मुर्गाभाई - बकराभाई, और खतरनाक बहस || आचार्य प्रशांत (2023)

Acharya Prashant

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मुर्गाभाई - बकराभाई, और खतरनाक बहस || आचार्य प्रशांत (2023)

प्रश्नकर्ता १ (बकरा भाई): सर सबसे पहले तो मेरा इंट्रोडक्शन (परिचय), माईसेल्फ (मैं हूँ) बकरा भाई (आचार्य जी मुसकुराते हैं) और ये मेरा दोस्त,

प्रश्नकर्ता २ (मुर्गा भाई): माईसेल्फ (मैं हूँ) मुर्गा भाई।

प्र१: सर, समस्या कुछ ऐसी आ गयी है कि हमारी दोस्ती तो बनी ही बकरे और मुर्गे पर है। और आपकी बातें सुन-सुनकर हमारी दोस्ती टूटती जा रही है। रिश्ता थोड़ा-सा किरकिरा हो रहा है। आप कह रहे हो, मांस न खाओ, बकरे न खाओ तो फिर हमारा रिश्ता कैसे चलेगा?

तो मुर्गा भाई, एक बार अपना सवाल रखो।

प्र२: आप से बहुत नाराज़ हैं सर। हमारी तो संरचना ही ऐसी होती है कि हम मुर्गा खा सकते हैं, बकरा खा सकते हैं।

आचार्य प्रशांत: कैसे?

प्र२: जैसे मेरे दाँत। मेरे दाँत, केनाइन दाँत, नुकीले दाँत, तो अगर मुझे सिर्फ फलाहार ही करना होता तो मेरे दाँत नुकीले क्यों होते?

आचार्य: तुम्हारे दाँत नुकीले किसलिए हैं?

प्र२: ताकि मांस चबा सकें, फाड़ सकें।

आचार्य: तो तुम्हारे जो दाँत हैं, इनसे तुम फल,सब्जी, अन्न भी खा सकते हो और तुम्हारा कहना ये है कि तुम इनसे मांस भी चबा सकते हो।

प्र२: जी।

आचार्य: तो तुम कह रहे हो, ‘क्यों न चबाएँ मांस? अगर मैं इससे मांस चबा सकता हूँ, तो क्यों न चबाऊँ?’ तुम देखो, तुम्हारा लॉजिक (तर्क) क्या है? लॉजिक पर आओ। तुम कह रहे हो, ‘शरीर के जिस हिस्से से जो कुछ भी करा जा सकता है, मैं वो करूँगा’। तो तुम कह रहे हो कि किसी भी काम का वैलिडेशन (सत्यापन) ये है कि वो अगर करा जा सकता है तो ठीक है। मेरे दाँत से अगर मांस खाया जा सकता है तो मांस खाना ठीक है। यही कह रहे हो न? अब ये तुम्हारे दो हाथ हैं, ये दो हाथ हैं, इनसे तुम अपने दोस्त, बकरा भाई को घूसा मार सकते हो कि नहीं?

प्र१: हाँ, बिलकुल।

आचार्य: तो फिर घुसा मारना ठीक होना चाहिए। भई! दाँत से जो करा जा सकता है, वो करना ठीक है। बिना दिमाग लगाए, जो कुछ भी मेरे दाँत से करा जा सकता है, मैं वो करूँगा, वो ठीक है तो हाथ से घूसा मारा जा सकता है न , मार दो। वो ठीक होना चाहिए।

प्र२: मगर मेरी मर्ज़ी भी तो होनी चाहिए।

आचार्य: हाँ तो तुम्हारी मर्ज़ी भी तो होनी चाहिए न कि तुम्हें खाना है मुर्गा, बकरा कि नहीं खाना। मर्ज़ी कहाँ आ गयी? तुम कह रहे हो, ‘मर्ज़ी की कोई बात नहीं है, दाँत की बात है’। इसमें तुम्हारा मन, तुम्हारी मर्ज़ी, तुम्हारी चेतना, तुम्हारा विवेक, तुम्हारे डिस्क्रीशन (विवेक), इसकी तो तुम बात ही नहीं कर रहे। तुम कह रहे हो, ‘दाँत से अगर मैं मांस खा सकता हूँ तो खाऊँगा’, तो हाथ से तुम घूसा मार सकते हो तो मार दो। हाथ से घुसा क्यों नहीं मारते? इसी हाथ से, इसी हाथ से तुम किसी को आशीर्वाद दे सकते हो, इसी हाथ से तुम किसी की मदद कर सकते हो और इसी हाथ से तुम किसी को घूसा मार सकते हो। अब अगर मैं तर्क दूँ कि मेरे हाथ की संरचना ऐसी है कि मैं इससे घूसा मार सकता हूँ तो मैं तो मारूँगा, तो ये तर्क बेहूदा है न? तो उतना ही बेहूदा है ये कहना कि ये जो हमारे दाँत हैं, इससे हम मांस फाड़ सकते हैं तो हम फाड़ेंगे।

मैं इस दाँत, मैं अपने हाथों से कपड़े फाड़ सकता हूँ किसी के, तो फाड़ दूँ? भई एक-दूसरे के फाड़ दो कपड़े! इन हाथों से कपड़े भी तो फाड़ सकते हो, जैसे दाँत से मांस फाड़ सकते हो, हाथ से कपड़े फाड़ दो। ये जो टाँगे हैं, ये चलने के भी काम आ सकती है और किसी को लात मारने के काम भी आ सकती हैं, तो लात मार क्यों नहीं देते हो? क्योंकि हम वही नहीं करते जो करा जा सकता है, हम वो करते हैं जो करा जाना चाहिए। अंतर समझो।

जानवर वो सब कुछ करेगा जो करा जा सकता है। उदाहरण के लिए तुम अपने घर में एक अपना कुत्ता रखते हो। ये जो जगह है, यहाँ बीच में फ़र्श तुम्हारा इतना बढ़िया साफ फ़र्श है, आपने बुलाया मुझे यहाँ पर, धन्यवाद। क्या साफ़ जगह है आपकी! आपने घर में कुत्ता पाल रखा है, वो यहाँ पर आकर टट्टी कर सकता है। कुत्ते का तर्क बिलकुल वही है जो आपका तर्क है। कुत्ता कह रहा है, ‘ये फ़र्श है, इस पर टट्टी करी जा सकती है तो मैं कर दूँगा’ पर जो ऐसा तर्क दे, वो कुत्ता हो गया न। कुत्ता कह रहा है, ‘इस फ़र्श पर टट्टी करी जा सकती है तो मैं कर दूँगा’। क्या इंसान ये करेगा कि फ़र्श पर टट्टी करी जा सकती है तो मैं कर दूँगा। इंसान कहता है, ‘नहीं-नहीं-नहीं, मैं ये नहीं कहूँगा कि कहाँ क्या करा जा सकता है, मैं ये कहूँगा कि क्या करा जाना चाहिए’, तो फिर इंसान ने अपने लिए शौचालय बनाया है। कुत्ते नहीं जाते शौचालय आम तौर पर। समझ में आ रही है बात?

