निर्वासना निरालंब स्वच्छंद बंधनमुक्त

Acharya Prashant

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निर्वासना निरालंब स्वच्छंद बंधनमुक्त

निर्वासनो निरालंब: स्वच्छन्दो मुक्तबन्धनः । क्षिप्त: संस्कारवातेन चेष्टते शुष्कपर्णवत् ।।

~ अष्टावक्र गीता, अध्याय १८, श्लोक २१

अनुवाद: वह वासना, आलंबन, परतंत्रता आदि के बंधनों से स्वच्छंद होता है। प्रारब्ध रूपी वायु के वेग से उसका शरीर उसी प्रकार गतिशील रहता है, जैसे वायु वेग से सूखा पत्ता।

आचार्य प्रशांत: शुष्कपर्णवत् वह जीता है, जैसे सूखा हुआ पत्ता। निर्विरोध प्रकृति के पूर्ण बहाव में, निर्बाध। अपना कोई मंतव्य नहीं, अपनी कोई मंज़िल नहीं। हमें मंज़िल हासिल है। अब स्थितियाँ जहाँ ले जाएँ, वहाँ चले जाएँगे। अब हवाएँ जो करा दें, जहाँ पहुँचा दें वही ठीक।

प्रकृति जैसा हो जाना, प्रकृति के साथ एक हो जाना ही मनुष्य की उच्चतम संभावना है।

सत्य को मनुष्य प्रकृति के अलावा और कहीं पा नहीं सकता। शुष्कपर्णवत् जैसे पेड़ का एक सूखा पत्ता प्रकृति के साथ एक है। प्रकृति से ही उठा और प्राकृतिक हवाओं से ही अब वह आश्रित है। और फिर मिट्टी में पड़ जाएगा या नदी में बह जाएगा। प्रकृति की गोद में वापस चला जाएगा। उस गोद में जिससे वह कभी बाहर आया ही नहीं। मनुष्य के लिए भी उसके अलावा कोई संभावना नहीं। प्रकृति परमात्मा के जितने करीब है, आदमी को प्रकृति के उतने ही करीब जाना पड़ेगा। इंसान होता तो प्राकृतिक है पर वो प्रकृति के ऊपर एक मानसिक, सामाजिक आवरण भी तैयार कर लेता है। पशु मात्र प्राकृतिक है। हम प्राकृतिक तो हैं पर प्राकृतिक से ज़्यादा मानसिक हो गए हैं। हमने प्रकृति के ऊपर मन की तह चढ़ा दी है।

इंसान को प्रकृति तक वापस जाना पड़ेगा। वही उसके लिए रास्ता है। वहीं उसको समझ में आएगा परमात्मा का स्वभाव। प्रकृति को देख कर ही इंसान जान सकता है कि परमात्मा कैसा है।

सभ्यता यदि हो भी तो वह ऐसी हो जो उसकी प्रकृति के और करीब ले जाए। इंसान को सभ्यता चाहिए। इंसान सभ्यता में ही जीयेगा क्योंकि इंसान के पास बुद्धि है। जहाँ बुद्धि है वहाँ सभ्यता का खड़ा होना तय है। इंसान कुछ तो धारणाएँ बनाएगा, कुछ तो नियम खड़े करेगा, कुछ तो व्यवस्था स्थापित करेगा। बुद्धि को कुछ-न-कुछ करना है ये बात पक्की है लेकिन बुद्धि जो करे वो ऐसे करे कि वो बुद्धि की ही काट हो। सभ्यता जो स्थापित हो, वो ऐसी स्थापित हो जो मन की बेचैन प्रवृत्तियों को शांत करे। आदमी अकेला है जो ज्ञान पिपासु होता है। सभ्यता ऐसी हो जो ज्ञान दे, वो ज्ञान जो ज्ञान की पिपासा को ही शांत कर दे। सभ्यता ऐसी हो जो मनुष्य को प्रकृति के करीब ले जाए और सभ्यता अपरिहार्य है।

हम जैसे हैं तो हम भाषा रचेंगे, हम जैसे हैं हम ज्ञान रचेंगे। भाषा, ज्ञान ये सब हमको हम तक करीब ले आए।

