प्रश्नकर्ता: मैं बहुत, बचपन से ही बहुत डरा हुआ और दुखी था। फिर मैंने उसका उपाय के लिए, जब समझा तब, उपाय के लिए मैंने गीता पढ़ी, रामायण पढ़ा, अष्टावक्र-गीता पढ़ी, कबीर के भजन सुने, ओशो को भी बहुत सुना, आपके भी वीडियो (चलचित्र) बहुत सुने, उसके बाद विपश्यना की, ध्यान-विधियाँ भी कीं, लेकिन आज भी मैं वही डरापन और वही दुख पाता हूँ। तो, और मुझे तब जब सुनता हूँ, तब लगता भी है कि मैं समझ रहा हूँ लेकिन आज भी वही, वही की वही स्थिति है।
आचार्य प्रशांत: जो पढ़ा उसपर अमल कितना करा?
प्रश्नकर्ता: उसको, ध्यान और विपश्यना की विधियाँ कीं।
आचार्य प्रशांत: पहले आपने नाम लिया था अष्टावक्र-गीता का, श्रीमद्भगवद्गीता का, ठीक है? तो वहाँ जो कुछ भी पढ़ा उसपर अमल कितना करा, उसको संकल्प करके जीवन में कितना लाए?
प्रश्नकर्ता: अंदर से सम्यक...। ऐसा भी है अष्टावक्र-गीता में, कि, “बाहर तो कुछ बदलना नहीं है, जो भी है अंदर से होगा तो..।“
आचार्य प्रशांत: ऐसा भी है।
प्रश्नकर्ता: जी।
आचार्य प्रशांत: बिल्कुल चुन-चुन के वही मत बताइए कि जिस पर अमल थोड़ा टेढ़ा लगता हो, जो बहुत सीधा- सीधा है वो बताइए, उसपर कितना अमल करा?
प्रश्नकर्ता: साक्ष्य बनने का कोशिश किया।
आचार्य प्रशांत: ये बहुत दूर की बात है।
ये जो हम दूर के लक्ष्य उठाते हैं ना, हमारा इरादा ही यही रहता है कि इतनी दूर के हैं कभी मिलने तो हैं नहीं, तो सब धावक एक बराबर हो जाएँगे। छह-सौ किलोमीटर की मैराथन (लंबी दौड़) हो जाए तो स्वर्ण-पदक किसे मिलेगा, किसी को भी नहीं। तो अब अच्छा रहता है, इतनी दूर का लक्ष्य बना दो कि वहाँ तक कोई नहीं पहुँच सकता, तो अब कोई शर्म की बात ही नहीं है कि हम भी नहीं पहुँचे तो।
छोटी–छोटी बातें बताइए जो कि जीवन में, व्यवहार में उतारी जा सकती हैं। ठीक है?
गीता का नाम है कर्मयोग के लिए, तो श्रीकृष्ण कह रहे हैं, 'निष्काम-कर्म'। वो कह रहे हैं, “तुमने अपने जितने भी ये काम-धंधे और कर्तव्य पकड़ रखे हैं अर्जुन, इनको छोड़ दो, और बस वो काम करो जो सही है और परिणाम, कि अंजाम, बिल्कुल करो मत।“
तो पहला काम, अपने सारे ये जो तुमने कर्तव्य इत्यादि बना रक्खे हैं वो छोड़ो। तो छोड़े फिर गीता को पढ़ने के बाद?
प्रश्नकर्ता: सर, मतलब कर्म तो हो ही जाएँगे, तो..।
आचार्य प्रशांत: अरे जो पूछ रहा हूँ सीधे बताइए। अर्जुन से कह रहे हैं, कि, “अर्जुन, तुमने व्यक्तिगत स्तर पर अपने लिए जितने भी कर्म इत्यादि निर्धारित कर रक्खे हैं, उनको छोड़ दो।“ तो छोड़े कि नहीं छोड़े?
