नाम-जप से कोई लाभ होता है? || आचार्य प्रशांत (2023)

Acharya Prashant

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नाम-जप से कोई लाभ होता है? || आचार्य प्रशांत (2023)

प्रश्नकर्ता: नमस्कार, आचार्य जी।

आचार्य प्रशांत: जी।

प्र: जब मैं कुछ लोगों को सुनता हूँ, जैसे कुछ ज्ञानी लोग, वो लोग बात ये कहते हैं कि आज-कल के युवाओं में हो चाहे जो भी लोगों में, जीवन जिस तरह से वो जिये हैं उनको उनके जीवन में।

आचार्य: आप थोड़ा सा थोड़ा थोड़ा थोड़ा धीरे-धीरे बोलिएगा, आवाज़ उतनी साफ़ नहीं है, तो थोड़ा सा थम-थमकर बोलिए।

प्र: जी, तो मैं कह रहा था, वो कहते हैं कि उतनी व्यावहारिक नहीं है, तो वो ऐसा कहते हैं कि तुम नाम-जप ही करो वो ही तुम्हारे लिए काफ़ी है। तो मैं जब सुनता हूँ तो मुझे तो लगता है कि ये जो कह रहे हैं वो बात ही अव्यवहारिक है। तो लेकिन मैं उसको पूरी तरह से उसको इनकार नहीं कर पाता हूँ। मेरे अन्दर ये साहस ही नहीं आ पाता है कि वो जो बात कह रहे हैं वो मतलब व्यवहारिक ही नहीं। तो इतना साहस मेरे अन्दर क्यों नहीं आ पाता है? ये मैं जानना चाहता हूॅं।

आचार्य: क्योंकि आपने अभी तक स्वयं जाॅंच कर और प्रमाणित करके नहीं देखा कि वो बात अव्यवहारिक है। देखिये, कुल मिलाकर के हमें तो भीतरी कूड़ा साफ़ करना है। भीतर हम सौ बातें मानकर बैठे हैं उसी को भीतरी कूड़ा कहते हैं। अगर वो कूड़ा नाम-जप से साफ़ होता हो तो बहुत अच्छी चीज़ है नाम-जप, सबको करना चाहिए। पर वो काम करेगा या नहीं करेगा इसके लिए पहले आपको उस कूड़े का आकार, प्रकार, उसकी प्रकृति पता हो न? अगर मुझे बीमारी नहीं पता तो मुझे कैसे पता कि दवा ने काम करा या नहीं करा? प्रश्न पूछ रहा हूँ। अगर बीमारी नहीं पता तो कैसे पता कि दवा ने काम करा कि नहीं करा? कैसी बात कर रहे हैं आप? बीमारी का अनुभव होना बन्द हो जाएगा न, दर्द का अनुभव होना बन्द हो जाएगा। अगर दर्द का अनुभव होना बन्द हो गया तो मतलब दवा ने काम करा है। नहीं, आप ग़लत कह रहे हैं। मुझे सिर दर्द हो रहा है, मुझे ब्रेन ट्यूमर (मस्तिष्क का ट्यूमर) है, मैं अपनी बीमारी नहीं जानता। आपने मुझे दवाई दे दी है। आपने मुझे दवाई दे दी है सिर दर्द ठीक करने की, एनलजेसिक (दर्दनिवारक) आपने दे दिया है मुझे कुछ, ब्रूफेन (एक दर्दनिवारक दवा) दे दिया है। सिर दर्द ठीक हो गया। क्या बीमारी ठीक हो गयी? क्या बीमारी ठीक हो गयी?

