प्रश्नकर्ता: सर, मैं अभी एक कॉलेज से ग्रेजुएट हुआ हूँ, जहाँ पर अभी सुनने में आया है कि एक लड़के ने सुसाइड (आत्महत्या) कर लिया क्योंकि उसके बैकलॉग्स थे और जब मैं भी कॉलेज में पढ़ रहा था तो को प्लेसमेंट का माहौल होता है कि किसकी कितने की पैकेज लगेगी और वो सब….।
उसमें बहुत से लोग कॉलेज छोड़ देते हैं क्योंकि वो प्रेशर को झेल ही नहीं पाते। तो आपने जैसे कहा था कि परीक्षा ख़राब हो जाए उसका प्रभाव मन पर नहीं पड़ना चाहिए। तो मेरा सवाल था कि हम ऐसे कैसे हो जाएँ कि ये सब होता रहे बाहर-बाहर और अन्दर असर न पड़े?
आचार्य प्रशांत: एनआईटी राउरकेला?
प्र: जी सर।
आचार्य: देखो, उसके लिए न तैयारी बहुत अच्छा हो बचपन से हो जाए, बचपन से नहीं करायी किसी ने तो ख़ुद ही कर लेनी चाहिए, अभ्यास ज़रूरी है। ऐसे समझो कि जब कोई घटना घटती है तो हम रिफ़्लेक्टेड कॉन्शियसनेस (परावर्तित चेतना), ये मैं पाश्चात्य दर्शन से उधार ले रहा हूँ। रिफ़्लेक्टेड कॉन्शियसनेस ! ऐसे बोल लो, परावर्तित चेतना — हम उसके प्राणी होते हैं।
तो इसका मतलब ये है कि जैसे आईने में रिफ़्लेक्शन होता है न कि इधर कुछ हुआ तो उधर आईने में भी कुछ हो जाता है साथ में, तो ऐसे ही जब बाहर एक घटना घटती है तो उसके साथ में हमारे भीतर भी एक घटना घट जाती है। जैसे आईने के सामने अगर एक गेंद गिरे तो आईने के अन्दर भी एक गेंद?
प्र: गिर जाती है।
आचार्य: गिर जाती है न! बस जड़ और चेतन में अन्तर ये होता है कि आईने के पास कोई विकल्प नहीं होता कि उसमें गेंद गिरेगी कि नहीं गिरेगी — आपने आज तक ऐसा नहीं देखा होगा कि आईने के सामने गेंद गिरी पर आईने के अन्दर गेंद नहीं गिरी। ऐसा हुआ है कि उसके सामने आपने गेंद गिरा दी पर आईने में ये दिख रहा है कि गेंद अभी टँगी हुई है? ऐसा तो नहीं होता?
हम भी क़रीब–क़रीब जड़ हो जाने का अभ्यास करे बैठे हैं। तो क्या होता है, बाहर कोई घटना घटती है, ठीक उसी के साथ हम भीतर एक घटना घटने देते हैं, वो काम हमारी सहमति से होता है। उसमें हमारा चुनाव निहित होता है। बाहर कुछ हुआ और उसके परिणाम में हम भीतर भी कुछ हो जाने देते हैं।
अभ्यास क्या करना है? अभ्यास ये करना है कि बाहर कुछ हुआ और भीतर ‘मैं’ कुछ जो होने को खड़ा हो रहा हो, उसको पूछो कि तू स्वतंत्र है क्या? या तू मजबूरी में खड़ा हो रहा है? और अगर उत्तर ये आये कि मजबूरी में खड़ा हो रहा है तो नहीं खड़ा होना है। बैठ जा!
उदाहरण देता हूँ, अब तो आप ग्रेजुएट हो चुके हो, जॉब करते हो? क्या करते हो आप?
प्र: जी सर, जॉब कर रहा हूँ।
आचार्य: जॉब करते हो तो बॉस भी होगा?
प्र: जी सर।
आचार्य: बॉस है। आपका बॉस बहुत गन्दे चुटकुले मारता है, ज़्यादातर बॉस ऐसे ही होते हैं, ठीक है? एकदम गन्दे–गन्दे पीजे मारता है। आप उसके सामने बैठे हो, उसने चुटकुला बताया, आप हँसने लगे। वहाँ एक प्रश्र पूछा जाना चाहिए, ‘ये हँसी चुटकुले से आ रही है या मजबूरी से आ रही है?’ ये बहुत छोटी सी बात है पर हम इसका अभ्यास नहीं करते।
बाहर कुछ हुआ, भीतर से जो प्रतिक्रिया में आ रहा है वो न्यूटन्स लॉ जैसा है कि गेंद दीवार पर मारोगे तो दीवार गेंद को वापस मारेगी? या चेतना का विकल्प है वो? ये ज़रा-ज़रा सी बात पर ग़ौर करना होगा। और अगर पाओ कि उधर से चुटकुला आया और इधर आप हे! हे! करने जा रहे थे व्यर्थ ही तो अपनेआप को रोक दो। नहीं हँसना है।
आपके चुटकुले में जान होती तो हम अपनी हँसी रोक नहीं पाते। अगर हम अपनी हँसी रोक पा रहे हैं तो इसका मतलब मजबूरन हँस रहे थे। हम नहीं हँसेंगे! हम नहीं हँसते! क्या ज़रूरी है? और ये चीज़ अपने आसपास आप देखोगे तो पाओगे कि हम सब लगभग पूरी तरह जड़ हो चुके हैं एकदम।
इसका प्रयोग करना हो तो सिनेमा हॉल में आप करिएगा। विशेषकर जब आप कोई वहाँ पर अंग्रेज़ी मूवी देखने चले जाएँ। अभी आप जॉब कहाँ पर कर रहे हो, किस शहर में?