प्रश्नकर्ता: कोशिश करी थी।
आचार्य प्रशांत: नहीं कोशिश थोड़ी होता है। पकड़ने में कोशिश करी जा सकती है, छोड़ने की कोशिश करनी पड़ती है? बताइए क्या छोड़ने की कोशिश करनी पड़ेगी? पकड़ना बड़ी कोशिश का काम है, छोड़ने में तो कोशिश नहीं, नीयत चाहिए। तो छोड़ा कि नहीं छोड़ा?।
प्रश्नकर्ता: काम छोड़ना? काम या कर्ता, मतलब कोशिश की कर्ता की ओर तो..।
आचार्य प्रशांत: फिर कोशिश। छोड़ा कि नहीं छोड़ा?
प्रश्नकर्ता: काम कैसे, काम कैसे छोड़ूँ?
आचार्य प्रशांत: फिर, यही बोलिए ना कृष्ण को, कि, “हे, हे, हे, आप जो भी कुछ कह रहे होंगे वो सब ठीक है, अपनी जगह है, किताबी बात है, किताबों में शोभा देती है, छोड़ कैसे दूँ?” बोलिए।
और अगर ये बोलना है तो कम से कम उनका नाम तो मत ख़राब करिए ये कहके, कि, “मैंने ये ग्रंथ पढ़ लिया, वो ग्रंथ पढ़ लिया, फिर भी कोई लाभ नहीं हो रहा।“ सीधे बोलिए, “ग्रंथों में जो लिखा है मैं उसके विरोध में हूँ, मुझे उसका पालन नहीं करना, मुझे अपनी बात ग्रंथ की बात से ज़्यादा बेहतर लगती है।“ तो फिर आप अपनी बात पर चलिए, आप ग्रंथ का नाम क्यों ले रहे हैं?
हम अपने आपको कृष्ण से कतई छोटा थोड़े मानते हैं। वो कह रहे होंगे निष्काम-कर्म, वो कह रहे होंगे कि सब अपने तुम धर्मों, कर्तव्यों को छोड़ो, सीधे मेरी शरण में आओ। हम कहते हैं, “अजी साहब, कैसे छोड़ दें अपने धर्मों कर्तव्यों को, उनसे बड़ा लाभ मिलता है, बड़ा मज़ा आता है।“ हमम?
कि जैसे कोई जाए किसी डॉक्टर (चिकित्सक) के पास और डॉक्टर उसको नुस्खा, प्रेस्क्रिप्शन ( औषध विधि) लिखकर के दे दे, दवाई भी दे दे हाथ में, कि, “ये लो, ये लिख दिया है, वहाँ जाओ कंपाउंडर (सहायक) से दवाइयाँ ले लो।“ दवाइयाँ भी दे दीं, और फिर वो आए महीने भर बाद, “कोई फ़ायदा नहीं हो रहा, कोई फ़ायदा नहीं हो रहा, आप कैसे डॉक्टर हैं? आपका प्रेस्क्रिप्शन है, आपकी दवाइयाँ हैं, कोई फ़ायदा नहीं हो रहा।“
डॉक्टर पूछे कि दवाइयाँ ले रहे हो नियमित रूप से, बोले, “नहीं, दवाइयाँ क्यों लूँगा? आप अपना काम करिए ना, मुझे फ़ायदा होना चाहिए। दवाइयाँ मैं क्यों लूँ, अपना मैं देखूँगा ना, आप अपना काम ठीक से करिए ना। आप बताइए आपने पर्चा लिखा, मुझे फ़ायदा क्यों नहीं हुआ?”
