नकारात्मक सोच के फ़ायदे || आचार्य प्रशांत (2020)

Acharya Prashant

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नकारात्मक सोच के फ़ायदे || आचार्य प्रशांत (2020)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। मैं आपसे जानना चाहता हूँ कि ये मन क्या होता है, किसी भी अज्ञात परिस्थिति को मन नकारात्मक दृष्टि से क्यों देख लेता है? उदाहरण के तौर पर किसी ने मुझ से कुछ पैसे उधार लिये और जब मैं पैसे माँगने के लिए उससे सम्पर्क करने की कोशिश करता हूँ और आख़िरकार सम्पर्क नहीं हो पाता है, तो मन में नकारात्मक विचार स्वाभाविक रूप से ही उठ जाता है। मन मेरा अक्सर नकारात्मकता की ओर ही झुकाव रखता है और मन की इस वृत्ति को मैं समझने के लिए तत्पर हूँ। कृपया मदद करें।

आचार्य प्रशांत: जो ये सवाल पूछ रहा है उसको ही मन कहते हैं। जो इस उत्तर को सुन रहा है उसको ही मन कहते हैं। पूछा है कि मन किसको कहते हैं। जो जगता है, जो सोता है, जो हँसता है, जो रोता है, जिसमें चीज़ें आती हैं, जिसमें चीज़ें चली जाती है, जो अतीत को सोचता है, जो भविष्य को बुनता है, उसको मन कहते हैं। जो यहाँ और वहाँ का अन्तर जानता है, जो सारे दृश्य देखता है, जिसमें सारे दृश्य उठते हैं, सब दृश्यों के उठने को ही, सब दृश्यों के गिरने को ही मन कहते हैं।

तुम्हारी चेतना का पूरा जो फैलाव और संकुचन भी है, उठना, गिरना, चढ़ना, उतरना ये सब मन कहलाता है। मन-ही-मन है। मन मात्र है। तो ये मत पूछो कि मन क्या है। मन क्या है में ‘मन’ भी मन है, ‘क्या’ भी मन है, ‘है’ भी मन है और वो जो ‘प्रश्नचिह्न’ लगा हुआ है वो भी मन है, सबकुछ मन है। जो कुछ सीमित है, जो कुछ भी देखा-सुना, जाना जा सकता है, सब मन है।

अब दूसरी बात तुमने पूछी कि मन नकारात्मकता से क्यों भरा रहता है। किसी से तुम कह रहे हो कि तुम्हें पैसे कुछ वापस लेने हैं, तुमने उसे कर्ज़ दिया था, तुम उसे फोन करते हो, फोन नहीं उठाता तो तुम्हारे मन में नकारात्मक विचार आ जाते हैं। सोचते होंगे कि कहीं ये इंसान बेईमानी तो नहीं कर रहा, कहीं पैसे हड़प तो नहीं जाएगा, वगैरह-वगैरह।

ग़ौर से समझो! चाहो तो इसे इवॉल्यूशनरी थ्योरी से समझ लो, प्रकृति और विकासवाद से और चाहो तो इसे गेम थ्योरी (खेल सिध्दान्त) से समझ लो। दोनों ही तरीक़ों से समझ जाओगे कि मन ज़्यादा नकारात्मक क्यों रहता है। जिसको कहते हो न निगेटिविटी (नकारात्मकता), मन निगेटिविटी से भरा हुआ क्यों रहता है?

गेम थ्योरी समझते होंगे, मेरे विचार से इंजीनियर हो तुम शायद, पढ़ी होगी? उसमें नेट पे-ऑफ़ (शुद्ध भुगतान) होता है। अलग-अलग सिनेरिओ (परिदृश्य) होते हैं। हर सिनेरिओ में तुम क्या-क्या कर सकते हो, क्या-क्या एक्शंस (कार्यवाही) ले सकते हो और उन एक्शंस के क्या पे-ऑफ़ (भुगतान) होते हैं, ये होता है। और ये सबकुछ तुम ऐसे समझ लो जैसे एक मेट्रिक्स (आव्यूह) में डाल करके देख लेते हो कि तुम्हें सबसे ज़्यादा पे-ऑफ़ क्या करने से मिल रहा है और फिर तुम वही काम करने की तरफ़ बढ़ जाते हो।