तो ये जानवरों का तर्क है कि जो कुछ भी करा जा सकता है, मैं कर दूँगा। इंसान बुद्धि लगाता है, चेतना लगाता है। वो सब कुछ ही नहीं कर डालता कि जो करा जाना चाहिए, वो मैं कर दूँगा। बात समझ में आ रही है? जानवर ऐसी कोई बुद्धि नहीं लगाता, तो ये जानवरों के तर्क हैं, जानवरों के तर्क क्यों दे रहे हो? बेकार की बात है न, मेरे दाँत हैं…। मैं वैसे एक बात बता दूँ, ये जो तुम्हारे दाँत हैं, इससे तुम कच्चा मांस फाड़ भी नहीं सकते। जो मांसाहारी जानवर होते हैं न, उनके ये जो दाँत हैं, ये बहुत लम्बे और बहुत पैने होते हैं। तो सच्ची बात तो ये है कि तुम अपने इन दाँतों से मांस नहीं खा सकते, तो ये मांस वाला तर्क वैसे भी बेकार है दाँतों का।

पर मैं कह रहा हूँ कि मान लो तुम्हारे ये दाँत उतने लम्बे हों भी और उतने पैने हों भी जितने कि कार्निवोर्स (मांसाहारी जानवर) के, मांसाहरियों के होते भी हैं, तो भी क्या तुम वो सब कुछ करोगे जो तुम अपने शरीर के किसी अंग से कर सकते हो? वो सब कुछ करोगे क्या? तुम्हे तो छींक भी आती है तो तुम एक तरफ़ को करके छींकते हो। तुम क्यों नहीं कहते कि ये नाक दी गयी है, मुझे छींक आ रही थी, मैंने छींक दिया खुल्ले में। आप ये क्यों नहीं करते हो? आप कहते हो, ‘ये बद्तमीज़ी है, ये अभद्रता है अगर मैं किसी के मुँह पर छींक दूँ तो’।

इसी तरह से और भी सब काम होते हैं, खाँसना, पादना, ये तुम किसी के मुँह पर थोड़े ही कर देते हो। तुम ये थोड़े ही कहोगे कि मैं ये कर सकता था तो मैंने कर दिया। तो दाँत को लेकर तर्क क्यों देते हो कि दाँत से मांस फाड़ सकता था तो मैंने फाड़ दिया, हाथ से मैं कपड़े फाड़ सकता था तो मैंने फाड़ दिए। ये कोई तर्क है, कितनी पगलपने की बात है न। मुँह मिला हुआ है, मैं कहीं भी थूक सकता था, मैंने थूक दिया, ये कैसा तर्क है? तुम दोनों यहीं पर थूकना शुरू कर दो और बोलो, ‘मुझे ऊपर वाले ने मुँह दिया थूकने के लिए तो मैं थूकूँगा न’ ये क्या बात है, कैसा तर्क है ये? बुद्धि भी तो दी है, बुद्धि नहीं लगाओगे? जिस ऊपर वाले की दुहाई दे रहे हो, उसने तुमको सिर्फ़ दाँत ही दिए हैं क्या और हाथ ही दिए हैं, ये किस लिए दिया है (सर की ओर इशारा करते हुए ), इसको कब लगाओगे? देखो... थोड़ा आगे बढ़ाऊँ या अभी से नाराज़ हो गए तुमलोग?

प्र१: ठीक है, सुनते हैं थोड़ा बहुत, ठीक है।

आचार्य: ठीक है, तो समझो बात को। ये जिस कुर्सी में तुम बैठे हो, और तुममें एक अंतर है। अंतर ये है कि ये कुर्सी किसी और ने बनायी है और उसने तय कर दिया है कि इस कुर्सी का परपज़ (उद्देश्य) क्या होगा। कुर्सी स्वयं नहीं बनी, कुर्सी अपने होने का उद्देश्य स्वयं नहीं निर्धारित करती। आप कहते हो, ‘साहब मुझे बैठना होगा और मुझे इतनी ऊँचाई पर बैठना है और मुझे गद्दा इतना मुलायम चाहिए और मुझे बैकरेस्ट (पीठ को सहारा) ऐसा चाहिए तो मैं अपने हिसाब से कुर्सी बनाऊँगा’, तो कुर्सी के होने का परपज़ कोई और निश्चित करता है, कोई और डिसाइड (तय) करता है, ठीक है न।

इंसान अलग है कुर्सी से, इंसान ख़ुद तय करता है कि उसे क्या बनना है। इंसान के होने का परपज़ अगर कोई और डिसाइड करने लग जाए तो वो इंसान नहीं, गुलाम है। वो मशीन (यंत्र) हो गया न फिर, जैसे कुर्सी हो गया वो। कोई बोले, ‘मुझे तो बनाया इसलिए गया कि मैं मांस खाऊँ’, तो तुम कुर्सी हो न। कुर्सी को बनाया गया है एक ख़ास परपज़ के लिए। इंसान वो है जो चेतना का इस्तेमाल करके ख़ुद जानता है, ख़ुद समझता है। इंसान में और कुर्सी में अंतर करना सीखो। तुम्हारा परपज़ कोई और नहीं डिसाइड कर सकता। तुम ये नहीं कह सकते कि मेरे दाँत मेरा परपज़ डिसाइड करेंगे। कुर्सी कहाँ रखी है, ये कोई और तय करता है, कुर्सी स्वयं नहीं तय करती। इसी तरीक़े से तुम क्या खाओगे, क्या नहीं खाओगे, ये बात तुम्हारे दाँत नहीं तय कर सकते या प्रकृति नहीं तय कर सकती, ये बात तुम तय करोगे। तुम एक चैतन्य, कॉन्शियस (होशमंद) जीव हो, तुम कुर्सी नहीं हो।

प्र१: सर, लेकिन हमारी मर्ज़ी से ऊपर तो भगवान की मर्ज़ी होती है न।

आचार्य: तुम्हें भगवान की मर्ज़ी कैसे पता?