प्र: एक गाँव है मुंद्रा (गुजरात) ।
आचार्य: ठीक है, बहुत बढ़िया जगह है। क्योंकि बड़े शहरों में तो फिर भी अंग्रेज़ी लोग समझ लेते हैं। एक्चुअली, अंग्रेज़ी तो समझ ही लेते हैं, एक्सेंट नहीं समझ में आता जब लोग मूवी देखने जाते हैं तो। तो आप देखिएगा कि कोई इंग्लिश मूवी लोग देखने गये हैं, उनको समझ में ही नहीं आ रहा पर्दे पर क्या चल रहा है। सबटाइटल्स हैं नहीं और वहाँ एक्सेंट की दिक्क़त हो रही है। वहाँ लोग जल्दी–जल्दी कुछ बोल रहे हैं और मुँह ताक रहे हैं बैठकर। वहाँ एक आदमी हँस देता है, पाँच-दस हँसना शुरू कर देते हैं। ये क्यों हँस रहे हैं?
ये इनकी मजबूरी है कि ज़रूर वहाँ कोई हँसने वाली बात हुई है, पाँच-दस हँसे हैं, हम भी हँसेंगे। ये पूरे तरीक़े से रिफ़्लेक्टेड कॉन्शियसनेस है। इसमें आपका कुछ नहीं है। आपका कुछ है इसमें, ग़ुलामी बस! इसमें कहीं से भी आपकी स्वाधीनता या सचेत विकल्प जैसी कोई चीज़ नहीं है और ये काम हमने करने का अभ्यास डाल लिया है तो हमें नहीं पता चलता कि हम क्यों हँस पड़े?
वहाँ पर कुछ हुआ, चार लोगों ने हा! हा! करा, हमने भी हा! हा! कर दिया। आप नेताओं की सभाओं में देखिएगा, नेताओं की सभा या किसी ऑडिटोरियम में भी कोई बोल रहा हो वहाँ भी देखिएगा, वो दस-बीस लोग अपने बैठा देते हैं दर्शकों के बीच में, श्रोताओं के बीच में। उनका क्या काम होता है? तालियाँ बजाना। वो बीस ने एकसाथ ताली मार दी ज़ोर से, सब शुरू कर देते हैं बजाना और यहाँ तो बात ये भी नहीं है कि अंग्रेज़ी समझ में नहीं आयी।
हमारी आदत हो गयी है क्रिया पर प्रतिक्रिया करने की और क्रिया के अनुरूप ही बिलकुल, यही जैसा न्यूटन ने बोला था कि एंगल ऑफ़ रिफ़्लेक्शन विल एक्ज़ैक्टली बी इक्वल टू द एंगल ऑफ़ इंसीडेंस। (परावर्तन बिलकुल घटना के बराबर होगा)
पर ये तो जड़ पदार्थ का नियम है न, ये तुम्हारा नियम कैसे बन गया? बिलकुल नियमबद्ध चलता है। तीस डिग्री पर मारोगे, वो तीस डिग्री पर ही वापस आएगा। नियम का कोई उल्लंघन नहीं। हम भी वैसे ही चलने लग जाते हैं। कुछ हो रहा है तो हम भी करेंगे।
किसी मनहूस का जन्मदिन है और आप भी वहाँ पर फँस गये हो दुर्भाग्य से और केक कटने लगा और वो सड़ा हुआ, ’हैप्पी बर्थडे टू यू, मे गॉड ब्लेस यू’ और आप पाते हो, आप भी यही कर रहे हो। (आचार्य जी ताली बजाने का अभिनय करते हुए) (श्रोता हॅंसते हुए)
कितने आज़ाद हो आप ज़िन्दगी में, ये जाँचना हो तो वहाँ पर ताली बजाये बिना और गाये बिना खड़े हो जाना। और मैं बताऊँ, ‘न ताली बजाने का किसी का मन होता है, न गाने का किसी का मन होता है।‘ लेकिन हर आदमी कर रहा है! हर आदमी कर रहा है।
मैं खेलने जाता हूँ और उसके बाद वहीं पर बैठ जाता हूँ खाने भी, वो मेरी पसन्द का दाल-चावल देते हैं मुझे। वहाँ पर अक्सर रात में होता है, वहाँ पर कोई पार्टी होगी तो केक ले आये होंगे बच्चे का, उसको खड़ा करेंगे। तो केक ऐसे टेबल पर रख दिया वहाँ पर ऐसे खड़े हो जाते हैं बीस-पच्चीस लोग इतने तो घेरे ही रहते हैं। तो एक तो इनर सर्किल होता है उसमें पाँच-छ: जने होते हैं और फिर एक थोड़ा सा आउटर होता है, उसमें सात-आठ होते हैं, और फिर एक बिलकुल ही बाहर वाला होता है, उसमें बारह-पन्द्रह होते हैं।
और जो बाहर वाले होते हैं उन्हें ढेले का मतलब नहीं होता है कि अन्दर चल क्या रहा है! वो इधर-उधर ताक रहे हैं, कुछ कर रहे हैं, ऐसे कर रहे हैं। कितनी बार हुआ है कि वो वहाँ पर खड़े हुए हैं और वो बाहर खड़े होकर के; आचार्य जी नमस्ते! मैं कहता हूँ, ‘तेरा केक उधर है, केक उधर कट रहा है। आचार्य जी नमस्ते क्या होता है? उधर देख!’ (श्रोता हॅंसते हुए) उन्हें कोई मतलब नहीं! कोई मतलब नहीं!
