न समझौता, न हठ || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2014)

Acharya Prashant

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न समझौता, न हठ || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2014)

वक्ता: देखो, ‘समझौता’ का क्या अर्थ है? कौन करता है समझौता? कौन करता है?

श्रोता १: जो कमज़ोर होता है|

वक्ता: नहीं, बात कमज़ोर की नहीं है| एक नदी है, वो बह रही है| सामने ज़मीन आ जाती है, थोड़ी ऊंची सी, और उसके बगल से एक गलियारा बन रहा है, जो अपेक्षाकृत नीचा है| नदी बह रही है, पानी का बहाव है| पानी क्या करेगा? जहां उसे जगह मिलती है बगल से, वो निकल जाएगा| एक स्थिति ये है| और एक दूसरी स्थिति है कि ये पीछे दीवार है, इसमें मैं कील ठोंकने की कोशिश करूं, और दीवार बिल्कुल चाहती ही नहीं है कि कील उसके भीतर प्रवेश करे| पर ज़ोर है हथौड़े का, और दीवार के न चाहने पर भी कील उसे भेदती हुई बिल्कुल उसके सीने में उतर जाती है| किस स्थिति में हो रहा है समझौता? नदी की स्थिति में, या दीवार की स्थिति में? किस स्थिति में हो रहा है?

श्रोता २: नदी की स्थिति में|

वक्ता: नहीं| जहां दीवार है, तुम्हें वहीँ पर करना पड़ेगा समझौता| और दीवार होती है ‘अहंकार’ की| मैंने देखा है कि सामान्यतः हम इस शब्द का बड़ा विपरीत अर्थ निकाल लेते हैं, समझौते का| जब भी कहा जाता है, ‘समझौता ना करो’, तो हम सोचते हैं कि इसका अर्थ ये है कि हठी हो जाओ| इसका अर्थ ये है कि अपनी बात पर अड़े रहो, ज़िद्दी हो जाओ| नहीं, समझौता ना करने का ये अर्थ नहीं है|

समझौता ना करने का अर्थ है कि दीवार जैसे ना हो जाना| जीवन को प्रतिरोधकता न देना| बहते पानी की तरह हो जाना, नदिया हो जाना| तो बहो, जीवन जैसा है, बहो| समझौता शब्द तभी तक अर्थपूर्ण है जब तक विरोध है, जब तक प्रतिरोध है| तो मैंने तुमसे पूछा कि कौन करता है समझौता| वो जिसके पास प्रतिरोध है| जहां प्रतिरोध नहीं, वहां समझौते का सवाल नहीं| तुम प्रेम में बहुत कुछ दे देते हो| उसे समझौता कहोगे क्या? वो समझौता नहीं है| पर जहां मन की इच्छा कुछ और उठ रही थी, चाहते थे कि कुछ और हो, देने जैसी कोई भावना ही नहीं थी, पर विवश हो कर करना पड़ा क्योंकि हथौड़े का ज़ोर था और तुम डर गये थे, तुम्हारे प्रतिरोध की शक्ति कम पड़ रही थी, तब होता है समझौता|

प्रतिरोध करता ही कौन है? अहंकार के अलावा कौन है प्रतिरोध करने वाला? नदी बड़ी ताकतवर होती है, दीवार से कहीं ज्यादा| पर वो विरोध नहीं करती| उसके अपने तरीके हैं| कभी जाना, देखना नदियों को| विशाल पत्थर रखे होते हैं, नदी उनको घिस-घिस कर चिकना कर देती है| पहाड़ों को काट देती है| एक अदनी-सी दीवार में क्या ज़ोर है नदी के सामने| पर नदी को ऐसा कभी लगता ही नहीं है कि समझौता कर रही है| कारण क्या है? नदी अपने में मस्त है| नदी को फर्क ही नही पड़ता कि रास्ते में दो-चार पत्थर आ गए| वो ऐसे टेढ़ी हो कर निकल जाएगी, या पत्थरों के ऊपर से निकल जाएगी| वो यह नहीं कहेगी पत्थर से कि जब तक मैं तुझे काट नहीं देती मुझे चैन नहीं मिलेगा| वो कहेगी कि सागर से मिलना है, वहां बड़ा प्रेम है, और मैं मस्त हूं उधर को जाने के लिये| ऐसे नहीं तो, वैसे निकल जाउंगी| आड़ी, तिरछी, घूमती, सर्पाकार, बस रास्ता मेरा बनता चलेगा| जाऊँगी और मिल जाऊँगी सागर से|

