निम्न विचार और उच्च विचार क्या? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2012)

Acharya Prashant

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निम्न विचार और उच्च विचार क्या? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2012)

प्रश्न: निम्न विचार और उच्च विचार क्या हैं?

वक्ता: हम में से कितने लोगों को ये सवाल अपने सन्दर्भ में उचित लग रहा है? कितने लोगों को ये सवाल संबद्ध लग रहा है? कितने लोग उत्सुक हैं इसका उत्तर जानने को?

(सभी श्रोता हाथ उठाते हैं)

ठीक है। इसका मतलब ये है कि मैं सिर्फ शिवानी के सवाल का जवाब नहीं दे रहा हूँ। यहाँ सौ लोग और हैं जिनके सवालों का जवाब दिया जा रहा है। है ना?

श्रोतागण: जी सर।

वक्ता: तो हम सब इसको ऐसे ही सुनेंगे जैसे हमारे ही प्रश्न का उत्तर दिया जा रहा है। ठीक है? हम सब इसे ऐसे ही सुनेंगे जैसे हमारे ही प्रश्न का उत्तर दिया जा रहा है। ठीक है?

सबसे पहले तो एक प्रयोग कर के देखते हैं। विचार की बात हुई थी, तो उदाहरण के लिए, आप थोड़ा विचार करिये कि आप रुसी भाषा में बात कर रहें हैं। विचार करिये कि आप रुसी भाषा में बात कर रहें हैं। अच्छा विचार करिये कि आप स्पैनिश भाषा में बात कर रहे हैं। क्या ये विचार कर पाना संभव है?

श्रोतागण: नहीं सर।

वक्ता: ऐसा संभव इसलिए नहीं है क्योंकि विचार करने के लिए अतीत में उसका कुछ अनुभव होना चाहिए। ठीक है ना? तो इसलिए एक मन का एक नियम लिख लो- ‘सारे विचार अतीत से ही आते हैं। ठीक है? जिसका आपको अतीत में अनुभव नहीं है, आप उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते।कल्पना एक विचार ही है। ठीक? जिसका आपको अतीत में अनुभव नहीं, आप उसके बारे में कोई विचार नहीं कर सकते। ठीक है?

हम अक्सर कहते हैं, “मेरे पास एक नया सुझाव है, एक नया विचार है”, पर ‘नये सुझाव’ या ‘नये विचार’ जैसा कुछ नहीं होता, क्योंकि हर विचार की जड़ें मूलत: अतीत में ही गढ़ी होती हैं। वो पीछे से आ रहा है, उसमें कुछ नया हो नहीं सकता। ये बात आप समझ रहे हैं? तो आना तो हर विचार को अतीत से ही है। और अतीत सीमित होता है, हमारे अनुभव सीमित होते हैं। ठीक है ना?

सबका अपना-अपना एक छोटा-छोटा अनुभव होता है, अतीत का। सीमित अनुभव। ठीक है? उसी में से हमारे सारे विचार निकलते रहते हैं। तो हम ये कह सकते हैं कि अतीत एक कमरा है, जैसे ये है, एक हॉल। ठीक है? इस कमरे के भीतर हमारे सारे सीमित अनुभव भरे हुए हैं, सब मेरे साथ रहियेगा। जो भी हमने आज तक जीवन में देखा है, सुना है, पढ़ा है, जिस भी चीज़ से हम गुज़रे हैं, वो सब उसमें भरा हुआ है। ठीक है ना? उसी में भरे हुए जो अनुभव हैं, वही हमारे दिमाग में चक्कर काटते रहते हैं। उसी से हमारी भविष्य की कल्पनाएँ भी निकलती हैं।

जिनको हम अक्सर सोच लेते हैं कि ये भविष्य की नयी कल्पनाएँ हैं, उन में भी नया कुछ नहीं होता, वो अतीत के अनुभव ही नये कपड़े पहन कर आ जाते हैं, और हमें लगता है कि ये हमारी नई कल्पनाएँ हैं, हमारे एक नये भविष्य की। उसमें नया कुछ होता नहीं। बहुत स्पष्ट-सी बात है, आप ऐसी किसी चीज़ बारे में सोच ही नहीं सकते जिसका आपको कोई अनुभव ना हो। और सारे अनुभव अतीत से आते हैं।

