प्रवृत्तौ वा निवृत्तौ वा नैव धीरस्य दुर्ग्रहः।
यदा यत्कर्तुमायाति तत्कृत्वा तिष्ठते सुखम्।।
~अष्टावक्र गीता
अध्याय १८, श्लोक २०
अनुवाद: जो धीर पुरुष है उसका न प्रवृत्ति से, न निवृत्ति से कोई आग्रह होता है। जब जो सामने आ जाता है तब उसे करके वह आनंद से रहता है।
आचार्य प्रशांत: प्रवृत्ति का अर्थ है आकर्षण। निवृत्ति का अर्थ है विकर्षण। प्रवृत्ति कहती है जो हो रहा है उसे संयुक्त हो जाना है। उसने अपना आधार, अपनी आत्मा को कल्पित कर लेना है। निवृत्ति कहती है जो कुछ हो रहा है सत्य, आधार, आत्मा उससे कुछ अलग है तो इसीलिए जो है, जो घट रहा है उसको मूल्य नहीं देना है। या फिर जो घट रहा है वो आत्मा के लिए खतरनाक हो सकता है। आत्मा के लिए विजातीय है तो उससे बचकर रहना है। दोनों ही स्थितियों में चाहे प्रवृत्ति हो या निवृत्ति हो, आत्मा के विषय में कुछ कह दिया गया है और अहम वृत्ति है ही यही।
आत्मा के विषय में कुछ कह देना और आत्मा के विषय में धारणा बना लेना। कहने का अर्थ ही है न 'ज्ञान में विश्वास'। अहम वृत्ति है ही यही कि मैं जानता हूं कि आत्मा, सत्य, शांति कहां है, क्या है, कैसे हैं? जब अहम वृत्ति कहती है कि आत्मा सामने घटती घटना में है तब भी उसने आत्मा के विषय में कोई बात कह दी, कुछ धारणा बना ली, कुछ निश्चय कर लिया। और जब अहम वृत्ति कह देती है कि जो कुछ हो रहा है, जो कुछ भी प्रत्यक्ष हैं, जो सामने है - व्यक्ति, वस्तु, विचार, मानसिक तरंग, संसार उसमें आत्मा नहीं है। तब भी अहंता ने आत्मा के विषय में धारणा बना ली। तब भी अहंता ने अपने आप को इतना बड़ा मान लिया कि वो सत्य के बारे में कोई दावा, कोई निष्कर्ष रख सकती है।
प्रवृत्ति कहती है कि मैं जानती हूं कि मैं इसको खोज रही हूं वो मुझे सामने वाली वस्तु में मिल जाएगा। निवृत्ति कहती है कि मुझे मालूम है कि मैं जिसे खोज रही हूं वो सामने वाली वस्तु में नहीं है। दोनों ही स्थितियों में खोज को सत्य माना गया है और आत्मा को सीमित कर दिया गया है।
निवृत्ति भी बांटती है और प्रवृत्ति भी बांटती हैं। प्रवृत्ति पकड़ कर बांटती है, निवृत्ति छोड़कर बांटती हैं। पर पकड़ना और छोड़ना है दोनों विभाजन के और सीमा के सबूत। जो धीर जन है, जो तत्वज्ञ पुरुष है उसको न प्रवृत्ति से कुछ लेना-देना, न निवृत्ति से। उसको न पकड़ने से कोई प्रयोजन, न छोड़ने से।
आमतौर पर ये तो कह दिया जाता है कि कुछ पकड़ने में राग भाव है, आसक्ति है लेकिन उतना ही महत्वपूर्ण ये है कि आप जाने कि छोड़ने में भी अहंकार का उतना ही संकल्प बैठा हुआ है। संकल्प आप दोनों ही स्थितियों में लेते ही हैं। आप कहते हैं पकड़ूंगा तो भी आप संकल्पित हुए, आप कहते हैं छोडूंगा तो भी आप संकल्पित हुए। कोई भी भीतर जो मुट्ठी भींच लेता है, कोई है भितर जिसको अपनी ताकत में और यकीन आ जाता है। जब आप कहते हैं कि पकड़ूंगा या जब आप कहते हैं कि छोडूंगा तो फिर क्या कहते हैं अष्टावक्र उसके बारे में जो न पकड़ता है, न छोड़ता है? अष्टावक्र कहते हैं कि उसके तो जो सामने आ जाता है वो उसी में मौज से रहता है। वो तो सुख से बैठता है उसी में जो प्रत्यक्ष आ जाए, चाहे जो आए; भेद नहीं है।