और उनके चेहरों पर लिखा हुआ है कि वो वहाँ सिर्फ़ ऊब रहे हैं। लेकिन जैसे ही शुरू होगा…(आचार्य जी दोनों हाथों से तालियाँ बजाते हैं)
इसका आप अभ्यास करते हो रोज़-रोज़। रोज़-रोज़, छोटी-छोटी चीज़ में आप इसका अभ्यास करते हो।
यही अभ्यास आपने करा हुआ है कि सबने बोल दिया कि जितने सीटीसी की जॉब लगेगी, उतनी ही ऊँची तुम्हारी पहचान हो गयी। ये वही तो है न कि बाहर कोई होगा वो भीतर को निर्धारित करेगा। ‘अरे! बाहर कुछ होगा-तो-होगा, भीतर तो हम हैं! मैं हूँ! ये थोड़े ही है कि मैं एम्प्लॉयड हूँ, मैं प्लेस्ड हूँ। ये सब क्या बात होती है?’
और अगर आप ये चाहोगे कि बस प्लेसमेंट के दिन आप कोई जादू कर लो जिससे कि आप तनाव से मुक्त हो जाओ तो ये नहीं हो सकता। उसके लिए थोड़ा लम्बा अभ्यास करना पड़ता है। बहुत सारी चीज़ों में जहाँ भीड़ के प्रवाह में साथ जाने का दवाब बन रहा हो, उस दवाब को नज़र अंदाज़ करना पड़ता है।
आप चूँकि एनआईटी की बात कर रहे हो, हॉस्टल है, वहाँ पर पाँच कह रहे हैं, ‘ओय चल! चल! चल! रात का शो है।‘ जा रहे हैं मूवी देखने, नहीं भी मन है, दो-तीन ऐसे होते हैं अग्रणी जिन्होंने माहौल बनाया होता है कि आज मूवी देखी जाएगी और आठ-दस उनके पीछे-पीछे चल देते हैं, जस्ट टू डिक्लेयर दैट दे आर इन (बस ये घोषित करने के लिए कि वे उनके साथ हैं)। आइ एम इन (मैं साथ हूँ)।
नहीं तो मैं क्या हो जाऊॅंगा, मैं? हाँ, लेफ्ट आऊट! फोमो! वो होता है, अभ्यास करना पड़ता है। अभी ये छोटी सी बात है इसका अभ्यास कर सकते हो लेकिन यही चीज़ जब बड़ी हो जाती है तो फिर आप पाते हो कि आप तो विवश हो गयें, आप तो कुछ कर भी नहीं पा रहे।
कोई बड़ी आफ़त आ जाए, इससे पहले छोटी-छोटी बातों में अपनी निजता का अभ्यास किया करो। निजता का अर्थ यही होता है, परिभाषा ही उसकी यही है कि आप कितने आज़ाद हो प्रतिक्रिया देने से। और अगर आपको कोई इधर से उत्तर देना भी है तो वो प्रतिक्रिया नहीं होनी चाहिए। वो प्रतिक्रिया नहीं होनी चाहिए, वो एक स्वतंत्र कर्म होना चाहिए। प्रतिक्रिया और स्वतंत्र कर्म में अन्तर होता है न?
प्रतिक्रिया ये होती है कि ये गेंद पड़ी यहाँ पर तो उछलेगी। पहले ही पता है कि क्रिया की प्रतिक्रिया होनी है और स्वतंत्र कर्म क्या होता है? कि अब कुछ भी हो सकता है। कुछ भी हो सकता है, वो मेरा विवेक तय करेगा कि क्या होगा। ये भी हो सकता है कि ये गेंद यहाँ पड़ी तो वहीं दब जाए, ये भी हो सकता है कि इधर को पड़ी, उधर को निकल जाए। ये भी हो सकता है कि कुछ न हो, ये भी हो सकता है कि बहुत कुछ हो, सबकुछ हो सकता है। इसमें स्वतंत्रता होती है और इसका अभ्यास रोज़-रोज़ करना पड़ेगा।
मास बंक! वो बन्दा बनकर दिखाओ न कि सब भाग गये हैं, तुम कह रहे हो, ‘मुझसे पूछकर मास बंक करा था क्या? मुझसे पूछकर करा था क्या? मास बंक होते थे?
प्र: जी सर।
आचार्य: और जब मास बंक होता है तो उसकी शुरुआत दो ही चार लोग होते हैं जो करते हैं। और दो-चार माहौल बना देंगे, ‘ओय! नहीं करनी है इस प्रॉफ़ की नहीं अटेंड करनी। और बहुत सारे होते हैं जो बैग-वैग लेकर आये होते हैं कि हाँ हम तो नोट्स बनाने आये थे, उनकी हिम्मत ही नहीं होती, कह दें कि तुमको नहीं करनी है तो तुम जाओ न मैं कर रहा हूँ! और वो ऐसा कह दें तो कहा जाता है कि ये देखो गद्दार! जयचंदों की कोई कमी नहीं रही देश में!
