प्रश्नकर्ता: टेर्रेंस मकेना करके एक अमेरिकन काफ़ी कल्ट (पन्थ) फिगर थे जो मेरे ख्याल में उन्नीस सौ अस्सी में गुज़र गए, उससे पहले बहुत कल्ट फोल्लोविंग (अनुगामी) थी, आई थिंक ही हैज़ बीन द इंटेलेकचुअल पोस्टरबॉय ऑफ द रेव कल्चर (मुझे लगता है वो एक बौद्धिक पोस्टर बॉय रहे हैं रेव संस्कृति के) और वो एक रेस्पोंसिबल, ज़िम्मेदार तरीके से एडवोकेट (समर्थन) करते थे सायकोडलिकस (भ्रमित कर देने वाला) जो कि नैचुरली अकरिंग प्लांट्स (प्राकृतिक रूप से पाया जाने वाला पौधे) हैं।
वो वाले प्लांट्स की यूसेज के लिए, तो उनकी कुछ, काफी फिलोसोफिकल कल्चर) एक्सट्रा (इत्यादि) में काफ़ी काम किया है, काफी चीजें मैं उनसे रेज़ोनेट (पुनः स्थापित) कर रही थी तो आई वांटेड टू नो योर थॉट्स ऑन दिस (मैं इस पर आपके विचार जानना चाहती हूँ), आपके, ये जो सायकोडलिक हो गए और इस तरह की चीजें हैं इन पर।
आचार्य प्रशांत: माने क्या, क्या हो जायेगा उससे, आप गांजा, भांग कुछ ले लें, क्या मिल जाएगा आपको?
प्र: इन द सेंस कि ये सब लेते हुए उन्होंने कुछ डिस्कवरीज़ में स्टम्बल अपॉन हुए थे।
आचार्य: हाँ, बिलकुल हो सकता है, आप भी ले लीजिये, आपको भी बहुत सारी डिस्कवरीज़ हो जाएँगी। आप इस वक्त मेरे साथ बैठी हैं, आप गांजा क्यों नहीं फ़ूँकतीं, नहीं वजह बताइए।
प्र: उसमें कुछ है नहीं, मैं कर सकूँ।
आचार्य: लेकिन बहुत आपको अनुभव ऐसा मिल सकता है कि आप कहे ऊँ-ऊँ।
प्र: मैंने किया है और उसमें कुछ नहीं है।
आचार्य: है कैसे नहीं?
प्र: कुछ नहीं है, बिल्कुल जीरो है।
आचार्य: है कैसे नहीं, कुछ नहीं होता तो लोग कर नहीं रहे होते, कुछ तो है उसमें। वो क्या है वो साफ़-साफ़ समझिये।
प्र: क्यूरोसिटी (जिज्ञासा) के लिए गए और पता चला, खोखला।
आचार्य: पर इतने लोग हैं जो इतना कुछ करते हैं उन्हें कुछ तो उसमें मिलता ही है न। वो क्या है जो मिलता है उन्हें उसमें?
प्र: क्षणिक, अपनेआप को भुला देने की।
आचार्य: बस यही बात है, अध्यात्म है, स्वयं को और पैनी नज़र से जानने के लिए, ठीक है और वो सब तत्व काम करते हैं आपको और बेहोशी में ढ़केलने का। अध्यात्म है होश की ओर बढ़ने की बात। तो ये गांजा और भांग और धतूरा और एलएसडी ये सब कैसे ठीक हो सकते हैं?
बताता हूँ मैं इनका उपयोग क्या है? इनका उपयोग ये है कि हम इतने भद्दे जीवन जीते हैं कि हमारे लिए ज़रूरी हो जाता है अपने जीवन के नंगे, कड़वे, भद्दे यथार्थ को कुछ देर के लिए भुलाना। अगर हममें साहस होता तो उस नंगे, भद्दे, कड़वे यतार्थ को हम भुलाने की कोशिश नहीं करते हम उसे बदलने की, काटने की कोशिश करते पर इतनी हिम्मत हममें है नहीं, और इतनी मेहनत हम करना नहीं चाहते। तो हम बहुत सस्ता उपाय पकड़ते हैं, क्या?