जब आप उस सब में आनंदित ही हैं आप अपनी मूल अवस्था को छोड़ ही नहीं रहे हैं। जो भी सामने आ रहा है उसी में आप आप ही हैं। तब आपके लिए सारा संसार आत्मा ही है क्योंकि आनंदित तो मात्र आत्मा में ही हुआ जा सकता है। और संसार में भी आप कहीं पर भी होते हुए आनंदित ही हैं तो अब संसार आपके लिए मात्र आत्मा का फैलाव ही है। और जब तक संसार आपके लिए आत्मा का फैलाव नहीं बनेगा तब तक आप संसार में विभाजन और भेद करते ही रहेंगे। आप कहते ही रहेंगे कि संसार के इस कोने में सुख है और उस कोने में दुःख है, तब तक संसार आपके लिए धूप छांव का खेल रहेगा। कहीं भी रह करके एकलय नहीं रह पाएंगे। जहां भी रहेंगे वहां ख्वाहिशमंद रहेंगे और जहां भी रहेंगे वहां डरे हुए भी रहेंगे।
जहां भी रहेंगे यदि वहां उस समय सुख की अनुभूति हो रही है तो ख्वाहिश ये रहेगी कि सुख की अवस्था बनी रहे। साथ ही साथ डर ये बना रहेगा कि सुख की अवस्था चली न जाए। और जहां है वहां तत्काल दुःख की अनुभूति हो रही है तो आशा बनी रहेगी कि कहीं और पहुंच जाएं जहां सुख मिलता हो। तो भागमभाग भी मची रहेगी, दौड़ जारी रहेगी। और ये जो दौड़ होगी ये विशिष्टता की दौड़ होगी, ये मौज नहीं होगी। ये वैसी दौड़ नहीं होगी जिसमें बच्चे बस यूँहीं दौड़ पड़ते हैं; खेल-खेल में। ये दौड़ होगी भय की, ये दौड़ होगी सहमी हुई टांगो कि। आप इधर से उधर कहीं भाग रहे हैं कुछ मूलभूत प्राप्त करने के लिए, प्राप्त भर करने के लिए नहीं; प्राप्ति तो मज़ेदार बात है। पाना-खोना ये द्वैत के रंग है।
जब तक अद्वैत स्थापित है तब तक द्वैत के रंगों से खेलना मज़ेदार होता है। लेकिन जब आप प्राप्ति के लिए नहीं मूलभूत प्राप्ति के लिए भागते हैं तब ऐसा नहीं है कि आपने द्वैत का एक सिरा ही खो दिया है, तब आप कह रहे हैं कि आपने द्वैत का जो आधार हैं अद्वैत, आपकी जो जड़ है, आपकी आत्मा है उसको ही खो दिया है। वो क्योंकि खोई नहीं जा सकती इसीलिए उसको पाने की आपकी अभीप्सा कभी पूरी नहीं होगी।
वृक्ष अगर पत्ता हो बैठा हो और अगर पत्ते कि उसे लालसा हो तो वो लालसा पूरी हो जाएगी। पत्ता आने-जाने वाली चीज़ है, एक जाएगा तो अगला आ जाएगा। वृक्ष अगर पत्ते की लालसा कर रहा है तो कोई बुराई नहीं है इसमें, खेल है। उसी लालसा से अगला पत्ता जन्मेगा, उसी लालसा से अगला फल लगेगा। सुंदरता है, रंग है, विविधताएं हैं, संसार हैं। पर वृक्ष अगर पत्तों की जगह जड़ों की लालसा करने लग जाए तो वृक्ष पगला गया है। अरे! जड़ कैसे खो सकती है तुम्हारी? वृक्ष अगर जड़ की लालसा कर रहा है तो उसे चाहिए कोई ऐसा जो उसे पूछे की लालसा करने के लिए भी तो जड़ चाहिए। जड़ अगर तुम्हारी होती नहीं तो तुम होते कहां लालसा करने के लिए।
आत्मा अगर होती नहीं तो तुम होते कहां इच्छा और कामना करने के लिए? आत्मा है तभी तो इच्छा है। जड़ है तभी तो वृक्ष है और पत्ता है। वृक्ष पत्ते की कामना करें ठीक है, खेल है। वृक्ष फल की कामना करें, टहनी की कामना करें ठीक है। फूल की कामना करें ठीक है। और वृक्ष जब मूल की कामना करने लग जाता है तब स्थिति बड़ी अद्भुत हो जाती है; विकृत, हास्यास्पद उतनी ही दर्दनाक। खड़ा हुआ पेड़ रो रहा है कि मेरे पास जड़ नहीं है। जड़ नहीं होती तो तू रोने के लिए भी कैसे साबुत बचता। जड़ नहीं होती तो तू पत्ते की भी कामना कैसे करता। तो यही पाने का और प्राप्ति का सूत्र है।