‘भाई! तुम्हें क्लास नहीं अटेंड करनी तो तुम जाओ, हमें करनी है तो हम करेंगे और मैं तब भी करूँगा अगर मैं अकेला हूँ क्लास में तो भी मैं करूँगा।’
अकेलेपन का अभ्यास करना ज़रूरी है। ये जो भीड़ के प्रवाह में हम अपनी निजता खो देते हैं वो बहुत ख़तरनाक बात होती है। वहाँ पर सामने प्रोफ़ेसर पढ़ा रहे हैं और आपके मन में कोई सवाल आ रहा है, कोई बात है — न जाने कितने ऐसे होते हैं जो कुछ पूछते ही नहीं। क्योंकि हाथ उठाना अपनी निजता की अभिव्यक्ति होती है न, सब बैठे हुए हैं और एक है उठा हुआ हाथ। ये हाथ उठाना सीखो कि जब कोई कुछ नहीं कह रहा तो एक हाथ उठ सकता है और मैं अपने कॉलेज के दिनों से जानता हूँ, बहुत मुश्किल होता है।
वो लेक्चर है वो अपना प्रवाह में चला जा रहा है। हाथ उठाने का मतलब होता है, उस प्रवाह को बाधित करना। आप हाथ उठाओगे तो प्रोफ़ेसर मुड़कर देखेंगे तो फिर वो पूछेंगे कि हाँ भाई! क्या बात है? आप कुछ बोलोगे, वो पूरी प्रक्रिया में चार-छः मिनट लगेंगे। हिम्मत ही नहीं होती कि हाथ उठाकर पूछ लें और ये भी हो सकता है, आपने जो पूछा उस पर एक-दो हँस दें फुस-फुस करके तो आपकी लगता है, ‘अरे! मैं तो गड़ गया बिलकुल ज़मीन में।’
अभ्यास करना होता है, इन छोटी बातों का। जो कोई इनको नहीं कर रहा वो भी अगर आपको लगता है कि सही है तो आप करिए। हो सकता है ये साबित हो जाए कि आपने जो करा उससे बेहतर भी कुछ हो सकता था तो कौन कह रहा है कि आपका कर्म परफ़ेक्ट होना चाहिए?
हम तो ये कह रहे हैं कि आपको भीतर से आज़ाद होना है और मुक्ति ही परफ़ेक्शन (पूर्णता) है। बाहर कुछ ग़लती हो गयी अगर अपनी स्वतंत्र चेतना की अभिव्यक्ति में तो उस ग़लती की माफ़ी है, लेकिन ग़लती को बचाने के लिए आप भीतर से पिछलग्गू हो गये, ग़ुलाम हो गये उसकी कोई माफ़ी नहीं है।
अकेले आप किसी दिशा में चल पड़े और उस दिशा में गड्ढा था जाकर के गिर गये, कोई बात नहीं — न कोई शर्म की बात है, न अपराध हो गया, लेकिन आप भीड़ में साथ चलते रहे, भीड़ के द्वारा बनाये सुरक्षित राजपथ पर, वहाँ आपको कोई नुक़सान नहीं हुआ, कोई गड्ढा नहीं था, सब पहले से सुनिश्चित था तो ये अपराध है।
और ये खूब होता है, कॉलेज में खूब होता है। दस निकल पड़े कहीं को झुण्ड बनाकर के कि आओ चलो! फ़लाने हॉस्टल वालों को गाली देने जा रहे हैं तो बीस को पीछे उनके आना पड़ेगा, और उसी समय से आपका जो व्यक्तित्व है वो निर्धारित होना शुरू हो जाता है कि आप अब ज़िन्दगी भर ऐसे ही रहोगे पिछलग्गू!
जिधर को आगे-आगे वाले चल पड़े नेता लोग, वो आप भी पीछे-पीछे उधर को ही… जब हमने शुरू करा था तो लगभग शुरू के दस वर्ष तो छात्रों से ही बात होती रही, ज़्यादा तो ये खूब रहता था जिसकी आप अभी जिज्ञासा कर रहे हो, प्लेसमेंट प्रेशर। तो क्या है, क्यों प्लेसमेंट प्रेशर है?
और वो ऐसा नहीं है कि जहाँ पर नौकरियाँ लगती नहीं वहीं पर रहता था, बल्कि उनको कम रहता था। उन्हें पहले ही पता था एडमिशन के समय ही, यहाँ कुछ होता नहीं तो वो मौज में रहते थे। ये वो जगह हैं न जहाँ तुमको ये आस बनायी जाती है कि यहाँ आओ तो यहाँ नौकरी लगती है, जैसे एनआईटी हो गया, वहाँ पर रहता है दर्दनाक दबाव!
ऐसा दवाब रहता है जैसे कि आप संतरा लेकर दबा दो तो कैसा हो जाता है वो? वो बिलकुल ओब्लेड्स फ़ेरोयड बन जाता है न? ऐसा पिचका हुआ! तो मुँह ही ऐसा हो जाता था। (आचार्य जी चेहरे से अभिनय करते हुए) क्या हो गया? ‘बहुत प्रेशर है।’ क्या? किस बात का प्रेशर?
वहाँ पर दवाब इस बात का नहीं है कि नौकरी नहीं लग रही, दवाब इस बात का है कि जितने की चाहिए, उतने की नहीं लग रही। जितने की चाहिए, उतने की नहीं लग रही। मैं पूछता था, ‘एक बात बता तेरा अभी कितना खर्चा है?’ तो ये आज से समझिए दस साल, बारह-पन्द्रह साल पहले की बात है, कितना है अभी तेरा खर्चा? तो कोई बोल चार हज़ार, कोई छः हज़ार, कोई बहुत ही नवाब हो तो वो बोले कि मैं तो दस हज़ार खर्च कर देता हूँ महीने के। मैं बोला अच्छा! तेरी लग कितने की लग रही है जॉब अभी?
