प्रश्नकर्ता: सर, जब हम वहाँ बैठे हुए थे, तो थोड़ी थकान-सी लग रही थी, और ठण्ड भी लग रही थी। फिर मेरे मन में सवाल उठा कि “मैं यहाँ क्यों हूँ?” शहर में ठाठ थी, कितने आराम से था। तब तो मैंने अपने मन को समझाया इस संदेह को लेकर। फिर भजन गाने लग गया और गाते-गाते पता भी नहीं चला कि संदेह और ठण्ड कहाँ गए। ऐसे सवालों और संदेह का क्या करें?
अक्सह्र्य प्रशांत: इस तरह के सवाल आएँगे। देखो ज़्यादातर लोग जो तुम यहाँ बैठे हो, तुमको आध्यात्मिक साहित्य में कुछ मूलभूत श्रद्धा तो हो गयी है। हो गयी है न? तुम्हारी वो हालत तो अब रही नहीं है कि कोई तुम्हारे सामने कबीर का नाम ले और तुम मुँह बना लो। मुझपर भी तुम कुछ यकीन करने लग गए हो। तो मन में जब ऐसे सवाल उठेंगे कि “मैं यहाँ क्यों हूँ?” तो तुम्हें ऐसा लगेगा कि तुमने कोई बड़ी ग़लती कर दी है कि “मैं ऐसा कैसे सोच सकता हूँ?”
या तुम्हारे मन में ख्याल उठेगा कि “सर बोर कर रहे हैं, नाहक परेशान कर रहे हैं।” और तुम बोलोगे “छी-छी, ऐसा कैसे सोच रहा हूँ!” और भी सोच सकते हो, पचासों बातें हैं। तो कोई ज़रूरत नहीं है उन ख्यालों को या उन सवालों को दबा देने की। अभी हफ़्ते-दो-हफ़्ते पहले हमने बोध-सत्र में ‘दमन’ शब्द को भी समझा था। तो दमन क्या था? कोई था उस सत्र में तो बताए कि दमन क्या था।
प्र: सवाल उठा और उसको दबाने की कोशिश शुरू हो गयी।
आचार्य: हाँ, पर हमने कहा था कि जब कृष्ण कहते हैं कि 'दमन उपयोगी है', तो दमन क्या है?
प्र: सूक्ष्म-विचार।
आचार्य: सूक्ष्म-विचार है न? तो एक बात अगर मन में उठ ही गयी है, तो करो न, उसका सूक्ष्म-विश्लेषण कर ही डालो। अब मन ये सवाल पूछ ही रहा है कि “मैं यहाँ क्यों हूँ?” तो आओ भाई बात कर ही लेते हैं न! मन अगर ये कह ही रहा है कि, "सर फ़िज़ूल बात कर रहे हैं", तो ठीक है, ये सोच कर न तुमने अपराध कर दिया और न ही तुमने कोई धोखा कर दिया है किसी के साथ। मन में बात उठी है, तो कर लो उसका अच्छे-से विश्लेषण, कर ही लो।
‘मैं यहाँ क्यों हूँ?’ इसका जवाब होना चाहिए। और अगर ये प्रश्न उठ रहा है, तो इसका उत्तर भी ढूँढ लो। नहीं तो प्रश्न पीछा नहीं छोड़ेगा। यही चाहते हो? और तुम कहोगे, “छी-छी, गन्दा सवाल, फिर आ गया। ये तो अधार्मिक ख्याल है, और मेरे मन में आ रहा है।” “अरे अरे अरे! सर जैसे-से गुरुदेव के लिए मेरे मन में ये कैसे विचार आ रहे हैं?” मन में विचार आ ही रहे हैं, जब आ ही रहे हैं तो उसके साथ बैठो, बात करो। क्या पता उसमें कुछ तत्व हो ही। और तत्व हो चाहे ना हो, एक बात पक्की है कि उसको फालतू दबाओगे तो वो कहीं जाने-वाने का नहीं है। वो कभी इधर से, तो कभी उधर से, अपना सर तो उठाएगा ही।
श्रद्धा का मतलब अंधविश्वास नहीं होता है। श्रद्धा का मतलब अंधविश्वास थोड़े-ही होता है। अब मैं तुम्हारे सामने बैठा हूँ और तुम्हें अच्छे से पता है कि मैं खाने के मामले में थोड़ा ढीला हूँ। और तुम अगर देख रहे हो कि उल्टा-पुल्टा खा रहा हूँ, और तुम टोको नहीं और कहो कि, “सर हैं, सर ग़लती कैसे कर सकते हैं!” तो तुम पागलपने की बात कर रहे हो।
(सभी हँसते हैं)
मैं यहाँ बैठा हूँ। पीछे से कुछ आ रहा है, और तुम बताओ ना और कहो कि, “अरे सर हैं, उन्हें तो पता ही होगा।” या तो ये तर्क दो कि “अब हम इतने होशियार हो गए कि सर को बताएँगे?” और कोई पीछे से आए और पाजामा खींच कर चला जाए।