प्र: गांजा या शराब या सिगरेट।
आचार्य: आदमी अकेला जीव है जिसे नशा चाहिए क्योंकि आदमी अकेला जीव है जिसके पास चेतना है। वो चेतना उत्थान माँगती है, ऊँचाई माँगती है, जब आप उसे ऊँचाई नहीं दे पाते तो आप उसे नशा दे देते हो, तो नशा कायरता है। नशा झूठा इलाज है आपकी बेचैनी का। बाकि आधे घंटे, दो घंटे, चार घंटे के लिए, मैं छह साल हॉस्टल रहा हूँ, मुझे इन सबका अनुभव है, बढ़िया, खूब अनुभव है, हूँ, हॉस्टलों में ये खूब चलता है।
प्र: मेरा भी हॉस्टल का ही एक्सपेरिएन्सेस है।
आचार्य: तो ऐसे ही आपको कैज़ुएली बस टाइम पास करना है तो आप टाइम पास के लिए ये सब कर लो उसमें लेकिन आपको कोई आध्यात्मिक उत्थान नहीं मिल जाएगा।
प्र: फिर भले ही आप उसकी आड़ में कहें कि मैंने ये डिस्कवर (खोज) कर लिया या।
आचार्य: वो सब तो देखिये अपने आपको जायज़ ठहराने के बहाने है। कोई पूछे कि इतनी ग्रास क्यों लेता है तो आप बोलोगे कि उससे मुझे स्पिरिचुअल एक्सपीरियंस (आध्यात्मिक अनुभव) होता है।
प्र: या फिर मैं कोई नई फ़िलोसोफ़ी डिस्कवर (दर्शन की खोज) कर रहा हूँ।
आचार्य: कौनसी फ़िलोसोफ़ी ऐसी है जो घास खाकर के पैदा होती है?
प्र: घोड़ा भी घास खाता है वैसे तो।
आचार्य: मुँह ज़्यादा चलने लगता है, जिनका मुँह ज़्यादा चलता है आमतौर पर वो मौन हो जाते हैं। जो चीजें आपके इधर( इशारे से देह की ओर दिखटर हुए) गन्दे तहखाने में नीचे छुपी होती हैं वो उभर कर सामने आने लगती हैं। आपकी कुंठाए, आपकी चिन्ताएँ, आपकी ग्रन्थियाँ वो सब सामने आने लगती है तो आपको लगता है कुछ जादू, कुछ चमत्कार सा हो रहा है।
बहुत बातूनी था वो चुप बैठ गया चार घंटे तक कुछ बोल ही नहीं रहा। और जो हॉस्टल का सबसे चुप्पा लड़का था वो चढ़ गया है मेज़ के ऊपर और वहाँ खड़ा होकर के भाषण दे रहा है और दो घंटे से चुप ही नहीं हो रहा, और ये वो है जिसको अगर कह दिया जाता है कि क्लास में प्रेसन्टेशन दे दो इसके बिलकुल छक्के छूट जाते हैं। और यहाँ ये दो घंटे से बोले जा रहा है और इसे कोई चुप नहीं करा सकता है।
तो लगता है कि ये जो जड़ी-बूटी है बड़े काम की है, कुछ काम की नहीं है वो बस आपने जिन चीज़ों को दबा रखा होता है, छुपा रखा होता है वो उभर कर सामने आती हैं और वो जो आपने दबा-छुपा रखा होता है वो सब सत्य नहीं है, वो कूड़ा-कचड़ा है जो आपने दबा छुपा-रखा है, उसके सामने आ जाने से आपको कोई बहुत जानकारी नहीं मिल जाएगी अपने बारे में, न जीवन के बारे में, न सत्य के बारे में।
