नौकरी और पैसे के बारे में कुछ अहम बातें || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव ऋषिकेश में (2021)

Acharya Prashant

20 min
42 reads
नौकरी और पैसे के बारे में कुछ अहम बातें || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव ऋषिकेश में (2021)

प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी, मेरा नाम शुभम है। मैं एक-डेढ़ साल से सुन रहा हूँ आपको। मैं कॉर्पोरेट नौकरी में हूँ, इंजीनियरिंग जॉब भी है तो मेरा सवाल ये था कि किसी भी काम में जाते हैं शुरुआत में तो वो नया होता है, उसके बाद वो दिनचर्या बन जाता है और अरुचि पूर्ण हो जाता है बोरिंग हो जाता है।

तो मैं ये भी सोच रहा था कि आप निकले थे कॉरपोरेट जॉब से तो आपने क्या सोचा और कैसे आप बदले वहाँ से यहाँ तक। और उसमें जो कठिनाई या जो भी दिमाग में आती है चीज़ें तो वो कैसे साफ़-साफ़ दिखाई दीं आपको?

आचार्य प्रशांत: नहीं, मैंने कुछ किसी ख़ास समय पर विशेष नहीं सोचा कॉर्पोरेट जॉब मुझे कभी करनी ही नहीं थी। तो मैं तो जब मैनेजमेंट की पढ़ाई पढ़ रहा था मुझे तब भी स्पष्ट था कि ये तो नहीं करना है मेरा कॉरपोरेशन्स में या जो शेयर होल्डर प्रॉफ़िट मैक्सिमाइजेशन (कम्पनी के हिस्से दारू के लाभ को बढ़ाने का काम) होता है उसमें कभी कोई रुझान था ही नहीं।

पता नहीं सुनने में कैसा लगेगा, लेकिन मैं जिस दिन पहुँचा था अहमदाबाद उस दिन उसी दिन पहुँचा हूँ और उस दिन मैं बहुत रोया था कि मैं यहाँ क्यों आ गया हूँ। और पहले ट्राइमेस्टर के बाद मैंने मन बना ही लिया था कि इसको छोड़ ही देता हूँ। फिर सेकेंड ट्राइमेस्टर में जो वहाँ सेकेंड और थर्ड में वहाँ पर गाँधी आश्रम था वहाँ एक एनजीओ चलता था।

गाँधी आश्रम गया था ऐसे ही घूमने वहाँ वो दिखा कि बच्चे पढ़ रहे हैं, मैं चला गया। मैंने कहा, ‘मैं भी पढ़ाऊँगा’। उन्होंने कहा, ‘आ जाया करो’। तो मैं वहाँ जाने लगा, वहाँ जाने के लिए भी खर्चा लगता था और मैं जाता था तो मुझे लगता था बच्चों को दे दूंँ कुछ।

लगभग रोज़ ही जाने लगा तो कभी उनके लिए कुछ, कभी कुछ, कभी कोई कपड़ा कभी पेंसिल-बुक , कुछ खाने को ऐसे ले जाने लगा बच्चे काफ़ी सारे थे तो थोड़ा खर्चा होता था तो फिर मैंने वही पढ़ाना शुरू कर दिया ये सब तो इस तरह से फिर ऐसे करके मन लग गया।

तो और उसके बाद फिर सेकेंड इयर (दूसरा साल) आया तो उसमें मैंने प्लेज़ (कॉलेज में नाटक) करने शुरू कर दिए तो ऐसे करके खिंच गया। कार्पोरेट नौकरी करने के लिए एमबीए मैंने करा ही नहीं था। मैंने कैसे अपने कॉर्पोरेट के साल निकाले, कैसे निकाले, कैसे निकाले — जैसे बत्तीस दातों के बीच में जीभ कैसे निकालती है अपना समय? विभीषण लंका में कैसे रहता होगा? वैसे ही समय निकालता था।

मुझे कैसे पता चलता था कि ये जगह ठीक नहीं है ये शुरू से ही था बेईमानी को बहुत जल्दी पकड़ लेता था और छुटपन, पेटिनेस और दब्बू और डरपोक होना; ये मुझे कभी पसंद नहीं था और ये काबिलियत मुझमें थी नहीं कि जो देखूंँ उसको अनदेखा कर दूंँ जो चीज़ दिख जाती थी वो दिख जाती थी।

