ॐ का वास्तविक अर्थ || आचार्य प्रशांत (2015)

Acharya Prashant

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ॐ का वास्तविक अर्थ || आचार्य प्रशांत (2015)

ऊँ एक ऐसी ध्वनि है, जो शुरू तो शरीर के कंपन से होती है, लेकिन बोलते – बोलते ही विलीन हो जाती है। हम कहते है ना, ऊँ……म।तो म, रहते – रहते – रहते – रहते क्रमशः शून्य में विलुप्त हो जाता है। तो, ऊँ एक प्रकार की जीवन पध्दति है, ऊँ जीवन शिक्षा है, कि जियो ऐसे कि जीते – जीते शून्य में समा जाओ। शब्द से ही तुम्हारी शुरुआत होती है। पर, शब्द ऐसा रहे जो जल्दी निःशब्द बन जाए – जीवन ऐसा हो।

सभी के जीवन की शुरुआत होती तो शब्द से ही है, शब्द मतलब वो जो शरीर और इन्द्रियों से संबंधित हो; शब्द को कान से ही सुनते हो वो शब्द शरीर से, इन्द्रियों से संबंधित है। शुरुआत सबकी शब्द अर्थात् शरीर-भाव से ही होती है, शरीर ही पैदा होता है। और ऊँ कहता है कि जीवन ऐसा हो कि शुरू शरीर से हो, अंत परमात्मा में हो, अंत शून्यता में हो। जीवन ऐसा हो कि शुरू तो हो शरीर से लेकिन जल्दी ही घुल जाए। तो, ऊँ याद दिलाता है, जब भी ऊँ कहोगे तो अपने से शुरू करोगे, शरीर से शुरू करोगे, कर्तृत्व से शुरु करोगे और मौन में खत्म हो जाओगे।

मांडूक्य उपनिषद् – , और को लेता है। इसे कहता है कि ये जो तुम्हारा मानसिक जीवन है इसको इंगित करते हैं – अ, ऊ और म। तुम्हारे जीवन में यही तीन स्तिथियाँ होती हैं। जीवन मन है, जीवन समय है — एक समय काल, एक अवधि को ही जीवन कहते है — समय मन है, मन की ही तीनों अवस्थाएँ जीवन है। अ के द्वारा उपनिषद् कह रहा है समझ लो कि जैसे तुम्हारी जाग्रत अवस्था की ओर इशारा है; ऊ के द्वारा उपनिषद् कह रहा है कि समझ लो कि जैसे तुम्हारी स्वप्न अवस्था की ओर इशारा है, वेदांत इनको वैश्वानर और तैजस के नाम से जानता है; और म के द्वारा उपनिषद् के ऋषि कहते हैं कि समझ लो कि तुम्हारी सुषुप्ति की ओर इशारा है।

तो, तीन ध्वनियाँ, तीन अवस्थाएँ और तीनों का विगलन हो जाना फिर महाशून्य में, मौन में, ये जीवन है। मन की तीन स्थितियाँँ, और तीनों के पीछे का आधारभूत मौन; याद रखना, आधारभूत, चौथा नहीं। किसी ने मुझसे अभी पूछा था कि इसमें तो चौथाई अंशों के बारे में बात की गई है, क्वार्टर लिखा गया है, वो सिर्फ कहने का एक तरीका है। जो शून्य है, जो मोन है, उसको भले ही शब्द रूप में तुरीय कहा जाता है, तुरीय माने चौथा। इसका अर्थ ये बिल्कुल भी नहीं होता कि वो उसी अर्थ में चौथी अवस्था है जिस अर्थ में पहली तीन है। तुम उसको एक, दो, तीन के बाद चौथा नहीं गिन सकते वो वास्तव में चौथी नही है। वो पहली तीन अवस्थाओं का अवलम्ब है, आधार है। चौथी से तो ऐसा लगता है मानो पहली ही तीन से पृथक हो, चौथी से तो ऐसा ही लगता है कि पहले तीन के आयाम में हो।

जब तुम कहते हो कि साक्षित्व चौथी अवस्था है तो उसमें थोड़ी चूक हो जाने की संभावना है क्योंकि जो चौथा है वो पहले तीन के आयाम में ही होगा। समस्त गणनाएँ एक ही आयाम मे होती हैं – एक, दो, तीन, चार कहो या चार हजार कहो। और, दूसरी बात ये है कि जो चौथा है वो पहले तीन से पृथक होगा। तुरीय, जो चौथी है, जो मौन के लिए, शून्य के लिए और विगलन के लिए इस्तेमाल की गई है, न तो पहली तीन से पृथक है और न ही पहली तीन के आयाम में है। तो, एक, दो, तीन ठीक है, चौथा नहीं। वो गणना के पार है, उसको कोई संख्या या अंक दिया नहीं जा सकता, वो गणनातीत है, वो संख्यातीत है, वो मनातीत है। तो, बात चौथाई की बिल्कुल भी नहीं है। कोई ये न कहे कि चार होते है, जिसमें से पहले तीन ये और चौथा ये; नही, चौथाई की बात नहीं है।