तो दवाई ठीक है या नहीं इसके लिए मुझे सबसे पहले क्या पता होना चाहिए? ‘बीमारी क्या है?’ कई बार मैं लक्षण को ही बीमारी समझ लेता हूँ, मुझे पता ही नहीं कि मेरे ब्रेन में ट्यूमर बैठा हुआ है। मैं सोच रहा हूँ कि मेरी बीमारी है सिर दर्द। अब सिर दर्द अगर बीमारी है तो जो दवाई दी गयी थी वो तो कामयाब है। सिर दर्द ही अगर बीमारी है तो दवाई तो कामयाब हो गयी न? तो बहुत सारी इसीलिए फ़र्जी दवाइयाँ अध्यात्म के बाज़ार में प्रचलित रह जाती हैं, क्योंकि लोगों को उनकी बीमारी पता ही नहीं है, और सतही उपचार किसी भी दवाई से हो जाता है।

देखो, मन की व्याधि होती है भटकाव। आप कुछ जपने लग जाओगे तो भटकाव तो रुक जाता ही है, क्योंकि एक तरह का उससे केन्द्रीकरण, कन्सन्ट्रेशन (एकाग्रता) आ जाता है। कल्पनाओं पर रोक लग जाती है न। मन दो काम एक साथ नहीं कर सकता, मन के लिए बहुत मुश्किल है। जपते-जपते कल्पना करने में बाधा पड़ती है, कर वो तब भी लेता है कुछ चोरी से, पर बाधा पड़ेगी, नहीं कर पाता। तो हमें ऐसा लगता है कि उपचार हो गया, उपचार थोड़ी हो गया।

वेदान्त इसीलिए सारा ज़ोर आत्मज्ञान पर देता है। कहता है, अपनी बीमारी को जानो। और मन कहता है, बीमारी नहीं जाननी, दवाई चाहिए। मन कहता है, बीमारी नहीं जाननी, दर्द बहुत हो रहा है, तुम पागल हो क्या कह रहे हो कि टेस्ट कराओ, ये कराओ, डाइग्नोसिस (निदान) कराओ, पचास चीज़ें, आत्मज्ञान, नहीं कोई, कोई टेस्ट, कोई डाइग्नोसिस नहीं चाहिए, मुझे तो (दवाई चाहिए)। तो ऐसे में फिर कोई भी आकर कोई भी आपको दवाई पकड़ा देगा, उससे आपको तात्कालिक लाभ हो जाएगा, आपको लगेगा हो गया।

वेदान्त कहता है देखो थोड़ी मेहनत कर लो, उपचार बहुत आसानी से हो जाएगा, पहले बीमारी पता कर लो। हो सकता है बीमारी को जानना ही उपचार हो। हो सकता है बीमारी को जानना ही उपचार हो। एक बार इसमें मैंने कहा था— 'वेन इग्नोरेंस इज़ द डिजीज देन द डाइग्नोसिस इज़ द क्योर' (जब अज्ञानता ही बीमारी है तब जानना ही निदान है)। जब आत्मज्ञान की कमी ही बीमारी हो तो डाइग्नोसिस ही क्योर (इलाज) होता है। जानना ही उपचार हो जाता है।

और यही वजह है कि जो प्रचलित लोकधर्म होता है उसमें आत्मज्ञान के लिए कोई जगह नहीं होती। कोई नहीं मिलता आपको जो बार-बार आपको ये बोले कि अपनेआप को देखो, पहचानो, अपनी हरकतों को देखो, अपने विचारों को देखो, क्या चल रहा है, अपनी वृत्ति को पकड़ो, अपने सम्बन्धों में अपने स्वार्थ को टटोलो। ये बातें आपसे आमतौर पर लोग करेंगे नहीं, क्योंकि ये करने से जो असली बीमारी है वो पकड़ में आ जाती है। असली बीमारी पकड़ में आ जाए तो नक़ली दवाई का बाज़ार बन्द हो जाता है।

मैं गन्दा खाना खाता हूँ, मेरा पेट ख़राब है, उससे मुँह में छाले पड़ गये, उसी छाले वाले मुँह से मैं सीताराम-सीताराम करूँ तो छाले ठीक हो जाऍंगे क्या? इस पूरी प्रक्रिया में कहीं भी मेरे पेटूपने का इलाज है? हाँ, ये ज़रूर हो सकता है कि मैं हाय-हाय कर रहा था, ज़्यादा हाय-हाय करो, बीमारी पर ध्यान दो तो और सताती है। मुझे बोल दिया गया कि तुम माला फेरो या कुछ और करो या नाम जपो, तो मेरा सारा ध्यान किस पर लग गया? (माला फेरने पर)। तो मैं थोड़ी देर के लिए अपने दर्द को भूल गया। लेकिन ये कोई उपचार है? ये कोई उपचार है? थोड़ी देर में फिर भाग रहा हूँ, छोला-भटूरा कहाँ रखा है?