‘ये कोई जॉब है? इनहैंड बस पचास हज़ार आएगा।’ अच्छा! तो मैं चुप हो जाता था। बोला, ‘एक बात बता मई के महीने तक तू कैंपस में रहेगा, तब तेरा काम अभी चल रहा है आराम से छः-आठ हज़ार में और जुलाई में तेरी ज्वाइनिंग है और जुलाई में तुझे पचास हज़ार भी कम पड़ने लग जाएगा, ऐसा कैसे हो जाएगा?’
ये तो बहुत सीधा-सादा सवाल है। पर कोई जवाब ही नहीं! क्यों कम पड़ेगा तुझे? ये जो पैसा मिलेगा ये क्यों कम पड़ेगा? खर्चा दिखा न, क्या खर्चा है तेरा?
‘नहीं खर्चा तो कुछ नहीं पर वो…। खर्चे के हिसाब से थोड़े ही देखी जाती है सीटीसी।’
तो किस हिसाब से देखी जाती है? जवाब बहुत भयानक है! आमदनी ये देखकर नहीं तय करी जा रही है कि खर्चा कितना है? आमदनी ये देखकर तय करी जा रही है कि दूसरों को बताना भी तो है। प्रतिष्ठा, बस! आप इतना सोचते भी नहीं हो कि इज़्ज़त की बात है, वो बस एक वेग फ़ियर (अस्पष्ट भय) है जिसको आपने कभी भी भेदने की कोशिश नहीं करी कि इस डर के अन्दर क्या है? मैं क्यों इतना पैसा माँग रहा हूँ? पचास हज़ार रुपये महीने के कम कैसे हो गये? ये आपने कभी पूछा भी नहीं। क्या होगा, खर्चे नहीं चलेंगे?
खर्चे तो मज़े में चलेंगे।
दो महीने के अन्दर खर्चे दस गुने तो नहीं हो सकते, कहाँ खर्च करोगे? एक-दो लोगों के पास वाजिब जवाब होते भी थे, बोलते थे, ‘एजुकेशन लोन है!’ ‘ठीक है, कितने की है इएमआइ भाई?’ किसी की आठ हज़ार, किसी की बारह हज़ार, चलो ठीक है। और क्या करोगे? ये करेंगे। और?
अच्छा नहीं, बाहर जाऍंगे तो किराया भी देना पड़ेगा रहने का। ठीक है, मान लिया, और? सबकुछ मिला-जुलाकर के मुश्किल से तीस हज़ार नहीं पार हो रहा तो पचास की नौकरी लग तो रही है क्यों रो रहा है? ‘नहीं वो कम है।’ वो कम है?
क्यों कम है? करोगे क्या? मुझे तो इनसे, जिसे कहते हैं खुन्नस, वो व्यक्तिगत तौर पर हो जाए, क्योंकि मैं अपना सब छोड़-छाड़कर के कॉर्पोरेट जॉब, इनके पास गया था। ख़ासतौर पर जब आइआइटी वगैरह में स्टूडेंट्स से बातचीत हो और वो रोते मिलें प्लेसमेंट में लिए, मैं पूँछूँ कि हाँ भाई! कितने का पैकेज़ है जो रो रहा है? तो वो जितने का पैकेज़ बताये उससे कहीं-कहीं कम सैलरी मैं अद्वैत से लिया करता था। शुरू के तीन साल तो मैंने कुछ लिये ही नहीं।
और जब वो बतायें इतने में काम नहीं चलेगा, तो मैं भीतर से गुर्राऊँ, कहूँ, 'तेरे से आधे पैसे में मेरा काम चल रहा है, तेरा इतने में कैसे नहीं चलेगा? (मुस्कुराते हुए) तू बाईस साल का लड़का, तुझे ये कम पड़ रहा है?' लेकिन आदत! बस आदत! व्यर्थ के शब्द! बिलकुल खोखले आँकड़े, लेकिन उन आँकड़ों के साथ अपना गौरव, प्रतिष्ठा सब जोड़ दिया है। और ये सब कर दोगे तो उसके बाद ज़िन्दगी में कभी अकेली राह कैसे चल पाओगे? कुछ भी नया कैसे कर पाओगे? हर छोटी बात में अपनेआप से पूछा करो, 'जो हो रहा है वो मेरी सहमति से हो रहा है क्या?'
भाषा पर पैनी नज़र रखा करो। ऐसे शब्दों का इस्तेमाल करने से बचो — कोई भी नाम ले लो, मान लो रामसे — रामसे इज़ कंसीडर्ड द ग्रेटेस्ट हिस्टोरियन (रामसे को सबसे बड़ा इतिहासकार माना गया है)। अब आप आये हैं, किसी इतिहासकार को उद्धृत कर रहे हैं मेरे सामने। मैं पूँछ रहा हूँ कि आप इसको क्यों उद्धृत कर रहे हो, तो आप बोल रहे हो, ही इज़ कंसीडर्ड द ग्रेटेस्ट हिस्टोरियन। मैं पूँछ रहा हूँ, 'कंसीडर्ड बाय हूम? (किसके द्वारा माना गया है?) क्या आपने इनको पढ़ा है और आपको लगा है कि इन महाशय की बात विश्वसनीय है?'
