निराकार तो मनातीत, साकार राम से होगी प्रीत || श्रीरामचरितमानस पर (2017)

Acharya Prashant

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निराकार तो मनातीत, साकार राम से होगी प्रीत || श्रीरामचरितमानस पर (2017)

भगत हेतु भगवान प्रभु राम धरेउ तनु भूप। किए चरित पावन परम प्राकृत नर अनुरूप।।

~ संत तुलसीदास

आचार्य प्रशांत: भक्तों के हित की ख़ातिर ही, राम-ब्रह्म (ब्रह्म-राम) ने मनुष्य राम का शरीर-रूप धारण किया, और धरती पर मनुष्य-संबंधी, मनुष्य के तल पर बहुत सारी लीलाएँ करीं।

खोट मत ढूँढने लग जाना। ये तर्क बहुत बढ़िया है, जब तक वो दूर रहे तो तुम कह दो कि, "तुम तो इतने दूर हो, हमारा तुमसे नाता क्या, हम तुम्हें जानते नहीं!" और जब वो तुम्हारे समीप आने के लिए तुम्हारे तल पर उतर आए, कुछ-कुछ तुम्हारे समान आचरण करने लगे, तब तुम उससे कह दो कि, "तुम तो हमारे ही जैसे हो, हमारा तुमसे नाता क्या!" अवतारों के चरित्र में खोट ढूँढना बहुत आसान है। और उसमें बड़ा रस आता है, बचे रहने का मौका मिल जाता है न।

जो भी तुम्हारी मदद करने आएगा, तुम्हारे सीमित हाथ को अपने हाथ में लेने के लिए हाथ ही तो बढ़ाएगा। असीमित का हाथ थाम पाओगे? किसी का हाथ कहीं ख़त्म ही होने में ना आता हो, थाम पाओगे? पर तुम्हारा तर्क देखो क्या होगा। तुम्हारा तर्क ये होगा कि, "इसका हाथ तो सीमित है, और मैं भी क्या हूँ? सीमित हूँ। जब ये मेरे ही जैसा है तो मैं इसे श्रेष्ठ मानकर इसका अनुकरण क्यों करूँ, इसका सहारा क्यों लूँ?"

जब वो श्रेष्ठ था, तब तुम सहारा ले ही नहीं सकते थे, इसलिए क्योंकि वो श्रेष्ठ है, दूर बहुत है। और वो तुम्हारे तल पर उतरे, तुम्हारे घर में उतरे, तो तुम कहोगे, "ये, ये तो इधर के ही हैं। हमारे ही घर के आसपास भटकते रहते हैं; लोकल हैं।" अरे, वो तुम्हारे ही घर के आसपास हैं, पर लोकल नहीं इंपोर्टेड (आयातित) हैं, किसी और आयाम से उतरा है। ये समझने के लिए तुलसी का मन चाहिए।

आप जब तक ऊपर थे तब तक तो महान थे ही, हम झुकते थे आपके सामने, वंदना करते थे, पर आप अब जब नीचे आ गए हो, तो आप न सिर्फ़ महान हो बल्कि करुणावान भी हो। परमात्मा जब अदृश्य-अरूप है, तब तक सिर्फ़ साक्षात ब्रह्म है। पर जब तुम्हारे सामने आ जाए छोटा-सा होकर, न्यून होकर, लघु होकर, जीव होकर—तब वो महान तो है ही, महिमावान भी है, करुणावान भी है, प्रेमवान भी है।

बड़ा जब छोटे की ख़ातिर छोटा हो जाए, तो जान लो कि वो और बड़ा हो गया। पर ये जानना सिर्फ़ किसी तुलसी के लिए ही संभव होता है। दोहरा रहा हूँ, बड़ा जब छोटे की ख़ातिर छोटा हो जाए तो जान लो कि और बड़ा हो गया। संभव नहीं होता है ये सबके लिए। हिमालय की ऊँचाइयों पर चढ़कर भगवत प्राप्ति का यत्न तो बहुतों ने किया है, लेकिन ये साहस, ये दुःसाहस, ये दैवीय साहस किसी-किसी में ही होता है कि वो अपने-आपको कीचड़ में, रसातल में डुबो दे, और वहाँ जो आख़िरी, हीनतम इंसान बैठा हो, उसके प्रेम में, उसकी सेवा में भगवान को पाए।

इसमें तो बड़ी उपलब्धि है, बड़ा अहंकार है, कि, "दुनिया को छोड़ करके मैं दुनिया के तल से ऊपर हिमालय की चोटी पर चढ़ गया, और वहाँ मैंने भगवान को पा लिया, सत्य को पा लिया। मैं विजेता हूँ। मेरा अभियान सफल रहा।" ये वैसी ही बात है कि जैसे कोई राजा सेना ले करके पहाड़ को पार करके कोई देश जीत ले, वैसे ही तुम भी पहाड़ की चोटी पर चढ़कर भगवान जीत आए। अभियान हैं दोनों। सिकन्दर हो गए तुम। तुमसे कहीं ज़्यादा बड़ा वो हुआ जिसको अब चोटी पर जाने की ज़रूरत ही नहीं, जो कहता है कि, "चोटियों पर नहीं जाना। चोटियों पर तो वो जाते हैं जिनमें हीनभावना होती है, जिन्हें लगता है चोटियों पर कुछ मिल जाएगा। हम तो अब दलदलों में धसते हैं, हम तो अब पाताल में बसते हैं। हमें नीचे जाना है।"