प्र१: बताया गया है।

आचार्य: किसने बताया, भगवान ने बताया?

प्र१ : नहीं! मोहल्ले में लोगों ने बताया है।

आचार्य: तो मोहल्ले वाले भगवान हैं? तुम्हें कैसे पता कि भगवान की क्या परिभाषा है और भगवान की क्या मर्ज़ी है, तुम्हें कैसे पता? ये जो बार-बार बोलते हो कि हम तो मांस इसलिए खाते हैं क्योंकि हमारे भगवान ने, ईश्वर ने, अल्लाह ने, गॉड ने, ऊपर वाले ने हमको आदेश दिया है या अनुमति दी है, हम इसलिए खाते हैं, तुम बताओ, तुम्हें कैसे पता? कि वो जो बात है, वो किसी ऊपर वाले की है, और ऊपर वाला होता क्या है, तुम्हें ये भी कैसे पता? कैसे पता, क्योंकि ये जितनी भी बातें हैं, वो कोई ऊपर वाला आकर तो कर नहीं रहा, ये बातें तो तुम कर रहे हो न। मैं तुमसे पूछ रहा हूँ, तुम्हें कैसे पता?

प्र२: हमारे ग्रंथों में लिखी हैं, किताबों में लिखी हैं।

आचार्य: जो कुछ भी लिखा है, वो पढ़ा किसने?

प्र२: मैंने।

आचार्य: या ग्रंथ ख़ुद अपना अर्थ बता रहा है तुमको? तुम्हारी किताब में जो कुछ भी लिखा है, वो पढ़ा किसने है? तुमने पढ़ा है न, तो उसका अर्थ भी तो तुम ही करते हो न। अब अगर मैं ज़बान का हवसी आदमी हूँ तो किताब में जो कुछ भी लिखा है, मैं उसका अर्थ अपने अनुसार ही तो करूँगा। और किताब मेरे कान तो पकड़ेगी नहीं कि तुम मेरा ग़लत अर्थ कर रहे हो। किताब तो बेचारी बेसहारा है। सारे ग्रंथ बेसहारा होते हैं, तुम उनका कुछ भी उल्टा-पुल्टा अर्थ कर लो।

और फिर ग्रंथ में जो बात कही गयी थी, वो जिस समय कही गयी थी, क्या आज भी वही समय चल रहा है? जब ग्रंथ में बात कही गयी थी — चाहे जो ग्रंथ हो, हिन्दू, मुसलमान, इसाई, बौद्ध, किसी का ग्रंथ हो — जिस समय वो ग्रंथ लिखा गया था, उस समय दुनिया की आबादी आठ सौ करोड़ थी क्या? उस समय क्लाइमेट चेंज ( जलवायु परिवर्तन ) था क्या? उस समय मास एक्सटिंशन ( सामूहिक विनाश ) था क्या? उस समय बायो डायवर्सिटी डिप्लीशन (जैव विविधता का ह्रास) था क्या? बोलो! उस समय पृथ्वी का फॉरेस्ट कवर ( वन आवरण ) उतना ही कम था क्या जितना आज है? तो फिर ये क्यों बोलते हो कि हमें बोला गया है कि बकरा खाओ, मेरे ऊपर वाले ने मुझे आदेश दिया है कि तुम तो बकरा खाओगे ही? या कह देते हैं कि भई! कृष्ण दूध पीते थे तो हम भी, पिएँगे उस समय की स्थितियाँ वही थीं जो आज की स्थितियाँ हैं? तो तुम वही काम कैसे कर सकते हो जो उस समय बोला गया है।

बहुत सारी चीजें ऐसी होती हैं जो ग्रंथों में टाइम डिपेंडेंट (कालाश्रित) होती हैं और बहुत सारी ऐसी चीजें होती हैं जो टाइम इंडिपेंडेंट (काल अनाश्रित) होती हैं। बहुत सारी बातें ऐसी होती हैं जो हमेशा वैलिड (वैध) होती हैं उनकी, हमेशा, टिल द एंड ऑफ टाइम (काल के अंत तक) और बहुत सारी बातें ऐसी होती हैं जो सिर्फ़ उस समय के लिए वैलिड होती हैं जब वो कही गयी थीं क्योंकि सिचुएशंस (स्थितियाँ) बदल गयी हैं। फिर पूछ रहा हूँ, दुनिया की आबादी तब आठ सौ करोड़ थी क्या? जितनी स्पीशीज (प्रजातियाँ) आज प्रतिदिन विलुप्त माने एक्स्टिंक्ट (विलुप्त) हो रही हैं, उतनी तब हो रही थीं क्या? तो जो बात तब कही गयी थी, उसको आज क्यों लागू कर रहे हो? पागल! स्थितियाँ तो इतनी बदल गयी हैं, सिचुएशन पूरी बदल गयी है। हाँ, उसमें ऐसी भी बातें होंगी ग्रंथ में, जो तब भी वैलिड थीं, आज भी हैं। उनको आप बेशक मानिए, पर थोड़ा-सा अपनी चेतना का इस्तेमाल करिए न, इंसान हैं आप, कुर्सी नहीं हैं आप।

प्र२: सर, मैं आपकी बात बिलकुल समझ रहा हूँ, कि क्लाइमेट चेंज हो रहा है मगर मैं क्लाइमेट चेंज के लिए करता तो हूँ, भले ही मैं नॉनवेज (मांसाहार) के लिए नहीं करता, मगर मैं बहुत से पेड़ लगाता हूँ।

प्र१: बकरा भाई ने कल ही दस पेड़ लगाए।

आचार्य: दस पेड़ लगाए।

प्र२ : और मैं कार नहीं चलाता। मैं कारपूलिंग (पेट्रोल की खपत घटाने के लिए कई गाड़ियों की जगह एक गाड़ी में कई लोगों के यात्रा करने की व्यवस्था) करता हूँ।