(सभी हँसते हैं)
‘नथिंग एट ऑल इज़ अबव इन्क्वायरी’; नथिंग एट ऑल एंड नोबडी एट ऑल (कोई भी चीज़ जाँच से बड़ी नहीं होती, ना कोई चीज़, ना कोई व्यक्ति)। ये सब बातें न कि, गुरु-चरण स्पर्श या कुछ और, ये बहुत सूक्ष्म बातें हैं और ये ऐसे नहीं होती हैं। तुम्हारे ग्रुप का कोई स्टूडेंट है, और वो ये सब कर रहा है, तो ये तुम्हारा फ़र्ज़ है कि तुम उसको रोको। कुछ नहीं होगा बस वो ब्लाइंड-बिलीव (अन्धविश्वास) बन जाएगी एंड फेथ इज़ नॉट ब्लाइंड-बिलिफ (श्रद्धा अन्धविश्वास नहीं होती)|
क्या तुम्हें लगता है कि ये स्टूडेंट्स (विद्यार्थी) अभी ही श्रद्धा के लायक हैं? ये पैर-वैर छूना, ये बहुत महीन बात होती हैं। इन सबकी कभी इजाज़त मत दो। ये बहुत गहरे भाव से आती है तो आए, नहीं तो नहीं आए। उसे ज़बरदस्ती लाया नहीं जा सकता।
अभी हम जैसे ये सत्र कर रहे हैं, इसमें भी जान तब आती है जब तुम कोई बात पूछो जो असली हो। अब सब बैठ जाओ और कहो “सब अच्छा है, सब अच्छा है; बहुत बढ़िया, वाह वाह वाह!” तो फिर क्या है? कुछ नहीं। ठीक है फिर तो, जाओ, जाकर सो जाओ। और कितना अच्छा है, वो तुम्हें भी पता है। अभी घर लौटोगे तो कितना अच्छा है, सब पता चल जाएगा; सब खुल जाना है। असली मुद्दों को सामने लाओ; उन्हें छुपाओ मत।
प्र: पर सर, संत कबीर और गुरु नानक के दोहों में तो कहा गया है कि डाउट इज़ द प्रॉब्लम (संदेह ही समस्या है)।
आचार्य: नहीं! संदेह समस्या है लेकिन तब, जब तुम नानक के बराबर ही खड़े हो। ऐसे स्तर पर जहाँ हम हैं, संदेह समस्या नहीं है। बल्कि वो तो एक ज़रिया है, ज़रूरत की चीज़ है। और जो लोग यहाँ हैं उनमें से कई लोग तो एकदम नए हैं। उनका तो संदेह करना ज़रूरी है। पुराने लोग संदेह ना करें तो वो एक बार समझ में भी आता है। पर नए लोग संदेह ना करें, तो गड़बड़ है, इन्हें तो संदेह करना चाहिए। पर इनकी प्रॉब्लम ये है कि ये संदेह नहीं करते हैं। ये तो इनके दिमाग में जो भी भर दिया गया है, जो भी है, ये उसी को माने चले रहते हैं।
अविचार से विचार तक आने का ज़रिया संदेह ही तो है, और क्या है? संदेह ही तो है।
संदेह समस्या बनता है सिर्फ़ आखिरी बिंदु पर। वो बिंदु पूर्ण श्रद्धा का होता है। पर आखिरी बिंदु पर यहाँ कौन आ रहा है? तो अभी तो संदेह है तो अच्छी बात है, जितना हो सके उतना संदेह करो। और फिर उस संदेह को पूरा खत्म होने दो। और याद रखो कि खत्म करने का ये मतलब नहीं है कि उसे दबा दिया जाए। खत्म करना मतलब है कि उसकी पूरी ऊर्जा को जल जाने दो। उसमें जितनी आग थी, तुमने जला दी। समझ रहे हो न?
अब जल गया, खत्म हो गया। संदेह को खत्म होना ही चाहिए।
तुम्हारा जो भी संदेह है, उसको सामने रखो। तुम्हारी अपनी विचारणा से खत्म हो जाता है तो अच्छी बात है। अपने से नहीं होता है तो मेरे सामने रख लो। और अगर संदेह इतना घना है कि मेरे सामने भी रखने से घबराते हो तो कहीं और जाकर रख लो। जो भी तरीके तुम्हें उचित लगते हैं, उनसे उनकी जाँच करो। पर संदेह है, तो है, अच्छी बात है संदेह।
(छात्रों की ओर इशारा करते हुए) अभी ये सब बच्चे हैं, ये घर लौटेंगे जितनी बातें यहाँ सुनी है। तुम्हें क्या लगता है उसको ये सर-माथे रखेंगे? इन्हें तुरंत संदेह हो जाना है। बस अब जब संदेह आए तो उस संदेह को सम्बोधित करो और समाधान ढूँढो उसका।