हम में से कितने लोग चाहते हैं कि सारा जीवन इसी हॉल के भीतर बिता दें, वो हॉल जो हमारे अतीत से भरा हुआ है। हम में से कितने लोग चाहते हैं कि भविष्य हमारा हमारे अतीत की छाया कि तरह ही रहे? कितने लोग हैं यहाँ पर जो नया भविष्य चाहते हैं? एक नया भविष्य।

(सभी श्रोता हाथ उठा कर हामी भरते हैं)

इसका मतलब है कि कोई ये नहीं चाहता कि जैसा हमारा अतीत रहा है, भविष्य भी वैसा ही चलता रहे। नये का अर्थ ही यही है- अतीत से मुक्ति। इस बात पर आपको मेरे साथ रहना होगा, ध्यान देना होगा। अगर वास्तव में कोई नया भविष्य चाहिए, तो अतीत का ये जो सीमित क्षेत्र है, इससे बाहर निकलना पड़ेगा। है ना? पर विचार तो हमने कहा कि सब अतीत के भीतर ही रहते हैं। ये जो कमरा है, ये हमारा अतीत है, और विचार वो हैं जो इसके भीतर घूमते रहते हैं। इस हॉल के भीतर विचार के घूमते रहने के दो तरीके हैं। एक तरीका तो है बेतरतीब घूमने का। ‘ब्रोउनियन मोशन’ पढ़ा है?

श्रोतागण: जी सर।

वक्ता: (हॉल में इशारे करते हुए) यहाँ पर कोई खड़ा हो और फिर वो थोड़ा उधर को जाये, फ़िर उधर को जाये, फ़िर उधर को जाये, तो वो इस हॉल के भीतर ही जीवन भर चक्कर काटता रह जायेगा। ठीक है ना? ये एक तरह का विचार हुआ। इसको आप कहते हैं कि ये मन की चंचलता है, मन इधर-उधर भटक रहा है। अतीत के भीतर ही वो भटक रहा है, इधर-उधर।

और एक दूसरे तरह का चलना भी हो सकता है। वो चलना ये हो सकता है कि मैं यहाँ से चलूँ, और चलते-चलते-चलते-चलते उस दरवाज़े से बाहर निकल जाऊं। चल मैं अभी-भी इस हॉल के अन्दर ही रहा हूँ, पर मेरी दिशा ऐसी है जो मुझे इस हॉल से बाहर ले जायेगी। जो पहला चलना है उसमें मेरी बेतरतीब गति हो रही है, इधर से उधर, इधर से उधर। क्या वो गति मुझे कभी-भी इस क्षेत्र से बाहर निकाल सकती है, अतीत से बाहर निकाल सकती है?

श्रोतागण: नहीं सर।

वक्ता: ऐसा करने पर मैं अतीत का गुलाम बन कर जीवन भर अन्दर भटकता रहूँगा ना?

श्रोतागण: हाँ, सर।

वक्ता: और एक दूसरा विचार है। जैसे हर विचार अतीत का है, तो वो विचार भी अतीत के भीतर ही है। चल वो भी अतीत के भीतर ही रहा है, लेकिन वो ऐसे चल रहा है कि वो दरवाज़े की तरफ जा रहा है। और वो जो दरवाज़ा है- अतीत से मुक्ति। तो तुमने जो सवाल पूछा कि उच्च विचार क्या होता है।

उच्च विचार वो है जो तुम्हें सोचने से ही मुक्ति दिला दे। निम्न विचार वो विचार है, जो विचारों की अंतहीन श्रृंखला बना दे।

उच्च विचार वो है जिसमें विचारणा इतनी सतर्क हो कि वो निर्विचार तक ले जाए, और अंततः समझ बन जाए।

बात समझ में आ रही है? एक सोचना ये है जो पूरे तरीके से विक्षिप्तता का सोचना है, एक पागल मन का सोचना है। ठीक है? जिसमें कोई तारतम्य नहीं है, जिसमें कोई लय नहीं है। ये ऐसा सोचना है कि जैसे आप सोचने बैठते हो, आप कुछ नहीं कर रहे हो, आप यहाँ से देख रहे हो कि- अच्छा ये क्या है? ये लकड़ी है। लकड़ी क्या है? भूरी है। भूरा और क्या होता है, मेरी गाय भूरी है।गाय क्या होती है? जिसे शेर खा जाता है। शेर क्या है? सिंह।

अब ये पूरा एक बेतरतीब चक्र चल रहा है विचारों का, जिसमें कोई तारतम्य नहीं, जिसमें कोई तर्क नहीं, पूरा बेतरतीब है। ऐसे देखा है ना विचारों को भागते हुए, ऐसे ही चलते हैं ना विचार? कुछ देख रहे होते हो, कुछ और याद आ जाता है, और पूरी एक श्रृंखला बन जाती है विचारों की। देखा है ऐसा होते हुए?