पाने की इच्छा में कोई बुराई नहीं, पाने की दौड़ में भी कोई बुराई नहीं, आकांक्षा में भी बुराई नहीं, महत्वकांक्षा में भी बुराई नहीं। पर उसकी चाहत रखना जो चीज़ छोटी हो, उसके चाहत रखना जो चीज़ खोई जा सकती हो। और खोने के बाद पुनः पाई जा सकती हो। पत्ते जैसी चीज़ लगते हैं झड़ते हैं, लगते हैं पकते हैं, पकते हैं गिरते हैं। ये वो चीज़ें हैं जो मिलती है बिछुड़ती है। जो चीज आती हो जाती हो उसकी इच्छा कर लेना।
छोटी ही चीज की इच्छा की जा सकती है क्योंकि इच्छा स्वंय बहुत छोटी होती है। छोटे की इच्छा कर लेना और छोटे की इच्छा करके अपनी छोटी सी शक्ति को छोटी इच्छा के पीछे लगा भी देना। कोई हर्ज नहीं हो गया, मौज है। पर बड़े की इच्छा मत रखना क्योंकि बड़ा तुम्हारी इच्छा का प्रार्थी नहीं, मोहताज नहीं। बड़े को तुम्हारी छोटी इच्छा से कोई वास्ता नहीं। बड़ा है तब भी जब तुम्हारी छोटी इच्छाएं है और बड़ा है तब भी जब तुम्हारी छोटी इच्छाएं नहीं है।
तो कभी भी ये ना कह देना कि बड़ा खो दिया। कभी भी ये ना कह देना कि जड़ खो गई, मूल खो गया। इसी को मैं कह रहा था कि प्राप्ति की कामना रखो, पर मूलभूत प्राप्ति की नहीं। पत्ते की कामना रखो, मूल कि नहीं। और न ये कामना रखो कि पत्ते के माध्यम से मूल प्राप्त हो जाएगा। मूल में स्थापित रहो फिर पत्ते को चाहते रहो।
अब इसमें एक मज़ेदार बात यह भी है कि मूल अगर स्थापित ही है तो पत्ते को चाहने की जरूरत ही क्या है? जड़ अगर स्थापित है तो पत्ते को चाह क्यों रहे हो? जड़ तो स्वंय ही पत्ता प्रेषित कर देगी। तो चाह लो उसको जो गाहे-बगाहे अनायास मिल ही जाने वाला है।
जो अप्रयत्न से भी मिल जाना है उसके लिए प्रयत्न कर लो क्योंकि वो मिल तो सकता है न। तो तुम्हें कम-से-कम यह लगेगा कि तुम्हारा प्रयत्न सार्थक है।
वृक्ष पत्ते की कामना करता रहे करता रहे, एक दिन पत्ता प्रकट हो जाएगा। वृक्ष को कम-से-कम बहाना तो रहेगा कि मेरी प्रार्थनाओं का उत्तर मिला। जो मैंने चाहा सो हुआ। पर वृक्ष अगर मूल की कामना करता रहे तो मूल कभी प्रकट नहीं हो जाने वाला क्योंकि वो कभी खोया ही नहीं था। वो कभी अप्रकट नहीं हुआ था। तो प्रयास, प्रार्थना, कामना सब व्यर्थ जाएंगे और जीवन दुःख से भर जाएगा, जीवन शिकायत और कुंठा से भर जाएगा। तुम कहोगे मैंने मांगा मुझे मिला नहीं। जब बहुत मांगो और मांगते जाने पर भी न मिले तो जान लेना इसलिए नहीं मिला क्योंकि मिला हुआ है। छोटी-छोटी चीज़ें अगर मांगोगे और ज़ोर से मांगोगे तो आज नहीं तो कल हासिल हो ही जाएगी। जो कुछ हासिल हो सके वो छोटा ही है। समय लग सकता है पर हासिल हो जाएगा।