और मैं पूरी दुनिया को जाके बताऊँगा कि ये डॉक्टर जो है, किसी काम का नहीं है। इसका पूरा पर्चा मैंने पढ़ डाला, मुझे कोई लाभ नहीं हुआ। तीस दिन में तीस बार मैंने इसका पर्चा पढ़ा है, प्रेस्क्रिप्शन, कोई फ़ायदा नहीं हो रहा। “दवाई?” “नहीं, दवाई छोड़िए ना। हमारी अपनी घरेलू औषधि चलती है, हींग के लड्डू। हमारे यहाँ पुश्तैनी इलाज चलता है, ये क्या आप दवाइयाँ लिख के दे रहे हैं। इलाज तो मैं अपना वही करूँगा जो मुझे करना है। लेकिन आप डॉक्टर कैसे हैं, या आपका पर्चा कैसा है कि मुझे कोई फ़ायदा नहीं हो रहा? करूँगा तो मैं वही जो मुझे करना है। ये सब गोलियाँ हटाइए लाल नीली पीली। सोंठ की बर्फी, दादी की दादी की दादी ने ये नुस्खा निकाला था, और उसका हमारा पूरा खानदान कर्तव्य मानकर पालन करता है, खानदानी नुस्खा।“
जी तो हम सब अपने खानदानी नुस्खों पर ही रहे हैं न? पूरा खानदान आजतक जो करता आया वही हम भी कर रहे हैं, और दोष दे रहे हैं कृष्ण को, कि, “इनकी गीता से फ़ायदा नहीं हो रहा।“ डॉक्टर की दवाई तुम खा नहीं रहे, खा रहे हो खानदानी तुम हींग के लड्डू, और इल्ज़ाम जा रहा है कृष्ण और अष्टावक्र पर, कि, “इनके प्रेस्क्रिप्शन से कोई फायदा तो हो नहीं रहा।“
अगर तुम दुखी हो और परेशान हो तो दोष उन लोगों को दो जिनके नुस्खों पर तुम वाकई चल रहे हो। और जानते हो किसके नुस्खों पर तुम चल रहे हो, तुम भीड़ के नुस्खों पर चल रहे हो, तुम अपने पूर्वजों, पुरखों के नुस्खों पर चल रहे हो। उन्हीं की बताई सीख पर अमल कर रहे हो और वही सोचते हो, कि, “ये तो बहुत ऊँची बात है, हमारे ददा ने बताई थी, हमारे ददा कृष्ण से कुछ कम थे क्या?”
आपसे पूछा जाए कि कुछ कम मानते हैं आप अपने पुरखों, पितरों को कृष्ण से, तो आपको बड़ी उलझन हो जाएगी। कोई आपके पिता के बारे में कुछ कह दे तो तत्काल कह देंगे, “बाप पे मत जाना।“ वही इसी जगह पर आप ही कृष्ण की अवमानना कर रहे हों तो आपको ये बिल्कुल बुरा नहीं लगता, यहाँ कोई नहीं कहेगा, “ऐ, राम और कृष्ण पे मत जाना,“ कोई नहीं कहेगा। लेकिन बाप के लिए तत्काल बोल देते हो ना, “ऐ, बाप पे मत जाना।“ देखलो फिर, कि तुम किस धर्म पे चल रहे हो, बाप के धर्म पे या कृष्ण के धर्म पे।
जिसके नुस्खे का तुम सेवन कर रहे हो भाई, अगर शिकायत करनी है तो उसकी करो ना। अष्टावक्र की, और कृष्ण की, और कबीर की क्यों शिकायत कर रहे हो, उनकी बात तुमने मानी है कभी? जिनकी बात तुम मान ही नहीं रहे, उन पर लाँछन लगाने वाले कौन होते हो तुम? और बात जिनकी तुम मान रहे हो वाकई, तुम्हारी हिम्मत नहीं है कि जाकर के उनके मुँह पर बोलदो, कि, “तुम्हारी सलाह पर चला, तुम्हारी शिक्षा पर चला, तुम्हारी ज़िन्दगी देख करके अपनी ज़िन्दगी बनाई मैंने, और बर्बाद हो गया मैं।“