कोई भी विधि सही नहीं होती, और सब विधियाॅं सही हो सकती हैं। आत्मज्ञान के साथ सब विधियाॅं काम कर जाती हैं; बिना आत्मज्ञान के कोई विधि काम नहीं करती। इसको ऐसे कहा जाता है, समझिएगा, आत्मज्ञान की सही विधि वही है जो आत्मज्ञान से ही निकले। ध्यान की सही विधि वही है जो ध्यान से ही निकले। अगर ध्यान नहीं था तो तुम विधि कैसे पकड़ लाये? तो विधियों का महत्व, हाँ, होता है, लेकिन विधि को आना भी तो सही जगह से चाहिए न।

आपका ध्यान जारी रह सके, निर्बाध रह सके, निरन्तर रह सके, इसके लिए आपको विधि ध्यान में ही पता चलेगी। और जो विधि आपके लिए लाभप्रद होनी है वो विधि बस आप ही जान सकते हैं, क्योंकि आत्मज्ञान में किसके मन को जाना जाता है? आपकी बीमारी, आपकी बीमारी है, आपको ही पता है। और अपनी बीमारी को जब जान गये तो फिर ख़ुद ही उसके लिए फिर इलाज निकाला जाता है, और बहुत छोटे-छोटे इलाज होते हैं। वो पता भी नहीं लगेगा कि अरे! ये, ये आध्यात्मिक इलाज है? हाँ, आध्यात्मिक इलाज है।

अब करता नहीं, पहले मैं लोगों से निजी बातचीत भी करता था चार-पाॅंच साल पहले तक। तो एक सज्जन आये थे, उनसे पूरी लम्बी-चौड़ी बात हुई तीन घण्टे की, अब उतना समय ही नहीं कैसे बात करूॅं? तो उनका कुल मिलकर के जो बात अन्त में आयी थी वो ये थी कि गेंद जो सफ़ेद रंग की गेंद आती है स्पंज की, पीले रंग की, स्पंज की आती हैं, छोटी-छोटी, उनको पटको बाउंस करती है (पटकने का इशारा करते हुए), उस पर स्माइली बना रहता है, वो उन्होंने अपनी कार में आगे अपने ऐसे लगा ली डैशबोर्ड के ऊपर (लगाने का इशारा करते हुए), बोले हो गया, ये ही मेरी ध्यान की विधि है।

तो तीन घण्टे की बात के बाद ये निकल कर आया कुल, बस। पर वो इतनी साधारण सी चीज़, एक गेंद है और उस पर ऐसे एक मुस्कराहट बनी हुई है। वो तीन घण्टे जब ध्यान में गहरे गये, गये, गये, तब समझ में आया कि और तो मुझे कोई चाहिए ही नहीं विधि, मेरे लिए तो इतना ही काफ़ी है, बस। ये लगा दिया (लगाने का इशारा करते हुए)। वो अभी भी संस्था से जुड़े हुए हैं नियमित रूप से। अब उनका मुँह ही गेंद जैसा हो गया है। उनको देख लूँ तो मैं, मेरी बेचैनी मिट जाती है। तो सबके ऊपर अलग-अलग विधियाँ लगती हैं भाई। सब पर अलग-अलग विधियाँ लगती हैं, और कौनसी विधि आप पर लगेगी ये बस आपका अपना ध्यान ही बता सकता है।