कोई रोने लग जाता है, कोई हँसने लग जाता है, कोई गाने लग जाता है, कोई ऐसी बात बोल देता है जो आमतौर पर नहीं बोलता तो लोगों को लगता है ये तो फ़िलॉस्फ़र हो गया। फ़िलोसोफ़ी हमने पढ़ी नहीं है तो कोई कुछ भी बोल दे तो हमे लगता है ये तो फ़िलोसोफ़ी हो गयी। ये सूरज नहीं है, ये मेरी माँ की पीतल की थाली है, वो चान्द नहीं है, वो मेरी बहन का कटोरे जैसा गोल-गोल, गोरा-गोरा मुँह है, वाह फिलॉस्फ़र हो गया, फ़िलॉस्फ़र हो गया।
देखिये बहुत सीधी-सरल, छोटी सी चीज़ है, अपने साथ बेईमानी मत करो, और जब हम अपने साथ बेईमानी करते हैं न तो उससे एक नहीं हज़ार तरह की बीमारियाँ पैदा होती हैं, ठीक है, वाइरस बहुत होते हैं दुनिया में। आप अगर बीमारी लेने को तैयार हो तो वायरस ही वायरस है और वो आपको ऐसे-ऐसे सिद्धान्त बताएँगे, ऐसी-ऐसी किताबें बताएँगे, ऐसे-ऐसे नुस्खे बताएँगे कि आप उनकी चपेट में आ ही जाओगे।
इन सबका कोई आप अलग-अलग आइसोलेटेड इलाज नहीं कर सकते, इसका एक ही इलाज है, बीमार होने को तैयार ही मत रहो। आप बीमार होने को तैयार हो तो फिर आप गिनती नहीं कर पाओगे कि कितने तरीके के पैथोजन्स (रोगाणु) आप पर आक्रमण करने के लिए एकदम उतारू बैठे हैं। आपके भीतर एक इंकार होना चाहिए, न होनी चाहिए, मुझे बीमार होना ही नहीं, इसी को कहते हैं — ‘नेति-नेति’। मुझे बीमार होना ही नहीं है।
अब कोई कीटाणु, जीवाणु, विषाणु लगे होंगे लाइन लगाकर के, होंगे उनके बड़े ऊँचे-ऊँचे नाम, कोई फ़िलॉस्फ़र है, कोई योगी है, कोई लेखक है, होंगे कोई, हम पर उनका असर पड़ता ही नहीं। और मज़ेदार बात क्या है, हमे पता भी नहीं वो कोन है, आपको उसी वायरस का तो पता चलता है न जो आपको इन्फेक्ट कर दे। आपको पता है इस वक्त भी न जाने कितने वायरस हैं जो आप पर आक्रमण कर रहे हैं लेकिन आपको उनका पता ही नहीं चलेगा क्यों?
क्योंकि आपकी जो प्रतिरक्षा शक्ति है उसने उनको परे ठेल दिया है। कह रही है हटो, हमें तुमसे कोई मतलब नहीं। ऐसा होना चाहिए कि ये सब लोग और इनकी बातें और इनकी किताबें आपके मानसिक रडार में बीप ही न करें। जैसे कितने सारे वायरस होंगे जो हमारे चारों और हैं लेकिन हम न उनका नाम जानते न हमें नाम जानना है, न हमें कभी उनका पता चलेगा कि ये तो आया था मुझ पर आक्रमण करने के लिए, कभी पता नहीं चलेगा।
वैसे ही दुनिया में ये सब कूड़ा-कचरा पड़ा रहे आपको इसका पता ही न चले। ज़ेन में इसको कहते हैं, ‘नदी के पार निकल जाना बिना गीले हुए’। नदी से निकल गए पता भी नहीं चला कि पानी है क्योंकि हममें कुछ ऐसा था जो उस पानी से कुछ मतलब ही नहीं रखना चाहता था। हममें कुछ ऐसा था ही नहीं, मिट्टी जैसा, कि उसपर पानी पड़ा गल गया। नहीं नहीं नहीं, ये सब हमारे चारों ओर चल रहा है हम उसके मध्य में हैं बिलकुल अस्पर्शित, न लेना न देना।