न भाग्य न कर्म, मात्र बोध है मर्म || (2014)

Acharya Prashant

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न भाग्य न कर्म, मात्र बोध है मर्म || (2014)

प्रश्नकर्ता: सर, मेरा प्रशन यह है कि भाग्य नाम की भी कोई चीज़ होती है जो ज़िंदगी से जुड़ी होती है या केवल कर्म ही सब कुछ होता है?

आचार्य प्रशांत: प्रश्नकर्ता ने कहा कि, "क्या कर्म ही सब कुछ होता है या भाग्य का भी कोई महत्व है?" दोनों में से कुछ भी नहीं। दोनों हैं, दोनों महत्वपूर्ण हैं पर दोनों में से आख़िरी कुछ भी नहीं। निःसंदेह भाग्य तो होता ही है। तुम किस घर में पैदा हुए हो, किस धर्म, किस जाति में पैदा हुए हो, किस आर्थिक वर्ग में पैदा हुए हो। सबसे पहले तो यही दिखना चाहिए कि यह तो बस भाग्य की बात है, क़िस्मत। देख नहीं रहे हो यहाँ जितने लोग बैठे हो सबके बालों का रंग काला है! यूरोप में यही बातचीत चल रही होती तो कम-से-कम सात-आठ अलग-अलग रंगों के बालों के रंग, पुतलियों के रंग होते। ये तुमने चुने थोड़े ही हैं| ये तो क़िस्मत की बात है। या चुना है? क़िस्मत है।

तुम में से किसी ने ये नहीं चुना था कि तुम्हें किस लिंग में पैदा होना है, तुम में से किसी ने ये नहीं चुना था कि तुम्हें पैदा होना भी है या नहीं, या कौन-सा धर्म होगा। किसी ने चुना था? इतना कुछ है बाहर, जो चल रहा है लगातार और वो सब कुछ तुम्हारी व्यक्तिगत मर्ज़ी से तो नहीं चल रहा। तो क़िस्मत तो है ही है, यदि उसे ही क़िस्मत कहते हो तो क़िस्मत तो है ही है। तुम यहाँ बैठे हुए हो, भूकम्प आ सकता है और कुछ-का-कुछ हो जाएगा। तुम कुछ नहीं कर रहे हो, सड़क पार कर रहे हो और कोई शराबी गाड़ी चला रहा है। उसने शराब तुम्हारी मर्ज़ी से तो नहीं पी थी पर शराब उसने पी, जान तुम्हारी गई। तुमने चाहा नहीं था, उसने तुमसे अनुमति नहीं ली थी, पर जान तुम्हारी गई। तो क़िस्मत तो है ही, महत्वपूर्ण है।

कर्म तुमने दूसरी बात कही, क़िस्मत बाहरी है यहाँ तक तो हम आम तौर पर देख लेते हैं और हम कहते भी यही हैं कि, "क़िस्मत ने बड़ा साथ दिया या क़िस्मत का मारा हुआ है।" इससे हमारा आशय भी यही होता हैं कि बाहर के जो तत्त्व थे, वो अनुकूल बैठे कि प्रतिकूल। यही आशय होता है न कि क़िस्मत ने साथ दिया या क़िस्मत विपरीत थी? लेकिन कर्म को हम अपना मानते हैं, उसको हम बाहरी नहीं मानते। हम कहते हैं क़िस्मत बाहरी है, कर्म अपना है। अब ज़रा ध्यान से देखो, कर्म क्या वाकई अपना है? हमें लगता तो है कि, "कर्म मेरा है", हमें लगता तो है, "मैंने किया" और यह कह कर हमें बड़ा संतोष भी प्राप्त होता है। "मैं कर रहा हूँ, खोया पाया मैंने, करा या नहीं करा मैंने", पर क्या वाकई हम करते हैं? हम करते हैं या अधिकांशतः यह होता है कि हमें पता भी नहीं है कि हमसे परिस्थितियाँ और बाहरी प्रभाव करवा रहे हैं। दावा हमारा यही रहता है, "मैं कर रहा हूँ।" क्या वाकई मैं कर रहा हूँ?