तो एकदम स्पष्ट था सदा से स्पष्ट था कि ये करना नहीं है मैं लगातार मौक़े की तलाश कर रहा था कि और क्या करना है बस वो बिलकुल साफ़ नहीं हो पा रहा था और जब थोड़ा-थोड़ा साफ़ होने लगा तो जिस दिशा में साफ़ होने लगा मैंने उधर ही तेजी से चलना शुरू कर दिया बल्कि निर्माण करना शुरू कर दिया। सिर्फ़ तलाशा ही नहीं, बनाया।

तो दो-ढाई साल के भीतर-भीतर स्पष्ट हो गया था कि और मुझे लगता है इतना समय काफ़ी होता है एकदम एक इतनी स्पष्टता आ गयी थी कि शिक्षा के क्षेत्र में जाऊंँगा और जो बिलकुल मटीरियल एजुकेशन (भौतिक, पदार्थवादी शिक्षा) है, उसको एक नॉन मटीरियल साइड (अभौतिकवाद की तरफ़) से जोड़ूँगा।

वो नॉन मटेरियल पक्ष साहित्यिक, आध्यात्मिक होगा ये एकदम स्पष्ट नहीं था आरम्भ में ही। शुरू में मैंने जो क्लासिकल लिटरेचर (शास्त्रीय लेख) होता है, शास्त्रीय साहित्य विशेषकर अंग्रेज़ी का उसको जोड़ा लीडरशिप (नेतृत्व) से और उसके कोर्सेज (पाठ्यक्रम) मैंने एमबीए कॉलेजेज़ में फ़्लोट (फैलाना) करे।

फिर धीरे धीरे उसमें गहरा उतरता गया उतरता गया। सन 2008 में मैंने पहली एक्टिविटी (गतिविधि) बनायी जो उपनिषदों पर आधारित थी और 2009 में पहली बनायी जो संतवाणी पर आधारित थी उसका नाम था कबीर इन कैंपस (कबीर कॉलेज के प्रांगण में)। उपनिषदों वाली एक्टिविटी का नाम था 'सो सेड द सेजेस' (ऐसा कहते थे संत)।

फिर उसके अगले ही साल लोगों को बाहर लेकर गया पहाड़ों पर। ऐसे चला था काम।

देखो, जितनी भी स्पष्टता आ रही हो उधर को बढ़ना शुरू करो, उधर बढ़कर ही और साफ़ होगा कि किधर को जाना है। बैठे-बैठे सोचोगे कि कोई पूरा रास्ता बता दें फिर पहला कदम उठाएँँगे, तो तुम पहला कदम ही कभी नहीं उठा पाओगे। आरम्भ में हिचक भी होती है और सब धुँधला-धुँधला भी होता है बिलकुल समझता हूँ। पेट भी पालना है, रोटी-कपड़ा भी चाहिए तो आदमी वो भी देखता है, लेकिन फिर भी आगे बढ़ना शुरू करो, कुछ करना शुरू करो। वहीं से आगे का रास्ता साफ़ होता है, कुछ करोगे नहीं बस विचार करोगे तो कुछ होगा नहीं।

प्र२: पिछले कई शिविरों में आ चुका हूँ। शिविर जब ख़त्म होता है ख़त्म होकर जब अपने घर पर वापस जाते हैं हमारे अन्दर भी इतना जोश होता है इतना चाहते हैं कि ये सारी चीज़ें जो आप समझा रहे हैं वो सबसे पहले दोस्तों में, ऑफिस में, हर जगह बताएँ लोगों को समझाएँ कि हाँ, ये चीज़ें हुई हैं और लोग पूछते भी हैं कि आप कहाँ गये थे इतने दिनों तक; ये तीन दिन थे आपने क्या सीखा? क्या है?

