प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, ‘नाम’ के बारे में समझाइए, क्योंकि कबीर साहब बोलते हैं सद्गुरु नाम है। और कोई बोलते हैं कि सोऽहं ये नाम है, कोई बोलते हैं कि सुनने वाला जो नाद है वही नाम है। तो कृपा करके नाम के महत्व को समझाइए और बताइए कि नाम क्या चीज़ है?
आचार्य प्रशांत: विचारों में, भावनाओं में नाम-ही-नाम छाये रहते हैं। और ये जितने नाम हमारे मन पर छाये रहते हैं, सब किसी सांसारिक, लौकिक विषय की ओर, वस्तु की ओर ही संकेत करते हैं, हैं न? कोई नाम हो नहीं सकता आपके चित्त में, जिसके समकक्ष आप कोई छवि न खड़ी कर लें। कोई नाम हो नहीं सकता आपके चित्त में जिसके विषय में आप कोई कल्पना-कहानी न बता दें।
आप नाम लीजिए और अभी प्रयोग कर लीजिए। जितने भी नाम हैं आपके मन में, क्या उनमें से कोई भी ऐसा है जिसके बारे में आप कुछ कह न पायें, कुछ सोच न पायें, क्या एक भी नाम ऐसा है? जहाँ से ढूँढकर लाने हों नाम, ले आ लीजिए, कोई नाम नहीं मिलेगा जिसके विषय में आप कुछ कह ही न पायें, जिसके साथ कोई छवि न जुड़ी हो। और ये सब नाम ही बोझ है मन का। ये सब नाम ही बोझ है मन का। इन्हीं नामों से बोझ आक्रांत है, इन्हीं के तले पिसा जा रहा है। पर मन को तो नाम चाहिए, बिना नाम के वो आगे ही नहीं बढ़ता, जीता ही नहीं, मानता ही नहीं।
तो फिर गुरुओं ने एक विधि निकाली, उन्होंने कहा कि हम एक ख़ास ‘नाम’ की रचना करते हैं, जो मन की ज़िद भी पूरी कर देगा और मन का बोझ भी नहीं बनेगा। मन की ज़िद क्या है? नाम चाहिए। और वही नाम मन का बोझ क्यों बन जाता है? क्योंकि उस नाम के समकक्ष खड़ी होती है एक सांसारिक छवि और कल्पना और कहानी, है न? तो मन में नाम नहीं प्रवेश करता, नाम के साथ-साथ प्रवेश कर जाता है संसार। नाम है और नाम की पूँछ से बँधा हुआ है संसार। ठीक है न? तुमने कहा ‘पानी’, तो वो ‘पा’ और ‘नी’ थोड़े ही है? पानी माने तो फिर पानी, पानी माने तो संसार। तो तुमने कहा पानी और तुम्हारे चित्त में ‘पा’ और ‘नी’ के साथ प्रवेश कर गया संसार। ठीक है न?
तुमने कहा ‘सुरेश’ या ‘सुधा’, अब सुनने में तो न सुरेश कुछ, न सुधा कुछ। पर सुरेश कहते ही मन में क्या-क्या उठ गया? अरे, कहानियों का पूरा एक जत्था। सुरेश से सम्बन्धित वो सब अनुभव और स्मृतियाँ जिनसे तुम गुज़र चुके हो, है न? और सुधा तुमने कहा नहीं कि तूफ़ान खड़ा हो गया चित्त में, क्योंकि ‘सुधा’ शब्द, ‘सु’ और ‘धा’ का सम्बन्ध संसार के एक व्यक्ति से है, संसार के एक विषय से है।
तो मन की ज़िद कि कुछ चाहिए, लेकिन कुछ माँगने में उसे बहुत कुछ ऐसा मिल जाता है जो उसी का बोझ और बीमारी बन जाता है। तो हमने कहा कि गुरुओं ने फिर एक विधि निकाली। विधि यह थी कि मन को नाम चाहिए, दे दो नाम, पर ऐसा नाम दो जिसका संसार से कोई सम्बन्ध ही न हो, जिसकी पूँछ में कोई धागा न बँधा हो संसार से जुड़ा हुआ। उस नाम को कोई नाम नहीं दिया गया, उसको बस कहा गया ‘नाम’।
