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नौकरी और कैरियर को लेकर उलझन || आचार्य प्रशांत, दिल्ली विश्वविद्यालय सत्र (2021)

Author Acharya Prashant

Acharya Prashant

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नौकरी और कैरियर को लेकर उलझन || आचार्य प्रशांत, दिल्ली विश्वविद्यालय सत्र (2021)

प्रश्नकर्ता: सर, लोग कहते हैं कि हमारे गुड डे (अच्छे दिन) और बैड डे (बुरे दिन) दोनों होते हैं जो कि तथ्य भी है। लेकिन सर, पहली बात जो मैं पूछना चाहती हूँ वो यह है कि बुरे दिनों को कैसे कम किया जाए? और दूसरी बात यह है — मैं व्यक्तिगत रुप से मानती हूँ कि कुछ दिन केवल आलसी होते हैं। तो असली बुरे दिनों और आलसी दिनों के बीच अन्तर कैसे करें?

आचार्य प्रशांत: एक आदमी है, उसे कुत्ते मारने पसन्द हैं। कुत्ते मारूँगा, कुत्ते खाऊँगा। रोज़ वो सुबह उठकर कुत्ते दौड़ाने लग जाता है; जिस दिन उसने कुत्ते को काट दिया वो गुड डे (अच्छा दिन) हो जाता है और जिस दिन कुत्ते ने उसे काट दिया वो बैड डे (बुरा दिन) हो जाता है। ये गुड डे और बैड डे होता है। तुम्हारा गुड डे भी हो गया तो तुमने अधिक-से-अधिक क्या किया? तुम कुत्ता काट रहे थे। और बैड डे भी हो गया तो बुरे-से-बुरा क्या हुआ? कुत्ते ने तुम्हें काट दिया पलटकर। कुछ ऊँची चीज़ हुई क्या? गुड और बैड बोल किसको रहे हो?

हममें से ज़्यादातर लोग ऐसे ही हैं, जैसे कोई पॉकेटमार हो; जिस दिन किसी की पॉकेट मार ली, उस दिन गुड डे हो गया और जिस दिन ख़ुद मारे गये उस दिन बैड डे हो गया। तो ये जो मारा-मारी का खेल है, इससे जब आप ज़रा ऊपर उठने लग जाते हो न, वो डे आपका गुड डे होता है। जब आप इसी में फँसे रहते हो तो चाहे उसको गुड डे बोलो चाहे उसको बैड डे बोलो है, वो है वैरी बैड डे। समझ रहे हो?

आपकी ये जो, अभी आप संस्था बना रहे हो इसका नाम आपने रखा है ‘अद्वैत’। अद्वैत का क्या मतलब होता है? यही होता है कि द्वैत माने डूएलिटी माने गुड डे और बैड डे , झूठी बात है। द्वैत का एक सिरा है, डूएलिटी का एक सिरा है गुड - गुड-गुड उसी डूएलिटी का, द्वैत का दूसरा सिरा है बैड - बैड - बैड। ये दोनों ही बेकार की बातें हैं क्योंकि आप जानते ही नहीं हो कि किसको गुड बोलना है, किसको बैड बोलना है।

आपके पास अन्धी कामनाएँ होती हैं, जिस दिन कामनाएँ पूरी होने लग गयीं आप कह देते हो — गुड गुड ; जिस दिन वो कामनाएँ अधूरी रह गयीं आप कह देते हो — बैड बैड। असली बैड चीज़ क्या है? उस कामना का अन्धा होना। कामना का होना भी कोई अपनेआप में कोई ज़रूरी नहीं कि बैड बात हो। लेकिन कामना का अन्धा होना, ये पता न होना कि क्या चीज़ करने लायक़ है, क्या चीज़ माँगने लायक़ है, ये असली बैड बात होती है।

तो किसी दिशा में निकल पड़ो कोशिश करने के लिए, उससे पहले ज़रा सा रुककर के पूछो अपनेआप से — 'ये दिशा चलने लायक़ है भी कि नहीं?' और अगर किसी दिशा में निकल ही पड़े हो तो रास्ते का और अपने अनुभवों का साफ़ अवलोकन करते चलो कि इस दिशा में चलकर के मुझे मिल क्या रहा है। ‘मेरे भीतर क्या है, कौन है जो मुझे इसी दिशा में प्रेरित करे जा रहा है?’ ठीक है?