श्रोतागण: हाँ, सर।

वक्ता: ये होती निम्न विचारणा। उच्च विचारणा वो होती है, जो इतनी चेतना में की जाती है कि विचारणा जल्द ही ख़त्म हो जाती है, और समझ आरम्भ हो जाती है। सारा मामला समझ आ जाता है। एक बार मामला समझ आ गया तो फिर सोचने की ज़रूरत बचती है क्या? तो वो सोच जो है, उस सोच का विलय हो जाता है, समझ में।

उच्च सोचना वही है जो बहुत देर तक न चले। जो बेतरतीब ना रहे। एक के बाद एक, एक के बाद एक, विचार चलता ही जा रहा है, चलता ही जा रहा है, ऐसा न हो। जब शरीर में कैंसर हो जाता है, तो अणु पागल हो जाते हैं, और लगते हैं बढ़ने। यही होता है ना कैंसर में? खूब फैलता जा रहा है, अनियंत्रित। उसका कोई तर्क नहीं, कोई उसे रोकने वाला नहीं। कोई उसमें लय नहीं। ये होता है एक विक्षिप्त मन, एक विक्षिप्त विचार, जो अपने कैंसर की तरह फैलता रहता है, और सब ख़राब कर देता है। और एक दूसरा विचार होता है, जो इतनी सतर्कता के साथ किया जाता है कि वो जल्दी ही समझ में विलीन हो जाता है। अब विचार बचा नहीं, अब केवल समझ बची है। बात समझ गये?

ऐसा किस-किस के साथ होता है कि कुछ रहें हैं और पता ही नहीं है कि मन कहाँ का कहाँ पहुँच चुका है? और ऐसा ज़रूरी नहीं है कि आपको दूर जाकर देखना पड़े, ठीक इस क्षण भी ऐसा हो रहा होगा। हम सब उसी के शिकार हैं। हम बैठे यहाँ शारीरिक तौर पर हैं, और मन…

श्रोता ३: कहीं और है।

वक्ता: कहीं एक जगह नहीं है वो, कई जगह पर है। ये सब तभी तक हो सकता है जब तक मन की ओर ध्यान ना जाये। उसका प्रयोग अभी कर के देख लेते हैं। हम में से जो लोग ध्यान में हैं, और सुन रहें हैं ध्यान से, वो पायेंगे कि उनके पास कोई विचार ही नहीं है। जब वो सुन रहे हैं, तो वो सिर्फ़ सुन रहे हैं। उनके पास कोई विचार नहीं है। उनके पास कोई तुलना नहीं है, कोई सोच नहीं है।

और जो लोग सोच रहे हैं, और इधर-उधर भटक रहे हैं, उन्हें कुछ समझ में नहीं आ रहा।

ध्यान और विक्षिप्त मन, ये दोनों कभी एक साथ नहीं चलते। जहाँ ध्यान है, वहाँ विक्षिप्तता नहीं हो सकती।

बड़ा साधारण-सा तरीका है। जब मन ये सब हरकतें कर रहा हो, इधर से उधर घूम रहा हो, तो थोड़ा ठहर जाओ और देखो। और जहाँ तुमने उसको देखा, ध्यान से, तो उसका इधर-उधर घूमना, सब रुक जाता है। तो उसको ध्यान से देख भर लेना है कि ऐसा हो रहा है। ठीक है? बात समझ में आ रही है?

सोच कैसी भी हो, वो हमेशा अतीत से आती है और सीमित होती है। सोच में भी दो तरह की सोच होती है। एक तो वो जो अतीत के क्षेत्र के भीतर ही घूमती रहती है। जैसे कि आप बैठे हैं और घंटों तक सोच रहे हैं, बिना मतलब का सोचे जा रहें हैं, सोचे जा रहें हैं। तो एक सोच वो होती है। और दूसरी सोच वो होती है जो शुरू तो अतीत के भीतर से ही होती है, उसे भीतर से ही शुरू होना होगा क्योंकि सोचने का अर्थ ही है अतीत, तो शुरू तो अतीत से होती है, पर वो जल्दी ही समझ में विलीन हो जाती है। अब सोचने की ज़रूरत नहीं। ठीक है?