आचार्य: कारपूलिंग करते हो। तो ये सब करके तुम कह रहे हो कि मांसाहार से जो क्लाइमेट चेंज होता है, तुम उसकी भरपाई कर दे रहे हो, यही कह रहे हो न। कुल मिलाकर के जो तुम्हारा पूरा तर्क है, वह ये है कि साहब, आप कहते हैं कि मांसाहार दुनिया में क्लाइमेट चेंज का पहला या दूसरा सबसे बड़ा कारण है, ठीक है। तो आप बार-बार कहते हैं, 'मांसाहार मत करो क्योंकि मांसाहार से ही तो क्लाइमेट चेंज हो रहा है', लेकिन क्लाइमेट चेंज को रोकने के लिए बकरा भाई और मुर्गा भाई दूसरे कदम उठा रहे हैं। क्या कदम उठा रहे हैं? इन्होंने बोला कि मैं कारपूलिंग करता हूँ, मैं कार कम चलाता हूँ और इन्होंने कहा कि ये ट्री प्लांटेशन (वृक्षारोपण) करते हैं, आप करते हैं या ये करते हैं?

प्र१ : इन्होंने कल बीस लगाए।

आचार्य: अभी दस थे! तो आपने दस-दस दोनों ने जोड़ लिया?

प्र२ : हाँ

आचार्य : ठीक है, तो तुम दोनों मिलकर पेड़ लगा रहे हो और ये बोल रहे हैं कि मैं कार कम चलाता हूँ तो फिर अगर मैं मांस खा भी लेता हूँ तो क्लाइमेट चेंज कहाँ हुआ?

एक बार बीफ़ खाने से उतना कार्बन एमिशन (कार्बन उत्सर्जन) होता है, जितना एक सौ छियत्तर किलोमीटर कार चलाने से होता है। एक बार पोर्क (मांसाहारी पकवान) खाने से उतना कार्बन एमिशन होता है, जितना अस्सी किलोमीटर कार चलाने से होता है और मटन खाने से भी लगभग उतने ही और एक बार चिकन खाने से साठ किलोमीटर। अंडा खाने से तीस-पैंतीस किलोमीटर। ऑमलेट खा लो और जाकर के कार चलाओ, कार चलाने में कम हुआ है या कार्बन एमिशन , आमलेट (अंडे का पकवान) खाने में ज़्यादा हुआ है।

तो जो लोग अपनेआप को बार-बार बोलते हैं न कि साहब हम तो क्लाइमेट वारियर्स ( जलवायु योद्धा ) हैं, कैसे हैं क्लाइमेट वारियर्स ? कि मैं इलेक्ट्रिक कार यूज (प्रयोग) कर लेता हूँ, या मैं कार पूलिंग कर लेता हूँ, या मैं दस किलोमीटर की जगह आठ किमी ही कार चलाता हूँ, मैं तो क्लाइमेट वारियर हूँ। या कुछ कहते हैं कि मैं इलेक्ट्रिसिटी (बिजली) का कम इस्तेमाल कर रहा हूँ, मैं क्लाइमेट वॉरियर हूँ। इन सब चीज़ों से कुछ नहीं होना। आपने थाली भर के मांस खा लिया, वो सैकड़ों किलोमीटर गाड़ी न चलाने के बराबर हो गया। आपने सैकड़ों किलोमीटर गाड़ी नहीं चलायी लेकिन आपने मांस खा लिया तो गाड़ी न चलाना व्यर्थ गया। मांस खाना, गाड़ी न चलाने पर भारी पड़ता है, बहुत बहुत ज़्यादा, ये अच्छे से समझ लो।

अभी मैं एक आँकड़ा और जोड़ देता हूँ, उसका सम्बन्ध मांसाहार से नहीं है। जैसे हमने कहा कि एक बार आपने बढ़िया भर के बीफ़, पोर्क, मटन, चिकन, अंडा, कुछ खा लिया तो ये बात पचास या डेढ़ सौ किलोमीटर गाड़ी चलाने के बराबर हो गयी, उतना ही आपने कार्बन एमिशन कर डाला। इसी तरीक़े से अगर आपने संतान पैदा कर दी तो वो बात दसों लाख किलोमीटर गाड़ी चलाने के बराबर हो गयी। आप कितना भी बनते रहें, मैंने इतने पेड़ लगा दिए, मैंने चार बिजली के बल्ब अपने यहाँ कम कर दिए, मैं एक घंटा एसी कम चलाता हूँ, मैं दस किलोमीटर गाड़ी कम चलाता हूँ। अगर आपने संतान पैदा कर दी, वो चीज़ इन सब चीज़ों पर लाखों गुना भारी है। क्लाइमेट चेंज का जनसंख्या नियंत्रण के अलावा कोई प्रभावी समाधान नहीं है। आप बाकी सब बातें करते रहो अपने दिल को बहलाने के लिए, आप बोल दो, ‘मैं जा करके वृक्षारोपण करता हूँ, मैंने दस पौधे लगा आए, कुछ नहीं होगा उससे, कुछ भी नहीं होगा। आप कहते रहो कि मैं ये कम करता हूँ, वो कम करता हूँ, उससे कुछ भी नहीं होगा।

प्र१: लेकिन सर, कल ही मुर्गा भाई ने कल लगाया पेड़ और उसको हमारे सामने ही एक बकरा खा गया तो उसको बचाने के चक्कर में हम बकरा खा गए, तो उसमें समस्या क्या है?