गुड और बैड का निर्णय बहुत ईमानदारी और ज़िम्मेदारी से करना चाहिए। यही नहीं कि दुनिया जो कर रही है, दोस्त-यार जो कर रहे हैं बस उसी के हिसाब से आपने भी गुड और बैड का निर्धारण कर लिया। और यही जो फ़ैसला कि क्या गुड है, क्या बैड है, इंसान की ज़िन्दगी को गुड या बैड बना देता है। जिन्होंने सही से जान लिया कि गुड और बैड क्या चीज़ है वो गुड हो गये, जो समझ ही नहीं पाये कि गुड और बैड क्या चीज़ है वो भी अपने हिसाब से कुछ चीज़ को बोलेंगे गुड , कुछ चीज़ को बोलेंगे बैड। लेकिन वो जिसको गुड बोलेंगे वो भी बैड होगा और जिसको बैड बोलेंगे वो तो बैड होगा ही।

समझ में आ रही है बात? नहीं समझ में आ रही है पूरी तरह से?

प्र: हाँ, सर।

आचार्य: इतनी आसान है कि समझ गये?

प्र: नहीं, सर मैं कोशिश कर रही हूँ।

आचार्य: चलिए, कोशिश करते रहिए; वही बढ़िया बात है।

प्र: सर, मेरा अगला प्रश्न है: सर, मुझे अलग-अलग चीज़ें करना पसन्द है, जैसे मुझे नृत्य करना पसन्द है, मैं सीए कर रही हूँ इसलिए मुझे ललित कला पसन्द है और मुझे स्टाइल, फ़ैशन , खेल ये सब पसन्द हैं। लेकिन सर, अंततः मुझे अपने कैरियर को आगे बढ़ाना है तो उस एक विशेष चीज़ को कैसा चुना जाए? ऐसा हो सकता है कि जैसे मैं डांसिंग को शौक के तौर पर कर सकती हूँ लेकिन कैरियर के तौर पर नहीं। तो उस एक विशेष को कैसे चुनें?

आचार्य: नहीं, कैरियर माने क्या होता है?

प्र: सर, कैरियर का मतलब है पूरी ज़िन्दगी आप कुछ-न-कुछ कर रहे हैं, आप अपनी रोज़ी-रोटी कमा रहे हैं।

आचार्य: तो काहे को अभी से तय कर लेना है कि ज़िन्दगी भर एक ही काम करना है?

प्र: नहीं, सर।

आचार्य: तो मत करो न तय। ठीक है, अच्छी बात है, हर तरीक़े से ज़िन्दगी में अपने विकल्प खुले रखो, कहीं एक जगह पर बँध क्यों जाना है? रही बात खाने-कमाने की, उसका कुछ तो प्रबन्ध कर लो। लेकिन खाना-कमाना इतनी बड़ी चीज़ नहीं है कि उसके लिए अभी से पूरी ज़िन्दगी को बन्धक बना दो, मॉर्टगेज़ कर दो।

आपको अगर चार चीज़ें ज़िन्दगी में रुचिकर लगती हैं, तो ये तो अच्छी बात है और किस्मत की बात है कि चार चीज़ें आपको अच्छी लगती हों, उसमें आप के पास किसी तल की कुशलता भी हो, आप करो न! कौन कह रहा है कि आप ऑथर और प्लेयर एक साथ नहीं हो सकते।

अभी वो पीएचडी मैथमेटिक्स है न जिसने ओलम्पिक्स गोल्ड जीता है? मेरे ख़याल से ऑस्ट्रियन शायद। कौन कह रहा है कि आप बहुत सारे काम नहीं कर सकते? देखो ये चीज़ भी आपने दुनिया को देखकर पकड़ ली न, कि नहीं साहब, एक आप अपनी स्ट्रीम चुन लीजिए और उसमें बस लगे रहिए, लगे रहिए। काहे को? काहे को?

