निष्काम कर्म ही यज्ञ है || आचार्य प्रशांत, श्रीमद्भगवद्गीता पर (2022)

Acharya Prashant

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निष्काम कर्म ही यज्ञ है || आचार्य प्रशांत, श्रीमद्भगवद्गीता पर (2022)

देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः। परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ।।

यज्ञ से देवताओं को आगे बढ़ाओ, तो वो दैवत्य तुम्हारी उन्नति करेंगे। इस तरह परस्पर (आपस में) उन्नति करते हुए तुम परम श्रेय प्राप्त करते हो।

~ श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ३, श्लोक ११

आचार्य प्रशांत: तो निष्काम कर्मयोग के विषय में अर्जुन को समझा रहे हैं कृष्ण, और बता रहे हैं कि किस तरह ज्ञान और कर्म में अंततः महत्वपूर्ण तो कर्म ही है। और कर्म यदि किसी ने साध लिया निष्कामता के साथ, तो ज्ञान तो साथ-ही-साथ चला आता है, क्योंकि बिना आत्मज्ञान के निष्कामता हो ही नहीं सकती।

दो बातें यहाँ पर श्री कृष्ण ने समझा दीं – पहला, ज्ञान और कर्म अलग-अलग नहीं हैं। जो बिना ज्ञान के कर्म करे, उसका कर्म निश्चित रूप से सकाम होगा, क्योंकि अगर आत्मज्ञान नहीं है तो आपको पता ही नहीं होगा कि आप कौन हैं और आपको किसके लिए कर्म करना है। जब आप नहीं जानते कि आपको किसके लिए कर्म करना है तो आप अनिवार्यत: बस अपनी कामनाओं की पूर्ति के लिए ही कर्म करते हो।

कर्म तो सब जानवर वगैरह भी कर रहे हैं न? कर्म तो सब अनाड़ी-अज्ञानी लोग भी कर रहे हैं न? वो नहीं जानते, उन्हें कोई आत्मज्ञान नहीं है, लेकिन कर्म तो सभी कर रहे हैं। तो वो सारा कर्म किसके लिए कर रहे हैं फिर? वो अपनी कामनाओं की पूर्ति के लिए कर रहे हैं।

तो जब आत्मज्ञान नहीं होता तो कर्म हमेशा सकाम होता है, और वही सकाम कर्म धर्म के क्षेत्र में कर्मकांड के रूप में सामने आता है, जिसमें आप तमाम तरह की पूजा और यज्ञ और अनुष्ठान करते हो ताकि आपकी कामनाएँ पूरी हो सकें। आपके मंत्रों में भी अर्थ और भाव यही निहित होता है, कि ‘मैं तुमको फ़लानी सामग्री अर्पित कर रहा हूँ, हे देव! लो, मेरी इच्छाएँ पूरी कर दो।‘ ठीक है? तो व्यावहारिक तौर पर जो सकाम कर्म है, वही धार्मिक क्षेत्र में कर्मकांड बन जाता है। इसीलिए श्री कृष्ण बार-बार कर्मकांड से भी बचने को कह रहे हैं अर्जुन को। ठीक है?

अब निष्काम कर्म के लिए ही श्री कृष्ण एक दूसरा बड़ा रोचक और सुंदर नाम दे रहे हैं, वो क्या है? – यज्ञ। निष्काम कर्म का ही दूसरा नाम है यज्ञ, कि जिसमें जो तुमसे ऊपर है उसको तुम आहुति दे रहे हो। तुम कह रहे हो, ‘जो मेरे पास है वो मेरे लिए नहीं होना चाहिए, जो मेरे पास है वो मुझसे आगे के किसी उद्देश्य को अर्पित होना चाहिए, जो मेरे पास है वो मुझसे बड़े किसी उद्देश्य को अर्पित होना चाहिए’ – इसे यज्ञ कहते हैं।

उसी यज्ञ के बारे में ग्यारहवें श्लोक में क्या कह रहे हैं? कह रहे हैं, ‘यज्ञ से देवताओं को आगे बढ़ाओ (अपने भीतर के देवत्व को आगे बढ़ाओ), तो वो दैवत्य तुम्हारी उन्नति करेंगे।‘ तुम जब यज्ञ करते हो – देखिए कितनी रोचक बात है – तुम जब यज्ञ करते हो तो तुम अपने भीतर के देवत्व को आगे बढ़ाते हो, और जब तुम्हारे भीतर का देवत्व आगे बढ़ता है तो वो तुमको आगे बढ़ाता है।

‘इस तरह परस्पर आपस में उन्नति करते हुए तुम परम श्रेय प्राप्त करते हो।‘ ये क्या बात है? बात ये है कि आपके भीतर आपके ही मन के दो खंड होते हैं। एक खंड वो जो आत्मा की ओर आकर्षित होता है, जो आपको मान लीजिए इस जैसे किसी अवसर पर, इस स्थान पर लेकर के आया है। और आपके ही भीतर मन का एक दूसरा खंड है न जो आपको रोक रहा था यहाँ आने से, अड़चन पैदा कर रहा था या संदेह बता रहा था? ऐसा हुआ था कि नहीं?

