नाज़ुक नहीं, निडर बनो

Acharya Prashant

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नाज़ुक नहीं, निडर बनो
जो हमें कहा जाता है कि "इंडियन वूमन की तो बात ही दूसरी होती है। वह तो होती ही कमज़ोर है, भावुक बहुत होती है।" नहीं, कमज़ोर नहीं होती। और उसका प्रमाण यह है कि उसने गोरी महिलाओं को हराया है। और किस मैदान में? भावना के मैदान में नहीं, खेल के मैदान में। जूझती हुई लड़की ज़्यादातर लोगों को पसंद नहीं आएगी, क्योंकि अगर वो क्रिकेट में या बैडमिंटन में जूझ सकती है, तो फिर वो समाज से भी जूझ सकती है। लड़की को तो जुझारू होना ही पड़ेगा, क्योंकि बहुत-बहुत ज़्यादा संभावना है कि वो जहाँ भी जाएगी, उसको माहौल प्रतिकूल ही मिलेगा। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, आपने महिला क्रिकेट टीम की जीत पर अपनी आज की कविता में कहा कि “सच्ची जीत प्रतिद्वंदी पर नहीं, अपने ही बेड़ियों पर होती है।” जब महिला क्रिकेट टीम जैसी बाहरी जीत होती है तो क्या ये केवल खेल की विजय पर है या ये उस मानसिक ग़ुलामी पर है जो सदियों से स्त्री को सीमित करती आई है?

आचार्य प्रशांत: देखिए, सबसे पहले तो ये समझिए कि जो बधाई मैंने दी है और जो बधाइयों का पूरा आप मज़्मा देख रहे हैं चारों तरफ़, उसमें एक मूलभूत अंतर है। ज़्यादातर लोग जो बधाई दे रहे हैं, वो बधाई क्रिकेट को दे रहे हैं क्योंकि उन्हें क्रिकेट पसंद है। मैं क्रिकेट को नहीं बधाई दे रहा हूँ, ठीक है? मैं एक ज़्यादा व्यापक दृष्टि से देख कर के इस घटना के सांकेतिक महत्त्व को बधाई दे रहा हूँ, और वो बधाई तब भी दी जाएगी जब महिला हॉकी टीम विश्वकप जीत ले या कि शतरंज में कोई लड़की, कोई महिला बाज़ी मार ले जाए, या एथलेटिक्स में, वो सब जगह।

आप अगर सबसे ऊँची जगह पर पहुँचते हो, बात महिला की है, तो वो स्पष्टीकरण देना ज़रूरी है, क्योंकि ज़्यादातर लोगों के लिए तो बस यही है कि “क्रिकेट है, क्रिकेट है,” तो इसलिए मज़ा आ गया। वो नहीं है। देखो, जूझती हुई लड़की, भले वो हॉकी का मैदान हो, कि क्रिकेट की पिच हो या एथलेटिक्स हो, वो नहीं पसंद आएगी ज़्यादातर लोगों को। क्योंकि अगर वो क्रिकेट में या बैडमिंटन में जूझ सकती है, तो फिर वो समाज से भी जूझ सकती है। उसने जूझना सीख लिया।

इसीलिए आप देखोगे कि परंपरा से हमने जहाँ कहीं भी चित्रण करा है या वर्णन करा है, चाहे लिखा हो और चाहे चित्र बनाया हो, एक आदर्श लड़की का या महिला का या माँ का, तो उसमें वो हमेशा कोमलाङ्गिनी है, हमेशा। उसका वर्णन ही ऐसे होगा कि “मुलायम-मुलायम है, मुलायम है।” अगर उसके हाथ कहीं दिखाए जा रहे हैं, बाँहें, तो आपको उसमें ऐसा नहीं होगा कि मज़बूत मांसपेशियाँ दिख जाएँ या बाइसेप्स दिख जाएँ। नहीं होगा।

चाहे धार्मिक रचनाकार हों या साहित्यकार हों, चाहे शास्त्र लिखा गया हो या कविता लिखी गई हो, सबमें यही कहा जाएगा कि ऐसी उसकी नाज़ुक उँगलियाँ हैं और नाज़ुक कलाइयाँ हैं। और कई बार तो उसके कमज़ोर होने को ही उसके सौन्दर्य का प्रतीक बना दिया जाता है। कहते हैं “छुईमुई है।” छुईमुई समझते हो? कि इतनी कमज़ोर है कि छू दो तो मुरझा जाएगी, छूने भर से गिर जाएगी, छूने भर से।