कमिटमेंट बस सच्चाई से होना चाहिए, बाक़ी तो सबसे फ्लर्ट करना है। समझ में आयी बात? नहीं आएगी। इतनी आसानी से कमिट मत हो जाओ दुनिया में किसी भी रास्ते को, इंसान को, चीज़ को, कैरियर को। यहाँ कुछ नहीं है कमिट होने लायक़। कमिटेड बस एक चीज़ से रहो और उस चीज़ का नाम बताना बड़ा मुश्किल है, मैं कैसे बता दूँ? मैं बोल देता हूँ ‘सच्चाई’, जब मैं बोल देता हूँ सच्चाई तो उस चीज़ पर धूल पड़ जाती है। बाक़ी सब चीज़ें तो आने-जाने वाली हैं और उसे एक चीज़ से अगर तुम्हारी निष्ठा है, तुम्हारा कमिटमेंट है तो फिर वही एक चीज़ ही बताने भी फिर लग जाती है कि किस पल पर क्या करना है।

ये बिल्कुल कोई अच्छी ज़िन्दगी का प्रमाण नहीं होता हैं कि तुमने फाइनेंस पकड़ लिया, अब ज़िन्दगी भर फाइनेंस -ही- फाइनेंस कर रहे हो; या सरकारी नौकरी मिल गयी है तुमको, और किस विभाग में मिल गयी है तुमको? ‘पशुपालन विभाग’ और उसमें तुम स्पेशलाइज़ कर रहे हो पोल्ट्री में। तो ज़िन्दगीभर तुम क्या कर रहे हो? ‘मुर्गी और अंडा और कुकड़ूकु।’ और ये काम तुम साठ की उम्र तक कर रहे हो जब तक कि रिटायर नहीं हो जाते। इसको बोलोगे कि देखो सेटल्ड (स्थिर) कैरियर मिल गया है न, कुकड़ूकु।

तो पढ़ाई इसलिए होती है ताकि तुमको ज्ञान दे और ताक़त दे। पढ़ाई इसलिए नहीं होती कि तुमको बन्धन दे-दे। कि अरे, इसने तो चार साल से फाइनेंस पढ़ लिया न अब ज़िन्दगी-भर के लिए बन्धन बन गया। काहे को पढ़ा फाइनेंस अगर ज़िन्दगीभर के लिए बन्धन बनाना था तो? पढ़ाई इसलिए की थी कि बन्धन बन जाए?

अगर ज्ञान बल होता है — जैसा उपनिषद् कहते हैं कि ज्ञान से बड़ा कोई बल नहीं — तो बल आपको मुक्ति देगा या बन्धन देगा? मुक्ति देगा। और एक ही काम ज़िन्दगीभर करते रहना मुक्ति की बात है या बन्धन की बात है? बन्धन। लेकिन आपके कॉलेज में जब प्लेसमेंट होता है उसमें तो सीधे-सीधे आपको कम्पार्टमेंटलाइज कर देते हैं न, वर्गीकृत कर देतें है कि एचआर वाले इधर आ जाओ, बेटा; और फाइनेंस वाले इधर बैठ जाओ और सेल्स के सब जमूरे उधर लाइन लगाओ। अब वो कह रहा, 'मैं कहाँ फस गया सेल्स में'। अब वो ज़िन्दगी-भर सेल्स -ही- सेल्स करेगा।