तो मन के दो खंड हैं भीतर – एक जो आत्मा की ओर झुक रहा है, और एक जो भौतिकता की ओर, संदेह की ओर, संसार की ओर झुका हुआ है। कृष्ण कह रहे हैं, ‘जब तुम यज्ञ करते हो (माने) जब तुम सही काम में स्वयं को, अपनी ऊर्जा, अपने संसाधन, अपने समय, अपनी निष्ठा को लगाते हो, तो तुम्हारे ही मन का वो हिस्सा शक्ति पाता है, वर्धन पाता है, जो आत्मा की ओर झुका हुआ है।‘

निष्काम कर्म करके तुम अपने भीतर की सच्चाई को पोषित कर देते हो, ताक़तवर बना देते हो, बढ़ा देते हो। और जब तुम्हारे भीतर की सच्चाई बढ़ जाती है तो वो तुमको बढ़ा देती है। जब तुमको बढ़ा देती है तो तुम और ज़्यादा अपनेआप को सशक्त पाते हो सच्चाई के ही पक्ष में निर्णय करने के लिए। तो इस तरह से एक सुंदर चक्र निर्मित हो जाता है। तुम अपने भीतर की सच्चाई को लगातार वर्धित कर रहे हो, बढ़ा रहे हो। और जब वो बढ़ती है तो वो तुम्हारी ज़िंदगी को बढ़ा देती है।

कृष्ण कह रहे हैं, ‘इस तरह परस्पर एक-दूसरे को बढ़ाते हुए तुम परम कल्याण तक भी पहुँच जाते हो', (हाथ को घुमाते हुए) ऐसे-ऐसे, स्पाइरल , ऐसे घूमते-घूमते। तुमने उसको बढ़ाया, उसने तुमको बढ़ाया, और कुल मिलाकर के दोनों बढ़ते जा रहे हैं; अंततः दोनों आकाशलीन हो गए, दोनों अंततः उच्चतम अवस्था को प्राप्त हो गए।

ये समझ में आ रही है बात?

ये जीवन जीने का ही सूत्र बता दिया यहाँ कृष्ण ने। तुम तय करो कि तुम्हें अपना निर्माण किस तरह से करना है। तुम्हारे भीतर जो दो पक्ष हैं, ये तुम तय करोगे कि उसमें से किस पक्ष को तुमको प्रबलता देनी है; कोई और नहीं है। जीवन यज्ञ-सा रखोगे तो तुम्हारे भीतर जो सच्चा है, सुंदर है, तुम उसको बढ़ाते चलोगे। और जीवन को अगर कामनाओं की पूर्ति में लगा दोगे तो तुम्हारे भीतर जो घटिया है, कुरूप है, बेढंगा है, तुम उसकी वृद्धि करते चलोगे।

जीवन इसलिए नहीं है कि तुम्हारे भीतर जो कचरा है, तुम उसको और बढ़ा दो। और भीतर आपके दोनों चीज़ें मौजूद हैं – देवता भी, राक्षस भी; काला भी, सफ़ेद भी; प्रकाश भी, अंधकार भी। थोड़ी देर पहले मैं बात कर रहा था न कि एक चीज़ महत्वपूर्ण होती है – निर्णय, फ़ैसला। ये निर्णय आपको करना है कि अपने भीतर किस चीज़ को आपको संवर्धित करना है। अपने भीतर के देवता को आप बढ़ाएँगे, वो देवता आपको बढ़ा देगा; आप अपने भीतर के दानव को बढ़ाएँगे, वो आपकी ज़िंदगी बर्बाद कर देगा।

आपके भीतर का देवता जब बढ़ता है, वो आपको आशीर्वाद देता है; आपके भीतर का दानव जब बढ़ता है, वो आपको ही खा जाता है। और चुनाव आपको करना है किसको बढ़ाना है; बताइए किसको बढ़ाना है?

‘ये तो कितना सरल लग रहा है, देवता को बढ़ाना...‘ तो आज तक दानव को क्यों बढ़ाया? इतना सरल है तो आज तक चक्र उल्टा क्यों चलाया? कुछ तो होगा न दानव में जो हमें इतना आकर्षित करता है कि वो हमें खा जाने को तत्पर है तब भी हम उसे पोषण देते रहते हैं? भयानक बात क्या है जानते हैं? हम उन्हीं लोगों को ज़्यादा आसानी से पोषण देते हैं जो हमें खा जाने को तैयार हैं। आप अपनी मासिक आय देख लीजिए, आप अपने खर्चों का हिसाब देख लीजिए, और देखिए कि उसमें से कितना बड़ा हिस्सा उन जगहों पर जा रहा है जो जगहें आपको खाए जा रहीं हैं। आप बताइए दानव को पोषण कौन दे रहा है – संयोग, समाज, परिस्थितियाँ, या आप स्वयं?

