नाम-सुमरन, शब्द, और हुकुम का क्या महत्व है? || आचार्य प्रशांत, गुरु नानकदेव पर (2019)

Acharya Prashant

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नाम-सुमरन, शब्द, और हुकुम का क्या महत्व है? || आचार्य प्रशांत, गुरु नानकदेव पर (2019)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, आपके सत्संग, सेशन (सत्र) होते हैं, मन तो यह करता है कि यहीं रहें, लेकिन कार्य और यहाँ में सामंजस्य इसको कैसे बैठाएँ? वहाँ से (जॉब से) तो ये होता है कि भाग लो।

आचार्य प्रशांत: आप इधर आएँगे या नहीं, यह तो आपकी स्वेच्छा है। आप अगर नहीं आ रहें तो वो आपका निर्णय है। कुछ और है जो ज़्यादा ज़रूरी है। अब मैं उसमें क्या कर सकता हूँ? आप स्वयं ही निर्धारित कर रहे हो न कि क्या ज़रूरी है – यह ज़रूरी है, कि वो ज़रूरी है, कि वो ज़रूरी है। (हाथ से दाएँ-बाएँ संकेत करते हुए) जो ज़रूरी लगेगा वो करेंगे (मुस्कराते हुए)।

आप समझ लीजिए कि आप कौन हैं, तो फिर आप यह भी जान जाएँगे कि आपकी वास्तविक ज़रूरत क्या है। जो असली ज़रूरत हो उसको पूरा कर लो न। जेब में सौ ही रुपया है। तुम बीमार भी हो, भूखे भी हो, और बीमारी से ज़्यादा सताती भूख है। अब बताओ सौ रूपए की दवाई खरीदनी है या बर्गर खरीदना है? आसान नहीं है चुनाव! बीमार हो यह बात पक्की है, लेकिन तुम भूखे भी हो और भूख बहुत चिल्ला रही है। बताओ क्या खरीदना है?

प्र: जैसे कि गुरुनानक देव जी बार-बार कहते हैं कि परमात्मा के हुकुम में राज़ी रहना चाहिए। वो हुकुम है क्या? कैसे परिभाषित करेंगे, कैसे समझेंगे उसको कि हम उस हुकुम में राज़ी रह रहे हैं, नहीं रह रहे हैं?

आचार्य: पहला उत्तर तो स्वयं नानक साहब ही हैं। सच्चे गुरु का वचन ही उसका हुकुम है। और जो दूसरा उत्तर है, जो नकारात्मक भाषा में है, वो यह है कि अपने हुकुम को उसका हुकुम मत मान लेना। अगर कोई मिल गया हो ऐसा, गुरु नानक देव जैसा, तब तो सौभाग्य तुम्हारे और मुश्किल ही हल हो गई। फिर तो जो गुरु कहे वही उसका (दाएँ हाथ को उठाकर ऊपर देखते हुए) हुकुम है।

पर वैसा कोई न भी मिला हो तो भी कम-से-कम इतनी एहतियात बरतना कि अपनी मर्ज़ी को उसका हुकुम मत मानने लग जाना। और यह जो मैं दूसरी एहतियात रखने को कह रहा हूँ, वो बहुत ज़रूरी है क्योंकि आम आदमी के लिए उसकी अपनी मर्ज़ी, अपनी इच्छाएँ ही आख़िरी चीज़ होती है। और जो चीज़ आख़िरी चीज़ है उसी को तो परमात्मा का हुकुम कहते हैं।

आम आदमी अपनी वासनाओं के चलाए चलता है। उसके लिए एक ही परमात्मा है। कौन? उसकी अपनी इच्छाएँ, अपनी मर्ज़ियाँ, अपना अहंकार। अपने हुकुम से बचना! अपने से अगर बच लिए तो उसका हुकुम बहुत सीधा, सरल है, बिलकुल प्रत्यक्ष हो जाएगा।

तुम यहाँ से शुरुआत करो ही मत कि ‘आचार्य जी, बताइए परमात्मा का क्या हुकुम है?' तुम शुरुआत यहाँ से करो कि रोज़ मैं किसके हुकुम का पालन कर रहा हूँ। क्योंकि जी तो रोज़ ही रहे हो, कर्म भी रोज़ कर रहे हो, तो किसी-न-किसी की आज्ञा का तो पालन कर ही रहे हो न रोज़, हर छोटी बड़ी बात में। वो किसकी आज्ञा है? ग़ौर से देखो, और अगर यह पाओ कि वो तुम्हारी अपनी ही इच्छाओं की, वृत्तियों की आज्ञा है तो समझ जाओ कि गड़बड़ हो रही है। यह उसका हुकुम तो हो ही नहीं सकता, क्योंकि यह तो मेरी ही वृत्तियों का आवेग है।