तो अगर किसी तरीक़े से तुम अपने लिए सम्भव बना सकते हो कि तुम तीन काम करो, बहुत अच्छी बात है। और ये नहीं कि तुम्हें तीन काम करने-ही-करने हैं, बहुत बड़ी ज़िन्दगी है, तुम जिधर को अनुभव लेना चाहो लेते रहो, लेकिन उन सब अनुभवों के बीच में निष्ठा ‘सच्चाई’ के प्रति क़ायम रहे। उसको बोलो कि वो बताएगी किधर जाना है। हो सकता है वो ये ही बता दे कि कोई एक राह मिल गयी है तुम उसी पर चलते रहो, मैं उस बात को भी मना नहीं कर रहा। पर अगर एक राह पर चलना भी है तो वो राह वो होनी चाहिए जो तुम्हें सच्चाई ने सुझायी है। वो राह ऐसी नहीं होनी चाहिए कि प्लेसमेंट डिपार्टमेंट ने सुझा दी।

पॉलीमैथ जानते हो क्या होता है?

प्र: नहीं, सर ।

आचार्य: तो पता करना क्या होता है, बड़ा मज़ा आएगा। जैसे ये जो ब्रेन होता है न, इसका हर हिस्सा पोषण माँगता है। आप अगर एक्सरसाइज़ करते हो तो आप ये तो नहीं करते न कि मुझे सिर्फ़ दायें हाथ की बायसेप्स बनानी है, पूरा शरीर ही आप मज़बूत रखते हो न? वैसे ही यहाँ भी ब्रेन में दुनिया के तमाम कामों के लिए हिस्से होतें हैं। आपको जीवन की पूर्णता को जीना होता है — द टोटलिटी ऑफ लाइफ़। ये नहीं करना होता है कि अब मै डॉक्टर हूँ अब मैं डांसर कैसे हो सकती हूँ? आप डॉक्टर और डांसर एक साथ क्यों नहीं हो सकते, क्यों नहीं हो सकते?

प्र: सर, आपने बोला कि पॉलीमैथ क्यों नहीं हो सकते, डॉक्टर और डांसर एक साथ क्यों नहीं हो सकते, पर आम-रूप में हम सोसाइटी में देखते हैं कि ज़्यादातर लोग एक ही प्रोफेशन में, एक ही राह में चलते हुए दिखते हैं हमको, चाहे वो उनके लिए अच्छी हो, चाहे वो उनके लिए बुरी ही क्यों न हो! मगर वो सम्मान इतना उन पर हावी हो जाता है वो उन्हें रोकता है दो चीज़ें एक साथ करने से, या फिर वो उनके अन्दर का ही एक भय होता है कि शायद मैं डांसर के साथ अगर डॉक्टर हूँ तो मैं दोनों में ही अच्छा न कर पाऊँ।

आचार्य: देखो, ‘अद्वैत’ आम लोगों के लिए नहीं होता। तुमने कहा न कि आम आदमी तो एक ही चीज़ पकड़कर वही करता रहता है, और अभी जो बातचीत हो रही है वो बातचीत ‘अद्वैत’ की रोशनी में हो रही है। आम ज़िन्दगी अगर जीनी है तो द्वैत काफ़ी है। पर आम ज़िन्दगी वैसे ही होती है जैसी जानते हो, कि तोंद निकालकर के बैठकर पॉपकॉर्न चबा रहे हैं और सामने मूवी चल रही है, देखते-देखते बीच में सो भी गये, एक तरफ़ को सिर ऐसे ठुलक गया और मुँह से लार निकल रही है। ये आम ज़िन्दगी की तस्वीर है। और बगल में तुम्हारी श्रीमती जी बैठी हुई हैं, वो खिसिया रही हैं कि ये बगल में बैठ गये हैं इनका सिर बार-बार आता है और सामने वहाँ तस्वीर में गाना-वाना चल रहा है, वो कोहनी भी मार दी तुमको, ये आम ज़िन्दगी है।