लेकिन जब उन्हें हम समझाने की कोशिश करते हैं बताते हैं तो हम समझा नहीं पाते हैं जैसे की किसी को कोई चीज़ समझाने की कोशिश करो तो कहते हैं, ‘अरे, चलो मैं ही मिला बेवकूफ़ बनाने को या ऐसा कुछ, उनकी प्रतिक्रिया कुछ ऐसी होती है। तो जितना भी समझाने की कोशिश करते हैं, कोई असर नहीं पड़ता उनके ऊपर। और उससे बहुत निराशा भी होती है कि हम कैसे समझाएँ लोगों को कि वो समझ जाएँ।

आचार्य: देखो मुझे वो पता होता तो मैंने तुम्हें न समझा दिया होता। तो आप यही कर सकते हो कि कभी ऐसे, कभी वैसे कोशिश करते रहोगे कहीं-न-कहीं तो राइट बटन दबेगा। जितने बटन है सब दबाते रहो एक-एक करके। कहीं घुसते हो बहुत बड़ा सा हॉल होता है उसमें पचास-सौ तुमको दिख रहे हैं बटन, स्विच तो क्या करते हो? बत्ती जलानी है तो क्या करते हो? अन्धाधुन्ध दबाते हो।

दिक्कत बस बीच-बीच में ऐसा भी दब जाता है कि विस्फोट हो जाता है। कई सारे एमसीबी गिरे हुए हों तुम सब उठाने लगो कुछ पता नहीं है कि कौनसी लाइन एक्टिवेट हो जाएगी तो वो ख़तरा उठाने का अगर तुम कलेजा रखते हो तो करो, उसको प्रेम कहते हैं।

उसमें नुक़सान हो सकता है दूसरे की भलाई के लिए काम करेंगे और जिसका भला चाहते हो वही तुमको मार देगा। हाँ, तो उतना अगर प्रेम रखते हो तो करो; नहीं रखते उतना प्रेम तो मत करो। और क्या बोलूंँ! ये रास्ता वो नहीं है जिसमें सब कुछ बड़ी मधुरता से हो जाएगा और तुम उसको ज्ञान दोगे तो वो तुमको गुलाब देगा। चप्पल खाओ, गालियाँ खाओ यही सब मिलता है। उसके लिए तैयार हो तो करो निष्काम कर्म करो।

निष्काम कर्म से भी ऊपर की बात बता रहा हूँ। ऐसा कर्म करो जिसमें कामना नहीं होगी लेकिन गाली मिलेगी निष्काम में तो बस इतना कहा गया है कि ये कामना मत करो कि अच्छा फल मिलेगा। तुम तो इस बात के लिए तैयार रहो कि फल बुरा ही मिलना है। बुरा फल मिलना निश्चित है उसके बाद भी अगर सही काम कर सकते हो तो करो।

फिर अगर कभी-कभार बीच में अच्छा फल मिल जाता है तो बड़ा अच्छा-अच्छा लगता है। बोनस मिल गया, ये तो उम्मीद ही नहीं थी इसकी। बात समझ में आ गयी? कैसे? आ ही नहीं सकती कुछ इसका कोई तयशुदा रास्ता नहीं है, माया इतनी हल्की नहीं है कि तुम फार्मूला निकाल लोगे उसको हराने का।

प्र३: प्रणाम आचार्य जी। अभी नौकरी में हूँ मैं, कार्यशैली जो है वो ठीक नहीं है उसकी। अब सवाल ये है कि मुझे इस बात का तो ज्ञान हो गया कि ये काम ठीक नहीं है तो मैं इसको स्विच (बदलना) करना चाहता हूँ किसी तरीक़े से। तो एक सवाल तो इसमें ये है कि क्या आगे जो मैं करना चाहता हूँ और उसमें जिन संसाधनों की ज़रूरत है उसको इकट्ठा करने के लिए मैं ये जो अभी नौकरी है मेरी इसको मैं करता रहूँ, ये जानते हुए कि ये काम ग़लत है?

और दूसरा सवाल इसमें ये भी है छोटा सा कि जो जो अभी काम ग़लत करना पड़ रहा है वो एक पूरे तन्त्र का हिस्सा है वो कोई ऐसा नहीं है कि मैं अपनी इच्छा से कर रहा हूँ, तो मेरे यहाँ रहने या न रहने से कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा मेरी जगह जो भी आएगा उसको भी वही काम करना है जो आज मैं कर रहा हूँ। तो ऐसी स्थिति में जो कर्ता है उसका रोल कहाँ रह जाता है?

आचार्य: तुम्हें कैसे पता तुम्हारे बाद जो आएगा वो भी इसी शिविर में मौजूद नहीं है? हो सकता है वो भी मना कर दे, हो सकता है उसके बाद जो आने वाला हो वो भी मना कर दे सब अगर मना कर देंगे तो फिर वो काम बन्द हो जाएगा न?