और एक बात पर सजग करे देता हूँ। गुरुओं ने इतना समझाया है कि हुकुम रजाई चलना। तुम अपनी रज़ामंदी उसकी आज्ञा से रखो। उसका कई बार बड़ा उल्टा अर्थ किया गया है। आज भी किया जाता है। यह कह दिया जाता है कि उसके हुकुम पर चलने का अर्थ है कि जीवन में जो कुछ भी मिल रहा है उसको स्वीकार करते चलो। नहीं भाई, नहीं! संतों, फकीरों, गुरुओं ने कभी यह नहीं कहा कि परमात्मा का हुक्म यह है कि ज़िंदगी में जो कुछ भी आ रहा है उसको स्वीकार करते चलो।

अगर सब कुछ स्वीकार ही करना था तो फिर गुरुओं ने धर्मयुद्ध क्यों लड़े? वो भी कह देते कि जो कुछ सामने है स्वीकार कर लेंगे। फिर उन्होंने अपना बलिदान क्यों दिया? शहादत क्यों दी? तो यह मत समझ लेना कि उसकी आज्ञा यह है कि जिधर को ज़माना चल रहा है, उधर को तुम भी चल दोगे। क्योंकि दुनिया ऐसी ही चल रही है। जब भी तुम ज़माने के ही हिसाब से चल पड़ते हो, तो वास्तव में तुम अपने डर के हिसाब से चल रहे हो। तुममें लालच है और डर है। और तुम्हारा ज़माने से लालच और डर का रिश्ता है, तो ज़माना जिधर को चलाता है, तुम उधर को चल देते हो।

हुकुम है कि हर हालत में मुक्ति का पक्षधर होना है, हर परिस्थिति में। न दुनिया के साथ चलना है, न दुनिया के ख़िलाफ चलना है। आवश्यक बस यह है कि मुक्ति के साथ चलना है। मुक्ति के साथ चल रहे हो तो कभी ज़माने के साथ भी चलोगे, कभी ख़िलाफ भी चलोगे, कभी ज़माने से कोई मतलब ही नहीं रहेगा – सब कुछ होता रहेगा।

लेकिन एक बात अनवरत रहेगी। क्या? मुक्ति के साथ, सत्य के साथ। उसी मुक्ति को गुरुजन भक्ति की भाषा में ‘उसके’ (ऊपर की ओर देखते हुए) प्रति समर्पण कहते हैं। ज्ञान की भाषा में उसे मुक्ति कहते हैं। प्रेम की भाषा में उसे भक्ति कहते हैं। वो एक ही है।

प्र: आचार्य जी, हमें कहा जाता है कि हमें कोई चीज़ न तो डर कर करना चाहिए, न लालच में करना चाहिए। तो हमें कैसे पता चलेगा कि हम जो कर रहे हैं, वो डर के मुताबिक कर रहे हैं या लालच से कर रहे हैं?

आचार्य: नहीं पता है तो पूछ लो। किसी चीज़ को करने के लिए बहुत आतुर हो रहे हो, करे ही जा रहे हो, तो एक क्षण को ठिठक कर पूछ लो कि किस ज़ोर से कर रहा हूँ। मेरी प्रेरणा क्या है? करने के पीछे कारण क्या है? कुछ बात साफ़ हो जाएगी।

प्र: सर, यह नाम स्मरण की बात आती है, उसके बारे में बताइएगा।

आचार्य: ‘एक ओमकार, सतनाम'।

प्र: जी, उसका मतलब जपना है? रेपिटेशन ?

आचार्य: (अपने होठों की ओर संकेत करते हुए) लेकिन यह वाला नहीं, यह उसका छोटा-सा हिस्सा है। (दाएँ हाथ की उँगलियों से माला जपने का अभिनय करते हुए) यह भी उसका छोटा-सा हिस्सा है। (ऊँगली से अपने सिर पर संकेत करते हुए) यह भी उसका छोटा-सा हिस्सा है। ये सब बाहरी विधियाँ हैं। ये साधना के बाहरी प्रकार हैं। ये भी हैं वही, पर ये छोटे-छोटे सतही तरीके हैं।

कोई मन्त्रोचार करता, कोई जपता है, कोई माला फेरता है, ये सब होता है न। असली तरीक़ा है कि बिलकुल हृदय में कुछ स्थापित हो गया कि उसको अब सक्रिय रूप से याद करने की भी ज़रूरत नहीं है। जब याद उथली होती है तो कर्म से याद करना पड़ता है, कर्म से। याद जब और गहरी होती है—याद माने सुमिरन। याद जब और गहरी होती है तो विचारों से याद करना पड़ता है। अभी यह याद ज़रा-सी गहरी हुई है तो आप किसी को विचार से याद कर रहे हो।