नीचे जाना कोई आसान नहीं होता। दाग-ही-दाग लगते हैं, धब्बे-ही-धब्बे लगते हैं। और दुनिया कहती है कि, "ज़रूर नीचे में कोई आकर्षण है इसलिए तुम नीचे जाते हो बार-बार।" दुनिया कहती है कि, "ज़रूर अभी तुम्हें नीचे का कुछ स्वार्थ है; ज़रूर जो निम्नतम है वो तुम्हें अभी आकृष्ट करता है; ज़रूर जो निम्नतम है वो तुम्हारे भीतर के निम्नतम को आवाज़ देता है; ज़रूर तुम्हारे भीतर भी कुछ हेय है; ज़रूर तुम्हारे भीतर भी कुछ है जो हीनता की ओर आकृष्ट होता है, तभी तो तुम पाताल में गोता मार रहे हो।" और तुम ये सब सुनते हो, पर तुम कहीं बहुत पक्के हो चुके हो अंदर, तुम्हें पता है कि क्या है जो तुम्हें खींच रहा है। तुम्हें पता है कि तुम्हारा वक़्त अब चोटी पर जाकर कुछ पाने या लूटने का नहीं है, बल्कि पाताल की गहराइयों में जाकर कुछ बाँटने का है। तुम बाँटते हो।

जो नीचे उतरकर बाँटे, वो परमात्मा सद्रश हो जाता है। परमात्मा यही तो करता है न, वो नीचे उतरता है और बाँटता है। तुम भी अगर नीचे उतरकर बाँट पाए, तो तुम परमात्मा सद्रश हो गए। नीचे उतरकर बाँट पाओ, लेकिन उसके लिए पहले ऊपर चढ़कर पा लेना।

बुद्ध बाँटने निकले थे, पर पहले बारह साल जंगल में बिताए थे, आठ साल घोर तप किया था, पाया था, फिर बाँटा। बुद्ध गाँव-गाँव, शहर-शहर जीवन भर इसलिए नहीं फिरते रहे कि उन्हें शहरों का, बाज़ारों का आकर्षण था, या गाँव में लोगों से ज़रा बातचीत करनी थी, लोक व्यवहार करना था। गाँव-गाँव इसलिए नहीं जाते थे कि वहाँ बढ़िया पका हुआ अन्न मिलता था, स्वादिष्ट भिक्षा मिलती थी।

कोई भरोसा नहीं है हमारा! हम यह भी कह सकते हैं कि बुद्ध गाँव-गाँव, द्वार-द्वार दस्तक देते थे, तो ज़रूर ज़बान का स्वाद रहा होगा, या क्या पता स्त्रियों की तलाश में जाते हों कि कहीं किसी द्वार पर दस्तक दें, कोई सुंदर स्त्री दरवाज़ा खोल दे। कोई हमारा भरोसा नहीं है! हम कुछ भी सोच सकते हैं! या क्या पता अपने अनुयायी बनाने के लिए आतुर हों, कि, "जाऊँगा, लोगों से मिलूँगा, तो मेरे अनुगामियों की, चेलों की संख्या बढ़ेगी, मेरा संघ सशक्त होगा।" तुम कुछ भी सोच सकते हो। परमात्मा के बारे में भी यही कह सकते हो, "नीचे इसलिए उतरता है ताकि कहीं लोग उसकी सत्ता में यकीन करना ही ना छोड़ दें।"

बस प्रेम में यकीन नहीं है। ये मानने में जान जाती है कि ऐसा कोई हो सकता है जिसे तुमसे कुछ चाहिए नहीं। अहंकार को बड़ी ठेस लगती है न! लगता है कि, "हम इतने दरिद्र हैं कि कोई ऐसा हो सकता है जिसे हम कुछ दे ही ना पाएँ?” नहीं भाई, तुम दरिद्र नहीं हो, तुम्हारे पास देने के लिए बहुत कुछ है, पर ऐसा कोई हो सकता है जिसे अब तुमसे कुछ चाहिए नहीं लेकिन फिर भी तुमसे जुड़ा हुआ है; फिर भी वो तुम्हें समर्पित है, तुम नहीं समर्पित हो उसे।

परमात्मा तुम्हें समर्पित है क्योंकि तुम्हें प्यार करता है वो।

बात मज़ेदार है। आमतौर पर हम कहते हैं, "हमें समर्पित होना है उसको।" तुम तो पता नहीं समर्पित क्या होगे, वो ज़रूर समर्पित है तुम्हें। देख नहीं रहे हो, युगों-युगों से रूप बदलकर तुम्हारे सामने आता रहता है, पूजता है तुमको। तुम भगवान हो; भगवान भक्त है तुम्हारा। और तुम बड़े हेकड़ी वाले भगवान हो। तुम वो भगवान हो जो भगवान के लिए भी द्वार बंद कर देता है, जब वो भक्त बनकर आता है। तुम कहते हो, "अरे साहब! आप हैं कौन? आपकी ज़रूरत क्या? और ऐसे ही तो आप आ नहीं गए होंगे, ज़रूर कुछ चाहिए होगा। क्या चाहिए?"

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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