दीवार को कहीं पहुंचना नहीं है| उसे बस अड़े खड़े रहना है कि हम कुछ हैं| तो इसलिये तुम कभी नदी में कील न ठोक पाओगे| कोशिश कर के देख लो| पर दिवार में ठोक लोगे| लाख कर लो कोशिश, नदी में कोई आज तक कोई कील नहीं ठोक पाया| तुम बहुत बड़ा बांध बना दो तो नदी मर तो सकती है, जो कि होता है, हो ही रहा है लगातार| पर नदी को अंततः होना वही है जो वो है, बहती हुई| वो अपना स्वाभाव नहीं बदलेगी|

श्रोता १: सर, एक व्यक्ति(इंडिविजुअल) भी तो समझौता नहीं करता|

वक्ता: ‘एक व्यक्ति-विशेष(इंडिविजुअल) समझौता नहीं करता’, यह बात बिल्कुल ठीक है| पर इसका ये अर्थ नहीं है कि उसमें प्रतिरोध ज़बर्दस्त है| बात इसकी विपरीत है| व्यक्ति-विशेष(इंडिविजुअल), प्रतिरोध रहित होता है| वो तो मौज में जीता है| वो कहता है, ‘जैसा है, बढ़िया| हमें कोई विरोध नहीं है’| इसका ये अर्थ नहीं है कि वो कहीं अपने कर्म को छोड़ देता है विरोध में कि हमें करना ही नहीं है| वो लड़ता भी है| पूरी जान से लड़ता है| पर वहां भी वो कहता है कि अब जब लड़ने की स्थिति आ ही गई है, तो लड़ लेंगे| हम इसका भी प्रतिरोध क्यों करें| मुझे कोई प्रतिरोध देना ही नहीं है|

कृष्ण और क्या कहते हैं अर्जुन से? कहते हैं कि अब जब स्थिति आ ही गई है लड़ने की, तो लड़| नदी की तरह हो जा कि अब जब आ ही गई है ढलान, तो बहो| ये बड़ी मज़ेदार बात है| जिन लोगों ने भी जीवन को जाना है, उनकी ये छवि मत बना लेना कि वो सब मौनधारी, निष्क्रिय लोग हो गए थे और किसी पेड़ के नीचे बैठे रहते थे, कुछ करते नहीं थे| सिक्खों के गुरुओं को देख लो| एक-एक गुरु, महायोद्धा है| एक हाथ में आदि-ग्रन्थ और दूसरे हाथ में तलवार| पैगम्बर मुहम्मद को देख लो| अपने जीवन के आखिरी चौबीस वर्ष उन्होंने लड़ते हुए ही बिताए| हिन्दुओं के अवतारों को देख लो| सब शस्त्र लेकर के खड़े होते हैं| किसी के पास कुछ है, किसी के पास कृपाण है, किसी के पास धनुष है, कहीं गदा है, कहीं कुछ है| अपनी देवियों को देख लो| अनगिनत हाथ होंगे, और सबके हाथों में शस्त्र| और शस्त्र का मतलब ये नहीं है कि वो हिंसक हैं, और मारना चाहते हैं, जैसे कि उन्हें कोई नाराज़गी है कि हत्या कर दूंगा| इसका अर्थ यही है कि अब यही होना है तो यही हो| हम इसका भी विरोध नहीं करेंगे| और दूसरे सिरे पर बुद्ध हैं, जो शांत बैठे हैं, मौन कि जैसे पत्थर हो गए हों| इतने निष्क्रिय, अचल| वो भी यही कह रहें हैं कि यही होना है, तो यही हो, हम नहीं करते विरोध| हमने अपने आप को सौंप दिया, समर्पित हो गए| और मीरा है, वो नहीं लड़ रही किसी से, कोई हथियार नहीं पाओगे उसके पास, तो वो नाच ही रही है| ‘अब यही होना है, तो यही हो| हम नहीं कर रहे कोई विरोध| जैसी तेरी इच्छा, तू नचा रहा है, तो नचा| तू कहता है, ‘लड़’, तो हम लड़ेंगे और पूरी ताकत से लड़ेंगे| और तू कहता है कि शांत होकर बैठ जा, तो हम शांत होकर बैठ भी जाएंगे|

