यस्मात्परं नापरमस्ति किंचिद्यस्मान्नाणीयो न ज्यायोअस्ति कष्चित्। वृक्ष इव स्तब्धो दिवि तिष्ठत्येकस्तेनेदं पूर्ण पुरूषेण सर्वम्॥
जिससे श्रेष्ठ दूसरा कुछ भी नहीं, जिससे कोई भी न तो सूक्ष्म है और न ही बड़ा। जो अकेला ही वृक्ष की भाँति निश्चल जो आकाश में स्थित है, उस परम पुरुष से ही यह संपूर्ण विश्व संव्याप्त है।
~ श्वेताश्वतर उपनिषद् (अध्याय ३, श्लोक ९)
आचार्य प्रशांत: वह अकेला खड़ा है, आकाश का वृक्ष है वह। माने उसे कोई ज़मीन नहीं चाहिए अपनी जड़े पसारने के लिए। वह पृथ्वी का आधार लेकर नहीं खड़ा है, वह आकाश का पेड़ है। वो किसके आधार पर खड़ा? वो अपने ही आधार पर खड़ा है। और यह अंतर है दुनिया की किसी भी वस्तु में और सत्य में।
दुनिया की हर वस्तु खड़ी है किसी दूसरी चीज़ के समर्थन से, किसी दूसरी चीज़ का आश्रय, सहारा लेकर के। नतीजा, डर। नतीजा, पराधीनता।
तुम जो कुछ भी जानते हो, सोचते हो या जो कुछ भी तुम्हारे पास है, वह किसी-न-किसी दूसरी जगह से आया है, किसी दूसरे पर निर्भर है। इसीलिए तो फिर ग़ुलामी रहती है और भय भी रहता है। जो कुछ भी आश्रित है किसी दूसरे पर, वह कभी भी छिन सकता है न? जो कुछ भी आया है कहीं और से, वह पूरी तरह से तुम्हारा तो नहीं हो सकता न? कोई तुम्हें कुछ दे सकता है, तो दूसरा कोई तुमसे कुछ ले भी सकता है न?
वह अकेला है जो बिलकुल निराधार खड़ा है। दुनिया में 'निराधार' कोई बहुत ठीक शब्द नहीं माना जाता। जब हम किसी को नीचा दिखाना चाहते हैं तो कह देते हैं कि आपकी बात या आपका तर्क बिलकुल निराधार है। हमें लगता है यही बहुत बड़ी बात है कि जो कोई, कोई बात कह रहा है, उस बात के पीछे कोई आधार होना चाहिए।
आधार से हमारा क्या आशय है? कोई प्रमाण हो। 'भई, आप बताइए हम आपकी बात को क्यों माने? कोई और है जो आपकी बात से सहमत है? जो बात आपने कही है उसका उल्लेख कहीं और मिलता है? जो बात आप कह रहे हैं उसके प्रमाण स्वरूप आप दो-चार गवाह या सबूत ला सकते हैं?'
बात जैसे आप अपना प्रमाण ना हो, उसके समर्थन में कुछ और चाहिए। दुनिया ही ऐसी है, यहाँ कुछ भी आप अपना प्रमाण नहीं होता। यहाँ कुछ भी अपनी सत्ता से अस्तित्वमान नहीं होता। यहाँ कुछ भी स्वयंभू नहीं होता। स्वयंभू समझते हो? जो अपने ही होने से है। यहाँ सब कुछ पराभूत होता है, जो दूसरे के होने से है।
जब तक तुम्हारी ज़िंदगी ऐसी ही चीज़ों में बीत रही है जो दूसरों के होने से हैं, जब तक तुम स्वयं को भी ऐसा ही जानते हो जो दूसरों के होने से है, तब तक तुम्हें शांति, चैन, आनंद नहीं मिलेगा।
वास्तव में आकाश में कोई पेड़ नहीं खड़ा है। उपमा है बस, छवि है बस जो तुमको दिखाई जा रही है। क्यों? ताकि तुम्हें कोई पुरानी बात याद आ जाए, ताकि तुम्हें अपना स्वरूप याद आ जाए। तुम्हें याद आ जाए कि तुम्हें भी उसी पेड़ की तरह होने की अभिलाषा है। जब तक वैसे नहीं हो जाते तब तक भटकते ही रहोगे। तब तक मन में कुछ खटका चलता ही रहेगा। तब तक छाती में कोई काँटा चुभा ही रहेगा। ठीक से सो नहीं पाओगे, क्या पता कब पाँव तले ज़मीन खिसक जाए! कुछ-न-कुछ बुरा लगता ही रहेगा।
उस पेड़ जैसा होना है जो खड़ा है आकाश में, स्वयंभू। वह अपनी ज़मीन स्वयं है। वह अपना पोषण स्वयं है। उसे कोई सूरज भी नहीं चाहिए, उसे हवाएँ भी नहीं चाहिए, उसे कोई खाद-पानी नहीं चाहिए। वह बस अकेला खड़ा है।
उससे पूछो 'कौन तुम?' तो वह कहेगा 'मैं, मैं; मैं, मैं।'
हम क्या कहते हैं? 'मैं अनुपम', 'मैं शुभंकर'।
वह क्या कहता? 'मैं, मैं; मैं, मैं। मेरा नाम किसी और से जुड़ा नहीं है। मेरा नाम किसी और पर आश्रित नहीं है।' और आगे उपनिषद् कहते हैं, 'जो ऐसा हो जाता है, जो किसी से नहीं है, पूरी दुनिया उसी से हो जाती है। उस परम पुरुष से ही यह संपूर्ण विश्व संव्याप्त है।'