तो संत कहते हैं नाम सुमिरो, नाम सुमिरो, नाम सुमिरो, आप सोचते होंगे कि अरे! किसका नाम सुमिरें? वो बताएँगें ही नहीं, वो कहेंगे नाम सुमिरो। न सुधा, न सुरेश, न गाड़ी, न घोड़ा, बस नाम। उस नाम को कभी सतनाम कह देते हैं, कभी सोऽहं कह देते हैं, कभी राम नाम कह देते हैं। तुम उस ‘नाम’ को जैसे चाहो कह लो, एक बात पक्की है उस नाम का संसार की किसी वस्तु से, विषय से, व्यक्ति से कोई सम्बन्ध नहीं है। तो नाम तो मिल गया, पर नाम के साथ-साथ जो ज़हर मिलता था, जो बोझ मिलता था वो नहीं मिला।
तो लाभ क्या हुआ? लाभ ये हुआ कि इस ‘नाम’ को जब तुम सुमिरोगे और अगर तुम्हारा सुमिरन सच्चा है और निष्ठावान है तो ये ‘नाम’ तुम्हारे मन में बाक़ी जितने नाम छाये हुए हैं उनको बाहर कर देगा, बेदखल कर देगा, तुम बाहर निकलो। क्योंकि तुम तो सुमिरे जा रहे हो न राम-राम-राम-राम। और जब राम-राम सुमिर रहे हो तो मन में बाक़ी सब जो बैठे थे, सुधा, सुरेश, पहलवान, इन सबका क्या हुआ? ये बाहर निकल गये, इनके लिए जगह ही नहीं बची। सारी जगह तुमने किसको दे दी? राम को। तो ये बाक़ी सब सुधा, सुरेश, गाड़ी, घोडा, बंदर, बिच्छू सब बाहर निकल गये, निकलना ही पड़ा, मजबूरी में निकलना पड़ा। जैसे कि धक्के खाकर कोई बाहर निकले, ऐसे निकलना पड़ा।
अब भीतर क्या है? नाम, सतनाम। अब ‘सतनाम’ भीतर तो है पर भीतर ऐसे है जैसे शून्य होता है भीतर। भीतर वो है भी, पर भीतर बोझ भी नहीं खड़ा कर रहा। उसने तुमको भर भी दिया है और तुम्हें पूरी तरह खाली भी छोड़ दिया है। आनंद! और क्या चाहिए? समझ में आ रही है बात?
इसीलिए कोई अर्थ नहीं होता, न ॐकार का, न सतनाम का, न सोऽहं का। इशारा बस है सोऽहं। 'वह मैं हूँ।' अब ‘वह’ माने क्या, यह नहीं बताया जाएगा, क्योंकि ‘वह’ बता दिया तो वो संसार की कोई वस्तु बन जाएगा। संसार की वस्तुओं का ही विवरण दिया जा सकता है। तो इतना कहकर छोड़ दिया जाता है — ‘वह,’ ‘दैट’। ‘वह’ को अगर बहुत समझाया-बुझाया गया तो ‘वह’ भी बन जाएगा सुधा-सुरेश, गधा-घोड़ा, कुछ। फिर तो गड़बड़ हो गयी न। तो ‘तत’ कहकर छोड़ देते हैं। समझ में आ रही है बात?
ये ‘नाम’ की विधि है। हमसे कहा गया है कि बिना नाम के तो मानोगे नहीं। इतने संयमी, इतने अनुशासित तो हो नहीं कि कह दिया जाए कि कुछ मत पकड़ो और तुम कहो ठीक, हम कुछ नहीं पकड़ेंगे। इतने मर्यादित तो हो नहीं। गुरुओं ने देख लिया कि चेले में इतना दम नहीं है कि उससे कह दे कि हाथ खुले रखो, खाली हाथ आना, खाली हाथ जाना, बीच में क्या भींचते हो और चेला बात मान भी जाए। चेला तो बार-बार बोलता है, कुछ चाहिए, कुछ पकड़ने के लिए चाहिए। और जो कुछ भी पकड़ने को चाहिए होता है उसका होता है एक ‘नाम’। तो गुरु ने कहा ठीक, देते हैं ‘नाम’। पर ऐसा नाम देंगे, ऐसा विशेष नाम देंगे कि 'साँप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे।'
तुम्हारी ज़िद भी रख लेंगे, तुम्हारा हठ भी मान लेंगे और तुम्हें हानि भी नहीं होने देंगे। तो राम भजो, राम भजो, राम भजो भाई। अब ‘राम’ माने क्या? ‘राम’ माने सत्य, ‘राम’ माने आत्मा। उसका न चिंतन हो सकता है, न कथन हो सकता है। भजते रहो, निर्गुण के गुण गाते रहो, आनंद बहुत है।
प्र: राम बोलते हैं तो हमें एक चित्र आ जाता है कोई भगवान का ऐसा चित्र आता है तो वो भी तो संसार का ही एक रिफ्लेक्शन (प्रतिबिंब) है, तो फिर हमें उसमें क्यों आनंद आता है?