है हिम्मत तो जाकर के बोलो ना, इधर के वर्मा जी, इधर के शर्मा जी से, कि, “तुम्हीं को देख-देख के तो चल रहा था।“ क्योंकि ऐसे ही जीते हैं हम, जैसे शर्मा जी जी रहे हों, जैसे वर्मा जी जी रहे हों, हम भी उन्हीं की नकल कर लेते हैं। जाकर के बोलो नानियों से, दादियों से, ददा से, परददा से, कि, “आपकी ये जो परम्पराएँ चल रही थीं, उन्हीं परंपराओं का मैंने पालन किया और बर्बाद खड़ा हुआ हूँ, जवाब दो मुझे।“
उनसे जवाब माँगने की हिम्मत नहीं है। तत्काल इल्ज़ाम लगा दोगे तुम धर्मपुरुषों पर, गुरुओं पर, ग्रंथों पर, कि जैसे किसी की साइकिल पंक्चर (छिद्र) हो जाए और वो जाके मर्सिडीज़ की दुकान में शिकायत डाले। चल रहे हो साइकिल पे, और साइकिल पंक्चर हो गई है तो धरना प्रदर्शन कहाँ कर रहे हो, मर्सिडीज़ की फैक्ट्री (कारखाना) के आगे, कि, “यहाँ से घटिया माल निकलता है, देखो साइकिल मेरी पंक्चर हो गई।“
अरे वो मर्सिडीज़ है, उसका तुम्हारी साइकिल से लेना–देना क्या? ये तुम्हारी पुश्तैनी, खानदानी साइकिल है, सामाजिक साइकिल है। ये तुम्हें जहाँ से मिली है जाकर के उनसे जवाब माँगो ना, कि, “ये तुमने क्या साइकिल दी जो बर्बाद है हमारी ज़िन्दगी बिल्कुल?”
उनसे नहीं पूछोगे, क्योंकि उनसे पूछोगे तो टाँग तोड़ दी जाएगी। समाज से, जाति से और घर से बहिष्कृत कर दिए जाओगे। और, जो सब स्वार्थ मिलते हैं, उनकी पूर्ति बंद हो जाएगी। जाके पिताजी से बोल दिया, कि, “पिताजी, आप ही की सीख और आप ही के आदर्शों पर चले हैं और ज़िन्दगी में आग लगी हुई है,“ तो फिर पुश्तैनी संपत्ति कहाँ से पाओगे? अब कृष्ण तो आएँगे नहीं कोई संपत्ति देने, संपत्ति तो बापूजी से ही मिलनी है, तो हिम्मत नहीं है कि उनसे जाकर के बोल दो खुलेआम, कि, “तुमने हमारे ऊपर जो प्रभाव डाला बचपन से, तुमने हमें जो नसीहत दी, वो खा गई हमको।“
संपत्ति क्या, पत्नी भी पिता जी की ही बरकत से मिली है भाई। हममें से अधिकांश लोग तो अगर पिताजी और माताजी का समर्थन न हो, वरदहस्त न हो, तो अपने लिए एक पति या पत्नी न जुगाड पाएँ। हिन्दुस्तान के अस्सी-नब्बे प्रतिशत लोग नाकाबिल हैं अपने लिए पति और पत्नी ढूंढने में भी, मम्मी और पप्पा उनको चिज्जू ना लाके के दें तो वो जीवन भर कुंवर और कुंवारी ही रह जाएँगे। तो वहाँ कैसे बोल दोगे तुम कि आपने बर्बाद किया है मुझे?