और अगर सब यही सोचते रहेंगे कि मैं हट भी गया तो भी ये काम तो चलता ही रहेगा तो मैं क्यों हटूँ, तो वो काम निस्सन्देह सदा चलता रहेगा। तो ऐसे नहीं सोचते, ये बड़ा भयानक तर्क है कि अगर मैंने माँस खाना छोड़ दिया तो क्या बकरे कटने बन्द हो जाएँगे? ‘कट तो रहा है तो मैं खा लेता हूँ।’

दूसरी बात, ‘मर तो गया है उसका माँस लटका हुआ है मैं नहीं खरीदता तो कोई और खरीदता तो मैं खा लेता हूँ।’ ये वही तर्क है कि गन्दा काम है कोई घटिया, बेईमानी भरा जैसा भी होगा, मैं नहीं जानता, तुम बताओगे; पर ‘कोई-न-कोई तो उसे करेगा ही और कोई-न-कोई उसे करके पैसे बनाएगा, मुनाफा कमाएगा तो मैं कमा लेता हूँ।’ ये गड़बड़ बात है ऐसे तर्क नहीं देते। अपने लिए सोचो उस काम के लिए नहीं।

ग़लत काम करके अगर तुम्हारा अहित हो रहा है तो मत करो ये मत सोचो कि मैं अपना नुक़सान कर रहा हूँ पर काम तो चलता रहेगा। अब तुमने कहा कि अगर ग़लत काम करके तुम संसाधन, पैसे इकट्ठा कर रहे हो आगे कुछ और अच्छा करने के लिए तो काम करते रहना चाहिए या नहीं।

निर्भर करता है कि काम कितना ग़लत है अब काम अगर ऐसा है जिसमें तुम जानवर मार रहे हो या सीधे-सीधे तुम्हारी कम्पनी लोगों की जेब काटती है तो तुरन्त छोड़ना पड़ेगा, काम अगर ऐसा है जिसमें बस तुम्हारा मन नहीं लगता एक आन्तरिक बेचैनी है तो कर लो चार-पांछः महीने जोड़ लो जो पैसे जोड़ना चाहते हो; किसी तरीक़े से झेल लो।

वो इस पर निर्भर करता है कि काम किस दिशा में कितना ग़लत है, तुम्हारी कम्पनी सीधे-सीधे काम ही करती हो लोगों को बेवकूफ़ बनाने का और तुमसे भी यही करवाती है कि जाओ सीधे झूठ बोलो उनसे ऐसा कुछ है तो तो फिर जल्दी ही छोड़ दो।

प्र: दरअसल बात ये है कि मैं सरकारी क्षेत्र में हूँ और जॉब ख़राब नहीं है लेकिन जो तन्त्र बनाया है समस्या उसके अन्दर है महौल ही ख़राब है।

जॉब ख़राब नहीं है तन्त्र जैसे स्थानीय राजनेताओं का दख़लन्दाज़ी और जनप्रतिनिधियों का इस तरह का इंटरफेरेंस (हस्तक्षेप) और क्योंकि जिस भी तरह का विभाग है उसमें ऊपर से नीचे तक सभी एक उसी विचारधारा के लोग हैं तो उसमें जीना थोड़ा सा मुश्किल हो जाता है। तो समझ नहीं आता कि किस तरीक़े से चला जाए।

आचार्य: इसका कोई आर-पार का जवाब नहीं होता तीन साल तो मैंने भी झेला था लेकिन तीन साल झेलकर मैं ये नहीं कह सकता कि अभी दस साल और झेलता रहूँगा ये तो तुम्हारी अपनी त्वरा पर है अपनी आग पर है कि तुम कितनी शीघ्रता के साथ दलदल से बाहर आ सकते हो।

और फिर दलदल से बाहर आने से पहले कुछ प्रबन्ध भी करने पड़ते हैं तो दम लगाकर जल्दी दिखाकर मेहनत करके वो प्रबध जल्दी-से-जल्दी कर लो ताकि जल्दी बाहर आ सको।

ऐसे भी हुए हैं कुछ युवा लोग ही थे बंगाल के थे दो लड़के दोनों के पास सरकारी नौकरी थी रिजर्व बैंक में थी किसी विभाग में दोनों ने एक या दो शिविर किये और उतारू हो गये कि हम अपनी नौकरियांँ छोड़ देंगे। मैंने कहा तुम इसको छोड़कर और जो कुछ करना चाहते हो पहले उसका तो कुछ निश्चित कर लो, तुमने कितनी रिसर्च कर ली कि दूसरा क्या काम करना है?