तुम काट लो अपने-आपको उस सब से जिससे जुड़ने की तुम्हारी बड़ी इच्छा रहती है, तो जान लो कि जुड़ गए तुम उससे जिससे जुड़ना तुम्हारी नियति है। उससे अपने-आपको जोड़ने की कोशिश मत करना, क्यों? क्योंकि उससे तुम जुड़े हुए हो ही।
सवाल यह नहीं है कि, "सत्य कहाँ है, कहाँ खोजने जाएँ? कैसे उससे अपने-आपको जोड़ें, कैसे उसे समर्पित कर दें स्वयं को?" सवाल यह है कि तुमने जो झूठे समर्पण लगा रखे हैं और झूठे चुनाव और झूठे जुड़ाव और पहचानें बना रखी हैं, उनसे कैसे संबंध विच्छेद करना है। उनसे हटना ज़रूरी है। झूठे तारों का कटना ज़रूरी है।
लेकिन झूठे तार भी कटेंगे तब ही जब तुम एक सच्चा तार जोड़ो। जैसे कि तुम्हें ख़ुद तक आने के लिए भी बाहर से गुज़रकर आना पड़े। हालत ऐसी हो गई है हमारी। क्यों? क्योंकि हम लगातार बाहर की ओर देख रहे हैं। तो हम भीतर को भी मुड़ सकें, इसके लिए हमें किसी बाहर वाले की ज़रूरत पड़ती है।
इसीलिए तो शास्त्रीय तौर पर गुरु की बड़ी महिमा गायी गई है। वरना सोचने की बात है, अगर सत्य है, हर घट के भीतर है तो यह जो बाहर गुरु खड़ा है इसकी आवश्यकता क्या है? उसकी आवश्यकता इसलिए है क्योंकि हमारी आदतें खराब हैं। हम ख़ुद ऐसे होते कि अपने भीतर झाँक सकते तो किसी बाहर वाले की क्या आवश्यकता? पर हमें देखना लगातार कहाँ है? बाहर। तो बाहर कोई चाहिए आईने जैसा, दर्पण जैसा, जिसकी ओर देखो तो तुम्हें अपनी शक्ल दिखाई दे जाए। उसकी शक्ल नहीं, अपनी शक्ल।
पारस में और गुरु में यही अन्तरो जान। वह लोहा कंचन करे, वो करदे आप समान॥
~ कबीर साहब
आप समान माने आत्मा समान। तुम्हें आत्मा से मिला देता है, तुम्हें तुमसे मिला देता है। वो तुम्हें आप समान कर देता है, तुम्हारे ही जैसा। गुरु समान नहीं, आप समान – तुम्हारे ही जैसा। यह अलग बात है कि तुम जब तुम्हारे जैसे हो जाते हो तो तुम गुरु जैसे भी हो जाते हो, क्योंकि आईने और आईने में कोई अंतर नहीं होता, आकाश और आकाश में कोई अंतर नहीं होता, निर्मल और निर्मल जल में कोई अंतर नहीं होता।
पर गुरु का कोई ऐसा उद्देश्य नहीं होता कि वो तुम्हें अपनी प्रतिछवि या अपनी प्रतिलिपि बना दे। वह तुम्हें तुम्हारे जैसा बनाता है। वह एक विशेष दर्पण है जिसमें जब तुम झाँकते हो तो तुम्हें तुम्हारा यथार्थ दिख जाता है।
क्यों झाँकना पड़ता है उस दर्पण में? क्योंकि हम हैं ही ऐसे कि हम बाहर को ही देखते हैं। दीवारें हों तो दीवारों को देखते हैं और दर्पण हो तो दर्पण को देखेंगे, देखेंगे लेकिन हम बाहर ही। हाँ, दीवारों को देखेंगे तो दीवार ही दिखाई देगी, दर्पण को देखेंगे तो अपना मुखड़ा दिखाई देगा, चाहे वो जैसे हो।
अब प्रश्न यह है कि अगर वैसे हो जाओ तो पूरा जगत क्या संव्याप्त हो जाएगा तुमसे? या कि ब्रह्म से पूरा जगत कैसे संव्याप्त है? वह जो किसी पर आश्रित नहीं है उससे पूरा जगत कैसे है? तो पूछना यह पडे़गा कि पूरा जगत किसके लिए है। क्या ब्रह्म के लिए है? क्या ब्रह्म के केंद्र पर बैठकर कोई जगत की बात करेगा? नहीं। जगत किसके लिए है? जगत तो जगत के जीवों के लिए है। उससे पूरा जगत है, या इसे पढ़ो कि पूरा जगत उसके लिए है।
जगत के जीवों के लिए है न जगत? और जगत के जीवों के लिए जगत इसलिए है ताकि जगत का उपयोग करके वे ब्रह्म तक पहुँच सकें। तो जब यह बात कही जाती है कि ब्रह्म से पूरा जगत है या ब्रह्म प्रथम कारण है, तो समझो, उसका अर्थ है वह प्रथम कारण है। वह है ही वह जगह जिस तक तुम तब पहुँचोगे जब उसने (ब्रह्म ने) जितने भी प्रभाव उत्पन्न करे हैं उनका तुम सदुपयोग कर लोगे। जगत राह है, सत्य मंज़िल।