आज लोंगो से मिलो देखो तो लोग शिक्षा पूरी करेंगे उसके बाद वो कहेंगे कि, "हमें एम.बी.ए. करना है, प्राइवेट सेक्टर में नौकरी करनी है।" उनसे पूछो, "क्यों?" कहेंगे, "नहीं, यही ठीक है। मैं ही ऐसा करना चाहता हूँ या मैं ही ऐसा कर रहा हूँ।" तीस साल पीछे चले जाओ तो लोगों की पहली पसंद होती थी सरकारी नौकरी। सन उन्नीस-सौ-चौरासी से लेकर सन उन्नीस-सौ-इक्यानवे तक एक प्रकिया चली जिसमें भारतीय अर्थव्यवस्था को खोला गया, ख़ास-तौर पर सन उन्नीस-सौ-इक्यानवे में, उसके बाद यह स्थिति बनी कि प्राइवेट सेक्टर में सम्भावनाएँ भी बढ़ीं, पैसा भी बढ़ा तो लोग उधर को जाने लगे। अब अगर तुम उधर को जा रहे हो तो तुम जा रहे हो या परिस्थितियों ने तुम्हें धकेला है? पर तुम मानोगे नहीं कि, "परिस्थितियाँ ऐसी थीं तो हम इधर की तरफ़ चल दिए।" तुम कहोगे, "मैंने किया।"

ये थोड़ी दूर का उदाहरण हो गया, थोड़ा करीब का उदाहरण ले लो। एक बहुत कम उम्र का लड़का पकड़ा गया था ‘अजमल कसाब’। मुम्बई में जो त्रासद घटना हुई थी, उसे जितने लोंगो ने अंजाम दिया था उनमें बाकी सब तो मारे गए, एक पकड़ा गया था। फिर उसे फाँसी हुई। उसकी उम्र कुल जानते हो कितनी थी? सत्रह साल या ऐसे ही शायद उन्नीस। मेरे विचार से सत्रह थी टीनएजर , ठीक। तुम अगर उससे जाकर पूछो, किसने किया? वो कहेगा, "मैंने किया", तुम उससे पूछो, "क्यों किया?" वो कहेगा, "क्योंकि यही ठीक है" और उसे पक्का यक़ीन होगा कि, "जो किया मैंने किया, ठीक किया।" पढ़ा-लिखा नहीं था, एक छोटे गाँव का रहने वाला था। कम उम्र में ही एक ऐसे कैंप में पहुँच गया, कुछ ऐसे लोगों के साथ फँस गया जिन्होंने उसके मन में हज़ार तरीके के विचार ठूस दिए। अब वो कर्म कर रहा है, और क्या कर्म कर रहा है? गोली चला रहा है। क्या हम यह कह सकते हैं यह कर्म उसने किया? उसने किया या उससे करवाया गया?

प्र: करवाया गया।

आचार्य: पर हम ये नहीं कहते न! हम कहते हैं, "कर्म मेरा है।" क़िस्मत को तो हम मान लेते हैं कि बेगानी है। कर्म को हम कहने लगते हैं, क्या कहने लगते हैं? 'मेरा है'। हम ये देखते भी नहीं हैं कि, "कोई कर्म मेरा नहीं है। हर कर्म मुझसे इधर से उधर से करवाया जा रहा है ग़ुलाम हूँ मैं।" बड़ा बढ़िया अनुभव था। आई.टी. ब्रांच की सीटें सन दो-हज़्ज़ार-छह तक सभी इंजीनियरिंग कॉलेजों में सबसे पहले भर जाती थीं, दो-हज़ार-सात तक भी दो-हज़ार-आठ में अर्थव्यवस्था डगमगाई, वही सीटें खाली रहने लग गईं। दो-हज़ार-आठ से पहले तुम किसी कॉलेज के आई.टी. डिपार्टमेंट में जाओ और छात्रों से पूछो की, "क्यों पढ़ रहे हो आई.टी. ?" तो कहते, "मैं पढ़ना चाहता हूँ, मेरी पसंद है, ऐसा है, वैसा है।" वो कहते, "मैं पैदा ही हुआ आई.टी. पढ़ने के लिए, मैं रोया ही जावा में था।" परिस्थितियाँ बदली, आई.टी. के प्रति सारा प्यार उड़ गया। पिछले दो-चार सालों से तुम जाओ कॉलेजों में आई.टी. की सीटें ही नहीं भर रहीं। क्या जो आई.टी. में आ रहे थे, क्या वो ख़ुद आ रहे थे? नहीं, मौसम उन्हें भेज रहा था। अब जो आई.टी. में नहीं आ रहे क्या वो ख़ुद नहीं आ रहे? नहीं, मौसम उन्हें रोक रहा है, पर हम कहते क्या हैं? "कर्म हमारा है।"