तो विधि किसलिए होती है? ताकि जो ध्यान आपको उपलब्ध हो गया है वो आगे लगातार बना रहे। ठीक वैसे, जैसे सोने से पहले आप अलार्म लगते हो। जब आप जगे हो तो आप अलार्म लगाते हो ताकि जग सको। इसी तरह ध्यान की विधि होती है, उसको ध्यान में ही जाना जाता है, ताकि ध्यान आगे भी बना रहे। वो कोई एक वन साइज़ फिट्स ऑल (एक आकार सभी के लिए) वाली बात नहीं होती है कि बाबाजी ने एक विधि बता दी है अब पूरा ज़माना उसी को लेकर घूम रहा है। वो, उसमें कोई नैतिक समस्या नहीं है, समस्या व्यावहारिक है। वो विधि उपयोगी नहीं हो पाएगी, लाभ नहीं देगी।

प्र: धन्यवाद, आचार्य जी।

प्र२: आचार्य जी, हम ही मान रहे हैं कि बन्धन में हैं, नहीं तो अगर मान ही लें तो वही आपने समझाया है कि मान्यता ही है। आपने माना ही हुआ है कि आप मुक्त नहीं हो, अगर मान लें तो सब ठीक हो जाए। अब यहाँ कुछ थोड़ी सी परेशानी इसमें ये आ रही है कि एक बात तो, दो चीज़ें आ रही हैं परेशानी में। पहली बात ये आ रही है कि कई बार मुझे ये भी डर लगता है कि अभी जो मैं सुन रहा हूँ, आपसे जो सीख रहा हूँ, कहीं मैं उनको भी जस्ट (केवल) कागज़ की लेखी की तरह ले रहा हूँ, उनको भी कहीं मैं अपनी मान्यता न बना लूँ। एक ये डर रहता है बहुत, एक ये चीज़ रहती है।

और दूसरी एक चीज़ है जिससे मैं इस टाइम (समय) जूझ रहा हूँ, वो ये बात है कि कुछ पास्ट (अतीत) में ग़लत चीज़ें हुई हैं मेरे साथ, और उनका मुझे कर्मफल मिल रहा है, और पहले मैं उससे भागा करता था आपसे जुड़ने से पहले, लेकिन आज-कल मैं रेस्पोंसिबिलिटी ओन (ज़िम्मेदारी पर) करता हूँ, नहीं ये मेरे से ही हुई है मुझे इसको बर्दाश्त करना है चाहे जो भी मुझे उसका कष्ट मिले, लेकिन अब जब मैं उन कर्मफलों को भोगता हूँ तो वो मैं उसको कभी नाम देता हूँ, ‘ये मेरे कर्तव्य हैं’, लेकिन जब आपका कभी गीता का सत्र सुनता हूँ तो वहाँ मुझे सीधे-सीधे कहा जाता है ये कर्तव्य नहीं हैं, ये पीछे छुपा कुछ मेरी ही कामना है, कर्त्तव्य नहीं।

तो कुल मिलाकर मुझे ऐसा लग रहा है कि यहाँ पर भी मैं कुछ मान्यता ही बना बैठा हूँ, लेकिन ये मान्यताऍं मेरे से छूटती नहीं हैं। इधर मैं पकड़ बहुत ज़ोर से पकड़ा हुआ है मैंने। मैं छोड़ नहीं पा रहा हूँ। वही मैं जानना चाहता हूँ कि मैं क्या करूँ कि मेरी अपनी मान्यताऍं कुछ छूटें, और मैं कहीं-न-कहीं समझौता कर बैठता हूँ। तो यही मैं थोड़ा जानना चाहता हूँ।

आचार्य: स्वार्थ उसमें है या नहीं है?

