न छोटे हो, न कमज़ोर - अपनी ताकत जगाओ तो सही || आचार्य प्रशांत (2023)

Acharya Prashant

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न छोटे हो, न कमज़ोर - अपनी ताकत जगाओ तो सही || आचार्य प्रशांत (2023)

आचार्य प्रशांत: जगत में आपकी साधारण कामना भी कोई पूरी न हो तो आप विषय को दोष देते हैं या परिस्थितियों को या संयोगों को दोष दे देते हैं। कुछ चाहिए था, वो मिला नहीं तो भीतर कटुता उठती है। और सारी कटुता बाहर की दिशा को प्रेषित रहती है। इन्द्रियाँ बाहर को ही देखती हैं। जिसे पाना है वो भी बाहर है और नहीं पाया तो कारण भी बाहर ही है।

जैसे कोई गाड़ी चला रहा हो और उसकी नज़र बस बाहर की दिशा में रही हो। वो कभी आगे देख रहा है, कभी रियर-व्यू से पीछे देख रहा है, और आज तक उसने ये देखा ही नहीं कि उसकी गाड़ी में पहले गियर के अलावा तीसरा, चौथा, पाँचवा, कभी छटा भी है। और फिर उसे कहा गया कि ठीक है, थोड़ी देर को जिन भी चीज़ों को बाहर देखते ही जाते हो, देखते ही जाते हो — बाहर कभी सड़क को देख रहे हैं, कभी लोगों को, कभी दुकानों को देख रहे हैं — थोड़ी देर को गाड़ी रोक दो, ज़रा गाड़ी को ही देख लो।

और गाड़ी को देखा, भौंचक्के रह गये। बोले, 'इसमें इतने गियर हैं?'

बोले, 'हाँ।'

बोले, 'आज तक तो ये हमारी गाड़ी दस और बीस से आगे चलती नहीं थी स्पीड में। ये सौ पर चलेगी?'

कहे, 'हाँ चलेगी।’

आप ही विस्मित रह जाओगे कि आप न उतने छोटे हो जितना अपनेआप को जानते थे, न उतने कमज़ोर हो, और न उतने भय की कोई ज़रूरत है।

साहस कोई अवस्था नहीं होती, अवस्था भय की होती है। भय की कृत्रिम अवस्था के हटने पर जो सहजता बाक़ी रह जाती है, उसको ही साहस बोलते हैं। साहस जगाने का अर्थ बस इतना ही होता है कि भय को अनावश्यक देख लिया। देख लिया कि वो दस की गति आवश्यक नहीं है। मैं कुछ जानता नहीं था, इसीलिए आज तक दस-बीस से आगे बढ़ा नहीं। नहीं तो मेरे ही भीतर एक क्षमता है एक-सौ और एक-सौ बीस की भी।

साहस किसी विशेष मानसिक स्थिति का नाम नहीं होता, साहस किसी उत्तेजना का नाम नहीं होता, उत्तेजना तो भय होता है। हाँ, भय के फलस्वरूप कई बार एक विपरीत उत्तेजना होती है जिसको लोग साहस समझ लेते हैं, वो साहस नहीं है। वो साहस जैसी चीज़ दिखती है पर वो मूलतः भय ही है।

कई बार आदमी बहुत डर जाए तो वो ऐसा बर्ताव करने लग जाता है जैसे कि वो डरा नहीं है। पर वो जो बर्ताव है वो भी है डर ही, उसको साहस नहीं बोलते। वास्तविक साहस कोई स्थिति नहीं है विशेष, वो भय की स्थिति का अभाव है। भय नहीं रहा तो जो सहज स्थिति आ गयी, वही असली और शुद्ध साहस है। और वो साहस पता नहीं चलता, उस साहस में कुछ ख़ास नहीं होता। वो सहज साहस होता है। लेकिन हमको पारम्परिक तौर पर जो साहस बताया गया है, उसमें बड़ी असहजता होती है।

आपसे कहा जाए कि किसी साहसी व्यक्ति की तस्वीर दिखाइए तो आप कोई सहज चेहरा नहीं दिखा पाएँगे। आप अभी जैसे सब बैठे हुए हैं, सबके चेहरे सहज हैं। आपसे कहा जाए कि साहसी आदमी का दिखाइए चेहरा, तो ये नहीं कहेंगे, 'जैसा मेरा है, वैसे ही होता है।' ऐसे आप नहीं कहेंगे।

तो साहसी आदमी का चेहरा आप कैसा बनाएँगे? उसके चेहरे पर उत्तेजना होगी। शायद हिंसा होगी, आवेश होगा, है न? शायद पसीना आप थोड़ा सा दिखाना चाहें। हो सकता है कि कहीं पर थोड़ा एक खून भी दिखा दें, कहीं कुछ कट गया है। वैसा कोई चेहरा दिखाया जाए आपको कि लाल-लाल आँखें करके — और आमतौर पर वो चेहरा किसी पुरुष का होगा। कि लाल-लाल आँखें करके, और खून भी है और पसीना भी है और प्रतीत हो रहा है जैसे चिंघाड़ रहा हो बिलकुल, तो आप कहेंगे कि ये साहस है। ये साहस है, है न?