जाओ पहले वो रिसर्च करो सरकारी नौकरी में तुम्हें वक्त बहुत मिल जाता है काफ़ी समय तुम्हारे पास हफ्ते में खाली होता है। जाओ पहले उधर देखो अच्छे से करो पर वो जवानी का जोश उन्होंने न देखा, न बाहर जाकर के कोई सूचना, ज्ञान इकट्ठा किया वो जल्दी ही उन्होंने त्यागपत्र दे दिया यही बोलकर कि हमारे दफ्तरों में घूस बहुत चलती है हम यहाँ काम नहीं कर सकते।

वही हुआ जो होना था दोनों ही संस्था से नादारद हैं उसके बाद दिखाई नहीं दिए। लम्बी पारी जब खेलनी होती है न तो जल्दी-जल्दी आदमी चौके-छक्के नहीं मारने लगता है अगर कोई आते ही बल्ला घुमा रहा है तो इसका मतलब है कि वो चाहते ही नहीं है कि लम्बा खेलें उसको पेवेलियन का सुख ज़्यादा प्यारा है।

या तो छक्का मिलेगा उसका सुख मिलेगा नहीं तो पेवेलियन का सुख मिलेगा जिस आदमी को डटकर के निष्ठा के साथ पूरा जीवन सच्चाई की तरफ़ लगाना है वो यकायक अन्धे फैसले नहीं करेगा वो समझ बूझकर धीरज के साथ बहुत सुलझा हुआ काम करेगा।

और साथ ही ये भी बोल रहा हूँ कि वो इतना धीरज भी नहीं दिखाएगा कि दस साल से धीरज ही दिखाए जा रहा है और जवानी बीत गयी। डेढ़ सौ गेंद ब्लॉक कर दी और एक भी रन नहीं बनाया है कि धीरज दिखा रहे हैं लम्बी पारी खेलनी है, तुम्हारी पारी किस काम की?

दोनों बातें एक साथ लेकर चलना है, टिके भी रहना है, रन भी बनाने हैं।

प्र: इसमें एक छोटी सी दुविधा है एक विचार की कोई भी कम्पनी है किसी तरह की उसमें आज मान लीजिए साठ लोग हैं जो ख़राब चल रहे हैं और चालीस लोग आज अच्छे हैं उसमें, अगर मैं छोड़ देता हूँ यहाँ से मतलब अभी मैं कह रहा हूँ अपनेआप को कि मैं आध्यात्मिक व्यक्ति छोड़ पा रहा है तो एक अनअध्यात्मिक व्यक्ति के लिए एक स्पेस पैदा हो जाता है ऐसी स्थिति में फिर क्या होगा?

आचार्य: आध्यात्मिक तुम हो पर व्यवहारिक रूप से भी तो देखना पड़ेगा न कि तुम्हारा अध्यात्मिक कहाँँ फलीभूत हो सकता है तुम बहुत आध्यात्मिक आदमी हो बूचड़खाने में, क्या कर लोगे? जान बचा लोगे? बूचड़खाना तो चलेगा और वहाँ का काम है कत्ल करना तुम कहो, ‘मैं अगर यहाँँ से हट गया तो यहाँ कोई अनाध्यात्मिक आदमी, नॉनस्प्रिचुवल आदमी आ जाएगा।’ तुम रहो या वो हो, होना तो वहाँ कत्ल ही है तो तुम वहाँँ रहकर के ऐसा क्या कारनामा करे ले रहे हो कि वहाँ बैठे रहना है? आध्यात्मिक होना ठीक है पर हर बीज को अपने अंकुरण के लिए सही ज़मीन तलाशनी पड़ती है। हो सकता है तुम्हारे भीतर अध्यात्म का बीज हो लेकिन अगर उसको सही मिट्टी, सही जमीन नहीं मिलेगी तो उसमें कभी अंकुर नहीं फूटेगा तो अन्दर और बाहर दोनों की स्थितियों को सम्भालना होता है।