आचार्य: तर्क क्या है? तर्क ये है कि पेड़ बचाने हैं तो बकरा खाना पड़ेगा।

प्र१: वरना वो पेड़ खा जायेंगे।

आचार्य: वो बकरा कहाँ से आया? वो बकरा क्या प्रकृति में पैदा हुआ है? वो बकरा ज़बरदस्ती पैदा किया जाता है, पहली बात तो। तुम्हारे खाने के लिए ही पैदा किया जाता है, तुम न खाते तो बकरा पैदा भी नहीं होता। ये कोई यहाँ थोड़ी था कि प्रकृति में बकरे घूम रहे थे तो हमने खा लिए। ये जो तुम खाते हो चाहे बकरा हो, कि भैंसा हो, मुर्गा हो, कुछ हो, अंडा हो, निन्यानवे दशमलव नौ प्रतिशत ये आर्टिफिशियली (कृत्रिम) और ज़बरदस्ती पैदा किए जाते हैं तुम्हारे खाने के लिए। ये कोई घूम थोड़ी रहे हैं गलियों में और जंगलों में, खेतों में कि तुम वहाँ से उठा के ले आये और तुमने कहा, ‘प्राकृतिक चीज़ है फल की तरह, मैंने खा लिया। ये तो आर्टिफिशियली प्रोड्यूसड (कृत्रिम उत्पाद) है। जितना तुम खाते हो उतना तो प्रकृति में होता ही नहीं। जितना तुम खाते हो उसका शून्य दशमलव एक प्रतिशत भी प्रकृति में नहीं होता। लोग कहते हैं न कि ऊपर वाले ने ये चीजें मेरे खाने के लिए बनायी है। कहते हैं कि ये हमारी किताब में लिखा है कि घास है बकरे खाने के लिए और बकरा है इंसान के खाने के लिए। भई! प्रकृति में ये जो चीजें बनायी गयी है वो सब इंसान के लिए ही तो बनायी गयी है खाने के लिए। प्रकृति में नहीं है वो चीज़, वो तुमने बनायी है। वो जो बकरा है और मुर्गा है और जो भैंसा है, वो प्रकृति का नहीं है। वो आर्टिफीशियल प्रोड्यूस्ड है। वो फैक्ट्री प्रोड्यूस्ड (कारखाने का उत्पाद) है।

जो काम, जो प्रोडक्ट आदमी पूरी जान लगा के तैयार करे, उसको तो कहते हैं न फैक्ट्री प्रोड्यूस्ड। जहाँ असेंबली लाइन (समानुक्रम उत्पादन) हो, जहाँ बनाने की एक विधि हो, उसी को तो कहते हैं न फैक्ट्री प्रोड्यूस्ड। ये सब जो जानवर तुम खा रहे, ये ऊपर वाले ने नहीं बनाये, इंसान ने बनाये हैं। क्या तुम ऐसा बोलते हो कि ये माइक ऊपरवाले ने बनाया है? तो तुम कैसे कह सकते हो कि जो ब्रॉयलर मुर्गा है, वो ऊपरवाले ने बनाया है? तुम कैसे बोल सकते हो, बताओ तो। और ये तो जो अब प्रजातियाँ हैं, जिनका तुम इस्तेमाल करते हो, ये तो जेनेटिकली मॉडिफाइड (आनुवांशिक रूप से संशोधित) भी हैं। ये तो एकदम ऊपरवाले ने नहीं बनायी है। ये तो इंसान ने बनायी हैं , अपने स्वाद और हवस के लिए। तो ये जो तुम्हारा तर्क है कि ये सब चीजें तो बनायी ही गयी हैं हमारे खाने के लिए, ऊपर वाले ने ये बकरा बनाया है इसीलिए कि हम खाएँ, तो भैया वो बकरा ऊपरवाले ने नहीं बनाया है। निन्यानवे दशमलव नौ प्रतिशत ये सारा माल जो है, ये तुम पैदा करते और बड़े क्रूर, बड़े क्रूएल (क्रूर) तरीक़े से पैदा करते हो। आर्टिफिशियल इनसेमिनेशन (कृत्रिम गर्भाधान) से, जेनेटिक मॉडिफिकेशन से, न जाने कितने तरीकों से, फैक्टरी फार्मिंग से, ये तुम करते हो, ये उन्होंने थोड़े ही किया है।

और समझना, अगर तुम ये तर्क दे रहे हो कि बकरे को खा रहे हो, पेड़ को बचाने के लिए तो साहब! ये जो तुम बकरा पैदा करते हो, अपने खाने के लिए। तुम कह रहे हो, ‘मैं बकरे को खा रहा हूँ, पेड़ बचेगा’। नहीं, पेड़ नहीं बचेगा। तुम अपने खाने के लिए जो बकरा पैदा करते हो ना, एक किलो बकरे का मांस आता है बीस-चालीस किलो पौधों को खाकर के। तो अगर कोई ये तर्क भी दे कि साहब मुझे पेड़-पौधे बहुत पसंद हैं और मैं तो बकरा इसलिए खाता हूँ कि मैंने अगर बकरा नहीं खाया तो बकरा पेड़-पौधे खा जाएगा, तो भाई वो जो बकरा है न, वो तुम्हारे लिए आर्टिफिशयली पैदा किया गया है और उतना बड़ा करने में बकरे को, मान लो बकरा हो गया पंद्रह किलो का, बीस किलो का, जितने का भी बकरा हो गया। अगर पंद्रह- बीस किलो का बकरा हो गया है तो वो कम से कम दो-तीन सौ किलो पेड़-पौधे, पत्ते खाकर उतना बड़ा हुआ है। तो अगर कोई एक किलो मांस खा रहा है, वो बात बीस-चालीस किलो पेड़ पौधों को काटने के बराबर हो गयी। तो ये तर्क भी कोई न दे कि मुझे तो पेड़-पौधे बहुत पसंद है तो उनको बचाने के लिए मैं बकरा खाता हूँ। तुम बकरा खाकर के चालीस पौधे मार रहे हो क्योंकि उतना बड़ा बकरा होता है, चालीस पौधों को खाकर के। और वो पौधे उसको ज़बरदस्ती खिलाए गए हैं ताकि वो इतना बड़ा हो जाए ताकि तुम उसका मांस खा सको।

कुछ तो आदमी को ज़िन्दगी में होश होना चाहिए न, मुर्गा भाई, बकरा भाई। आपकी थाली पर क्या रखा है, वो कहाँ से आ रहा है, थोड़ी तो जाँच पड़ताल करा करो। इंसान होने का मतलब ही है, वो जिसको थोड़ी तो समझ हो। कुछ तो ज्ञान रखे। तुम स्वाद की हवस के नाते और परंपरा के नाम पर और अंधविश्वास के नाम पर और धर्म-मज़हब के नाम पर मांस चबाए जा रहे हो और तुमको पता भी नहीं कि उस मांस के फैक्ट्स (तथ्य) क्या हैं। तुम जानते भी नहीं हो कि वो चीज़ आ कहाँ से रही है और उसका पूरी पृथ्वी पर प्रभाव क्या पड़ रहा है। तुम कुछ नहीं जानते, बस तुम्हें तर्क करना है।

प्र२: सर बात ठीक है, मगर पृथ्वी का नाश कल होगा। मगर मैं भूखा तो आज हूँ और मैं जो खा रहा हूँ, उनसे गरीबों का पेट भी भर रहा है।

आचार्य: नहीं, मैं नहीं समझा, तुमने खाया तो ग़रीब का पेट कैसे भर गया?