जब याद और गहरी होती है तो विचारों से याद करने की ज़रूरत नहीं होती। भावना से याद रखते हो बस। विचार कुछ भी चलता रहे, भावना से याद रहता है। फिर जब सुमिरन और गहरा जाता है, तो तुमको न कर्म से याद रखना होता है और न विचार से याद रखना होता है, न भावना से याद रखना होता है; तुम्हे नाम ही नहीं लेना होता है। वो कहीं और याद रहता है, लगातार।

कोई बाहरी आदमी देखे तो कहे कि इन्हें तो सुमिरन है ही नहीं। न ये कोई कर्मकांड करते, न ये ज़िक्र करते, न ये विचार करते, (हाथ से आँख बंद करते हुए) न आँख बंद करके ध्यान करते – ये तो सुमिरन करते ही नहीं हैं। पर जो आख़िरी दशा होती है सुमिरन की, उसमें मन मालिक में कुछ ऐसा रम जाता है कि उसे मालिक को अलग से याद नहीं करना पड़ता। उसे मालिक को एक कर्म की तरह नहीं याद करना पड़ता या विचार करके नहीं याद करना पड़ता।

वैसी दशा के लिए शास्त्र कहते हैं, ‘यत्र-यत्र मनोयाति, तत्र-तत्र समाधयः।' फिर मन जो भी कुछ करे, उसमें मालिक की याद रची-बसी रहती है। और तुम पूछोगे अगर ऐसे मन से कि ‘तूने आज याद किया?' तो वो थोड़ा-सा भौचक्का होकर कहेगा, ‘किसको याद किया?' क्योंकि वो सक्रिय रूप से याद कर ही नहीं रहा।

“माला फेरूँ, न जप करूँ, मुँह से कहूँ न राम"। सक्रिय रूप से याद कर ही नहीं रहे। सक्रिय रूप से कुछ ऐसा नहीं कर रहें कि लगे कि हम राम को याद करते हैं। “न माला फेरूँ, न जप करूँ, मुँह से कहूँ न राम।“ हम कुछ ऐसा नहीं कर रहे। “सुमिरन मेरा हरि करें, मैं पाऊँ विश्राम"।

माला फेरूँ, न जप करूँ, मुँह से कहूँ न राम। सुमिरन मेरा हरि करें, मैं पाऊँ विश्राम।। ~ कबीर साहब

यह जो दूसरी बात हुई तो चलो हमसे आगे की है, पर यह पहली ही बात समझ लो। लेकिन पहली बात का यह भी नहीं मतलब है कि माला फेरने का, या जप करने का, या राम-राम कहने का कोई महत्व नहीं है। उसका बहुत महत्व है। क्योंकि हम ऐसे तो अभी हुए नहीं कि हृदय में ही राम बसते हों! तो हमें तो किसी विधि से ही याद रखना होगा। इसीलिए फिर गुरुओं ने याद रखने की तमाम विधियाँ दीं। मैं भी यही कहता हूँ तुमसे कि तुम जिस विधि से याद रख सकते हो, रखो। फिर बाद में, बहुत बाद में एक स्थिति ऐसी आती है कि तुम्हें याद रखने की ज़रूरत नहीं पड़ती, तुम्हें याद हो जाता है।

प्र: एक बात बार-बार आती है, ‘गुरु का शबद'। वो शबद क्या है? इसके आगे कुछ और है वो शबद?

आचार्य: कई तलों पर है शब्द। सबसे सतही तल पर तो गुरु जो भौतिक शब्द दे रहा है तुमको, जो व्याकरण में आ जाता है, जिसको तुम्हारे कान पकड़ लेते हैं, वही है शब्द। उससे नीचे जाओगे तो अंदर एक अनुगूँज है शब्द। ऐसे समझो, मैं भी जो बोल रहा हूँ, उसको यह कैमरा रिकॉर्ड कर रहा है न? तो कैमरा चूँकि कैमरा है, मशीन है, तो कैमरे के लिए शब्द क्या हुआ? यह जो अभी बोला। कैमरे के लिए हुआ यह जो अभी बोला! (एक ऊँगली से शब्दों के लिए संकेत करते हुए) कैमरे के लिए यही शब्द हैं। ठीक है?