बिरला होता है वो आदमी जिसका कर्म उसका होता है।

निन्यानवे-दशमलव-नौ-नौ मामलो में हमारे कर्म हमारे होते ही नहीं। हमारे कर्म भी बस क़िस्मत से निकलते हैं, जिधर को हवा चली उधर को ही बह लिए, ’रुख हवाओं का जिधर का है, उधर के हम हैं।’ अब तुम क्या कहोगे, "मैं इस दिशा जा रहा हूँ"? तुम इस दिशा नहीं जा रहे, हवा इस दिशा बह रही है। जिधर को हवा बहती है, उधर को पत्ता उड़ जाता है। अब पत्ता कहे क्या कि, "मेरा कर्म है", कह सकता है? लेकिन कोई ऐसा होता है जिसका कर्म वाकई उसका होता है, उसने उसको पा लिया है जो क़िस्मत और कर्म दोनों से बहुत बड़ा है। क़िस्मत तुम्हारी नहीं, बाहर से जो प्रभाव तुम पर पड़ रहे हैं वो तुम्हारे नहीं, लेकिन कुछ है जो तुम्हारा अपना है और वो क़िस्मत से बहुत-बहुत बड़ा है। क़िस्मत होगी महत्वपूर्ण, हम इनकार नहीं कर सकते, बेशक़ क़िस्मत बहुत महत्वपूर्ण है लेकिन क़िस्मत से हज़ार गुना ज़्यादा वो महत्वपूर्ण है। उसके सामने क़िस्मत की कोई हैसियत ही नहीं। वो ऐसा है कि उसको पा लिया तो फिर आंधी तूफ़ान हो, तब भी तुम हँस रहे हो। अनुकूल है कि प्रतिकूल है; तुम्हारे लिए सब ठीक है, कूल-ही-कूल है फ़िर तुम यह कहोगे ही नहीं कि, "क़िस्मत बहुत बुरी चल रही है!" और ना तुम यह कहोगे, "क़िस्मत से फायदा हो गया।" तुम कहोगे, "क़िस्मत जैसी हो वैसी हो, हम मस्त हैं।"

वो मस्ती ही जीवन का रस है, वो मिलती नहीं आसानी से। हम तो डर और तनाव जानते हैं, बस! वो आसानी से मिलेगी नहीं। हम मनोरंजन जानते हैं, मस्ती नहीं जानते! मनोरंजन तो सस्त्ती, घटिया चीज़ है, वो हम जानते हैं। जाकर के फ़िल्म देख लो, नाच लो, शराब पी लो, यार-दोस्तों के साथ पार्टी कर लो यह सब तो सिर्फ़ तनाव से निकलते हैं। आप जितने तनाव में होंगे आपको उतनी ज़्यादा ज़रूरत पड़ेगी मनोरंजन की, मस्ती चीज़ ही दूसरी है। क़िस्मत कैसी भी हो, क्या हो सकता है एक ऐसा आदमी जो मस्त रहे? जो ऐसा हो सकता हो, वही असली आदमी है। जो कह रहा है, "ठीक क़िस्मत कब हमारी थी लेकिन हम तो हमारे हैं न। सर्दी-गर्मी, सुख-दुःख, अच्छा-बुरा, पाना-खोना इन सब में, हम तो मस्त हैं। बाहर-बाहर ये सब कुछ चलता रहता है, भीतर ये हमें स्पर्श भी नहीं कर जाता क्योंकि भीतर, तो कुछ और है जो बैठा हुआ है। हमने भीतर की जगह खाली छोड़ी ही नहीं है क़िस्मत के लिए। क़िस्मत बड़ी ताक़तवर है पर उसकी सारी ताक़त हम पर बस बाहर-बाहर चलती है। क़िस्मत भी बाहरी और उसका ज़ोर भी हम पर बाहर-बाहर चलता है। भीतर तो हमारे कुछ और है, उस तक तो क़िस्मत की पहुँच ही नहीं है। क़िस्मत ‘उसे’ छू नहीं सकती, ‘वो’ क़िस्मत से कहीं ज़्यादा बड़ा, महत्वपूर्ण है।" जानो उसको, पाओ उसको जो तुम्हें क़िस्मत ने नहीं दिया। मैं इनकार नहीं कर रहा हूँ क़िस्मत के महत्व से। मैं कह रहा हूँ क़िस्मत होगी महत्वपूर्ण लेकिन उस से कहीं-कहीं ज़्यादा कुछ और महत्वपूर्ण है, उसकी खोज करो, उसी के साथ जियोगे, तो वो मस्ती मिलेगी।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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