अगर आपकी ज़िंदगी में कुछ समस्याएँ हैं तो ऐसा हो ही नहीं सकता कि आपने उनको पोषण न दिया हो। और कई बार तो बात इतनी नाटकीय हो जाती है कि वो पोषण सीधे-सीधे आपके बैंक स्टेटमेंट में दिखाई देता है; साफ़ दिखाई देता है – ‘देखो यहाँ पर इसने अपने दानव को पोषण दिया है, यहाँ इसने अपने दानव को पोषण दिया है, यहाँ दानव को पोषण दिया है।‘ वो आपकी ही दी हुई ख़ुराक पर ज़िन्दा है, और आपको ही खा रहा है।

अब बताओ सत्य नया हो सकता है क्या? इसमें नया क्या है? कम-से-कम तीन-साढ़े-तीन हज़ार साल पुरानी है गीता, और कृष्ण आपके आज के बैंक स्टेटमेंट का हाल जानते थे; बस भाषा बदल गई है। अब इसमें ‘यज्ञ’ लिखा हुआ है, अगर आप समझेंगे नहीं यज्ञ क्या है तो ऐसा लगेगा कि वो जो लकड़ी जलाने का काम होता है उसकी बात हो रही है। आप जानेंगे नहीं कि यहाँ पर ‘देवता’ शब्द से क्या अर्थ है तो आपको लगेगा कि इंद्र और वरुण आदि की बात हो रही है। यहाँ इंद्र और वरुण वगैरह की नहीं बात हो रही है, न यहाँ पर लकड़ी को आग लगाने की बात हो रही है। यहाँ पर आपके जीवन की, आपके प्रतिदिन के निर्णयों की बात हो रही है।

निष्काम कर्म के लिए एक अच्छा प्रतीक यज्ञ इसलिए है क्योंकि इसमें अग्नि है, ज्वाला है; नकार है, नेति-नेति। कुछ हटाया जा रहा है, मिटाया जा रहा है, जलाया जा रहा है। कुछ जो अपने पास है, उसको अर्पित करके उससे मुक्त हुआ जा रहा है – 'इसे मैं अपने पास रखूँ क्यों, इसको वहाँ होना चाहिए जहाँ इसका स्थान है, जहाँ इसकी उपयोगिता है।'

इसीलिए गीता को उपनिषदों का अमृत कहा जाता है। एक स्थान पर ऐसे कहा गया है कि उपनिषद् गायें हैं, कृष्ण ग्वाले हैं, अर्जुन छोटे-से बालक हैं, उनको दूध पिलाया जा रहा है, उसका नाम है गीता। सब उपनिषदों को लेकर के जो उसमें से अमृत निकलता है, उसको गीता कहते हैं।

तो उपनिषदों की ही जो विधि है नेति-नेति की, वही गीता में भी पायी जाती है, पर और ज़्यादा जीवंत, सुरुचिपूर्ण और नाटकीय ढंग से। तो आप उपनिषदों को लेंगे, वहाँ सीधे ऋषि कह देंगे। अब ऋषि ऋषि हैं, कृष्ण कृष्ण हैं। ऋषि का तरीका ज़्यादा सीधा होता है, तो ऋषि सीधे कह देंगे, ‘नेति-नेति।’ कृष्ण उतने सीधे नहीं हैं, कृष्ण कलाकार हैं, तो कृष्ण कहेंगे, ‘यज्ञ में आहुति।’ बात दोनों एक ही कह रहे हैं – ‘जला दो।’ यही जीवन जीने का तरीका है – जो सही नहीं है उसको जलाते चलो, बड़ा अच्छा लगेगा, मुक्त होते चलोगे, आनंदित रहोगे।

क्यों ढो रहे हो? बहुत छोटी है ज़िंदगी, किसको जवाब देना है? दस-बीस साल बाद न तुम रहोगे, न वो रहेगा जिसको जवाब देने के भय से मरे जा रहे हो आज ही। किसकी नज़रों में ऊँचा बनकर जीना है, दूसरे की? दूसरा कोई अर्थ नहीं रखता। अपनी नज़रों में भी ऊँचा बनकर जीने का कोई अर्थ नहीं, क्योंकि तुम्हारी नज़रें भी अभी जल ही जानी हैं। तो ये ऊँचा-नीचा छोड़ो, सच्चा जीवन जियो। क्या छोड़ने के डर से काँपे रहते हो? श्मशान की राख देख लो और वहाँ बता दो उसने क्या-क्या पकड़ रखा है; वो तुम हो।