यहाँ कई लोग बैठे होंगे जो बहुत डूबकर नहीं सुन रहे होंगे, लेकिन वो याद करने की कोशिश कर रहे हों, हो सकता है, या बैठे ही हैं तो कुछ बातें उनको याद रह जाएँगी। उनसे बाहर जाकर कोई पूछे, ‘क्या बताया आचार्य जी ने?' तो वो कुछ बातें बता देंगे। तो उनके लिए वो ही है शब्द। फिर कुछ लोग यहाँ बैठे होंगे जो बहुत डूब गए होंगे, वो बाहर जाएँ, कोई पूछे कि क्या बताया? तो वो थोड़ा चौकेंगे, कहेंगे कि ठीक-ठीक याद नहीं है क्या बताया।

वो नहीं बता पाएँगे ठीक-ठीक कि क्या बताया। इसलिए नहीं कि उन्होंने कुछ सुना नहीं, इसलिए कि उन्होंने डूबकर सुना। तो अब उनके लिए शब्द क्या हैं? उनके लिए एक अनुगूँज है शब्द। कुछ है भीतर जो गूँज रहा है, लेकिन वो क्या है? भाषा की दृष्टि से, व्याकरण की दृष्टि से, तर्क की दृष्टि से ये वो नहीं बता पाएँगे। लेकिन कुछ है ज़रूर और जो है वो बहुत मज़बूत है, जो है वो बहुत साफ़ है। साफ़ बहुत है, लेकिन उसका बाहर वाले को वर्णन नहीं कर सकते, वो अब ऐसा शब्द हो गया। कैमरे के लिए जो शब्द है यह वो सबको बता सकता है।

जो आदमी यहाँ सिर्फ़, मान लो, जर्नलिज़्म (पत्रकारिता) के लिए आया हो। कोई पत्रकार यहाँ बैठा हो, वो भी सारे शब्द बता देगा बाहर कि इन्होंने पहले यह बोला था, फिर यह बोला था, यह बोला था, यह बोला था। पर कोई यहाँ बिलकुल भावप्रवण होकर बैठ गया हो, पक्का जानो वो बहुत कुछ नहीं बता पाएगा; दो-चार बातें बताएगा फिर चुप हो जाएगा। कहेगा, ‘बाक़ी याद नहीं आ रहा।'

अगर उसे नहीं याद आ रहा, दोहरा रहा हूँ, तो उसकी वज़ह यह नहीं है कि वो सुन नहीं रहा था, उसकी वज़ह यह है कि वो सुनने में डूब गया था। फिर चार दिन, छह दिन बीतेंगे और तुममें से कोई एक-आध ऐसा होगा जो छह दिन बीतने के बाद भी इसी पल में मौजूद रहेगा—इस पल में। उसको तो यह स्मृति भी नहीं कि छह दिन पहले वो यहाँ आया था। तुम उसे याद दिलाओगे तो उसे याद आएगा कि छह दिन पहले यहाँ आए थे।

लेकिन उसके भीतर बस गया है ये पल। वो कुछ कर ले, इस पल को अब निकाल नहीं सकता। ये पल उसके भीतर पहुँच गया है, इतना भीतर कि उसके केंद्र में बैठ गया है। अब उसके जीवन को जैसे यही पल, यह समय और यही जगह निर्धारित कर रही है। जैसे कि वो इस पल से कभी आगे न गया हो, जैसे कि वो इस भवन से कभी बाहर न गया हो। वो इसी पल में मौजूद है और ठीक यहीं मौजूद है। उसकी सुरति सबसे गहरी है।

बात समझ रहे हो?

नाम कोई एक चीज़ नहीं होती, शब्द भी कोई एक चीज़ नहीं होते। वो इस पर निर्भर करता है कि तुम कौन हो। अगर तुम कैमरे हो तो नाम एक चीज़ है, शब्द एक चीज़ है। अगर तुम यहाँ सिर्फ़ सूचना इकट्ठी करने आए हो, पत्रकार हो, तो शब्द एक चीज़ है। अगर तुम यहाँ पर सिर्फ़ किसी विद्यार्थी की तरह सुनने आए हो, कि ज्ञानी बन जाएँगे, तो फिर शब्द दूसरी चीज़ है।

तुम यहाँ शिष्य ही होने आए हो तो शब्द बिलकुल दूसरी चीज़ है। और अगर यहाँ तुम प्रेम के नाते आए हो तो फिर कोई एकदम ही अलग चीज़ है शब्द। शब्द माने क्या, यह तुम पर निर्भर करता है।

प्र: बार-बार आता है विचार, भाव। तो विचार और भाव इन दोनों में क्या अंतर है?

आचार्य: विचार में भाषा आ जाती है। चैतन्य मन तक जब भीतरी आवेग पहुँच जाए तो फिर उस पर भाषा का, तर्क का, इन सबका आवरण चढ़ जाता है। उसको आप फिर विचार कहते हो। विचार क्या है? यह आप भाषाई तौर पर बता सकते हो। वही जो भीतरी आवेग है जबतक ऊपर नहीं पहुँचा। तो फिर आप उसको वृत्ति बोलते हो। और कोई अंतर नहीं है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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