्वपूर्ण प्रश्न पूछा है। बहुत-बहुत लोगों का यही प्रश्न रहता है कि ऊँचा उद्देश्य माने क्या? इतने लोग बार-बार यही पूछते हैं कि आचार्य जी बार-बार आपकी सुई वहीं अटक जाती है कि जीवन में ऊँचा उद्देश्य रखो। यह ऊँचा उद्देश्य चीज़ क्या होती है? ठीक है, मैं प्रयास करूँगा कि विस्तार से बता पाऊँ।
ऊँचा तो जो होता है वो अनिर्वचनीय होता है, कौन उसकी बात करे? पहली बात। तो बात सिर्फ़ नीचे की की जा सकती है। ठीक है? जो ऊँचा है वो शब्दों और कल्पना और सिद्धान्तों के बाहर की बात है, तो उसकी बातचीत कुछ नहीं। जब मैं कहता हूँ ऊँचा उद्देश्य रखो—और सब बहुत ध्यान से सुनें क्योंकि मुझे लगता है कि दो सौ लोगों का यह सवाल होगा—जब मैं कहता हूँ ऊँचा उद्देश्य रखो तो आशय है, ‘ग़ौर से देखो कि नीचा क्या है जीवन में। ग़ौर से देखो कि नीचा क्या है जीवन में उससे भिड़ जाओ।’ क्योंकि ऊँचे को पाने जैसा कोई उपक्रम आप चला नहीं पाएँगे, ऊँचा इतना ऊँचा होता है कि उस तक हमारे हाथ नहीं पहुँच सकते।
सत्य होता है उदात्त, पर वो हमारी पहुँच-पकड़ से भी बहुत आगे का है। तो क्या बात करें ऊँचाई की? कोई बात नहीं हो सकती, बात सिर्फ़ निचाई की हो सकती है।
जो निचला है उससे बचना है और वहाँ पर कोई बहाना भी नहीं चलेगा। क्योंकि यह तो हम कह देते हैं कि ऊँचा क्या है आचार्य जी हम जानते ही नहीं ऊँचा उद्देश्य क्या है। ठीक है। जीवन में न्यून कोटि के, निम्न कोटि के जो संकल्प हैं, कामनाएँ हैं, काम-धाम हैं, धन्धे हैं वो तो जानते हो, नहीं जानते हो? ऊँचा क्या होगा हम नहीं जानते, समझ में नहीं आ रहा। नीचा क्या है यह भी समझ में नहीं आ रहा? वाकई?
अच्छा कितने लोग हैं जिन्हें बिलकुल नहीं पता कि उनके जीवन में नीचा क्या है? कितने लोग हैं जो अपने जीवन में एक भी गिरी हुई चीज़ से परिचित नहीं हैं? हाथ उठाएँ। ठीक, एक भी हाथ नहीं उठा। सब जानते हैं कि उनके जीवन में ऐसा क्या है जो निकृष्ट है, त्याज्य है, सब जानते हैं न। जितने लोग जानते हैं हाथ उठाएँ। सब हाथ उठ गए।
बस इतनी सी बात बोलता हूँ। यह बहुत कठिन है? समझ में नहीं आती? तो उलझाव क्या है फिर? जब जानते ही हो कि जीवन में क्या है जो नहीं होना चाहिए तो उसे पकड़े काहे बैठे हो भाई। उसी को छोड़ना ऊँचा काम है, नीचे को छोड़ना ही ऊँचा काम है, और कोई ऊँचा काम नहीं होता। ऊँचा काम कुछ नहीं होता, जो नीचा है उसे छोड़ते चलो यही ऊँचाई है। और अन्तिम ऊँचाई कोई होती नहीं, जो अन्तिम है वो हमारी पकड़ से बहुत आगे का है, नहीं पहुँचोगे कभी, मर जाओगे नहीं पहुँचोगे, कोई नहीं पहुँचा।
जब कोई पहुँचा नहीं तो उधर को चले क्यों? मज़ा आता है, यही आनंद है। अपने ख़िलाफ अनवरत संघर्ष। लड़ते चलो, मिटते चलो। लड़ते चलो, मिटते चलो, उस मिटने में ही जीत है। मैंने नहीं कहा लड़ते चलो, जीतते चलो। मैंने क्या कहा? लड़ते चलो, मिटते चलो। अपने ही ख़िलाफ़ तो लड़ रहे हो, जीतने का एक ही तरीक़ा है अपनेआप को मिटाओ। अपनेआप को मिटाने का क्या मतलब है? हम निचले हैं, जो निचला है उसको मिटाना है यही है अपनेआप को मिटाने का मतलब। बात खुल रही है?