तो चलो, यही स्थिति उठा लेते हैं, केस (घटना) की तरह। किसी ने तुमसे पैसे लिये हैं। अब दो स्थितियाँ हो सकती हैं — उसकी मंशा पैसे लौटाने की है और उसकी मंशा पैसे लौटाने की नहीं है। ठीक है न? स्थिति नम्बर एक — उसकी मंशा पैसे लौटाने की है। स्थिति नम्बर दो — उसकी मंशा पैसे लौटाने की नहीं है। तीसरी कोई स्थिति हो नहीं सकती या तीसरी जो भी स्थिति है उसको घुमा-फिराकर इन्हीं एक और दो में किसी तरह से फ़िट (जमाना) किया जा सकता है।

अब इन दोनों स्थितियों के समकक्ष तुम्हारे सामने भी दो विकल्प हैं। एक विकल्प है ये कि तुम शक न करो उस पर, तुम मानकर चलो कि वो तो पैसे लौटा ही देगा। और दूसरा विकल्प तुम्हारे पास ये है कि तुम शक करो उस पर कि वो तुम्हारे पैसे नहीं लौटाएगा।

ठीक है?

अब इसमें अपना पे-ऑफ़ देख लो। पे-ऑफ़ का मतलब होता है कि कुल तुम्हें उसमें फल कितना मिल रहा है, कुल उसमें तुम्हें मुनाफा कितना हो रहा है, पे-ऑफ़। मान लो तुम ये मानकर चलते हो कि वो तुम्हारे पैसे लौटा ही देगा। तो स्थिति नम्बर एक में तो ठीक है, तुम मानकर चले कि वो पैसे लौटा देगा और वास्तव में उसकी मंशा भी यही थी कि वो तुम्हारे पैसे लौटा दे, तो चलो कोई नुक़सान नहीं हुआ, कोई नुक़सान नहीं हुआ, बच गये।

लेकिन कुछ सम्भावना स्थिति नम्बर दो की भी है कि उसकी नीयत ख़राब है, वो पैसे नहीं लौटना चाहता। अब उसकी तो नीयत ख़राब है, वो पैसे नहीं लौटना चाहता, पर तुमने मान लिया कि वो तो पैसे लौटा ही देगा। तुमने मान लिया है कि वो पैसे लौटा ही देगा इसीलिए तुम कोई सतर्कता का, सावधानी का कोई क़दम नहीं उठाते। तुम उसके पीछे पुलिस और जासूस नहीं दौड़ाते। तुम पैसे उगाहने के लिए उसकी बाँह नहीं मरोड़ते। क्योंकि तुम माने बैठे हो, ये तो पैसे लौटा ही देगा। जबकि पैसे लौटाने का उसका इरादा है नहीं। तो क्या नतीजा निकलेगा अगर तुम ये माने बैठे हो वो पैसे लौटा ही देगा तो? स्थिति नम्बर एक में तो तुम बच जाओगे। स्थिति नम्बर दो में तुम मारे जाओगे। तो तुम्हारा पे-ऑफ़ गड़बड़ हो गया न, फँस गये न बेटा!

अब देखो कि यही स्थिति एक, स्थिति दो उसकी ओर से है, लेकिन तुम्हारी ओर से जो तुम्हारी टॅक्टिक (युक्ति) है वो बदल गयी है। अब तुम मान रहे हो कि ये पैसे नहीं देने वाला है। तुम उस पर शक कर रहे हो। अब तुम उस पर शक कर रहे हो कि ये पैसे नहीं देगा। लेकिन अगर उसकी मंशा पैसे देने की है, वो दे तो तब भी देगा तुम्हारा कोई नुक़सान नहीं हुआ भाई, बच गये तुम।