तुम दुनिया की ऊंची से ऊंची चीज़ मांगलो अगर तुमने हौसला कर लिया, अगर तुमने मुट्ठी भींच ही ली तो मिल ही जाएगी। फिर तो बल प्रयोग की बात है, फिर तो शक्कर मिलाने की बात है जितनी मिलाते जाओगे, रस उतना मीठा होता जाएगा। लेकिन कुछ ऐसा है जो तुम्हारे सारे बल प्रयोग, तुम्हारी सारी कामना, तुम्हारी सारी चतुराई, जो कुछ भी है तुम्हारे पास उसके पूर्ण प्रयोग के बावजूद भी कभी मिलने वाला नहीं।
जब अपनी पूरी ताकत लगा लो फिर भी पाओ कि नहीं मिल रहा तो जान लेना की पा रखा है इसलिए नहीं मिल रहा। सत्य के साथ ऐसा ही है, शांति के साथ ऐसा ही है, मुक्ति के साथ ऐसा ही है, प्रेम के साथ ऐसा ही है।
मुक्ति का प्रयास करने वाले इसीलिए हारते हैं, शांति का प्रयास करने वाले इसीलिए विफल रहते हैं, मोक्ष की कामना इसीलिए अनुतरित जाती हैं। जो है उसको कैसे पाओगे। छोटी चीज़ें मांगों मिल जाएगी। कलम चाहिए मिल जाएगी, कोई व्यक्ति चाहिए मिल जाएगा, कोई पदवी चाहिए मिल जाएगी, वहां पर बात बस इतनी है कि कितनी ज़ोर से चाहा। वहां पर बात इतनी है कि कितनी इच्छा थी और कितनी बुद्धि। बुद्धि का उपयोग करो, संसाधनों का उपयोग करो। जो चाहते हो मिलेगा, जितना धन अर्जित करना है कर सकते हो और अगर धन नहीं अर्जित कर पा रहे हो तो उसका कारण यह नहीं है कि धन अनुपलब्ध है। उसका कारण बस यह है कि प्रयास नहीं है और आलस्य बहुत हैं। धन न मिलता हो तो जान लेना कि तुमने प्रयत्न में कमी कर दी। और परमात्मा न मिलता हो तो जान लेना तुमने प्रयत्न कुछ ज़्यादा कर दिया।
कुछ चीज़ें ऐसी होती है जो बहुत प्रयत्न करने पर मिलती हैं। उनको पाने के लिए प्रयत्न बढ़ाना पड़ता है और बढ़ाना पड़ता है। और कुछ ऐसा होता है जो मात्र अप्रयत्न की अवस्था में मिलता है। उसके लिए प्रयत्न को घटाना पड़ता है घटाना पड़ता है और घटाना पड़ता है।
अष्टावक्र का धीर पुरुष अप्रयत्न की अवस्था में रहता है। क्योंकि वो आत्मा में स्थापित है इसीलिए जितनी भी अवस्थाएं हैं उसके लिए उनको वो देखता आत्मस्थ होकर के ही हैं। छोटा होकर के देखोगे तो बाहर सब छोटा-छोटा ही नज़र आएगा। डर के देखोगे तो बाहर सब डरावना ही नज़र आएगा। आत्मस्थ होकर देखोगे तो चाहे जो दिखे वो तुम्हें डरा नहीं सकता।
तुम्हें क्या दिख रहा है वो इस पर निर्भर करता है कि तुम कहां से देख रहे हो। सही जगह से देखो तो सब सही ही दिखेगा। गलत जगह से देख रहे हो तो गलतियों के सिवाय कुछ नज़र नहीं आएगा। मौजी होकर के देखोगे तो बाहर मौज ही मौज है। आतंकित होकर के या अपूर्ण होकर के देखोगे तो बाहर मात्र अपूर्णता का विस्तार है। बाहर मात्र भय है, दुश्मन है, कठिनाइयां है।
आत्मा को इसीलिए सरल कहा गया है। जो आत्मा में स्थापित उसको बाहर मात्र सरलता दिखाई देती हैं और मन की प्रकृति जटिलता, जो मन में ही बैठा हुआ है उसको बाहर सिर्फ जटिलताएं दिखाई देगी। वो कहेगा संसार कुछ समझ नहीं आता। वो कहेगा गुत्थी बहुत उलझी हुई है। न प्रवृत्ति, न निवृत्ति, न आग्रह, न दुराग्रह उसकी स्थिति का वर्णन करना असंभव है। ये भी नहीं कह सकते कि वो सचेष्ट है पर ये भी कह सकते हैं कि वो निश्चेष्ट हैं। चेष्ठा करता हुआ तो वो दिखाई देता ही है तो निश्चेष्ट कैसे कहोगे? और चेष्ठा करने के बावजूद कहीं पर वो बिल्कुल विश्रांत रहता है तो फिर उसे सचेष्ट कैसे कहोगे?