हमने तो नहीं सुना कि चौड़े कंधों की बात हो रही हो। तब भी नहीं होती थी, आज भी नहीं होगी। यहाँ इतने सारे लड़के बैठे हैं, मैं कहूँ कि “गर्लफ्रेंड चौड़े कंधों वाली” एकदम घबरा जाएँगे। बात समझ में आ रही है? और इतना ही नहीं, जब आप जो वैचारिक रूप से और आर्थिक रूप से विकसित विश्व है, उसकी महिलाओं के साथ प्रतिस्पर्धा करते हैं और जीत भी लेते हैं, तो इससे आपको पता चलता है कि भारतीय महिला में कुछ ख़ास नहीं है।

जो हमें कहा जाता है न कि “देखिए, इंडियन वूमन की बात ही दूसरी होती है, वो तो होती ही कमज़ोर है। भावुक बहुत होती है, बहुत कोमल होती है हृदय से।” नहीं, कमज़ोर नहीं होती, वो कड़ी भी हो सकती है और उसका प्रमाण ये है कि उसने गोरी महिलाओं को हराया है। और किस मैदान में? भावना के मैदान में नहीं, खेल के मैदान में।

तो इससे जो परंपरागत कमज़ोरी की छवि रही है न, उसको चुनौती मिलती है। इसलिए ये घटना उल्लेखनीय है। और फिर कह रहा हूँ, क्रिकेट नहीं, इसमें एथलेटिक्स भी आता है, इसमें बैडमिंटन भी आता है, इसमें टेनिस भी आता है, इसमें स्विमिंग भी आता है। है नहीं हमारे पास इतने अच्छे महिला एथलीट्स उन क्षेत्रों में। अब मैं जिम्नास्टिक्स कहूँ तो बहुत ऊँचे नाम हमें मिलेंगे नहीं। बीच-बीच में यदा-कदा कुछ तारे कौंध जाते हैं, पर बहुत बड़ी विजय हमें पाँच-दस साल में कभी एक बार देखने को मिलती है।

मैं छोटा था, तब पी.टी. उषा की देखने को मिली थी, कि अचानक से जाकर के एशियाड में उन्होंने कई गोल्ड्स सामने रख दिए। वो बीच-बीच में होता है, कम होता है। लेकिन जब हो, तो उसको समझा जाना चाहिए कि ये क्या है, और उसका सही दृष्टि से सेलिब्रेशन होना चाहिए। ख़तरा तब आता है जब उस सेलिब्रेशन में मूल मुद्दे भुला दिए जाते हैं। आप खुश तो बहुत हो जाओगे कि देखो, “मैन इन ब्लू” और “विमेन इन ब्लू” एक बराबर हैं। पर कैसे एक बराबर हैं? आबादी में ही पाँच करोड़ का अंतर है। एक बराबर कैसे हो गए? कैसे हो गए?

ठीक जब मैच चल रहा होगा, उस वक़्त भी दर्जनों या सैकड़ों भ्रूण हत्याएँ चल रही थीं। एक बराबर कैसे हैं?

ये न हो कि ये जो पूरा पॉम्प्स और कलर और फ़ेस्टिविटी और चीयरफ़ुलनेस है, इसमें जो असली मुद्दा है वो और छुप जाए। हमें ये भ्रम हो जाए कि महिला सचमुच सशक्त हो गई, महिला सचमुच स्वतंत्र हो गई। कैसे हो गई? बहुत अच्छी बात है कि जीता, पर इस जीत का हमें सही इस्तेमाल करना है, ताकि हमें याद आए कि अभी बहुत कुछ है जो जीता जाना बाक़ी है, जहाँ हम बुरी तरह हार रहे हैं, रोज़ हार रहे हैं। बात आ रही है समझ में?