अष्टावक्र कहते हैं, 'स्वच्छंद'। वह स्वच्छंद होता है। वासना, आलंबन, परतंत्रता तीन शब्द हैं, एक पढ़िएगा। जहाँ वासना है वहाँ आलंबन को देख लीजिएगा, निर्भरता। और जहाँ आलंबन है, वहाँ परतंत्रता को देख लीजिएगा।

वासना का अर्थ ही है कहीं जा करके बैठ जाना, वासित हो जाना।

अब वहाँ अटक गए, अब वहाँ पकड़े गए, शुरू हो गई परतंत्रता।

तत्वज्ञ मुक्त रहता है वासना से, आलंबन से, परतंत्रता से। तत्वज्ञ को जब बाहर किसी की चाहत ही नहीं तो बाहर वाला उसे पकड़ कैसे लेगा? और बाहर वाला यदि उसे पकड़ भी ले तो उसे कुछ खो देने का खौफ ही नहीं। तो वो उस पकड़ से फिर छूटना भी क्यों चाहेगा? जब तुम किसी की पकड़ से छूटना ही ना चाहो तो जान लेना उसने तुम्हें पकड़ा ही नहीं। पकड़ का प्रमाण ही है पकड़ का विरोध। परमात्मा भी तुम्हें पकड़ता है, सत्य भी तुम्हें पकड़ता है, प्रेम भी तुम्हें पकड़ता है पर इन से तुम छूटना नहीं चाहते। ये पूरे तरीके से तुम पर कब्ज़ा कर लेते हैं, तुम्हें दास बना लेते हैं, तुम्हारे मन को हर लेते हैं। पर तुम्हें इनकी ग़ुलामी बड़ी शीतल लगती है, बड़ी मीठी। जहाँ ग़ुलामी शीतल लगने लग जाए, जान लेना कि ग़ुलाम हुए ही नहीं। ये तो मालिक का आलिंगन है। जिस क़ैद से छूटने का मन ना करे तो जान लेना कि परम मुक्ति है।

परमात्मा वही क़ैद है जिस क़ैद में आकर के मन मुक्त हो जाता है। तत्वज्ञ को अब उसने पकड़ लिया है जिसकी पकड़ से कोई निजात नहीं। तो जो ऐरे-गैरे हैं, उसे पकड़ सकते ही नहीं। इसीलिए वो ऐरो-गैरों को इतनी छूट देते हैं कि, 'आओ पकड़ लो'। जो सत्य का हो गया वो और अब किसी का हो सकता नहीं। क्योंकि सत्य के अतिरिक्त और कुछ वास्तविक होता नहीं।

सत्य के अतिरिक्त और जो कुछ है, वो झूठ ही है। सत्य के हो गए आप एक बार, तो आपको अब किसी की पकड़ से डर क्या लगना है? आप कहेंगे, 'आओ पकड़ लो। तुम मुझे पकड़ोगे कैसे, तुम्हारी पकड़ सच होगी कैसे, जब स्वंय तुम झूठ हो। और तुम झूठ हो इसका प्रमाण यह है कि सच ने मुझे पहले ही पकड़ा हुआ है। उसके बाद भी तुम मुझे पकड़ने आ रहे हो, निश्चित ही तुम झूठ होओगे। और अगर तुम झूठ हो तो आओ पकड़ लो। तुम हमारा क्या बिगाड़ लोगे? तुम हो ही नहीं। जब तुम झूठे तो तुम्हारी पकड़ भी झूठी। आओ पकड़ो, घेर लो हमें। देखें तो कौन सी रस्सी लेकर तुम सागर बाँधने निकले हो। देखें तो कौन सा फीता लेकर तुम प्रमाण नापने निकले हो, आओ पकड़ो!" कि जैसे भुनगा सूरज की यात्रा पर निकला हो, "आओ चलें, चलें सूरज तक!" एक छोटी सी लौ भी तुम्हें जला जाती हैं। सूरज तो तुमसे यही कहेगा हँसकर कि, 'आ मेरे पास और इतनी ज़ोर से पंख फड़फड़ा कि मैं बुझ जाऊँ।' अष्टावक्र वो सूरज हैं, संसार वो भूमिका है। वो तो उसे कहते हैं, "आ बाँध मुझे!" बंधनी से भागता नहीं है वो जो मुक्त हो गया है। क्योंकि वो बँध सकता नहीं, इसीलिए अब वो सौ-सौ बंधनों में कूदता है। तुम्हें अब चोट लग सकती नहीं, इसका सबूत इसी बात से मिलेगा कि अब तुम चोटें बहुत खाओगे।