'नहीं, मैंने तो नहीं पढ़ा।’
तो ये कंसीडर्ड क्या होता है? जहाँ कहीं भी चाहे अख़बार में, चाहे किसी के मुँह से ऐसा वक्तव्य सुनो कि कहा जाता है कि.., वहीं पर रुक जाओ, 'किसके द्वारा कहा जाता है कि?' और आप पाओगे कि बहुत से लोग हैं और बहुत से अख़बार हैं, बहुत से गुरु हैं जिन्होंने इसी बात में महारथ हासिल कर रखी है कि उनकी सारी बात ही इसी से शुरू होती है, इट इज़ बिलीव्ड, इट इज़ सेड, इट इज़ कंसीडर्ड (ऐसा विश्वास है, ऐसा कहा जाता है, ऐसा मान लिया गया है)।
द क्वेश्चन इज़ — 'बाय हूम?’ (प्रश्न है 'किसके द्वारा?’) बाय हूम? व्हाय डोंट यू स्पेसिफाई (किसके द्वारा? आप स्पष्ट क्यों नहीं करते?) साफ़-साफ़ बताओ न, साफ़-साफ़ बताओ!
नहीं, वो कभी साफ़-साफ़ नहीं बताया जाएगा। तो आपका क्या काम है? कि जब भी ऐसी कोई बात आपसे कही जाए, अपनेआप को रोक दीजिए, 'नहीं, हम आगे सुनेंगे ही नहीं।' या तो साफ़-साफ बताओ। या तो ये बताओ किसने कही या ये कह दो कि किसी ने नहीं कही, मैं कह रहा हूँ! और मेरा अपना विवेक, मेरा अनुभव प्रमाण है। हम तब भी तुम्हारी बात सुन सकते हैं। पर मुझसे तुम एकदम धुँधली सी बात करोगे, धुआँ-धुआँ, हेज़ी , वेग! — इट इज़ जस्ट कंसीडर्ड इन द इंडियन ट्रेडिशन दैट — अरे यार! कहाँ की परम्परा है, कहाँ की प्रथा है, किसने शुरू करी, कौन मान रहा है, कुछ डिटेल्स दोगे? कोई डिटेल नहीं है, बस एक ऐसे ही है, कोहरा! एक कोहरे का जैसे एक पहाड़ आपके ऊपर फेंक दिया गया है और आपसे अपेक्षा करी जा रही है कि जो कहा जा रहा है आप उसको?
श्रोता: मान लो।
आचार्य: अरे! मैं क्यों मान लूँ? इट इज़ कंसीडर्ड, इट इज़ सेड, इट इज़ बिलीव्ड? ये क्या है? मैं क्यों मानूँ?
और अगर गणित और विज्ञान भी ऐसी ही चलने लग जाएँ तो? इट इज़ बिलीव्ड दैट देयर एग्ज़िस्ट समथिंग कॉर्डन इलेक्ट्रॉन (ऐसा माना जाता है कि इलेक्ट्रॉन नाम की कोई चीज़ मौजूद है)! डिफ़रेंट कम्युनिटीज़ डिफ़र ऑन द साइज़, शेप एंड नेचर ऑफ़ द इलेक्ट्रॉन (विभिन्न समुदाय इलेक्ट्रॉन के आकार, आकृति और प्रकृति पर भिन्न राय देते हैं)! सम कम्युनिटीज़ इन द ईस्ट बिलीव दैट द इलेक्ट्रॉन मूव्स अराउन्ड इन एन इलेप्टिकल ऑर्बिट (पूर्व में कुछ समुदायों का मानना है कि इलेक्ट्रॉन एक अण्डाकार कक्षा में घूमता है)! वेयर ऐज़ इन ईस्टर्न यूरोप, द ट्रेडिशन इज़ टू कंसीडर द इलेक्ट्रॉन ऐज़ अ मिनी रोडरोलर (जबकि पूर्वी यूरोप में इलेक्ट्रॉन को मिनी रोडरोलर मानने की परम्परा है)!
ये क्या है? ये बिलीव्ड , ये ट्रेडिशन , ये क्या है? जो बात है, या तो ये कह दो कि तुम्हारी कल्पना है तो हम तो भी सुन सकते हैं, मनोरंजन के लिए। या साफ़-साफ़ बताओ कि क्या बोल रहे हो। लेकिन ऐसी बातें हमसे कही भी जाती हैं और हम उनको मान भी लेते हैं।
प्रश्न किया करो, परिभाषाएँ पूछा करो! 'ये जो आप बोल रहे हो, ये क्या है? साफ़-साफ़ बताइए, ये क्या है? ये क्या है?' आप जाते हो, आप हॉस्टल में रहते हो। आपके सीनियर्स पकड़कर के बोलते हैं, ‘भाई! हॉस्टल के लिए लॉयल (वफ़ादार) रहने का!'