बुद्ध की मूर्ति दिखा दी जाए, वो चुपचाप बेचारे बैठे हुए हैं। उस चित्र का सम्बन्ध आप साहस से नहीं जोड़ेंगे, या जोड़ेंगे? नहीं जोड़ेंगे न? यही किसी लड़ाके का आपको दिखा दिया जाता है, उसको आप क्या बोलते हो? साहसी। नहीं, वो ग़लत बात है। जो चिंघाड़ रहा है, जिसके पसीने आ रहे हैं, और ये सब है, वो आवश्यक नहीं है कि साहस हो। ज़्यादा सम्भावना यही है कि वो बस डर की विपरीत स्थिति है। वो डर के ही सिक्के का दूसरा पहलू है, वो साहस है जो डर से उपजता है। और ज्ञानियों के चेहरे पर आपको जो सहज स्थिति दिखाई देती है, वो डर का अभाव है। एक साहस है जो डर से ही पैदा होता है और एक साहस है जो डर के मिटने पर प्रकट होता है। वहाँ प्रकट होना कुछ नहीं है, जो आपकी सहजता है वही साहस है। वो असली साहस होता है।

तो घूँघट का पट कैसे हटाना है? घूँघट अगर डर है तो कैसे हटेगा डर? डर को अनावश्यक जानकर के। डर को अनावश्यक आपने जान लिया, आप साहसी हो गये।

डर को अनावश्यक कैसे जाना जाएगा? हमने कहा, साहस ऐसी चीज़ है कि जब ख़तरा सामने आये तभी पता चलती है, 'अच्छा! मुझमें इतना दम था, मुझे तो पता ही नहीं था।’

आपके घर में कुल वज़न ही एक किलो का हो, आपने ज़िन्दगी भर एक किलो वज़न उठाया हो, आपको कैसे पता कि आप जिम जाएँ और वहाँ पन्द्रह किलो का रखा हो तो आप नहीं उठा सकते? पर एक किलो वाला उठाते-उठाते आपको पूरा भरोसा हो जाएगा कि आपकी क्षमता एक ही किलो की है। अब जब तक वो पन्द्रह किलो वाला लाओगे नहीं, कोई उपाय ही नहीं है, कोई तरीक़ा ही नहीं है जानने का कि पन्द्रह वाला उठा लोगे भाई। साहस वही चीज़ है।

अगर परखोगे नहीं तो मान्यता मानने पर मजबूर हो जाओगे न? 'मैं एक किलो से आगे जा ही नहीं सकता' — ये क्या है? मान्यता। और इसमें बड़ा विश्वास आ जाता है। वही बोल रहा हूँ, आत्मविश्वास, ज़बरदस्त विश्वास।

क्यों तुम्हें इतना विश्वास है? क्यों इतना विश्वास है कि एक किलो से आगे कोई उठा नहीं सकते? 'हमारा दस साल का अनुभव है। अनुभव झूठा होता है कोई? हमारे पास रिकॉर्डिंग है, हम आपको दिखाएँगे।' क्या दिखाओगे रिकॉर्डिंग में, कि एक किलो वज़न उठा रहे हैं? अनुभव यही तो बता सकता है न कि तुमने क्या किया। अनुभव ये थोड़ी बता सकता है कि तुमने क्या-क्या नहीं किया, लेकिन कर सकते थे। वो अनुभव कैसे बताएगा बाबा!

अनुभव की सीमा समझिए। अनुभव माने ज्ञात। और आपकी सम्भावना है परम-अज्ञात, अज्ञेय, जो अभी खोजी ही नहीं गयी। और अनुभव माने वो उतना सा क्षेत्र आपकी चेतना का जिसको आपने देख लिया है। और सम्भावना का अर्थ ही है कि आपके होने का, आपके फैलाव का निन्यानवे प्रतिशत क्षेत्र तो आपको अभी बिलकुल पता है ही नहीं। तो फिर अनुभव कैसे पैमाना बन जाएगा सत्य को निर्धारित करने का?

अनुभव तो हमेशा ही कितनी सी चीज़ होगा? बहुत छोटी सी चीज़। आपका अतीत का अनुभव किसी भी तरीक़े से आपकी क्षमता का, आपकी सम्भावना का, आपकी हस्ती का सूचक नहीं हो सकता। फिर सोचिएगा। घर में एक किलो से ज़्यादा कोई वज़न उठाया ही नहीं। था ही नहीं, उठाना चाहते भी तो। लेकिन अब पन्द्रह साल से एक ही किलो वज़न उठा-उठाकर के भीतर पक्का भरोसा क्या होगा? मेरी क्षमता एक किलो की ही है। यही घूँघट है।

अपने बारे में जो भी मान्यता बना रखी है, उसी को घूँघट कहते है। कैसे हटती है वो मान्यता? परीक्षण करके। जाओ न, एक के बाद दो किलो उठाओ, फिर पाँच किलो उठाओ। हो सकता है उठाओ तो पता चले कि पन्द्रह तक जा सकते हो। पन्द्रह नहीं तो पाँच तक तो जा ही सकते हो। फिर चौंकता है आदमी। कहता है, 'ये हो सकता था! हम माने बैठे थे कि हो ही नहीं सकता था।'