कोई हमें नहीं चाहिए पथप्रदर्शक-गुरु, जो हमें बताए कि हमारे जीवन में फलानी चीज़ ठीक नहीं है। क्योंकि इतना अनाड़ी, इतना अज्ञानी तो कोई भी नहीं होता जो बिलकुल ही नहीं जानता कि जीवन में कहाँ क्या कमी है। क्या हम ऊँचे दर्जे की बातें पूछते हैं, समाधि कैसी लगेगी? वो तो अन्तिम बात होगी। आपने आरम्भिक बात भी करी क्या? आरम्भिक बातें कीजिए।
लेकिन हम कहते हैं, ‘पर मेरी बीमारी तो ऐसी है कि उसको आध्यात्मिक कह नहीं सकते।’ आपके पास अध्यात्म की एक छवि है, उस छवि में बहुत अलंकृत शब्द हैं कि फलानी तरह का ध्यान करेंगे, फलानी यात्रा करेंगे, फलानी विधि, फलानी क्रिया करेंगे, इसको अध्यात्म कहते हैं। नहीं। अगर आपके जीवन में बातूनीपन बहुत मौजूद है तो आपके लिए सबसे बड़ी साधना यही है कि अपने बातूनी होने पर, अपनी वाचालता पर, इस गौसिप मोंगरिंग पर रोक लगाएँ। और रोक ऐसे नहीं कि स्टेपल कर दिया, सिल दिया। समझ गए कि हम क्यों बकबक कर रहे हैं।
कबिरा यह गत अटपटी, झटपट लखी न जाए। जब मन की खटपट मिटे, अधर भया ठहराए।।
अधर भी तभी रुकेंगे जब मन की खटपट मिट जाएगी, मन खटपट क्यों कर रहा है समझिए। अब यह तो बहुत छोटी सी बात है। इतने लोग हैं जो बहुत बोलते हैं पर समझाने वाले समझा गए हैं कि तुम बहुत अगर बोलते हो तो उसके पीछे भी तुम्हारी एक आध्यात्मिक प्यास है। यह जो इतना मुँह चलाते हो न, वास्तव में तुम्हें कुछ चाहिए बहुत ऊँचा, वो मिल नहीं रहा है इसलिए पक-पक, पक-पक, पक-पक। अधर इतने—अधर माने होंठ—अधर इतने इसलिए चलते हैं क्योंकि मन में खटपट है। यही है ऊँचा काम जिसमें निचले काम को समझकर के उससे पीछा छुड़ा लिया।
अब आप किसी से कहेंगे कि मैं पहले ज़्यादा चैटिंग करता था, अब कम करता हूँ और यह मेरी स्पिरिचुअल प्रोग्रेस है। तो लोग कहेंगे, ‘यह कोई बात है, हमको देखो, हम अपने चक्र जागृत कर रहे हैं। और तुम होठों पर ही अटक कर रह गये।’ वो जो कर रहे हैं करने दीजिये, आप जीवन पर ध्यान दीजिये। उन्हें उनके कल्पना लोक में उड़ने दीजिए। आपको ज़िन्दगी जीनी है धरातल पर, ज़मीनी बात करिए।
अब आगे की सुनिए। जब एक भीतरी चुनौती को जीत लेते हो, एक निचाई से ऊपर उठ जाते हो तभी पता चलता है अगली ऊँचाई कौन सी है। ज़मीन पर बैठे-बैठे आउटर स्पेस (अंतरिक्ष) की बातें करना ठीक नहीं। हज़ार सीढियाँ चढ़कर के मन्दिर आता है एक, अभी चढ़ाई शुरू भी नहीं करी, शिखर की बात करना ठीक नहीं। एक सीढ़ी, सोपान-दर-सोपान, एक-एक चरण आगे बढ़ाओ। रोशनी कम है, हमारी आँखें बहुत प्रकाशित नहीं, जब एक कदम रखोगे तभी अगला सोपान नज़र आएगा। नहीं समझे? यहाँ मैं बैठा हूँ मुझे नहीं पता चल रहा दरवाज़े के पार क्या है, दिख नहीं रहा, प्रकाश कम है, आगे बढ़ूँगा तो दिख जाएगा। तो थोड़ा आगे बढ़ो फिर और आगे का दिखेगा, यहाँ बैठे-बैठे बहुत आगे का पूछोगे, कुछ नहीं मिलेगा।