तुम भी हॉस्टल में थे क्या? (प्रश्नकर्ता से पूछते हुए)।
प्र: जी सर, हॉस्टल में था।
आचार्य: हाॅस्टल में थे। तो वहाँ सवाल आना चाहिए था न, 'ये लॉयल्टी माने क्या? थोड़ा सा परिभाषा दे देंगे? नहीं, लिखकर बता दीजिए, एल इज़ इक्वल टू एफ़ ऑफ़…?’ एक ही उत्तर आएगा, एल इज़ इक्वल टू आइ रेज़ टू द पावर एन; आइ मींस इग्नोरेंस।
पर वहाँ घुसे नहीं कि आपको बोला गया, ‘अब तुझे लॉयल होने का रे!’ बोले, ‘हाँ, मैं लॉयल हो गया रे!’ मतलब क्या, लॉयल माने क्या? लॉयल कैसे? और ऐसे-ऐसे अभ्यास करते रहोगे किसी भी चीज़ को मान लेने का, तो फिर आगे की भी बातें तो माननी पड़ेगी न? आपके लिए पूरी एक स्क्रिप्ट तैयार करा दी गयी है, उस स्क्रिप्ट में एक के बाद एक पन्ने हैं, प्रकरण हैं। आप ये नहीं कह सकते कि एक से लेकर के सौ तक तो जितनी बातें थीं, मैंने वो सारी मान लीं उस स्क्रिप्ट की, लेकिन एक-सौ-एकवीं बात है वो जब मान रहा हूँ तो दुख हो रहा है।
हर बात मानते चलोगे तो आगे की भी सारी बातें माननी पड़ेंगी। तो अभी ही जहाँ पर खड़े हो, वहाँ पर मानने से इनकार करो, 'मैं नहीं मानता, समझाओ! मैं नहीं मान रहा। समझा तो दो! क्यों मानूॅं ये बात?'
आप किसी से बात कर रहे हो, वो कुछ बोल रहा है, ‘देख भाई! ऐसा है न कि दुनिया में सबसे बनाकर चलना होता है!’
‘हाँ, आपने अभी कुछ बोला। आप बताएँगे, ये कोई थ्योरम है, एक्ज़ियम है, हायपोथेसिस है? ये अभी आपने जो बोला, ये किस श्रेणी का वक्तव्य था? या सीधे-सीधे इमेजिनेशन (कल्पना) है? या फिर प्रोपगेंडा (दुष्प्रचार) है?'
और भी कई तरीक़े का हो सकता है। पूछो न! पर वो बोलेगा, ‘देख भाई! दुनिया में सबसे बचाकर चलने का!’ और आपने सुन लिया। आप पूछिए, 'ये क्या था? तूने मुझे अभी क्या दिया ये? ये हाथ में मेरे क्या रखकर चला गया? गन्धा रहा है, पोंछ!'
ये क्या बताया आपने? ये अभी आपने एक थ्योरी विकसित करी है तो ऐसे बताइए। आपके हिसाब से ये अकाट्य सत्य है, एक्ज़ियम (स्वयंसिद्ध) है तो वैसे बताइए। आपको एक ऐसे ही कल्पना की लहर उठी है तो वो बताइए। और अगर आपका ये प्रचार है, प्रोपगेंडा है तो वो बताइए। क्या है ये?
नहीं, उसने बोला, आपने सुन लिया। आपने सुन लिया, आपने मान भी लिया। टोकना सीखो, रोकना सीखो! प्रकृति का अर्थ ही है प्रवाह, और आपका काम है उस प्रवाह में न बहना। वो एक प्रवाह में अपनी बात कर रहा है, कर रहा है, कर रहा है, और आप सुन रहे हो, सुन रहे हो, सुन रहे हो। अरे, रुको तो बाबा! क्या कर रहे हो?
लोग आते थे, पूछते थे कि आपके वीडियो कैसे सुना करें। मैं बोलता था, पॉज़ कर-करके। और इसीलिए वीडियो से अच्छा है कि तुम मेरी किताबें पढ़ा करो। क्योंकि किताब निष्क्रिय होती है। वीडियो अपनेआप सक्रिय होता है। किताब आगे नहीं बढ़ेगी जब तक तुम आगे नहीं बढ़ोगे, अपनेआप नहीं होगा कि अगला शब्द आ गया। लेकिन वीडियो में क्या होता है कि तुम्हारा दिमाग कहीं भी हो, आगे बढ़ जाता है वीडियो।
तो किताब हर हालत में वीडियो से बेहतर होती है क्योंकि वीडियो में तुम्हें अपनी चेतना का इस्तेमाल नहीं करना, तुम कहीं खोये हुए हो तब भी वीडियो चलेगा और घंटे भर में चलकर के ख़त्म हो जाएगा। लेकिन किताब ऐसा नहीं है कि तुम कहीं खोये हुए हो तो किताब अपनेआप पन्ने पलट देगी। तो पूछते थे, वीडियो कैसे सुनें? मैं कहता था, पॉज़ दबा-दबाकर सुनो! एक-एक शब्द को पचाओ, और उस पर प्रतिप्रश्न करो!
कैसे मैंने कोई बात कह दी, तुमने सुन ली? क्या पता मैं एक दर्ज़े का बेवकूफ़ आदमी हूँ। तुम्हें कैसे पता कि मैं जो बोल रहा हूँ उसमें कुछ दम है भी? उसके साथ उलझो! एक वीडियो ही है, उसका शीर्षक ही यही है कि जाओ न ऋषियों से भिड़ जाओ। पता नहीं कुछ इसी तरीक़े का है। कि जाओ भिड़ो, इंगेज करो! हम इंगेज नहीं करते, हम बहते हैं। बस में अकेले सफ़र करने वाला बन्दा चाहिए।
एक पिक्चर थी, मैंने उसका टिकट ले लिया। वहाँ गया तो वो मुझसे आकर के बोल रहे हैं कि ये कूपन ले लीजिए, ये कर लीजिए, वो कर लीजिए।
मैंने कहा, ‘मुफ़्त दे रहे हो क्या?’