प्र२: कभी मुझे लगता है, है। कई बार लगता है, हाँ था, मेरा इसके पीछे स्वार्थ ही था। लेकिन कई बार मुझे लगता है कि नहीं, ये मैंने किया था, मुझे इस ग़लती को ओपन (खोलना) करना है। तो उसकी वजह से जो मिल रहा है मुझे।

आचार्य: देखिये, किसी की मदद करना बहुत अच्छा कर्तव्य है बशर्ते वो निष्काम हो। तो आप कर्तव्य बना रहे हैं किसी बात को, बहुत अच्छी बात है, कृष्ण भी तो एक तरह से अपना कर्तव्य ही निभा रहे हैं। अर्जुन जीवनभर मित्र की तरह उनके साथ रहे हैं, अब मित्र की ज़िन्दगी में एक नाज़ूक पल आया हुआ है तो वो अपना दायित्व निभा रहे हैं। तो कर्तव्य में बुराई नहीं है, लेकिन कर्तव्य कामना से नहीं आना चाहिए न। वहाँ बस यही पूछना होगा बार-बार इसको मैं कर्तव्य तो बना रहा हूँ इसमें मेरे लिए क्या है? मेरे लिए क्या है? दूसरे को तो चलो कुछ दे रहा हूँ वो ठीक है, उसमें मैं अपने लिए क्या ले रहा हूँ? ये परखते रहिए बस।

प्र२: जी, और दूसरा इस बात को कैसे लें कि कहीं जो आपसे हम सीख रहे हैं वो भी हमारे लिए सीख बनें, हमारा जीवन बनें।

आचार्य: प्रयोग, प्रयोग। आज भी कहा न मैंने की जो गा रहे हो और जो जी रहे हो उसमें अन्तर न रखने की शर्त पूरी करो तो ही गाऍंगे। प्रयोग, करिये न उसको।

प्र२: जी।

आचार्य: उसको प्रयोग करिए। जो चीज़ कान में पड़ी है जिसको ऐसे (हाँ में सिर झुकाने का इशारा करते हुए) हुॅंकारा भरा है, ‘हाँ, ठीक है’ तो वो चीज़ फिर सीधी-साधी ईमानदारी की बात है कि उसको जीना पड़ेगा। तो जिऍंगे तभी उसमें जो अड़चन आ रही है वो पता चलेगी। जियें, करें।

प्र२: जी।

आचार्य: तभी ये भी पता चलता है, ये तो पता चलता ही है, क्या कठिनाई है; तभी ये भी पता चलता है कि उसको समझा भी था या नहीं समझा था।

प्र२: जी।

प्र३: आचार्य जी, प्रणाम। वो मुझे ये मिलता है कि जब मैं स्वयं को चुनौती देता हूँ तो मेरा मन बहुत प्रतिरोध करता है, और फिर मैं लिमिट्स (सीमाओं) को तोड़ता हूँ अपनी, और फिर एक तरफ़ देखता हूँ कि मन को मौन की तरफ़, तो मन तो मौन होता नहीं है उससे।

आचार्य: शोर ज़्यादा मचाता है।

प्र३: हाँ।

आचार्य: लिमिट्स तोड़ो तो शोर ज़्यादा मचाता है। अच्छा है, बढ़िया है। ठीक, बहुत अच्छा।

प्र३: तो मैं कैसे इसको?

आचार्य: कह रहे हैं कि एक तरफ़ तो मन को मौन की तरफ़ ले जाना हैं, दूसरी ओर मान्यताऍं, ढर्रे तोड़ो तो वो चीखें और मारता है। तो ये तो उल्टा बैठ गया। हाँ, वो वही है आज शुरू में कहा था न, जहाँ दर्द हो रहा हो वहाँ आप तो छुओगे नहीं, और जब उसका इलाज होगा और आपको लिटा देगा वो डॉक्टर, आप कहोगे पेट में दर्द है, तो जहाँ दर्द होगा वहाँ ऐसे (दबाने का इशारा करते हुए), तो आप क्या करोगे? चीखें तो मरोगे ही न? पर उस चीख के बाद ही मौन होता है। वो चीख मारना ज़रूरी है। वो चीख अगर उस वक़्त आपने नहीं मारी तो वो भीतर एक, एक दबी हुई, छुपी हुई चीख की तरह रह जानी हैं। दर्द तो रह ही जाना है न? तो वो शुरुआती चीख आएगी। मन को मौन की ओर ले जाने में बीच में तो शोर-शराबा होगा।