आप अभी भी देखिएगा, आप हॉकी टीम उठाइए, आप क्रिकेट टीम उठाइए। जहाँ कहीं भी टीम्स होती हैं या एथलेटिक्स की भी आप टीम उठाएँगे, तो उसमें आप एक बात पर ग़ौर करिएगा, कि देश की जो आबादी है उसमें जो हिन्दी हार्टलैंड है, वो कितना प्रतिशत है? कितना है? वो पचास प्रतिशत है, या पचास प्रतिशत से ज़्यादा है। पचास प्रतिशत से ज़्यादा है अगर हम पूरा ही नॉर्थ इंडिया ले लें तो, और उसमें थोड़ा-सा ईस्ट का हिस्सा भी जोड़ दें, वो भी आता है हिन्दी में या बीमारू स्टेट्स में। वो भी आता है।

लेकिन जब आप कंपोज़िशन देखते हो किसी टीम का, तो उसमें आप पाते हो कि यूपी इक्का-दुक्का, एमपी इक्का-दुक्का, राजस्थान कहाँ है? बिहार कहाँ है? कहाँ है? इससे कुछ पता लगना चाहिए।

हाँ, सेलिब्रेट हम भी करना चाहते हैं, पर हम ये भी समझना चाहते हैं कि जो देश के सबसे ग़रीब और कमज़ोर इलाके हैं, वहाँ महिलाओं की हालत क्या है। वहाँ उनकी हालत ये है कि वो नेशनल टीम में भी रिप्रेज़ेंटेशन नहीं पा रही हैं। नॉर्थ-ईस्ट से रहती हैं, साउथ से रहती हैं, हरियाणा से रह लेती हैं, पंजाब से रह लेती हैं, और सबसे ज़्यादा आबादी इन जगहों पर तो नहीं है न। सबसे ज़्यादा देश की आबादी, और माने सबसे ज़्यादा महिलाएँ जहाँ रहती हैं, वहाँ तो मामला बस इक्का-दुक्का ही है। ये क्या हो रहा है? समझना पड़ेगा न, पूछना पड़ेगा। हम देख पा रहे हैं?

टीम में जब अभी पूछा गया कि जो मेन’स क्रिकेट टीम है, वो तो जीत भी नहीं पाई, और विमेन’स क्रिकेट टीम जीत गई, तो अभी बात उठी कि उनकी तुलना में इनको कितना पैसा मिलेगा। मैंने कहा तुलना अगर करनी ही है, तो तुलना के लिए तो एक बहुत अच्छा सूचकांक हमारे पास होता है, लेबर पार्टिसिपेशन रेट, वहाँ कर लो न। वो कमाती ही कितनी हैं? घर में भी कितना कमाती हैं, जो फिर खेल के मैदान पर बहुत कमाएँ?

हमारे घरों में भी वो कितनी हैं जो कि कमा रही हैं, और हमारे पास ऐसी सूचना, ऐसे प्रमाण आ रहे हैं कि लेबर पार्टिसिपेशन रेट कई क्षेत्रों में और गिर रहा है। क्यों गिर रहा है? क्योंकि उन घरों में समृद्धि आ रही है। जब समृद्धि आ रही है तो पहले तो फिर भी महिला काम कर लेती थी, अब उसको कह रहे हैं कि “अब तुझे काम करने की ज़रूरत क्या है? तू घर पर बैठ न, मैं लाकर दूँगा।”

माने जो काम कर भी रही थीं, वो बस मजबूरी में कर रही थीं, कि पति की तनख़्वाह पूरी नहीं पड़ती तो मैं भी कुछ कमा लेती हूँ, थोड़ी-बहुत एडिशनल इनकम। माने काम करना, जीवन में सार्थक स्वतंत्र काम करना, उनकी इंडिविज़ुअलिटी का हिस्सा नहीं था मजबूरी का हिस्सा था। और जैसे ही वो मजबूरी थोड़ी घटी, काम छोड़ दिया। इन सब बातों को हमें देखना पड़ेगा।

कॉरपोरेट्स में कितना रिप्रेज़ेंटेशन है? पार्लियामेंट में कितना रिप्रेज़ेंटेशन है? इंस्टीट्यूशन्स तरह-तरह के, उनमें कितना रिप्रेज़ेंटेशन है? ज्यूडिशियरी में कितना रिप्रेज़ेंटेशन है? कितने परसेंट सी.ई.ओ. महिलाएँ हैं? कितनी परसेंट वेंचर कैपिटल महिला आंत्रप्रेन्योर्स को जा रही हैं? क्योंकि आगे चलकर वैल्यू क्रिएशन, सो-कॉल्ड कैपिटल क्रिएशन तो वही करने वाले हैं न। तो इकोनॉमी के वैन्गार्ड पर भी महिलाएँ कितनी हैं? ये सब सवाल भी पूछने पड़ेंगे।