आचार्य: क्योंकि जो चित्र भी तुम्हारी आँखों के सामने आता है, उसने भी ऐसे गुण दर्शाये जो संसार के नहीं हैं। देखो, सबसे अच्छा तो ये हो कि जब तुम राम कहो तो तुम्हारी आँखों में दशरथ पुत्र राम का चित्र न आये। संत जब राम भजते हैं तो वो अयोध्यापति राम को नहीं भज रहे, वो परमब्रह्म राम को भज रहे हैं, वो निर्गुण-निराकार राम को भज रहे हैं। पर सगुणी भक्ति भी होती है। ऐसे भी होता है भजना कि तुम राम भजो और तुम्हारी आँखों के सामने धनुर्धारी दशरथ पुत्र राम का ही चित्र आ जाए, वो भी होता है। तो वहाँ याद रखो कि जिसका चित्र तुम्हारे सामने आ रहा है, उसका जीवन-वृत बड़ा अलौकिक है। अलौकिक समझते हो? लोक से आगे का।
तो वहाँ भी कुछ ऐसा हो रहा है जो संसार का नहीं है, संसार के कितने बेटे हैं जो बाप के कहने पर हाथ आयी सत्ता त्याग देंगे? कुछ ऐसा हुआ न जो दुनिया का नहीं है, दुनिया से आगे की ही बात है ये, बोलो? संसार के कितने भाई हैं जो महल और शासन और सुविधाएँ छोड़कर और नवविवाहिता पत्नी छोड़कर बड़े भाई के साथ जंगल चले जाएँगे?
प्र: पर आचार्य जी, वो भी तो गुण हुआ?
आचार्य: वो संसार से पार का गुण है। तुम उसे अगर गुण भी कहना चाहते हो तो वो सात्विक गुणों में भी श्रेष्ठतम है। तो अगर तुम मर्यादा पुरुषोत्तम राम को भजोगे, तो तुम्हें उसके अनुसार गुणों की प्राप्ति हो जाएगी। तुम अगर गुणातीत जाना चाहते हो तो फिर निराकार राम को भजो। जो साकार राम को भजेंगे, उन्हें गुणों में श्रेष्ठतम गुण उपलब्ध हो जाएँगे। और जो कहें कि हमें श्रेष्ठतम गुण भी नहीं चाहिए, हमें सतोगुण में भी नहीं फँसना है, हमें तो गुणातीत ही जाना है, सब गुणों के पार जाना है, त्रिगुणात्मक प्रकृति के ही पार चले जाना है, उन्हें फिर राम की साकार छवि को नहीं भजना चाहिए। उन्हें फिर भजना चाहिए निराकार राम को।
प्र: आचार्य जी, ॐ निराकार में आएगा या साकार में आएगा?
आचार्य: साकार से निराकार का।
प्र: तो ॐ बोलते हुए सिर्फ़ एक शब्द आता है, अब उसमें कोई गुण नहीं दिखता, लेकिन मन शांत हो जाता है।
आचार्य: तो पुल है न वो अशान्ति से शान्ति की ओर जाने का।
प्र: नहीं समझ में आया।
आचार्य: अर्थ अपनेआप में कुछ रखता नहीं वो शब्द, ‘अ’ है, ‘उ’ है, ‘म’ है। ‘अ’ है, ‘उ’ है, और ‘म’ है। ‘अ’ आरंभ है, ‘उ’ निर्मित्ती है, ‘म’ विलय है। ‘अ’ वो जगह है जहाँ तुम खड़े हो, ‘म’ वो है जिससे तुम्हें गुज़रना है, मिट जाना है। तो ॐ मन को बार-बार याद दिलाता है विलय का, विसर्जन का। देखा है, ‘म’ कीध्वनि कैसे खिंचती हुई चली जाती है? वो खिंचना मिटना है, बढ़ते जा रहे हो और मिटते जा रहे हो। ‘म’ बढ़ता जाता है और मिटता जाता है और अंत में मौन!
‘अ’ से शुरुआत होती है, ‘म’ से मृत्यु है, मौन है। बढ़ता है आगे, बढ़ता है आगे, क्षीण पड़ता जाता है, दुबला होता जाता है, झीनी सी अंत में गूँज बचती है और उसके बाद वो गूँज भी नहीं बचती, सब गया। जैसे कुछ होने से, कुछ न होने तक की यात्रा हो गयी, इस यात्रा को प्रणव कहते हैं। ये तुम्हें तुम्हारी सच्चाई से अवगत करा देता है। ऐसे हैं हम। हो तो गये हैं, ‘अ’ से आकार तो पा लिया है, पर इस पर टिक नहीं सकते। नियति हमारी यही है कि हम मिल जाएँ, लीन हो जाएँ, मौन हो जाएँ।
ॐ एक विशिष्ट शब्द है जो शब्द को मौन से जोड़ देता है, तो मैंने कहा पुल है।
प्र: तो आचार्य जी, ये राम से बेहतर नहीं है?
आचार्य: जिसको जो रुच जाए, वही बेहतर है। जिसको जो रुच गया, उसके लिए वही बेहतर है। तुम्हारे काम का होना चाहिए, बस।