हमें कोई विरोध नहीं है, हम दीवार नहीं हैं| हम नदी हैं| हमें कुछ चाहिये ही नहीं| जैसी तेरी मर्ज़ी| और हमारा तेरे से सीधा सम्बन्ध है| तेरी मर्ज़ी, मेरी मर्ज़ी, और मेरी मर्ज़ी , तेरी मर्ज़ी| हमने बीच में किसी को रखा ही नही है दलाल कि तरह| हमारी वो स्थिति है कि हम जो चाहते हैं, वो तेरी ही मर्ज़ी होती है| तो हमें तुझसे पूछना भी नहीं पड़ता कि तेरी मर्ज़ी क्या है| हमारी जो मर्ज़ी है, वही तेरी मर्ज़ी है| तो हमारे जो मौज आती है, हम करते हैं, नदी की भांति| बह रहें हैं, बिना किसी योजना के| कोई योजना नहीं है नदी के बहाव में| सच पूछो तो बड़ी गहरी योजना है|

(मौन)

जी रहें हैं, मजे में जी रहें हैं| आगे की हमें सोचनी ही नहीं है| जो ही हो रहा है, हम उसको पूरेपन से कर रहें हैं| नाचना, उठना, बैठना, शांत हो जाना, लड़ लेना- जो कर रहें हैं, पूरेपन से हो रहा है| और कहीं पर भी अहंता नहीं है कि मैं कर रहा हूं, और जीतना ज़रुरी है| ‘लड़ लेंगे पूरी जान से, पर जीत की कौन सोचता है| जीते तो जीते, और हारे तो हारे| पर लड़ेंगे पूरी जान से| नाचेंगे पूरी तरह झूम कर, मस्त होकर| पर तालियों के लिये कौन नाचता है? नाचे और झूम के नाचे, बैठ जाएंगे ऐसे कि हिलेंगे नहीं| घंटों, हफ्तों, पर समय गिन कौन रहा है? उठेंगी लहरें कि अब उठो, चलो, तो उठ भी जाएंगे| नहीं हमें ‘गिनीज बुक ऑफ़ रिकॉर्ड’ में नाम लिखना है कि ये इतने देर तक बैठे रहे, शांत| जो हो रहा है, सो हो रहा है| और जो ही हो रहा है, हम प्रस्तुत हैं उसमें, पूर्णतया’|

‘बैठे हैं यहां पर, तो प्रस्तुत हैं, पूरे तरीके से| पूरे-पूरे तरीके से| और भूल गये हैं कि कुछ और भी है जीवन में| यही जीवन है| इसके अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं| और शाम को हो सकता है कि हम खेल के मैदान पर हों| फिर हम वहां भी बहेंगे| हम जहां भी हैं, बह रहें हैं| रुके हुए नहीं हैं| पत्थर समान नहीं हैं’| पत्थर को कभी बहते देखा है? पत्थर खुद को ही ठोकरें देता हुआ चलता है| तुम कभी नदी के बहाव में छोटे पत्थरों को देखना| हमारा जीवन वैसा है| कि पीछे से धक्का आया तो थोड़ा आगे को बढ़ लिये| अब मन नहीं है, पर धक्का आया तो बढ़ लिये| फिर रूक गये, ठहर गये, किसी और पत्थर का सहारा मिल गया| दो पत्थरों के बीच में आकर, तीसरा फंस गया है तो उसको लग रहा है कि मैंने कुछ कर लिया कि देखो मैं बहाव से लड़ सकता हूं| और जब थोड़ी देर में बड़ी लहर आई और तीनों को ले गई, तो कह दिया कि बड़ी मजबूरी है, कि जीवन बड़ा ख़राब है| फिर कुछ देर तक बहते रहे|

ऐसा हमारा जीवन है, पत्थर समान, दीवार समान| अड़ता हुआ, लड़ता हुआ| खिसियाया हुआ, शिकायत से भरा हुआ| विरोध में खड़ा हुआ| किसके विरोध में खड़े हो तुम? क्या है जिसको तुम रोकना चाहते हो? और क्या कर लोगे रोक कर? और कौन है जो रोकना चाहता है? बात समझ में आ रही है? समझौता ना करना, बड़ी बात है| पर समझौता ना करने का मतलब हठ नहीं है| समझौता ना करने का मतलब, हठ नहीं है!

समझौता करने का अर्थ है, ‘लगातार जानना कि क्या उचित है और उसको पूर्णता से होने देना’| यही समझौता ना करने का अर्थ है| दोहराता हूं, समझौता ना करने का अर्थ है, ‘मैं जानता हूं कि अभी क्या उचित है, बिना संदेह के जानता हूं, बिल्कुल साफ-साफ स्पष्ट है मुझे कि अभी क्या होना है| और जो होना है, मैं उसको होने देता हूं| फिर मैं उसके सामने नहीं खड़ा होता| मैं बाधा नहीं बनता’|

ठीक है? बस इतना सा ही है|

-‘संवाद’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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