लेकिन फिर भी जो हुआ, उसकी जो तस्वीरें हैं, वो बड़ी लिबरेटिव हैं। लड़कियाँ हैं जो बिना किसी अथॉरिटी की दहशत के आगे बढ़ रही हैं। अब आप आगे बढ़कर के गेंद को उछालते हो छक्के के लिए, ये अपने आप में रिस्क की बात होती है। वो आगे बढ़ रही हैं और सिक्स, स्टम्पिंग भी हो सकती थी।

जो डरा होता है, वो रिस्क-एवर्स होता है। रिस्क लेना माने डर को चुनौती दी जा रही है, जो कि इस देश की महिलाओं को बहुत चाहिए। दो चुनौती, आगे बढ़ो।

हाँ, ख़तरा है कि स्टम्पिंग हो सकती है या कैच हो सकते हो, पर उठाओ ख़तरा। हो सकता है एक-दो बार औंधे मुँह पड़ो, चोट लगे, ख़ून बहे, हार मिले, कोई बात नहीं फिर भी उठाओ ख़तरे। बात आ रही है समझ में? हारी बाज़ी को भी जीतना सीखो, जैसा सेमीफ़ाइनल में हुआ था। लग रहा था कि ये तो गया, पर वहाँ पर भी डट गए कि हाँ, स्थितियाँ प्रतिकूल हैं। और अगर आप महिला हैं तो संभावना यही है कि आपको स्थितियाँ तो प्रतिकूल मिलेंगी। पुरुषों के लिए ज़रूरी है कि वो जूझना सीखें, पर अगर आपके घर में लड़की है, तो उसके लिए तो दूना ज़रूरी है कि आप उसको जूझना सिखाएँ।

लड़की को तो जुझारू होना ही पड़ेगा, क्योंकि उसका जो क्लाइमेट है, उसको जो माहौल मिलता है, वो तो बाय डेफ़िनिशन एडवर्स होना ही है। लड़के को तो फिर भी फ़ेवेरेबल क्लाइमेट मिल सकता है, किसी भी इंस्टिट्यूशन में या समाज में या कहीं भी। पर लड़की के लिए तो बहुत-बहुत ज़्यादा संभावना है कि वो जहाँ भी जाएगी, उसको माहौल प्रतिकूल ही मिलेगा, एडवर्स ही मिलेगा। तो आपके घर में अगर बेटियाँ हैं या बहनें हैं आपकी, या कोई भी महिला आपके घर में, उनको जूझना सिखाइए। उसको सर झुकाना मत सिखाओ, सर तो उसका शताब्दियों से झुका ही हुआ है, उसको सर उठाना सिखाओ। बात आ रही है समझ में?

और साथ ही साथ सर उठाना अहंकार की ही अभिव्यक्ति न बन जाए, इसके लिए उसको अध्यात्म से जोड़कर रखो। नहीं तो महिला भी होती तो मनुष्य ही है, वो भी बहुत बुरा गिर सकती है। वो भी एकदम पिशाचिनी बन सकती है अगर उसके केंद्र में अहंकार बैठ गया तो। तो

हमें जूझना भी सिखाना है, हमें जीतना भी सिखाना है, हमें सर उठाना भी सिखाना है, लेकिन साथ ही साथ केंद्र पर सत्य रहे, ये भी सिखाना आवश्यक है।

नहीं तो फिर वो उस तरह वाला फ़ेमिनिज़्म शुरू हो जाता है, किस तरह वाला? कि “ऑल दीज़ मेन, दीज़ डॉग्स, आई विल किक देम ऑल अवे।” वो वाला फ़ेमिनिज़्म फिर शुरू हो जाता है, वो अपने आप में और बड़ी बीमारी है।