तुम माने बैठे थे कि ये आदमी ख़राब है, ये मेरे पैसे नहीं लौटाएगा। लेकिन उसकी ओर से स्थिति नम्बर एक चल रही थी। उसका इरादा पैसे लौटाने का था, उसने लौटा दिया तो भले ही तुम्हारा शक ये था कि वो पैसे नहीं लौटाएगा, लेकिन तुम्हें पैसे तो मिल ही गये। तुम्हारा कोई नुक़सान तो हुआ नहीं, कोई नुक़सान नहीं हुआ।

लेकिन स्थिति नम्बर दो पर आओ। हम मॉडलिंग (प्रतिरुपण) कर रहे हैं सिचुएशन (स्थिति) की। स्थिति नम्बर दो पर आओ। उसकी नीयत नहीं थी लौटाने की और तुम भी यही मान रहे थे कि वो नहीं लौटाएगा, तुम मान रहे थे नहीं लौटाएगा इसीलिए तुमने कुछ हथकंडा अपनाया। तुमने कोई तरक़ीब लगायी। तुमने उसकी बाँह मरोड़ी और तुमने उससे पैसे निकलवा लिये। अब बताओ तुम्हारे सामने जो दो विकल्प थे, शक करना और शक न करना, इन दोनों में से ज़्यादा काम का तुम्हारे लिए कौनसा विकल्प हुआ? शक करना।

ये अभी-अभी हमने गेमिंग की मदद से देखा, मॉडलिंग करी। अब प्रकृति भी अपने भीतर जैसे इसी गेम थ्योरी पर चलती हो। प्रकृति भी कहती है, ‘भाई! ज़्यादा-से-ज़्यादा शक करो। शक करने से लाभ है।’ और बिलकुल लाभ है, देखा न अभी। शक करा तो पैसे मिलने की सम्भावना बढ़ गयी।

अब तुम जाओ आज से बीस हज़ार साल पहले के एक जंगल में, ठीक है? एक लाख साल पहले के एक जंगल में जाओ। तुम सोये पड़े हो, कुछ झाड़ियों के बीच थोड़ा साफ़ स्थान है वहाँ पर, ठीक है? तुम सोये पड़े हो और तुम्हारा कबीला सोया पड़ा है और रात का समय है, अमावस की रात है, झाड़ियों में कुछ सरसराहट होती है। दो सम्भावनाएँ हो सकती हैं — ऐसा ही है कोई पक्षी-वक्षी झाड़ में छुपा है, वो रात में थोड़ा अपना पंख हिला रहा है और ये भी हो सकता है कि भेड़िया है।

तुम अगर शक नहीं करते तो तुम बचोगे, पर सिर्फ़ तब बचोगे जब वो पक्षी ही हो, पक्षी है तो बच गये। पक्षी नहीं है तो शक न करने की तुमको बड़ी भारी क़ीमत देनी पड़ेगी। तुम सो जाओगे क्योंकि शक तो तुमने किया नहीं, भेड़िया आएगा, तुमको खा जाएगा।

एक आदमी था जिसने शक नहीं करा, भेड़िया आया उसको खा गया। एक आदमी था जो शक नहीं कर रहा था, भेड़िया आया उसको खा गया। दूसरा था महाशक्की, ज़बरदस्त रूप से शक्की वो। बीस बार सरसराहट हुई और बीसों बार वो उठकर बैठ गया कि भेड़िया आ गया। बीस में से उन्नीस बार क्या था? पक्षी। तो बीस में से उन्नीस बार बेवक़ूफ़ बना वो। कोई भेड़िया नहीं था पक्षी था, पर बीस में एक बार भेड़िया ही था। इसकी जान बच गयी, शक न करने वाले की जान चली गयी।

किसके जीन्स (आनुवांशिकता की मूलभूत शारीरिक इकाई) आगे बढ़े? जो शक्की है उसके जीन्स आगे बढ़ गये। जो बेचारा शक नहीं करता था उसके जीन्स आगे नहीं बढ़े। पीढ़ी-दर-पीढ़ी, लगातार किनके जीन्स आगे बढ़ते रहे? जो शक करते थे। तो ले देकर इवॉल्यूशन ने आज हमें जैसा बनाया है, हममें किनके जीन्स भरे हुए हैं? उन्हीं सब शक्की लोगों के, क्योंकि जो शक नहीं करते थे वो तो भेड़िये का रात्रिभोज बन गयें।

बात समझ में आ रही है कुछ?