कभी देखा तो ऐसा लग रहा है कि जान दिए दे रहा है कुछ हासिल करने के लिए और अगले ही पल एहसास ये हुआ जैसे इसे जो चाहिए वो न मिले तो भी उसे कुछ फर्क पड़ना है नहीं। कभी तो देखा तो यूं लगा कि इसकी कामना से बड़ी किसी की कामना नहीं है। सोते-जागते, उठते-बैठते अपने लक्ष्य के पीछे ही भाग रहा है। और फ़िर ज़रा ग़ौर से देखा तो एहसास हुआ कि कौन सा लक्ष्य, कैसा लक्ष्य? ये तो समस्त लक्ष्यों की सीमा पर जाकर बैठ गया है। इसे अब चाहिए क्या होगा? ऐसा है अष्टावक्र का ज्ञान ही, ऐसा है अष्टावक्र का मन तुम उसके विषय में धारणा बना ही नहीं पाओगे।
तुम उसके बारे में आख़री तौर पर कुछ कह ही नहीं पाओगे। तुम जिस भी आकृति में उसको बांधना चाहोगे वो आकृति छोटी पड़ेगी। तुम उसे किसी आकृति में समाहित कर करोगे वो उस आकृति को ही बदल देगा। तुम उसको जिस छवि में बांधोगे वो छवि को भी रूपांतरित कर देगा। क्या वो पाने निकलता है? जी हां। क्या उसे पाने से कुछ प्रयोजन है? जी नहीं। क्या वो कामनाओं की तरफ अपनी उर्जा लगाता है? जी हां। क्या उसे वाकई किसी की कामना है? जी नहीं। कुछ करता दिखता है? जी हां, बहुत कुछ करता है। कभी उल्टा-पुल्टा करता है, कभी आड़ा-तिरछा करता है पर करता तो रहता है। और उसका करना भी बेढंगा है। जब लगे कि करता है तो करता है और कभी-कभी लगे कि नहीं करता है तो नहीं भी करता है। पर ये तो नहीं ही कह सकते कि करने से उसने बेर बना लिया है; करता है। पर उसकी आंखें जब कुछ तलाश रही होती हैं तब भी वो आंखें हरी होती है, उनमें एक भरापन होता है।
जब उसकी आवाज़ कह रही होती है कि मैं प्यासा हूं मैं प्यासा हूं तब भी उसके मन में एक आर्द्रता होती है। ऐसा लगता है जैसे प्यास की पुकार किसी भरे हुए कुएं से आ रही है। ऐसा लगता है जैसे किसी लहराते सागर की कोई लहर कह रही है मैं प्यासी हूं। पता ही नहीं चलता कि प्यास है भी कि नहीं। लहर का तो जोरों से दावा है कि वह प्यासी है। लहर का यकीन करें तो लहर उठ ही इसीलिए रही है कि वह प्यासी है। और अगर ज़रा लहर को ग़ौर से देखें, लहर के आधार को देखें तो अनंत सागर है। इतना पानी है कि प्यास की भी प्यास बुझ जाए।