सत्यनिष्ठा के मूल में है थोड़ा आगे बढ़ना लगातार, प्रतिदिन। थोड़े-थोड़े बेहतर होते चलो। इतना प्यार रहे मुक्ति से कि लगातार बन्धनों पर नज़र रहे, लगातार बन्धनों से एक ऊब रहे।
कुछ अगर पहन लो जो ठीक से फिट न हो रहा हो, टाइट हो, तो कितनी-कितनी देर में ख़याल आता है? हर पाँच मिनट में आता है न। ऐसा ही मन को होना चाहिए। तन पर बन्धन हैं भले ही वो पैंट का क्यों न हो, बेल्ट का क्यों न हो या कि जूता टाइट है उसका क्यों न हो, तो तन के बन्धन को मिटाने का ख़याल तो हर पाँच मिनट में आता है न। आता है कि नहीं आता है? कि जैसे ही मौका मिले किसी तरीक़े से जूता बदल लें या मौका मिले यह पैंट बदल लें।
वैसे ही मन के प्रति संवेदनशीलता रहे, मन के बन्धन के प्रति। बार-बार ये, ये खीझ उठती रहे कि मन पर बन्धन हैं, मन पर बन्धन हैं, मन पर बन्धन हैं। हटाओ, हटाओ, नहीं, नहीं, नहीं चाहिए, नहीं जी सकते, नहीं चाहिए। कोई नाक ऐसे दबा दे आपकी तो कितनी-कितनी देर में ख़याल आएगा कि इसका हाथ हटाना है, नाक दबा रखी है? कितनी-कितनी देर में आएगा? लगातार आएगा न।
वैसे ही यह विचार लगातार रहना चाहिए कि जीवन को दबा रखा है किसी ने—किसी ने माने स्वयं ने ही—हटाओ, हटाओ, कौन है जो मुझे सांस नहीं लेने दे रहा? हाथ हटाओ। यह ऊँचा काम है। ऊँचा काम माने यह नहीं है कि हार्वर्ड की डिग्री ले आए। आचार्य जी ने कहा ऊँचा काम करना है कुछ तो ज़रूर वो स्पेस स्टेशन की बात कर रहे थे, ऊँचा तो वही है। मार्स पर प्लॉट खरीदना न आचार्य जी, वही बोला था न आपने, देखिये हम समझ गए, ऊँचा काम।
देखो मैं तो झाड़ू मारने वाला हूँ, मेरी नज़र तो हमेशा नीचे रहती है। आकाश तो सदा ही स्वच्छ है, उसकी क्या बातें करूँ, वहाँ कहाँ कोई गन्दगी। गन्दगी जहाँ होती है मैं वहाँ देखता हूँ। मेरा आग्रह है आप भी वहाँ देखें जहाँ गन्दगी है। आकाश की स्वच्छता के गीत गाकर क्या होगा? उसे आपके गीत नहीं चाहिए। आपको भी आपके गीत नहीं चाहिए, आपको झाड़ू चाहिए। यह बाँसुरी छोड़ो, झाड़ू उठाओ और अपने मुँह पर मारो। समझ में आ रही है बात?
यही ऊँचा काम है, जो कुछ नीचा मिलता चले उसको बिलकुल विष्ठा की तरह त्यागते चलो। नहीं, नहीं चलेगा, नहीं चलेगा, दम घुटता है इसके साथ, नहीं चलेगा। ये अभी-अभी क्या किया, नहीं, ठीक करेंगे, प्रायश्चित भी करेंगे और ख़ुद को सज़ा भी देंगे। बहुत अच्छे शब्द हैं ये प्रायश्चित और दंड। किसी बाहरी व्यवस्था पर या कर्मफल पर क़ानून वगैरह पर भरोसा मत करो कि मैंने कुछ ग़लत करा होगा तो वो सज़ा दे देंगे। ग़लती करो तुरंत ख़ुद को सज़ा दे दो तत्काल, इसी को तो प्रायश्चित कहते हैं। अपने प्रति निर्मम हो जाइए। दूसरों के प्रति करुणा, अपने प्रति निर्ममता।
ऊँचा काम समझ में आ रहा है? अब तो नहीं पूछेंगे कि… और भी आते हैं सूरमा कह रहे हैं, ‘ये देखो, इन्हें कुछ पता है! हमारे मास्साब ने समझाया था कोई काम ऊँचा-नीचा नहीं होता।’ काम ऊँचे-नीचे निश्चित रूप से होते हैं, निश्चित रूप से होते हैं। बहुत सतर्क रहो कामों के बारे में।