बोले, ‘नहीं, ये लेकर के पिक्चर मत देखिए।’
तो वो मुझे मुआवज़ा दे रहे थे। टिकट रहा होगा दो-चार सौ का। उसके बदले में वो मुझे पाँच सौ, हज़ार के कूपन दे रहे थे, हाँ ये खा लीजिए।
मैंने कहा, 'ये क्यों दे रहे हो?’
बोले, ‘आपने ही लिया है टिकट बस! तो हम चलाना ही नहीं चाहते हैं शोज़ , उसमें नुक़सान है। हम शो कैंसिल करना चाहते हैं, उसके एवज़ में ये सब ले लीजिए।’
मैंने कहा, 'मैं देखने आया हूँ, चलाओ!' नहीं-नहीं, अभी बात आगे और है!
बोले, नहीं वो न हॉल के साथ थोड़ा सा कुछ ठीक नहीं है।
मैंने कहा, 'क्या?’
बोले, 'नहीं, इसमें अकेले देखना जो है, ठीक रहता नहीं है। लोग कहते हैं कि पहले कुछ अच्छा नहीं था यहाॅं पर, अकेले फ़िल्म देखी लोगों ने फिर कुछ अच्छा नहीं हुआ।’
मैंने कहा, 'तू चला!'
और बहुत देर रात का था, उसी समय मुझे वक़्त मिलता था, साढ़े ग्यारह बजे का था, उसमें कोई है ही नहीं, खाली पड़ा है। तो वो बार-बार बोल रहे हैं, आप मत देखो, आप और पैसे ले लो, आप चले जाओ।
मैं बोला, 'तू पिक्चर चला! अब तो ज़रूर देखेंगे।'
ऐसा होना चाहिए। नहीं साथ दे रहा कोई, अकेले देखेंगे पिक्चर! ये नहीं कि ज़रा-ज़रा सी बात में तलाश रहे हो कि अरे! संगी तो होना चाहिए न, साथी तो होना चाहिए न। कुछ भी करना है, कहीं कुछ करना है, ऐसे भी होते हैं उनको टॉयलेट जाना है तो पहले दो-चार दरवाज़े खटखटाएँगे, 'भाई चलेगा क्या, चलेगा क्या!’
(श्रोतागण हँसते हुए)
कुछ भी करने जाना है, नीचे जाना है पानी पीने वो एक-दो को साथ लेकर के जा रहा है। नीचे उधर कैंटीन तक जाना है, एक डोसा खाना है, उसको तीन नहीं मिलेंगे जब तक साथी वो डोसा नहीं खा सकता।
कुछ काम जो कभी अकेले नहीं करे जाते उनको अकेले करके देखो। जिसमें से तो एक काम यही है, पिक्चर देखना। अकेले कोई आमतौर पर जाना नहीं चाहता। जाओ, अकेले जाओ! तुम किसी के साथ वहाँ समय बिताने थोड़े ही गये हो, तुम तो फ़िल्म देखने गये हो। जाओ, देखो न! किसी ऐसी जगह पर हो, ऐसे शहर में हो — मैं त्रिवेन्द्रम में था, मेरी सॉफ्टवेयर वाली जॉब, वहाँ पर ट्रेनिंग चल रही थी। नहीं कोई साथ मिलता था तो मैं अकेले ही चला जाता था बीच पर, कोवलम। थोड़ा लगता है अजीब।
'क्या बीच पर अकेले गया?'
'हाँ, अकेले गये।'
ठीक है, अकेले खड़े हैं। और इसका अभ्यास छोटी चीज़ों में जितना कर लो उतना अच्छा है। किसी रेस्त्रां की टेबल पर, किसी कैफ़े में अकेले बैठना सीखो। ये नहीं कि वहाँ बैठ गये हैं और फिर रो रहे हैं, ‘अरे! तन्हाई, हाय–हाय हरजाई, मार दिया!’ बैठे हैं न, अकेले बैठे हैं, मौज में बैठे हैं। लगा लो हेडफोन, कुछ सुन लो। किताबें खोल लो, कुछ पढ़ लो। सामने चाय रखी है, पियो, मौज करो, क्या करना है!
मैं अनिवार्य रूप से ये नहीं कह रहा हूँ कि यही करना है। मैं ये कह रहा हूँ कि संगति और भीड़ तुम्हारा बन्धन न बन जाए। इसका अर्थ ये नहीं कि कोई अच्छा साथी मिल गया है तो उसको दुत्कार देना है। अकेले रात में निकल जाओ, टहल लो, ठीक है!
एक सवाल लिख लो, आख़िरी बात अपने लिए, 'तुम्हारी ज़िन्दगी में ऐसा क्या है जो सिर्फ़ तुम्हारी ज़िन्दगी में है?' और अगर ऐसा कुछ नहीं पाओ या बहुत कम पाओ तो समस्या है। अगर अपनी ज़िन्दगी में सबकुछ सार्वजनिक है, सामाजिक है, तो समस्या है। ठीक है?
प्र: जी।
आचार्य: अभी तुमने विचारकर बोला या बस प्रतिक्रिया? कि मैंने बोला, 'ठीक है?' और उधर से गेंद बाउंस कर गयी, 'ठीक है।’
प्र: सर, ये प्रतिक्रिया था।
आचार्य: हाँ, फिर! आदत लग गयी है। इस पूरी बातचीत को सुनना दोबारा से। ठीक है? इतना करना।
प्र: जी।