धर्मग्रंथ सस्ते हैं, उन पर कोई भी कीचड़ उछाल देता है, उन पर कोई भी उंगली उठा देता है, है ना, कि, “अजी छोड़ो, इसमें कुछ रक्खा नहीं है, मैंने बहुत पढ़ा।“ ऐसे लोग मिलते हैं कि नहीं मिलते हैं? कि, “अरे अभी तो तुम जवान हो, लड़के हो, तुम ये सब पढ़ रहे हो, अपने समय में हम ये सब पढ़के अब छोड़ चुके हैं, इसमें ऐसा कुछ रक्खा नहीं है, हमें पता है सब, हमने खूब पढ़ा है।“
अपनी शकल देखी है? अपनी ज़िन्दगी देखी है? मुँह धोके आइए, आपने पढ़ा है? आपका जीवन गवाही दे रहा है कि आपने कुछ भी पढ़ा है? उल्टे आप दुष्प्रचार कर रहे हो, उल्टे आप और लोगों को बरगला रहे हो, कि, “हमने तो पढ़ा था, कुछ रक्खा नहीं है।“
और पढ़ा उन्होंने कुल कितना है, गीता का एक श्लोक। और कोई बड़ी बात नहीं कि वो श्लोक भी उन्होंने बी. आर. चोपड़ा की महाभारत में रट लिया हो, वो उसमें बार-बार आता था। तो बैठे अपना सुन रहे हैं, और कुछ करने को तो है ही नहीं, रविवार की सुबह, और हो सकता है रिटायर्ड (सेवानिवृत्त) आदमी हों, तो एकाध-दो श्लोक रट गए। वो बताते हैं, “हमने सब ये गीता-वीता पढ़ा हुआ है, देखो ये व्यावहारिक बातें नहीं होती।“
हमारे लिए धर्मग्रंथ इत्यादि अधिकांशतः बस साज-सज्जा की चीज़ें हैं। वो घर में रखने के लिए ठीक हैं, वो पूजाघर को सुशोभित करने के लिए ठीक हैं। हम उन पर चलते थोड़े ही हैं, हम उन्हें अपना प्राण थोड़े ही बनाते हैं। चलते तो हम किन्हीं और ही लोगों की सीख पर हैं, हमारे असली गुरु दूसरे हैं। असली गुरुओं के नाम क्या हैं, यही नुन्नूलाल, रिंकी मौसी, अंबाला वाले ताऊ जी, ये सब गुरु हैं।
और बताऊँ कौन गुरु है, ये सब जितने सिने-एक्टर्स (चलचित्र अभिनेता) हैं। आजकल ये लाइफ-एडवाइस (जीवन जीने की सलाह) देते हैं, ज़बरदस्त लाइफ-एडवाइस देते हैं। ये आकर के बता रहे होते हैं, “देखो जीवन ऐसे जीना चाहिए, वैसे जीना चाहिए।“ ये बताते हैं, “वी विल गिव यू रिलेशनशिप गोल्स।“
ये तो तुम्हारे गुरु हैं। शिकायत करनी है तुम्हें अपनी बर्बादी की तो जाके इनके दरवाज़े पे करो ना शिकायत, कि, “तुम्हारे सिखाए चल रहा हूँ और देखो जनाज़ा मेरा।“
इन्हीं से सीख रहे हो ना? और इनकी भाषा भी अब वैसे ही हो गई है, ये बिल्कुल उपदेशात्मक भाषा में बात करते हैं। कोई आएगा विज्ञापन टी. वी. पर और तुमसे बोलेगा, “जियो जी के, खुलके।“ ये तुमसे प्रार्थना नहीं कर रहा है कि आइए और हमारा मोजा खरीद लीजिए। ये मोजे का विज्ञापन है, या कच्छे का, और इसकी पंचलाइन (अंतिम पंक्ति) क्या है, “जियो खुलके”।
अबे दुकानदार, औकात में रह, तमीज़ में रह, कच्छा बेच रहा है या ज्ञान बाँट रहा है? लेकिन वहाँ पे तुम ज्ञान बिल्कुल हाथ जोड़कर के ग्रहण कर लेते हो, कि, “हाँ, हाँ, अभी-अभी तो इन्होंने बताया ना, श्री गुरु ने, जियो खुलके।“ तो तुम खुलके जीने लग जाते हो, अब घूमो फटा कच्छा लेके, कृष्ण की क्यों शिकायत कर रहे हो? जिनसे वास्तव में सीख ली है, जो असली गुरु हैं, उनको पहचाना है कभी ठीक से?