तो आम ज़िन्दगी की हम बात क्या करें, आम ज़िन्दगी चीज़ ही कैसी है? अजीब, गन्धाती-सी। जैसे प्याज़ सड़ गया हो, उसकी क्या बात करनी है! आम ज़िन्दगी कौन जीना चाहता है? क्यों जीते हैं लोग आम ज़िन्दगी? वही है, मोटे हो जाते हैं, शरीर से भी, मन में भी चर्बी भर जाती है। सड़क पर दौड़ लगाना भी ज़रूरी भले मोटे लोगों के लिए हो लेकिन दौड़ते तो सब पतले लोग ही पाये जाते हैं। ये अजीब बात है। तुम सड़क पर लोगों को दौड़ते देखो, उसमें तुम्हें मोटे लोग दिखेंगे या ज़्यादा छरहरे और फिट लोग दिखते हैं? जिनको ज़रूरत है दौड़ने की वो दौड़ेंगे नहीं। ये हो जाता है।

इसको प्रमाद कहते हैं, इसी को तामसिकता कहते हैं। जीवन ढर्रा-बद्ध हो जाता है, पैटर्न-बेस्ड हो जाता है। और आपके भीतर जान नहीं बचती कि आप उस ढर्रे को तोड़ सकें। जैसे मोटे आदमी में जान नहीं बचती कि वो खेलने निकल जाए, दौड़ने निकल जाए। वो थोड़ा सा चलेगा, फिर हाँफेगा; फिर दौड़ते-दौड़ते जलेबी की दुकान पर खड़ा हो जाएगा और बढ़िया दही-जलेबी खाएगा और वापस आकर सो जाएगा।

ऐसा हो जाता है इंसान, ऐसा नहीं होने देना है। आम ज़िन्दगी को अपना पैमाना नहीं बना लेना है। तुम लोग अभी एकदम ज़िन्दगी में प्रवेश कर रहे हो, ये एकदम नहीं होने देना है कि बोलो, ‘सब ऐसा करते हैं तो मैं भी ऐसा करूँगी।’ बिल्कुल नहीं। ये तर्क जैसे ही उठे तुरन्त ख़ारिज कर देना, कि सभी तो ऐसा करते हैं। अरे, करते होंगे, मुझे सबकी ज़िन्दगी जीनी है? मुझे दर्द होता है तो सब अनुभव करेंगे क्या? मेरी एक ज़िन्दगी है, मैं जीने वाली हूँ, मुझे देखने दो मुझे क्या करना है।

और ग़लतियाँ करना हक़ है हमारा लेकिन ग़लतियाँ भी निडर होनी चाहिए, मेक बोल्ड मिस्टेक्स। ग़लती होगी तो कुछ नया करने में हो, कुछ तेज़-तर्रार करने में हो।

ये थोड़ी कोई ग़लती है कि डरे हुए थे, बॉल आ रही थी और बल्ला उठाया मुँह के सामने कि कहीं गाल न फूट जाए? और ऐसे बल्ला उठाया, मुँह पीछे को कर रखा है! देखा है न बाउन्सर आती है, क्या करते हैं? नज़रे हटा ली गेंद से, मुँह पीछे को कर लिया, बल्ला ऐसे कर लिया और आकर के लगी बल्ले से, उछल गयी और कीपर ने कैच कर ली। अगर आउट होना भी है तो छक्का मारने की कोशिश में आउट होंगे। ऐसे नहीं आउट होंगे। मैं ये नहीं कह रहा हूँ कि हर गेंद में छक्का मारने लग जाओ, लेकिन किसी भी गेंद पर डरना नहीं है, ये बात पक्की है। अगर डिफेंड (बचाव) भी करना है तो वो भी निडर होकर करना है।