प्र३: इसमें मुझे ये समझ में आता है कि जैसे ये तो वैसा हो गया कि मैं अपनी ख़ुद की जैसे चिकित्सा कर रहा हूँ। मान लीजिये मुझे जैसे गोली लग गयी, अब मैं गोली ख़ुद निकाल रहा हूँ। तो यहाँ तो मतलब जैसे मेरा ही मन चीख रहा है, और मुझे ही एक एक्सटर्नल (बाहरी) की तरह उस पर दबाव बनाना है कि नहीं, मुझे ये और करना है, तो ये तो मतलब जैसे कि मैं ही पेशेंट (मरीज़) और मैं ही डॉक्टर का कैसा ऐसे हो गया है?

आचार्य: इसीलिए फिर दो कर दिये जाते हैं। जो बीमार है उसको अहम् कह देते हैं, और जो उसका इलाज कर रहा है उसको साक्षी कह देते हैं। अन्ततः स्वस्थ होना अहम् का अपना चुनाव है। तो ले-देकर ज़िम्मेदारी तो अपने ही ऊपर आनी है। बाहर से सलाह आ सकती है, प्रेरणा आ सकती है, उदाहरण आ सकते हैं, सिद्धान्त बताये जा सकते हैं, कुछ विधियाॅं किसी ने बता दी, लेकिन ये तो बिलकुल बात सही है कि ज़िन्दगी चूॅंकि अपनी है तो सुधरने का चुनाव भी ख़ुद को ही करना है।

प्र३: इसमें, आचार्य जी, जब हम एक्सीलेंस (उत्कृष्टता) की बात करते हैं तो जैसे एक्सीलेंस को जब मैं देखता हूँ कि एक्सीलेंस में बहुत कुछ तोड़ना पहले पड़ता है तब जाकर वो चीज़ हासिल होती है। तो जैसे बहुत सारे जो लोग अलग-अलग कार्य क्षेत्रों में एक्सेल करते हैं वो ज़रूरी नहीं वो अपनेआप को आध्यात्मिक बोलें, लेकिन वो कहीं-न-कहीं ये गुण ज़रूर दर्शा रहे होते हैं कि वो कुछ-न-कुछ तोड़ रहे होते हैं, तो।

आचार्य: वो एक तरह का कौशल है, लेकिन बहुत आपका मन करेगा उस कौशल की तारीफ़ करने का, अक्सर मैं उसकी तारीफ़ कर भी देता हूँ, पर थोड़ा सावधान रहना चाहिए। अपनेआप को तोड़ना वगैरह तो ठीक है, पर किस उद्देश्य से तोड़ रहे हो, और अगर उद्देश्य ख़ुद को ही मोटा करके रखना है तो आप तोड़ थोड़ी रहे हो, आप तोड़ थोड़ी रहे हो, आप तो अपनेआप को और बचा रहे हो, बढ़ा रहे हो।

मैं आपके प्रति द्वेष रखता हूँ, ठीक है? और आपसे बदला निकालने के लिए मैं रात-रात भर तैयारी करता हूँ, सोता भी नहीं, अपनी नींद को मैंने जीत लिया है। मुझे आपसे आगे निकलना है और साथ-ही-साथ आपका कुछ नुक़सान करना है, उसके लिए मैं रात-रातभर मेहनत कर रहा हूँ। अब पता नहीं इस बात की सराहना करें या भर्त्सना, कहना मुश्किल है। मेरे देखे ये, ये ख़तरनाक स्थिति है।

मेघनाद का एक नाम क्या था? इन्द्रजीत। अब इस बात की तारीफ़ करें या क्या बोलें? इन्द्र को तो जीत लाया था, पर उद्देश्य क्या है? तो इन्द्र को जीतना एक बात होती है, और स्वयं को जीतना बिलकुल दूसरी बात होती है। स्वयं को जीतने का मतलब होता है बिलकुल घुसकर, के अपनी जो गहरी वृत्ति है, मूल स्वार्थ है, उससे ही भिड़ गये हैं। नहीं तो जितने लोग जिम जाते हैं आप देखो कितनी वो मशक्क़त कर रहे होते हैं और तकलीफ़ कितनी सह रहे होते हैं, कराह रहे होते हैं, जिम में जाओ, देखो। किसलिए? वो पूछना ज़रूरी है। किसलिए?