कोई यहाँ निगोरा नहीं बैठा है, सबके गुरु हैं। यही हैं गुरु, हसीन तारिकाएँ, वो आकर के बताएँगी, “ऐसे करो, वैसे करो यू नो”। तुम कोई अखबार उठालो, तुम कोई न्यूज़ वेबसाइट खोल लो, वहाँ इन्होंने ज्ञान बाँट रखा होता है। हम इतने बुद्धू लोग हैं कि हमें समझ में भी नहीं आता कि जिनको हम गुरु समझ रहे हैं वो एक्टर (अभिनेता) हैं, और जिनको हम एक्टर समझ रहे हैं वो गुरु हैं।
समझना गौर से, देखना, जिन लोगों को तुम कह रहे हो, “ये तो गुरु है,“ वो वास्तव में कुछ नहीं हैं, वो नौटंकीबाज हैं, वो एक्टर हैं, और वो गुरु बनके बैठे हुए हैं। एक्टर हैं इसी से पता चलता है कि दो घंटा लगता है उन्हें अपनी कॉस्ट्यूम (पोशाक) पहनने में, और दो घंटा लगता है उन्हें अपना पूरा मेकअप (श्रृंगार) करने में। ये गुरु हैं, जो अभिनेता हैं। और दूसरी ओर अभिनेता और अभिनेत्री हैं, जिनको हमने स्वीकार कर लिया है गुरु की तरह। उनसे बोलो ना जाके।
आम आदमी का मन जानते हो क्या होता है, फिल्मी, और कुछ नहीं, बस फिल्मी। वहीं से वो सब सीख रहा है, वैसे ही वो जी रहा है, और घटिया फ़िल्में। और जब मैं फ़िल्म कह रहा हूँ तो वही फिल्म नहीं जो सिनेमा (चलचित्र) में पर्दे पर चलती है, या कि आप टी. वी. में जो देखते हो धारावाहिक इत्यादि। ये सब जो आसपास हमने चला रखा है, ये फिल्मी नहीं है क्या?
फिल्मी माने समझ रहे हो क्या, काल्पनिक, जिसकी पटकथा पहले से ही लिख दी गई हो उसको कहते हैं फिल्मी। हमारे आसपास जो कुछ है, उसकी पटकथा, स्क्रिप्ट (कथानक), सब पहले से ही तो लिखी हुई है, सब फिल्मी है। रिश्ते-नाते, जीवन, शादी-ब्याह, परिवार, समाज, लक्ष्य हमारे, ये सब क्या पहले से ही स्क्रिप्टेड (लिखित) नहीं हैं, पहले से ही निर्धारित नहीं हैं? तो क्या ये फिल्मी नहीं हुए?
तुम्हारी इन सब पटकथाओं में बताओ कृष्ण आते कहाँ हैं, अष्टावक्र आते कहाँ हैं? जब तुम्हें ज़िन्दगी के निर्णय करने होते हैं, तुम जाते हो अष्टावक्र से पूछने, ईमानदारी से बताना? तुम जाते हो अंबाला वाले ताऊ जी से पूछने। जब शादी करने गए थे, तो उपनिषदों के ऋषियों से पूछा था? पूछा था? तो अब अगर तुम्हारी शादी खा रही है तुम्हें, तो उपनिषदों के ऋषियों को दोष मत देना, जिन्होंने करवाई है शादी, उनका गला पकड़ो जाके।
और जीवन में जो रोज़मर्रा के पचास निर्णय लेते हो, किसकी रोशनी में लेते हो? राम और कृष्ण की रोशनी में लेते हो क्या? जिनकी रोशनी में लेते हो, जाकर के उनसे पूछो ना, कि, “तुमने हमें ऐसा बना दिया, तुमने हमारे तन में, मन में कचरा भर दिया। और अब देखो पल-पल रो रहे हैं हम, जवाब दो।“ उनसे पूछो।
धर्म को क्यों गुनहगार बना रहे हो, धर्म पर तो तुम चल ही नहीं रहे, तो धर्म तुम्हारा गुनहगार कैसे हो गया? और ये बहुत आम सवाल है, लोग यहाँ आ जाएँगे, बैठेंगे, कहेंगे, “दस साल से मैं फलानी चीज़ का पाठ कर रहा हूँ, कुछ मिल नहीं रहा।“ दस साल से तो तुम रोज़ शौच भी करते हो, तो?