आम लोग पैमाना नहीं होते, आम लोगों में कुछ इतना अच्छा या ऊँचा नहीं है कि तुम उसका अनुकरण करने लग जाओ। तुम्हें अगर बात करनी है तो आम लोगों की नहीं करो, उन ख़ास लोगों की करो जिन्होंने ज़िन्दगी को हमारे लिए भी जीने लायक़ बना दिया। इतिहास में ऐसे मुट्ठी-भर लोग हुए हैं, कुछ सौ लोग या हज़ार लोग। उन सौ या हज़ार लोगों से मतलब रखो। गली का चम्पू और मोहल्ले की चम्पा क्या कर रही है, इससे तुम्हें कोई सरोकार नहीं होना चाहिए।

प्र: सर, एक और बात। जब मैं अपने बोर्ड में थी तब अपने डांस डिप्लोमा की तैयारी कर रही थी, और मैं अपनी शिक्षा और बाक़ी सारी चीज़ें भी कर रही थी। उस समय मेरे शिक्षक ने सुझाव दिया कि तुम एक काम करो ताकि तुम उसमें गहराई पा सको । सर, क्या यह वास्तव में तथ्यात्मक है या केवल अन्य लोगों के अनुसार बता रहे थे?

आचार्य: वो ये कह रहे हैं कि जो करो उसमें और ज़्यादा कुशलता हासिल करो, उसको वो 'डेप्थ' का नाम दे रहे हैं। उनकी बात अपनी जगह सही है कि जो आप कर रहे हो उसमें एक स्तर की ‘कुशलता’ स्किल आपको अर्जित करनी पड़ेगी, और कुशलता अभ्यास से आती है और अभ्यास समय माँगता है। ये उनका तर्क है, ये तर्क वाजिब है। पर इससे ऊँचा तर्क ये है कि जो डेप्थ तुमने कहा वो डेप्थ अपने भीतर पैदा होती है। ग़लत काम करके या आपनेआप को बाँधने वाला काम करके अगर तुमने डेप्थ हासिल कर ली, तो क्या? तुम्हें काम में डेप्थ बाद में हासिल करनी है, अपने भीतर डेप्थ पहले हासिल करनी है न?

तो भीतर डेप्थ हासिल करने के लिए अगर काम में तुम्हें विविधता लानी पड़े तो अच्छी बात है। इसमें कोई बहुत तारीफ़ की बात नहीं है कि आप लोहार बने और आप बहुत ज़बरदस्त रूप से कुशल लोहार बन गये लेकिन ज़िन्दगीभर रहे तो आप लोहार ही आये न? लोहार समझते हो? आयरन स्मिथ। वो ज़िन्दगी भर क्या कर रहा है? वो लोहा पीट रहा है, गरम करके लोहा पीट रहा है और डेप्थ बहुत आ गयी है उसके काम में, नम्बर एक का लोहार बन गया है। नम्बर एक का भले होगा, है तो लोहार ही। बहुत डेप्थ वाला हो लेकिन क्या है? बहुत डीप लोहार है।

तो इसमें कोई बात नहीं है कि एक काम करा, उसी में बहुत अन्दर तक घुस गये। एक काम क्या? कोई पॉकेटमार है, वो बहुत डेप्थ में जाकर पॉकेट मार लेता है, तो क्या करें? ताली बजाएँ? भारत रत्न दें तुमको? जो उनका तर्क है मैं समझ रहा हूँ, वो तर्क तब ठीक है जब तुमने पहले काम सही चुना हुआ है। डीप काम चुनो फिर उसमें डेप्थ लाने की बात करो।

अगर काम ही शैलो चुना है तो उस शैलो काम में अगर तुम डेप्थ हासिल कर लोगे तो ये तो और बड़ा हादसा हो जाएगा, ब्लंडर। कि काम घटिया था लेकिन उसमें साहब एकदम पारंगत हो गये। ग़लत काम में पारंगत हो जाना, ये तो बड़ी गड़बड़ हो गयी। ‘चार्ल्स सोभराज’ बन जाओगे। नम्बर एक के, लेकिन ‘ठग’।

प्र: धन्यवाद सर, मुझे बहुत खुशी हुई। धन्यवाद!

YouTube Link: https://www.youtube.com/watch?v=fb-yFja0yKU

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