अपने भीतर प्राण रखने होते हैं जिसमें से फूल फूटे और साथ-ही-साथ सही उर्वरभूमि तलाशनी होती है जहाँ तुम जड़े फेंक सको अपनी। रेगिस्तान में पड़े रह जाओगे अपने भीतर एक पूरा वृक्ष लेकर के तो पड़े ही रह जाओगे कभी प्रकट नहीं होगा तुम्हारा मर्म।

प्र: प्रणाम आचार्य जी, अन्तिम वर्ष का विद्यार्थी, बीबीए कर रहा हूँ। शुरुआत में दसवीं बारहवीं में अच्छे नम्बर आ गये तो उसके बाद पापा ने भी कहा कि बिजनेस कर ले साथ में और आगे जाकर अगर बीबीए करने हैं तो ग्रेजुएशन यहीं से कर ले। मैं देहरादून से हूँ उन्होंने कहा ग्रेजुएशन यहीं से कर ले पर जब मैं पहले दिन गया कॉलेज वहाँ पर ऐसा माहौल मिला क्या वो टायर टू, टायर थ्री (द्वितीय तृतीय श्रेणी जैसा) टाइप का कॉलेज।

और कोर्स भी बी. बी.ए है तो मुझे मलाल रहता है कि अच्छी शिक्षा नहीं मिल पायी क्योंकि पहले टीचर्स (शिक्षक) स्कूल में कहते थे कि तू कुछ कर जाएगा दोस्त भी जो थोड़े कम परसेंट लाते थे देख रहा हूँ, कि डिलॉट, मैकेंजी हैं वहाँँ सब लग गये। एक ईर्ष्या होती है कि मैं भी वहाँ हो सकता था।

आचार्य: देखो, प्रश्न मूल्यों का है किस चीज़ को मूल्य देते हो आप जिस चीज़ को मूल्य देते हो वो अगर किसी और के पास पाओगे अपने ही पास नहीं तो दर्द तो उठेगा ही उस दर्द के उठने में कोई बुराई नहीं है। बुराई है व्यर्थ चीज़ को मूल्य देने में तुम ज्ञान को मूल्य दो किसी और के पास ज्ञान पाओ स्वयं को अज्ञानी पाओ और इस बात का क्षोभ उठे, बुरा लगे — अच्छा है। बुरा लगा — अच्छा है। बुरा लगा है तो कोशिश करोगे और ज्ञान पाने की।

पर अब ये डेलोएट (अर्थशास्त्र की शिक्षा के लिए कॉलेज) ये सब ख़ुद ही कह रहे हो अगर पा भी लिया तो क्या विशेष पा लोगे नहीं पाया तो ईर्ष्या में जलोगे इससे अच्छा ये है कि देख ही लो कि उस चीज़ में मूल्य नहीं है या काफ़ी कम है।

अभी हम प्रतिभा की बात कर रहे थे न, योग्यता को भी उससे जोड़कर देखो योग्यता को। प्रतिभा हमने कहा उसकी वास्तविक परिभाषा होनी चाहिए संकल्प से सम्बन्धित, जो सही काम के लिए जितनी जान ला सके, लगा सके वो उतना प्रतिभाशाली।

योग्यता की भी यही परिभाषा होनी चाहिए हर सदगुण की यही परिभाषा होनी चाहिए जो सही चीज़ के लिए मूल्य चुकाने को तैयार हो वो योग्य है धैर्य की सही परिभाषा क्या है? अन्याय का प्रतिकार नहीं कर रहे चुपचाप बैठे हो क्या ये धैर्य है? धैर्य की क्या परिभाषा है? सही चीज़ के मिलने में जितना भी समय लगता हो, कष्ट मिलता हो उसको स्वीकार करने का नाम धैर्य है।

अपनी जितनी भी आन्तरिक परिभाषाएँ हों सबको अपनी मूल पहचान के अनुसार बदल दो वो सही हो जाएँँगी। मूल पहचान क्या है? – चेतना हैं हम।

तो प्रेम की सही परिभाषा क्या हुई? तृप्ति के प्रति आकर्षण को प्रेम कहते हैं। तो सही प्रेम कौनसा हुआ? किसी ऐसे के प्रति जो तुम्हारी बिलखती चेतना को तृप्ति दे सके — वो प्रेम कहलाएगा। सदगुण, अवगुण सब की परिभाषाएँँ तुम्हें मिल जाएँँगी अगर तुम अपनी पहचान को केंद्र में रख दो एकदम जान जाओगे फिर कि जीवन में सही निर्णय क्या है, कोई शंका नहीं बचेगी। समझ रहे हो बात को?