प्र२: मैं अकेला थोड़े ही खाता हूँ। मैं अगर किसी की क़ुर्बानी देता हूँ तो मैं तो दान भी करता हूँ। मैं दूसरों का भी पेट भरता हूँ।

आचार्य: दान सामने वाले की ज़रूरत देखकर के किया जाता है न। ये कौन-सी बात है कि मैंने मुर्गा काट दिया, छक के खा गया। पहली बात तो ये कैसी आहूति है, सैक्रिफाइस (त्याग) है या क़ुर्बानी है, मैं जिस चीज़ को मार रहा हूँ, उसको खा भी जा रहा हूँ , ये कौन सी क़ुर्बानी है? ख़ुद ही खा गए तो क़ुर्बानी क्या है? तो कहते है, ‘नहीं! थोड़ा-सा मैंने ग़रीबों को भी दे दिया’। अरे भाई! दान किया जाता है सामने वाले की ज़रूरत देखकर के। उसको मांस की ज़रूरत थी? ज़िन्दगी में ग़रीब देखे हैं, कैसे होते हैं? ग़रीब देखे हैं जिन्दगी में? वो जो ग़रीब है, वो मांस माँग रहा होता है? चौराहे में भिखारी देखे हैं, वो तुमसे आकर के बोलता है, मटन दे दे भाई, मटन दे दे भगवान के नाम पर, मटन दे दे अल्लाह के नाम पर, मांस दे दे, ऐसे बोलता है वो तुमको? तो ग़रीब मांस माँग रहा है क्या?

ये कौन-सा फिज़ूल तर्क है कि मांस मैं गरीबों में बाँट देता हूँ, इसीलिए मैंने जो मार दिया उसको वो वैलिड हो गया, ठीक हो गया। उसको वो चाहिए नहीं मांस, उसको क्या चाहिए? ग़रीब क्या चाह रहा है?, ग़रीब को दस रुपये दे दो, ग़रीब को कपड़े दे दो, ग़रीब को शिक्षा दे दो, ग़रीब को छत दे दो। ग़रीब के बच्चे को स्कूल में डाल दो। ग़रीब दस अन्य चीजें हैं, जो चाह रहा है। ये कौन-सी बात है कि मैंने ग़रीब के मुँह में मटन ठूँस दिया, उसको चाहिए कब था? ग़रीब को दवाई दे दो। ग़रीब को मांस खिलाने का तुक क्या है ? ये कॉमेडी (चुटकुले) चल रही है क्या? ग़रीब मांस क्यों खाए? ग़रीब को नहीं खाना मांस।

प्र२: वो दिखता है न कि बॉडीबिल्डर जो होते हैं, वो मांस खाकर फुलाते हैं, तो जब हमको ग़रीब भी दिखता है तो ऐसा लगता है कि वो मांस खाएगा तो और थोड़ा तो उसकी आएगा।

आचार्य: ये कैसी बातें कर रहा हो? मुझे नहीं करनी ये बातें। क्या बोल रहे हो? तुम्हें ग़रीब को बॉडीबिल्डर बनाना है, क्या बोल रहे हो ये? ग़रीब मांस खाएगा, बॉडीबिल्डर बन जाएगा, फिर क्या करेगा वो?

प्र१: मुर्गा भाई?, असली बात बताओ, पौधों में भी तो जान होती है सर, आप तो सिर्फ़ उनकी बात कर रहे हैं, हम पौधे खाएँगे तो उनकी जान का क्या?

आचार्य: ठीक है, पौधा नहीं खाओगे तो क्या खाओगे?

प्र१: बकरा।

आचार्य: बकरा उतना बड़ा होगा, सौ पौधे खा करके। तो तुम्हें पौधों की जान की बड़ी फिक्र है, तो जब तुम पौधा खाते हो, तो एक पौधा खाते हो और जब तुम बकरा खाते हो, तो तुमने सौ पौधे खा लिए। तो जो लोग बोलते हैं कि पेड़-पौधों में भी तो जान होती है, तो मैं उनसे कहूँगा, पेड़-पौधों की ही जान बचाने के लिए बकरा मत खाओ। क्योंकि जो तुम बकरा खा रहे हो, उसको उतना बड़ा करने के लिए उसे सौ पेड़-पौधे खिलाए गए, वो प्राकृतिक बकरा नहीं है।

एक तो यही, वो जो मूल, फंडामेंटल पॉइंट (आधारभूत तथ्य) है न, लोगों को यही नहीं पता। लोग सोचते हैं, ‘ये सब चीजें तो नेचर (प्रकृति) में यूँ ही एक्जिस्ट (अस्तित्व में हैं) कर रही हैं’। लोगों को पता नहीं है कि ये चीजें जो जानवर हैं, ये नेचर में एक्जिस्ट नहीं कर रहे हैं। इनको ज़बरदस्ती पैदा किया जाता है। अगर हज़ार जानवर कटते हैं तो उसमें से नौ सौ निन्यानबे ज़बरदस्ती पैदा करे गए हैं। और उनको ज़बरदस्ती पैदा करने के लिए दुनिया की अस्सी प्रतिशत जो फार्म लैंड (कृषि भूमि) है, उसमें अन्न उगाया गया है, ये बात लोगों को नहीं पता। दुनिया में अगर सौ एकड़ ज़मीन पर खेती हो रही है, मान लो, दुनिया में अगर सौ एकड़ ज़मीन पर खेती हो रही है, तो उसमें से अस्सी एकड़ ज़मीन पर खेती हो रही है सिर्फ़ जानवरों को खिलाने के लिए। और उन जानवरों को क्यों खिलाया जा रहा है, ताकि तुम उन जानवरों का मांस खा सको। दुनिया में अगर सौ एकड़ ज़मीन पर खेती हो रही है, तो उसमें से अस्सी एकड़ ज़मीन पर खेती हो रही है जानवरों को खिलाने के लिए ताकि तुम उन जानवरों का मांस खा सको।