तो प्रकृति चाहती है कि तुम शक करो। शक करने का दुष्परिणाम ये होगा कि रात भर सोओगे नहीं। ज़रा सी खडखड़ाहट होगी झाड़ में, तुम्हें लगेगा भेड़िया आ गया और बीस में से उन्नीस बार वो भेड़िया नहीं होगा। कोई पत्ता गिर गया, कुछ हो गया, तो तुम आन्तरिक रूप से बेचैन रहोगे। दुष्परिणाम ये होगा, लेकिन शक करने का सुपरिणाम ये होगा कि जान बची रहेगी।

प्रकृति नहीं चाहती कि तुम्हें मानसिक शान्ति वगैरह मिले। तुम मानसिक रूप से शान्त-अशान्त हो, प्रकृति को कोई मतलब नहीं। प्रकृति तो एक चीज़ चाहती है, क्या? तुम्हारा शरीर बचा रहे, तुम्हारा शरीर बचा रहे और शरीर के बचे रहने की ज़्यादा सम्भावना तो शक्की लोगों की ही है। जो शक नहीं करेंगे, वो मौज में जिएँगे, आनन्द में जिएँगे, लेकिन कम जिएँगे। कभी-न-कभी, कोई-न-कोई भेड़िया आकर उन्हें उठा ले जाएगा। लेकिन उनकी रातों की नींद पक्की रहेगी। क्योंकि कोई खडखड़ाहट हो रही होगी, वो कहेंगे, ‘अरे पक्षी होगा, छोड़ो सोओ, मौज में सोओ।‘

प्रकृति ऐसे लोगों को पसन्द नहीं करती। प्रकृति कहती है, ‘भाड़ में गया तुम्हारा आनन्द और तुम्हारी सरलता और तुम्हारी मौज। हमें न सरलता चाहिए, न आनन्द चाहिए, न मौज चाहिए, हमें शरीर चाहिए, तुम्हारा जीन्स आगे बढ़ना चाहिए।‘ और जीन्स तो उन्हीं का आगे बढ़ता है जो महाशक्की हैं। तो नतीजा ये है कि जिसको तुम कहते हो सर्वाइवल ऑफ़ द फिटेस्ट (योग्यतम की उत्तरजीविता) वो सर्वाइवल ऑफ़ द शक्कीएस्ट (शक्की की उत्तरजीविता) है। जो जितना शक्की है, वही सर्वाइव करता गया, वही आगे बढ़ता गया।

हम ग़लत सोच रहे हैं कि हर पीढ़ी पिछली पीढ़ी से बेहतर होती है। वास्तव में जो मौजी लोग हैं, वास्तव में जो इस जगत के फूल हैं, वो फूलों की तरह ही नाज़ुक होते हैं, सुन्दर होते हैं, खुशबूदार होते हैं। लेकिन नाज़ुक होते हैं वो ख़त्म हो जाते हैं। और जो इस जगत का कचरा होते हैं, वो कचरे की तरह ही चिरस्थायी होते हैं, वो बचे रह जाते हैं।

तुम्हें मैं थोड़े फूल दे दूँ और थोड़ा कचरा दे दूँ, ज़्यादा क्या चलेगा? कचरा ही ज़्यादा चलेगा। वो दो-सौ साल बाद भी क्या रहेगा? कचरा दिया, वो दो-सौ साल बाद भी क्या रहेगा? वो कचरा ही रहेगा। कचरा दो-सौ साल बाद फूल नहीं बन जाएगा। तुम उसे रखकर देख लो। लेकिन तुम्हें आज फूल दे दूँ, दो दिन के बाद ख़त्म हो जाना है।

प्रकृति को नहीं चाहिए सौन्दर्य, प्रकृति को नहीं चाहिए मुक्ति और सरलता, प्रकृति को नहीं चाहिए मनमौजी, मस्तमौले लोग। प्रकृति को चाहिए ऐसे लोग जो डरे-डरे जिएँ, घुटे-घुटे जिएँ, लेकिन लम्बा जिएँ।

बात समझ में आ रही है?