प्र३: जैसे सर जिम में भी जैसे दो प्रकार के लोग हैं, एक जा रहे हैं जो की अपनी सेल्फ़ी खींचकर इंस्टा पर डालने वाले हैं, और दूसरे लोग हैं जो कि अपनी लिमिट्स को या वर्जिश (व्यायाम) कर-करके और।

आचार्य: हाॅं तो ये जो दूसरे वाले हैं ये ठीक हैं। दूसरे वाले होते हैं? दूसरे वाले अगर हैं तो बहुत अच्छी बात है।

प्र३: फिर इससे अगर हम ये जोड़ें कि अगर कोई अपने कार्य क्षेत्र को इस तरीक़े से कर रहा है, जो अपने काम को इस तरीक़े से कर रहा है कि जो अपनी चुनौतियों को तोड़ने के लिए कर रहा है।

आचार्य: हाँ, तो उसमें सवाल ये आएगा न कि तुम स्वयं को परिभाषित कैसे कर रहे हो? उदाहरण के लिए, मेरे हाथ कमज़ोर हैं और मैं अपने हाथों की कमज़ोरी को चुनौती दूॅंगा, मैं अपने हाथों की कमज़ोरी को चुनौती दूॅंगा, कैसे? घर के पीछे एक जंगल है, कुल्हाड़ी ले जाकर मैं रोज़ जितने पेड़ हैं सब काटा करूॅंगा, उससे मेरे हाथ मज़बूत हो जाऍंगे। मैं अपनी कमज़ोरी को चुनौती दे रहा हूँ। मैं सारे पेड़ काट डालूँगा, सारी चिड़िया मार डालूँगा, मैं अपनी कमज़ोरी को चुनौती दे रहा हूँ।

समझ में आ गयी न बात?

तुमने अभी स्वयं शब्द की परिभाषा ही नहीं समझी, तुम क्या चुनौती दोगे अपनेआप को? तुम स्वयं को चुनौती देने के नाम पर अपने स्वार्थ को आगे बढ़ा रहे हो, और दूसरों के लिए तुम ज़हर बन रहे हो। तो बहुत लोग ऐसे मिलेंगे जो स्वयं को चुनौती देंगे, आप कहेंगे इनके जीवन में संघर्ष बहुत रहा है, इसने बहुत मेहनत करी है। हाँ, करी है बहुत मेहनत, और दूसरों का नाश भी बराबर का किया है। तुम्हारी मेहनत से अगर दूसरों का नाश हो रहा हो तो भाड़ में जाये तुम्हारी मेहनत।

रावण को तो कहते हैं कि शिव के अलावा वो सबको जीत लाया था। कथा है, पर आशय समझिए। बहुत मेहनती भी था, बिना मेहनत के तो वो सब करा नहीं होगा। सोने की लंका है ऐसे कैसे खड़ी हो गयी होगी? बहुत मेहनत लगी होगी। ऐसी मेहनत तो बड़ी गड़बड़ हो जाती है न? तो सिर्फ़ इसलिए किसी के फैन या प्रशंसक मत हो जाया करिए कि अपने क्षेत्र में उत्कृष्ट है, और बड़ा मेहनती है, और कुछ गुण दिखा रहा है। वो पूछना पड़ेगा न कि भैया कहीं इन्द्रजीत तो नहीं खड़ा हो रहा? मेहनत तो बहुत कर रहा है, पर चाहता क्या है? सीताहरण? ऐसे मेहनती लोगों से तो राम बचाये।

प्र३: धन्यवाद, आचार्य जी।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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