इंसान जो अन्न खाता है, वो बस बीस एकड़ से खा रहा है। बाक़ी से जानवर खा रहे हैं। समझ में आ रही है बात? मांसाहारियों की हवस ने पृथ्वी को बर्बाद कर दिया है। और उतनी सारी ये जो फिर ज़मीन निकाली जा रही है जानवरों को खिलाने के लिए, वो ज़मीन निकाली जा रही जंगलों को काटकर के। जंगलों की बर्बादी के लिए सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी मांसाहारियों की है। मांसाहारी को मांस खाना है, मांस के लिए जानवर पैदा करना पड़ेगा, जानवर बड़ा करना पड़ेगा। उतना बड़ा करने के लिए जानवर को, जानवर को खिलाना पड़ेगा। उतना खिलाने के लिए ज़मीन चाहिए। वो ज़मीन आती है जंगल काट करके। और जब जंगल काटा जाता है तो जितनी प्रजातियाँ होती हैं जंगल में, वो सब विलुप्त हो जाती हैं, तुम्हें पता भी नहीं चलता।

मालूम है, तुम क्या, तुम बकरा भाई, ये मुर्गा भाई हैं। ऐसे ही एक भैंसा भाई हैं। तो भैंसा भाई ने जानते हो क्या तर्क दिया, भैंसा भाई ने तर्क दिया कि अगर इन जानवरों को खाना बुरा होता तो ये अब तक मिट नहीं गए होते? आप देखो, हम इनको इतना खाते हैं बकरों को, तब भी बकरे कम होने को नहीं आते। बकरों की तादाद कम नहीं होती और मुर्गों की नहीं कम होती और भैंसों की नहीं कम होती और जो भी चीजें खाते हैं, वो सब जानवरों की तादाद कभी कम नहीं होती। इससे क्या सिद्ध होता है? इससे ये सिद्ध होता है कि ऊपरवाले ने ये जानवर बनाए ही हमारे खाने के लिए हैं। नहीं तो, हम इनको इतना खाते हैं, कम हो गए होते। ये बात कितने अज्ञान की है। तुम्हें कुछ नहीं पता, क्या बात है।

जिन जानवरों को तुम खा रहे हो, उनका तुम फैक्ट्री प्रोडक्शन (कारखाना उत्पादन) करते हो भाई! और लोगों को समझ में नहीं आएगा, सोचेंगे, ‘अरे! फैक्ट्री में तो टीवी बनता है, फैक्ट्री में तो मोबाइल बनता है, फैक्ट्री में तो कपड़े बनते हैं, फैक्ट्री में जानवर भी बनते हैं क्या?’ हाँ! उसको ही बोलते हैं फैक्ट्री फार्मिंग , ये फैक्ट्री प्रोडक्शन ही है। वो जानवर तैयार किया जाता है। तुम्हें पता ही नहीं है कि एनिमल एग्रीकल्चर (पशुपालन) कितनी बड़ी इंडस्ट्री (उद्योग) है। थोड़ा जाओ, थोड़ी रिसर्च (जानकारी इकट्ठा) करो, थोड़ा गूगल पर पढ़ो। समझ में आ रही है बात?

और तुम्हारे लिए वो जानवर बचा रहे, इस वजह से पृथ्वी के बाक़ी सब जानवर नष्ट हो गए। इंसान इतना स्वार्थी, इतना लालची, इतना इतना क्रूर जीव है कि उसने पृथ्वी पर वही जानवर छोड़े हैं, जिनको वो खाता है, छोड़े नहीं है, वही पैदा कर-करके छोड़े हैं। पृथ्वी पर उसने वही जानवर फैला दिए हैं, जिनको वो खाता है और बाक़ी जानवर सब एक्स्टिंक्ट होते जा रहे हैं। पृथ्वी पर इस वक्त सबसे ज़्यादा तादाद किसकी है? कैटल (गाय, भैंस, बकरे) की, वो कैटल जिसको आदमी खाता है। मुर्गों की, इनकी तादाद सबसे ज़्यादा है। हमने ये पैदा करें है और इनको पैदा करने में हमने बाक़ी जितने पशु-पक्षियों की प्रजातियाँ थीं, वो सब हम ख़त्म करते जा रहे हैं। तो ऐसा नहीं है कि ऊपर वाले ने ये चीज़ें तुम्हारे खाने को बनायी हैं, इसलिए इनकी तादाद कभी कम नहीं होती। ये चीज़ें ऊपर वाले ने नहीं बनाई। तुम बना रहे हो, पागल और जेनेटिकली मॉडिफाई कर-करके बना रहे हो।

ये जो तुम कहते हो कि फलानी गाय है, वो इतना दूध देती है, तुम्हें क्या लगता है कि वो गाय प्राकृतिक रूप से उतना दूध दे रही है, नहीं! गाय की वो प्रजाति या भैंस की वो प्रजाति पैदा की गयी है अलग से कि वो अतिरिक्त दूध दे। उसको किसी भी तरीक़े से ऊपर वाले ने नहीं बनाया, वो तुमने बनाया है। और तुमने बनाया है और तुम्हीं ने उसकी संख्या इतनी बढ़ा दी है, इतनी बढ़ा दी है। इसी तरीक़े से मुर्गे और बकरे, ये सब जो घूम रहे हैं, ये तुम ही तो इनको इतना मल्टीप्लाई (बढ़ा) कर रहे हो। काहे को इसमें ऊपर वाले को बीच में लाते हो।

प्र२: सर आपकी पूरी हमदर्दी जो है, मैं देख रहा हूँ, जानवरों के प्रति है। मगर जो जंगल में जानवर रहता है, वो भी तो मांस खाता है।

आचार्य: तुम भी खाओ जंगल में जाकर के। जाओ जंगल के जानवर बन जाओ। पहली बात तो जानवर बन, फिर दूसरी बात जंगल में जाओ, फिर वही करो जो जंगल का जानवर करता है। वैसे तो मैं तुमको बोल दूँ ‘जंगली’, तो एकदम नाराज़ हो जाओगे। वैसे तो मैं इसको बोलू दूँ ‘जानवर’, तो ये भी एकदम भड़क जाएंगे। लेकिन जब मांस खाने के पक्ष में कुतर्क करना होता है, तो बोलते हो, ‘जंगल का जानवर जो काम करता है, वही मैं करूँगा’। तो ठीक है, तुम जंगली हुए, ये जानवर हुआ, जाओ अब खाओ मांस।