तो इसलिए हम सब निगेटिविटी से भरे रहते हैं, क्योंकि हमारे जीन्स निगेटिव हैं। तुमने कोई ख़ास ग़लती नहीं कर दी है। तुम ही कोई बहुत बड़े अपराधी नहीं पैदा हो गये हो कि आचार्य जी, मैं क्या करूँ, मैं बड़ी नकारात्मकता से भरा रहता हूँ। बेटा, जो बच्चा पैदा होता है वही नकारात्मकता से भरा रहता है। छोटे-छोटे बच्चे होते हैं, मुझे देखकर के बिलकुल दहाड़ मारकर रोते हैं, क्योंकि उनका अनुभव ही यही रहा है कि कोई भी हो, बाय डिफॉल्ट (स्वत:) रो पड़ो। जिसको देखकर रो रहे हो अगर वो बाप है अपना तो कोई नुक़सान तो हो नहीं जाएगा।

लेकिन अगर वो बाप नहीं है, क्या पता कोई शत्रु हो, तो रोने के कारण बच जाओगे। इसीलिए रोना हर स्थिति में एक बढ़िया टॅक्टिक है। तुमने सोचा नहीं है? एक बच्चा होता है छोटा, वो बात-बात में क्यों रो पड़ता है? क्योंकि अगर रोने की कोई वजह नहीं थी तो रो लेने से कोई नुक़सान नहीं हो जाता।

वो रो रहा है, माँ आएगी, जाँचेगी, परखेगी, ज़रा क्या बात है, क्यों रो रहा है, कहेगी, अरे! रोने कोई वजह नहीं, छोड़कर अपना चली जाएगी। ऐसा तो है नहीं कि माँ आएगी, देखेगी बिना बात के रो रहा है तो उसको फिर हन्टर निकाल कर सोट देगी। तो बिना वजह रोने की कोई उसे सज़ा मिलती नहीं है, लेकिन वजह होने पर भी अगर वो नहीं रोया तो बड़ी सज़ा मिल जाएगी। तो गेम थ्योरी कहती है कि तुम्हारे लिए अच्छा विकल्प यही है कि तुम बात-बात में रोया करो।

बात समझ में आ रही है?

अधिक रोने पर कोई सज़ा नहीं मिल रही, पर कम रोने पर बहुत बड़ी सज़ा मिल सकती है। तो ज़्यादा अच्छा ये है कि जब कुछ समझ में न आये तो…? रो पड़ो। तो आम आदमी की ज़िन्दगी उसी बच्चे की तरह बात-बात पर रोते हुए गुज़रती है और उसके लाभ भी मिलते हैं। रोना लाभप्रद है, नकारात्मकता लाभप्रद है, निगेटिविटी यूज़फुल है। हम इसलिए नकारात्मकता से भरे रहते हैं, जान बचती रहती है। बीस में से एक बार ही सही लेकिन कभी-न-कभी तो भेड़िया आता है न? उस भेड़िये के विरुद्ध सुरक्षा होती रहती है, तो इसलिए हम भरे हुए हैं नकारात्मकता से। अब लेकिन तुमको ये फ़ैसला करना है।

‘आनन्द’ फ़िल्म में राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन की जो आपसी नोकझोंक होती थी बड़ी दिलचस्पी थी कि ज़िन्दगी तुमको बड़ी चाहिए कि लम्बी चाहिए? “बाबू मोशाय, ज़िन्दगी बड़ी चाहिए या लम्बी चाहिए?” लम्बी चाहिए तो खूब नकारात्मकता से भरे रहो। जितना तुम शक्की रहोगे प्रकृति ने संयोग ऐसा बिठाया है कि तुम्हें उतनी तरक़्क़ी मिलेगी, ज़बरदस्त तरीक़े की तरक़्क़ी मिलेगी।