"गगन दमदमा बाजिया, पड़ीया निशाननी घाव।"

क्योंकि अब तुम्हें घाव लग सकते नहीं, इसीलिए तुम्हें घाव निशान ही मिलेंगे।

"खेत बोघरिया सूरमा, मुझे मरण का चाव।"

क्योंकि अब तुम मर सकते नहीं, इसीलिए अब तुम्हें मरने का चाव पैदा होगा।

जो भी मर सकते हैं वो तो मरने से डरेंगे। जिन्हें अभी चोट लग सकती है वो तो चोट से भागेंगे। जिन्हें चोट लग सकती है, उन्हें चोटें लगेंगी, वो चोटें खाएँगे। जो डर सकते हैं अकसर वो तुम्हें डरे हुए नहीं नज़र आएँगे। क्योंकि वो इतने डरे हुए हैं कि डर के करीब ही ना जाएँगे।

जो डर नहीं सकते तुम उन्हीं को पाओगे डर के करीब जाते हुए भी, डर में सिहर जाते हुए भी। क्योंकि सिहरन उनकी वैसे ही होगी जैसे हवा में शुष्कपर्ण काँपे। हवा चलती है, सूखा पत्ता काँप जाता है। हवा चलती है तो क्या जड़ भी काँप जाती है? तो जो अब डर सकते नहीं, जो जड़ में स्थापित हैं, वो तो पत्ते की तरह थर-थर काँपेंगे। क्योंकि उनकी जड़ें अब काँप सकती नहीं। वो प्रकृतिस्थ रहेंगे, वो खूनी हवाओं को आमंत्रण देंगे, "आओ हमें कँपाओं!" और जब आए तो काँप भी जाएँगे और जो डर सकते हैं वो घरों में क़ैद रहेंगे। जब हवा चलेगी वो काँपते नज़र नहीं आएँगे। तुम धोखा मत खा जाना। जिसको हवाओं से काँपते देखो, जान लेना कि वही है जो काँप सकता नहीं। और जिसको हवाओं में काँपते ना देखो, तो जान लेना इसने अपने चारों ओर दीवारें खड़ी कर ली हैं, सुरक्षा के लिए। ये तो पहले से ही बहुत कम्पित है। ये बात ज़रा उल्टी-पुल्टी है।

प्रश्नकर्ता: प्रारब्ध शब्द का क्या मतलब है?

आचार्य: जो कुछ समय, स्थान, प्रकृति दे दे, वही प्रारब्ध। प्रारब्ध का अर्थ है, 'आप कहाँ हो?' प्रारब्ध का अर्थ है समय में, काल में, देश में, जगह में, संयोग में आप कहाँ पर हो, वही प्रारब्ध है। वहाँ पर जो कुछ हो रहा होता है आप उसके भोगता बनते हो। कहाँ पैदा हो गए? मौसम कैसा है? सामाजिक माहौल कैसा है? किसी दूसरे देश की सीमा चढ़ी तो नहीं आ रही? सूखा तो नहीं पड़ रहा? कैसा समय चल रहा है? किस काल में पैदा हुए हो? जगह कैसी है? लोग कैसे हैं? सभ्यता कैसी है वहाँ की? किस धर्म का पालन होता है? ये सब प्रारब्ध है।

कैसे लोग हैं वहाँ के, अमीर हैं, गरीब हैं, संपन्नता है, गरीबी है, फटहाली है, क्या है? ये सब प्रारब्ध है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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