कोई दिली चीज़ हो तो कुछ लाभ भी होगा ना, बाहर-बाहर की क्रिया-प्रक्रिया से क्या मिल जाना है? रोज सुबह खडे होकर के “ओम जय जगदीश हरे” गा दिया, उससे तुम्हारा जीवन परिवर्तित हो जाएगा? हो जाएगा? और तुम कहो, “नहीं मैं तो बड़ा भक्त हूँ, रोज़ हनुमान-चालीसा पढ़ता हूँ।“
न कोई भक्ति है, न कोई श्रद्धा है, जीवन हमारा बस एक फिल्मी अड्डा है।
और फिर आप जब कहते हैं कि आपने ग्रंथों को पढ़ा है, अभी आपकी परीक्षा ली जाए कि आपने कितना पढ़ा है? बोलिए? बिल्कुल किताबी परीक्षा ही, लिखें आपके सामने दस श्लोक और कहें कि इनका मतलब बता देना, बोलिए? या आपसे कोई सैद्धांतिक सवाल ही पूछ लें, कि लीजिए ये आप से पूछ दिया, इसका अंतर बताइए, ये क्या है और ये क्या है?
क्या पढ़ा है आपने, आपने उस स्तर की पढ़ाई भी नहीं करी है जिस स्तर की पढ़ाई आप बोर्ड की परीक्षाओं के लिए करते हैं। वहाँ भी कुछ तो समझते थे न, ताकि प्रश्नपत्र में सवाल का समाधान लिख सको। मैं अभी कल परसों भी कह रहा था कि अध्यात्म में कोई प्रश्नपत्र होता नहीं है ना। अभी आपके सामने कोई प्रश्नपत्र रख दिया जाए तो छक्के छूट जाने हैं।
लोग यहाँ आकर मुझसे ही कहते हैं, “ हम आपको पाँच साल से सुन रहे हैं।“ और फिर वो जो सवाल पूछेंगे तो मुझे ताज्जुब होगा, मैं कहूँगा, “ आपने मुझे पाँच मिनट भी सुना है क्या? और कह रहे हैं पाँच साल से सुन रहे हैं।“
तुम वैसे ही सुन रहे हो जैसे घर में एफ. एम. रेडियो सुना जाता है। एफ. एम. रेडियो लगा दिया जाता है, और वहाँ किचन में छौंक और कड़ाही चल रही है। ऐसे ही होता है ना? वो अपना बजता रहता है, वहाँ वो जो आरजे (संचालक) है, कुछ बक रहा है। वो अपना बक रहा है, हम अपना काम कर रहे हैं। वैसे ही आचार्य जी को लगा दो, 'ठप', अपना बकते रहेंगे, हम अपना काम करते रहेंगे।
बहुत लोग आते हैं, बताते हैं, बोलते हैं, “ दिनभर हम सुनते हैं।“ मैं पूछता हूँ, “ बेरोज़गार हो? तुम दिन भर सुन कैसे लेते हो मुझको?” बोले, “ नहीं वो चलता रहता है।“ मैंने कहा, “ठीक है, अच्छा है चलो। व्यूज़ (दर्शकों की संख्या)बढ़़ रहे हैं।“
ऐसे तो सुनते हो।
जिनका नाम ले रहे हो ना, उन पर ज़रा-सा अमल करके देखो भीतर कितनी हिम्मत जगती है। इतनी हिम्मत जगेगी कि एक कदम लोगे तो अगले दो कदम का साहस खुद आ जाएगा। पर थोड़ी हिम्मत तो करो।