जब यज्ञ में आहुति देनी हो तो उसको मान लो जैसे चिता जैसा है वो, उसमें अपनी ही आहुति दे देनी है। और जो अपनी आहुति दे देता है देवत्व को, वो देवता जैसा ही हो जाता है। बोल तो रहा है कि, ‘देवता को दिया, इंद्र को ये दिया, वरुण को ये दिया।‘ वो ‘तू तू करता तू हुआ’, देवता को देते-देते देवता हुआ। और दानव को पोषण देते रहोगे तो वो तुम्हें दानव ही बना देगा, वैंपायर जैसे।

वैंपायर क्या करते हैं? वो जिसको खाते हैं – मैंने कहा था न दानव को पोषण दोगे तो तुम्हें खा जाएगा। अभी कहा कि दानव को पोषण दोगे तो तुम्हें दानव बना देगा। ये दोनों बातें किसमें होतीं हैं? वैंपायर में – वो तुम्हें खा जाता है, और जब वो तुम्हें खा जाता है तो तुम्हें क्या बना देता है? तुम भी वैंपायर बन जाते हो, ऐसा होता है भीतरी दानव। उसको पोषण मत दो, उसको बोलो, ‘फ़ास्टिंग, फ़ास्टिंग; तुम बेटा व्रत करो।‘

भीतर दानव बैठा है कि नहीं बैठा है? या आप इतने अच्छे लोग हैं कि 'नहीं, नहीं, आचार्य जी। शायद आचार्य जी आपके भीतर बैठा है इसलिए आपको लग रहा है हमारे भीतर भी।' मेरे भीतर तो है भाई, आपके पता नहीं।

(श्रोताओं से पूछते हुए) है भीतर?

अगर है तो उसका दाना-पानी बंद करो, बंद। जो भी माँग करे, खारिज – 'नहीं देंगे।'

दिक्क़त बस ये है कि वो जो भीतर बैठा है वो वैसा नहीं दिखता जैसा टी.वी. सीरियल के दानव दिखते हैं। टी.वी. सीरियल वालों के ये लंबे दाँत, ये नुकीले यहाँ (सर पर) सींग निकले होते हैं, और वो गंदे से दिख रहे होते हैं, आठ महीने से नहाए नहीं। और ये उनके ऐसे जटा-जूट बाल हो गए हैं और ‘हा-हा-हा’ करके हँस रहे हैं। भीतरी दानव ऐसा नहीं होता, बड़ा सुंदर दिखता है, चित्त हर लेता है बिलकुल; वरना आपको लूट कैसे पाता? उसको पहचानना पड़ेगा – 'ये दानव है भीतर का। ये मेरा मित्र नहीं, ये मेरी पहचान नहीं, ये मेरी सच्चाई नहीं; ये मेरा दानव है।'

यज्ञ का यही अर्थ है – जो सही है उसको सबकुछ अर्पित कर देना; जो सही नहीं है उसका हुक्का-पानी बंद, कुछ भी नहीं। और ये दोनों साथ चलते हैं, इनमें आप एक संतुलन नहीं स्थापित कर पाओगे। आप ये नहीं कर पाओगे कि ‘थोड़ा इसको, थोड़ा इसको', ऐसे नहीं होता, क्योंकि संतुलन स्थापित करोगे तो जीतेगा दानव ही, वो ज़्यादा चालाक है। जो भीतर का देवता है न, वो भोला है, वो बहुत आग्रही भी नहीं है। दानव दानव के जैसा है – कुटिल भी, कामुक भी। उसके आग्रहों, उसकी माँगों का कोई अंत नहीं है, और उसके लिए वो कई तरीके के कुटिल उपाय करना जानता है। देवता ये सब जानता ही नहीं, तो इसलिए देवता को खिलाना पड़ता है बच्चे की तरह।

आपने देखा है कभी कैसे करते हैं? आपमें से जो लोग बैठे हों हवन वगैरह में, तो पंडित ने आपको हो सकता है बोला होगा, कि 'ऐसे डालो जैसे बच्चे को खाना खिलाते हैं'। बोला है कभी? 'ऐसे अर्पित करो जैसे बच्चे को खिलाते हो।' तो देवता बच्चे जैसा है, उसको बच्चे की तरह खिलाना पड़ता है। और दानव दानव है, वो छीनकर खाता है। देवता को मना-मनाकर देना पड़ता है, 'अच्छा ले लो, खा लो।‘ दानव कहता है, ‘अभी रुको, मैं बताता हूँ।‘

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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