प्रश्नकर्ता: गुड इवनिंग आचार्य जी। आचार्य जी, मेरा क्वेश्चन ये है, जैसे आज इंडियन टीम जीती, गर्ल्स इंडियन टीम। ऑफ़िस में देयर वॉज़ अ सेमिनार टाइप इन एवरी गज़ेटेड ऑफ़िसर, हू आर यूपीएससी क्वालिफ़ाइड, सीजीएल क्वालिफ़ाइड, दे ऑल वेर प्रेज़िंग, “बहुत अच्छी बात है, दे वन् एंड एवरीथिंग।”

और जैसे ही वो ख़त्म हुआ, अभी सेमिनार ख़त्म हो गया, तो बैक साइड में दे ऑल वेर लाइक, “हो गया, हो गया, अब चलो अपना काम करो। ये कोई बहुत बड़ी बात नहीं है, सदियों में हो गया।” फिर द क्वेश्चन्स वेर लाइक “तुम्हें क्या पता उनके पैरेंट्स ने क्रिकेट खिलवाने की वजह से कितना कुछ झेला होगा। मतलब बिकॉज़ दे आर प्लेयिंग क्रिकेट, तो ये कोई अच्छी बात नहीं है, उनके पैरेंट्स को बहुत कुछ सुनना पड़ा होगा। और करनी तो शादी ही है।”

मतलब ये वो लोग बात कर रहे हैं जो कि बहुत अच्छे क्वालिफ़ाइड लोग हैं, सीजीएल क्वालिफ़ाइड, यूपीएससी क्वालिफ़ाइड। स्टेज पर तो बहुत अच्छे से बातें की, जैसे ही ख़त्म हुआ, दे स्टार्टेड टॉकिंग लाइक दिस।

इन लोगों को कैसे...?

आचार्य प्रशांत: नहीं तो आपसे किसने कह दिया कि यूपीएससी से कुछ हो जाता है? आपके सवाल में मान्यता बैठी हुई है कि “यूपीएससी क्वालिफ़ाइड हैं, गज़ेटेड ऑफ़िसर्स हैं, तो उनमें कुछ विशेष बात होगी।” आपको ये मान्यता रखने को किसने कहा? क्यों रख रहे हो आप ये मान्यता? कुछ नहीं है।

प्रश्नकर्ता: सर, इवन द फीमेल्स जो वहाँ पर उस पोस्ट पर हैं।

आचार्य प्रशांत: तो आपने ये मान्यता क्यों रख ली, कि आत्मज्ञान के बिना फीमेल और मेल में कोई अंतर होता है? दोनों अंधे हैं।

प्रश्नकर्ता: सर, उन्हें समझाएँ कैसे? कि कम-से-कम आप तो इस तरह से बात कर रहे हो।

आचार्य प्रशांत: समझाने के लिए तो मैंने पूरी दुनिया हिला रखी है। समझाने का काम थोड़ा मुझे दे दिया करिए।

प्रश्नकर्ता: ओके सर। सर समझाना नहीं, अगर मैं वहाँ पर कुछ बोल भी रही हूँ तो दे ऑल आर लाइक कि “अब तुम झाँसी की रानी मत बनो, जाओ तुम भी खेल के आओ।” इट इज़ लाइक कि आप उनसे बात ही नहीं कर पा रहे हो।

आचार्य प्रशांत: नहीं झाँसी की रानी मत बनो। तो झाँसी की रानी की जितनी प्रतिमाएँ हैं, हटा दो फिर। अगर झाँसी की रानी बनना नहीं है, तो झाँसी की रानी फिर पाठ्य-पुस्तकों में क्यों है? उनकी प्रतिमाएँ, मूर्तियाँ, चित्र-वर्णन क्यों हैं? ये पाखण्ड क्यों है फिर? कि झाँसी की रानी को वैसे तो इतना सम्मान देना है, पर घर में लड़की अगर मुँह खोलेगी तो कहोगे, “झाँसी की रानी मत बनो।”

प्रश्नकर्ता: सर, वहाँ तो वो सबके सामने स्टेज पर बोल ही रहे हैं।

आचार्य प्रशांत: हाँ तो सीधा कहिए न कि फिर यही बात न, एक काम करिएगा झाँसी की रानी से संबंधित जब कोई दिन आएगा न, उस दिन मंच पर चढ़कर हिम्मत है तो बोलिएगा कि “झाँसी की रानी मत बनो।”

प्रश्नकर्ता: थैंक यू सर।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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