ऊँ की सार्थकता ही इसी में है कि वो पहले तीन को उनके मूल तक पहुँचा देता है। चौथे का मतलब ये नहीं होता कि आप पहले तीन से हट गए। तुरीयावस्था में होने का अर्थ ये होता है कि पहले तीन में रहते हुए भी तीनों के मूल की स्मृति बनी हुई है। अगर तुरीय कोई चौथी अवस्था होती तो उसका अर्थ तो ये हो जाता कि उसमें होने के लिए पहले तीन से हटना पड़ेगा। न, तुरीय में होने के लिए पहले तीन में तो होना ही पड़ता है।

आप जगे हुए हो आँखें बाहर की ओर देख रही हैं, आँखों से जगत दिखाई पड़ रहा है, लेकिन भीतर कुछ है जो जगत का नहीं है, ये तुरीय अवस्था है। अब तुरीय और जाग्रत अवस्था एक साथ ही हैं, अलग – अलग नहीं हैं। आप जाग्रत भी हो, आप प्रथम अवस्था में भी हो और आप तुरीय में भी हो। तो, तुरीय को चौथा मत समझना, तुरीय को बस ऐसे समझ लेना कि आधार, कि सत्य, कि मूल। निःशब्द, शब्द की अनुपस्थिति को नहीं कहते, मौन शब्द की अनुपस्थिति को नही कहते, मौन आधार है – शब्द का, बिना मोन के तुम शब्द को नहीं सुन सकते।

तो, कोई ये न सोचे कि जब शब्दहीनता होगी तब मौन आएगा। फिर तो तुमनें दो अलग – अलग खाँचे, कमरे, कम्पार्टमेंट बना दिये। तुमनें कह दिया कि एक में शब्द है और दूसरे में मौन है, फिर तो तुमने जिंदगी का बंटवारा कर दिया। और, ये बंटवारा इंसान हमेशा से करता रहा है कि शब्द कहाँ है – घर में, दफ्तर में, लोगों के साथ, बाजार में और मोन की कौन सी जगहेें है – तीर्थ स्थान है, मंदिर है, वगैरह। नहीं, ऐसा नहीं है।

ऊँ, जीवन की शिक्षा है, जो हमको सिखाती है कि जहाँ भी रहो तुरीय की याद बनी रहे। पहले में हो तो भी मौन कायम रहे, दूसरे में हो तो भी मौन कायम रहे, और तीसरे में हो तो भी मौन कायम रहे। बोल रहे हो तो भी मौन रहो, सपने देख रहे हो तो भी मौन रहो, सुषुप्ति में हो तो भी मौन रहो; तुम्हारी हालत कुछ भी हो मौन सदा कायम रहे। बोल-चाल के बीच भी चुप, और दौड़-भाग के बीच भी थमे हुए; कोलाहल के मध्य भी शांत – ये है ऊँ की शिक्षा। ऊँ का जाप तुम्हें याद दिलाता है कि देखो कैसे शब्द घुल जाता है एक विराट आनंद शून्य में और उस शून्य की प्रेरणा से ही ऊँ का उच्चारण होता है। उसकी प्रेरणा नहीं होगी तो इतने और शब्द हैंं, तुम वो सब कहोगे, ऊँ कह ही नहीं पाओगे।

ऊँ, समझ लो एक प्रकार की विधि है, तकनीक है, तुम्हें याद दिलाने की कि देखो क्या जादू है – इस शब्द में अ से शुरू हुआ, म बोला और एक गुंजन शेष रह गया। और गुंजन क्रमशः क्षीण पड़ता जाता है और फिर पता नहीं कहाँ गया, पता नहीं कहाँ गया! ऐसी जिंदगी जियो पता नही कहाँ गयी, खत्म नही हो गयी, पता नहीं कहाँ गयी। मृत्यु नहीं आ गयी, विगलित हो गए। बाकी सारे शब्द पैदा होते हैं और मर जाते है, ऊँ अकेला है जो अमृत्य है, ऊँ मरता नहीं है, ऊँ घुल जाता है, ऊँ विसर्जित हो जाता है, ऊँ अस्तित्व के साथ एक हो जाता है; उसकी कोई मौत नहीं होती। बाकी हर शब्द मरता है इसीलिये ऊँ को इतना महत्व दिया गया है, इतना पवित्र माना गया है। यही कारण है कि पूरा उपनिषद् मात्र ऊँ को, प्रणव को समर्पित है। याद रखना ऊँ शब्द नहीं स्मृति है, ऊँ कुछ याद दिलाता है, ऊँ कुछ निर्दिष्ट करता है, जैसा शुरू में ही कहा ऊँ जीवन शिक्षा है कि कैसे जिया जाए।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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