बिलकुल बुरी नहीं है ईर्ष्या सही लक्ष्य के लिए ईर्ष्यालु बनो तुम्हारे पास कोई विकल्प ही नहीं है जो कुछ भी तुम प्राकृतिक रूप से लेकर पैदा हुए हो जैसे – ईर्ष्या, बच्चा ईर्ष्या लेकर पैदा होता है उसको सही चीज़ चीज के हवाले कर दो।

मेरे भीतर ईर्ष्या भी है तो ईर्ष्या भी मैं तेरी खा़तिर करूँगा, मेरे भीतर मोह भी है तो मोह भी तेरी खा़तिर करूँगा। जो कुछ भी मुझे प्रकृति ने सौंप दिया है या परिस्थितियों ने सौंप दिया है सब तेरी खा़तिर करूँगा "तेरा तुझको सौंप दे क्या लागत है मोर"।

जो प्रकृति से मिला है इसको हटा तो सकता नहीं पर समर्पित तो कर सकता हूँ, तेरी दिशा में लगा सकता हूँ। बहुत तीक्षण बुद्धि मिली है, अच्छा आईक्यू मिला है, तेरी सेवा में लगा दूंँगा। भावुक हूँ, बड़ी भावनाएँँ मिली हैं — बहुत लोग होते हैं वो पैदाइशी भावुक होते हैं, उन भावनाओं को तेरी सेवा में लगा दूंँगा। विरासत में बहुत सारा पैसा मिला है तेरी सेवा में लगा दूंँगा, ज्ञान मिला है, जो भी है।

सबको अलग-अलग तोहफ़े मिले होते हैं प्रकृति से है न? किसी को कुछ, किसी को कुछ ऐसा तो कोई होता ही नहीं जिसको कुछ भी नहीं मिला है अगर शरीर मिला है तो उसके साथ में गुण भी मिले हैं उन सबको लगा दो। मूल्य फिर किसको देना है सिर्फ़ उसको जो जीवन को सार्थक कर देता है।

देखो अभी कम उम्र के हो छात्र हो पता नहीं मेरी बात सुनने में कैसी लग रही होगी क्योंकि अभी चारों तरफ़ तुम ग्लैमर (चकाचौंध) से घिरे हुए हो हमारा समाज ही ऐसा है। और ग्लैमर चाहता है कि तुम ग्लैमर को ही मूल्य दो पर ग्लैमर का कोई मूल्य नहीं होता या इस बात को पलट दो सिर्फ़ सच को ही ग्लैमरस मानो।

कपड़े नहीं हैं ग्लैमरस , पैसा नहीं है ग्लैमरस , गाड़ी नहीं हैं ग्लैमरस , इमारत नहीं है ग्लैमरस , ब्रैंड नेम नहीं हैं ग्लैमरस , सच्चाई ग्लैमरस है, आकर्षक है। मेहनत तो करनी ही है, ग़लत दिशा में मेहनत करके क्या मिलेगा? जान तो लगानी ही है और हम पैदा किसलिए हुए हैं?

सही चीज़ के लिए जान लगाओ न उसमें भले ही कोई साथ न दे, भले ही कोई समर्थन न दे, स्वीकृति न दे कोई बात नहीं कोई बात नहीं अब हम पॉंच-दस साल के नहीं हैं छात्र भले ही हैं पर युवा हैं, वयस्क हैं विरोध का सामना कर सकते हैं।

बस तकलीफ़ ये आएगी कि सुख सुविधाओं पर थोड़ी आँच पड़ेगी वो झेलने को तैयार रहो। देखो, आग से गुज़रे बिना न फ़ौलाद बनता है, न कुन्दन। आग से तो बच ही नहीं सकते और अगर ज़िन्दगी में आग से नहीं गुज़रोगे तो गुज़रोगे तो तब भी लाश बनकर। लाश बनकर गुज़रो उससे पहले ज़िन्दगी में जीते जी ही आग से गुज़र लो जी उठोगे।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
Comments
Categories