आज़माने की देरी थी, आज़माया तो हो गया। पर अगर अपनी मान्यता पर ही बैठे रहते तो हम कभी आज़माते ही नहीं। क्योंकि मान्यता कभी ये थोड़ी बोलती है मान्यता हूँ। बोलती है, 'सत्य हूँ।' बोलती है, 'प्रमाणित हूँ।' बोलती है, 'आख़िरी हूँ, पक्का है।' मान्यता ऐसे बात करती है। तो उस पर ही बैठे रहते तो कभी आज़माने की नौबत ही नहीं आती।

इसीलिए अध्यात्म हो ही नहीं सकता बिना प्रयोग के। आत्म-अनुसन्धान बिना प्रयोग और परीक्षण के सम्भव नहीं है। नहीं करोगे प्रयोग-परीक्षण तो अंधविश्वास में फँसना ही पड़ेगा। और जो बाहर के जितने अंधविश्वास दिखाई देते हैं न, गंडा-ताबीज़, टोना-टोटका, वो इसलिए हैं कि हमें भीतर अपने बारे में अंधविश्वास है। यही अंधविश्वास है — स्वयं को लेकर झूठी मान्यता। ‘मैं एक किलो वाला हूँ’, ये अंधविश्वास है। इस एक किलो वाले अंधविश्वास से बाहर के जितने अंधविश्वास हैं, सब पैदा हो जाते हैं।

तो जो लोग लगे रहते हैं अंधविश्वास के उन्मूलन वगैरह में कि किस तरीक़े से लोगों में वैज्ञानिक दृष्टि लाये, अंधविश्वास हटाये, लोग ये मानते हैं, वो मानते हैं। कोई कह रहा है, 'फ़लाने दिन नाखून नहीं काटने चाहिए, फ़लाने दिन लोहा नहीं खरीदना चाहिए, फ़लाने दिन ये नहीं।' वो जो बाहरी अंधविश्वास है, वो कहाँ से आता है? भीतरी अंधविश्वास से। और भीतरी अंधविश्वास कहाँ से आता है? शारीरिक वृत्ति से आता है, सामाजिक सीख से आता है और उम्र ने आपको जितने अनुभव दिये होते हैं, उनसे आता है। वही सब घूँघट है।

घूँघट का अर्थ ही है जहाँ सत्य नहीं है, वहाँ भी सत्य को देख लेना। ये जो घूँघट वाली है, मुझे लगता है इसने ऐसे घूँघट जो डाल रखा है न, यहाँ घूँघट में ही सामने एक अपने पसन्द की कोई तस्वीर चिपका रखी होगी। वो कहती होगी, 'घूँघट थोड़ी है, यही तो पिया है।' घूँघट बना ही रहता है ख़ुद ही पिया बनकर। आँखों के सामने क्या है हर समय? पिया है। घूँघट में ही भीतर पिया की तस्वीर चिपका लो, घूँघट ही पिया है।

'है' शब्द अपने बारे में बहुत-बहुत विचार से इस्तेमाल करना चाहिए — 'है' और 'हूँ'। अपने बारे में 'हूँ' और बाहर की दुनिया में 'है' — ये दो बहुत विचार से इस्तेमाल हों। बाहर किसी भी चीज़ को मत कहो कि 'है’। है नहीं, लगता है। अपने बारे में आसानी से मत बोल दो कि मैं ऐसा हूँ या ऐसी हूँ। ऐसे हो नहीं, ऐसा मान रखा है ।

क्या हो, इसका तो अभी कुछ पता है नहीं आपको। इस स्वीकार से खोज की फिर शुरुआत होती है। खोज शुरू ही नहीं होगी अगर 'हूँ' पर बड़ा आत्मविश्वास है। क्या करना है खोज करके? मैं क्या हूँ, मैं क्या चाहता हूँ, मैं कहाँ जा रहा हूँ — ये सब अगर पता ही है तो कौनसी खोज? खोज ही तब शुरू होती है जब 'हूँ' को लेकर के सन्देह पैदा होता है। 'क्या मैं सचमुच कमज़ोर हूँ?' ये अब खोज की शुरुआत है । 'मैं कमज़ोर हूँ', ये खोज का गला घोंट दिया।

और आपने नहीं जानना चाहा, नहीं पूछना चाहा तो इसमें ज़िम्मेदारी सिर्फ़-और-सिर्फ़ आपकी है, किसी और की नहीं है। किसी और की नहीं है, क्योंकि क्षमता आपके पास है पूरी, उस क्षमता का आप इस्तेमाल न करें तो कोई और कैसे जवाबदेह हो सकता है?

तो “कटु-वचन मत बोल रे।” जैसे ही कटु-वचन बोले वैसे ही ख़ुद को निर्दोष साबित कर दिया। 'हम तो निर्दोष हैं, हमने क्या किया हैं! ग़लती सब किसकी है? इसकी है और उसकी है और उसकी है।’

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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