श्रोता ५: सर आपने कहा कि हम जो भी कल्पना करते हैं, वो अनुभव से सम्बंधित होती है। तो क्या हम कभी कोई नई कल्पना नहीं कर सकते?

वक्ता: कभी नहीं। क्या तुम शाकाहारी हो?

श्रोता ५: हाँ।

वक्ता: क्या तुमने माँस कभी नहीं खाया है?

श्रोता ५: नहीं।

वक्ता: चलो कल्पना करो कि बकरे के माँस का स्वाद कैसा होता है।

श्रोता ५: नहीं हो रहा है सर।

वक्ता: नहीं कर पाओगी न? हो गई ना दिक्कत। जिसका तुम्हें अनुभव नहीं, उसकी तुम कल्पना भी नहीं कर सकते। बात समझ में आ रही है?

हमने शुरू में ही कहा था कि हमारी सारी शिक्षा वस्तुओं से सम्बंधित रह गई है। है ना? हमने विज्ञान के नियम पढ़े हैं और वहाँ हम कभी ये सवाल नहीं उठाते कि न्यूटन के नियम ऐसे ही क्यों होते हैं। होता हैं तो होते हैं, ये नियम अपरिवर्तनीय हैं। इसी तरीके से ये मन का एक अपरिवर्तनीय नियम है कि वो द्वैत में जीता है। तुम्हारी सारी भविष्य की कल्पनाएँ तुम्हारे अतीत की छाया मात्र हैं। इसमें क्यों का कोई प्रश्न नहीं उठता।

श्रोता ६: सर वो प्रयोग और प्रेक्षण पर आधारित होते हैं।

वक्ता: मन के नियम भी प्रयोग और प्रेक्षण पर आधारित होते हैं। गुरुत्वाकर्षण का जो मूल्य है, वो प्रेक्षण से आया है। पूरा का पूरा जो वैज्ञानिक तरीका है वो प्रेक्षण पर आधारित है। प्रयोगशाला में तुम और क्या करते हो? प्रयोगशाला में तुम पहले प्रेक्षण करते हो, और उसके आधार पर निष्कर्ष निकालते हो। पर हमारे साथ दिक्कत ये हुई है कि क्योंकि हमारी शिक्षा ने कभी हमारा ध्यान इस तरफ आकृष्ट नहीं कराया है, तो इसीलिये हमको, मन के जो मूलभूत नियम हैं वो पता ही नहीं हैं। न्यूटन के सारे नियम पता होंगे, मन के नियम हमें नहीं पता हैं।

मन को जाना जा सकता है, और मन जो है, वो मात्र वस्तु है। वस्तुओं में भी जो सबसे बड़ी वस्तु है, वो मन है। पर गड़बड़ ये हो गई है कि तुम्हारा पूरा प्रशिक्षण, तुम्हारी पूरी शिक्षा व्यवस्था, इन्होंने तुम्हें कभी कोई शिक्षा दी ही नहीं है। तो इसीलिये आज ये बातें तुमको बड़ी अजूबे-जैसी लग रहीं हैं। मन के भी नियम होते हैं? कैसे? कहाँ लिखे हैं? किसने छापे? किसका अधिकार है? किस प्रयोगशाला में नापे जाते हैं?

वो प्रयोगशाला तुम खुद हो। बस स्वयं देखना है, और पता चल जाता है। और ठीक वैसे जैसे विज्ञान के नियम में एक प्रतिशत की भी ऊँच-नीच बर्दाश्त नहीं होती है, ठीक उसी तरह से जो मन के नियम भी हैं, वो अकाट्य हैं, अपरिवर्तनीय हैं। उसमें तुम्हारे चाहने ना चाहने से कोई अंतर कभी नहीं आ जायेगा, तुम अधिक से अधिक ये कर सकते हो कि उनको समझ लो। तुम्हारे चाहने ना चाहने से जैसे गुरुत्वाकर्षण में कोई फ़र्क नहीं आ जाना हैं, उसी तरह तुम्हारे चाहने ना चाहने से, मन के नियमों में अंतर नहीं आ जाना है। हम अधिक से अधिक ये कर सकते हैं कि उनको समझ लें। जब हम समझ लेंगे तो फिर हम उनसे लाभ पायेंगे। हम नहीं समझेंगे तो जीवन हमे वैसे ही विक्षिप्तता में गुज़ार देंगे। मन को समझा जा सकता है। और समझने के लिए क्या करना है?

प्रेक्षण, बस देखना है।

-‘संवाद सत्र’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

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This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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