लेकिन जितना शक्की रहोगे, जीवन की गुणवत्ता, क्वालिटी ऑफ लाइफ़ उतनी बुरी रहेगी। तुम देख लो कि तुमको आनन्द के पचास साल चाहिए या शक, सन्देह, संशय से भरे हुए सौ साल। ये तो चुनाव है जो हर व्यक्ति को करना ही पड़ेगा।

शक में सुरक्षा है। आनन्द मे एक असुरक्षित मौज है। अब तुम बता दो कि तुमको सुरक्षित वेदना चाहिए या असुरक्षित मौज चाहिए। जो तुम्हें चाहिए वो ले लो। लेकिन ये समझ लेना कि शक करना या निराशा से भरे रहना या आशंकाओं से घिरे रहना व्यर्थ नहीं होता। प्रकृति में उसकी उपयोगिता है, तुम्हारे शरीर को बचाए रखने में उसकी उपयोगिता है, इसीलिए इस तरह की वृत्तियाँ इतनी ज़्यादा व्यापक पायी जाती हैं। जिस आदमी को देखो वही आशंकित है, डरा हुआ है, सन्देह से भरा हुआ है। कोई वजह होगी न कि हर आदमी की यही हालत है। हर आदमी की हालत इसलिए क्योंकि हमारे जीन्स ऐसे हैं।

अब तुम देख लो कि तुमको बोध पर चलना है या जीन्स पर चलना है। जीन्स पर चलोगे तो लम्बा जियोगे बेटा। बोध पर चलोगे तो कुछ पता नहीं कितना जियोगे, कुछ पता नहीं कि रुपया-पैसा कितना कमाओगे, कुछ पता नहीं कि सामाजिक सम्मान वगैरह कितना मिलेगा, जगत की दृष्टि में कितने सफल और कितने सबल कहलाओगे। मौज आएगी। अब मौज का कोई विज्ञापन क्या बताये तुमको? जिनको पसन्द होती है वो उसके लिए जान देने को तैयार हो जाते हैं। जिनको मौज पसन्द नहीं होती, उनके मन में ज़बरदस्ती थोड़े ही प्रेम जगाया जा सकता है कि मौज बड़ी बात है, मौज बड़ी बात है।

जिन्हें मौज पसन्द होती है, उनके सामने तुम लाख बोलो भेड़िया आया, भेड़िया आया वो कहेंगे — तुलसी भरोसे राम के निर्भय होके सोये। अनहोनी होनी नहीं, होनी होय सो होये॥1

आता होगा भेड़िया। और ऐसा नहीं कि भेड़िया नहीं आएगा, ऐसा नहीं कि राम भेड़िये को रोक लेंगे, कहेंगे, ‘देखो, मेरा तुलसी सो रहा है भेड़िये, इसके पास मत जाना।‘ ये मतलब नहीं है। मतलब ये है कि जब आएगा भेड़िया तब आएगा, जब तक नहीं आ रहा है तब तक काहे को परेशान होते रहें। मरना तो एक दिन है ही, सब कतार में लगे हुए हैं। क्या रातों की नींद ख़राब करते रहें, क्या परेशान होते रहें कि कहीं इधर से दुश्मन न आ जाए, कहीं उधर से ख़तरा न आ जाए। कहीं यहाँ नुक़सान न हो जाए, अब आएगा तो आएगा। ये बिलकुल मत सोच लेना कि राम के भरोसे है तुलसी, तो राम खड़े हुए हैं धनुष-बाण लेकर, अब जो ही भेड़िया आ रहा है उसको फट से तीर मार देते हैं। ये सब कुछ नहीं।

राम का आशीर्वाद ये नहीं है कि वो धनुष-बाण लेकर के तुम्हारी सुरक्षा के लिए खड़े हो जाएँगे। राम का आशीर्वाद ये है कि तुम्हारे मन से भेड़िये का डर निकल जाएगा। आएगा तो आएगा।

तुलसी भरोसे राम के, निर्भय हो के सोए। अनहोनी होनी नही, होनी हो सो होए।।

~ गोस्वामी तुलसीदास

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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