इन्सान होने का तक़ाज़ा कुछ होता है या नहीं होता? वही सब करोगे जो जंगल का जानवर करता है? ‘शेर खाता है, मैं भी खाऊँगा’। शेर तो, अब क्या-क्या बोलूँ शेर के बारे में। शेर को कभी देखा है सुबह-सुबह कि मांग रहा हो कि टॉयलेट (शौचालय) में पानी नहीं है, पानी चाहिए। बोलो! शेर तो अपना सुबह का काम करता है, मलत्याग और चल देता है, बिना धोए। तुम भी अगर शेर हो तो धोया मत करो। शेर तो जहाँ शेरनी पाता है, उसके साथ लग लेता है, शेर विवाह थोड़े ही करता है, तुम्हें भी जहाँ शेरनी मिले, तुम भी। तुम भी विवाह मत करना। और शेर के पास भाषा भी नहीं होती, शेर के हाथ में माइक भी नहीं होता, शेर कपड़े भी नहीं पहनता। वही सब करो जो शेर करता है, जंगली और जानवर। जानवरों वाले ही सारे काम करो। ये जानवर होने की निशानी है, कि मैं जो कर सकता हूँ, मैं सब कुछ करूँगा। ये जानवर होने की निशानी है। ऐसे नहीं जीते, इंसान हो भाई।

प्र२: हाँ सर, एक और चीज़। मैं गोभी खाता हूँ। मगर बकरा जो खाता है, वो तो उसके पत्ते ही खाता है न। तो उससे तो ज़रा कम नुकसान किया। मैं खाता हूँ, तो मैंने तो पूरा का पूरा पेड़ ही खा लिया।

आचार्य: थोड़ी गणित लगाओ। अर्थमेटिक (अंकगणित) पढ़े हो न। तुमने गोभी खायी। मान लो गोभी है, तुमने गोभी खायी। गोभी का पत्ता खा-खा के तुम्हें क्या लग रहा है? बकरा उतना बड़ा हो जाएगा और सिर्फ़ वही उसी गोभी का पत्ता जो तुमने खायी। तो तुम्हारी खायी गोभी के पत्ते खाकर, बकरा और भैंसा इतना बड़ा नहीं हो जाता, पाँच सौ किलो का भैंसा, तुम्हारी खायी गोभी के पत्ते खाकर के नहीं हो गया उतना बड़ा, न बकरा हो गया। उनके लिए अलग से ज़मीन में खेती की जाती है, पागल।

अब मैं बोल रहा हूँ, दुनिया भर का जो अरेबल लैंड है (कृषि योग्य भूमि), जिस पर खेती होती है, उसका अस्सी प्रतिशत इन्हीं जानवरों को ज़िंदा रखने के लिए इस्तेमाल होता है, जिनका तुम मांस खाते हो। और सुनो तुम, दुनियाभर में जो कैलोरीज़ आती हैं, इस अस्सी प्रतिशत क्षेत्र से बस अट्ठारह प्रतिशत आती हैं। वेस्टफुल यूज (बर्बाद उपयोग) है उस लैंड (ज़मीन) का ये, कि उसमें से जानवरों के लिए अन्न या पत्ता या जो भी है, भूसा, वो पैदा किया जाए। अस्सी प्रतिशत एरिया (क्षेत्र) और अट्ठारह प्रतिशत कैलरीज। और प्रोटीन की बहुत दुहाई देते हो न, बाईस प्रतिशत प्रोटीन। वो जो अस्सी प्रतिशत एरिया है, जो जानवरों के खाने के लिए जिस पर खेती की जाती है, उसमें से बस अट्ठारह प्रतिशत कैलोरी और बाईस प्रतिशत प्रोटीन आता है। वो इतना वेस्टफुल यूज है लैंड का। और उसमें सिर्फ लैंड का वेस्टफुल यूज नहीं है, उसमें वॉटर (पानी) का भी वेस्टफुल यूज है।

और वो सब करके जो वेस्टेज (बर्बादी) तुम कर रहे हो लैंड और वॉटर की, उसके अलावा तुम ज़बरदस्त कार्बन एमिशन कर रहे हो, जिससे पृथ्वी बहुत तेजी से विनाश की ओर बढ़ रही है। जब पृथ्वी का पूर्ण विनाश हो जाएगा लगभग, उसके बाद जो बचे होंगे कुछ मुट्ठी-भर लोग, वो जब आपस में बात करेंगे और इतिहास की ओर देखेंगे तो मालूम है, क्या कहेंगे? कहेंगे, ‘पृथ्वी की तबाही में शायद सबसे बड़ा योगदान उन्हीं लोगों का था, जो मांस खाते थे’।

प्र१: तो आप कह रहे हो कि इतने सारे लोग ग़लत हैं। इतने सारे लोग खाते हैं, इतने सारे लोग। पूरा का पूरा उत्पादन हो रहा है। इतने सारे लोगों की ज़िन्दगी चल रही है। आप कह रहे हैं, सब कुछ, सब ग़लत है। ये कैसे हो सकता है? इतने सारे लोग?

आचार्य: क्यों नहीं हो सकता? सिर्फ़ इसलिए कि कोई काम इतने सारे लोग कर रहे हैं, सही कैसे हो गया? सिर्फ़ इसलिए कि मेरी बातें, इतने सारे लोगों को समझ में नहीं आती, वो बात ग़लत कैसे हो गयी? जो बात सही है, सच है, ठीक है, वो तो ठीक है ही, भले ही किसी को समझ में न आए। जिनको नहीं समझ में आ रही, उनकी समस्या है, वो पागल हैं। इतने सारे लोग इतिहास में जा करके देखो तो न जाने कैसे-कैसे मूर्खतापूर्ण काम करते चले आए हैं। वो सब काम ठीक हो गए क्या?

आदमी का इतिहास और क्या है, आदमी की मूर्खताओं का ही तो इतिहास है। अच्छा! इस समय ये मूर्खता चलती थी, इस समय ये मूर्खता चलती थी, इस समय ये मूर्खता चलती थी। उन मूर्खताओं में, बीच-बीच में, कुछ दीये टिमटिमा जाते हैं। जैसे मूर्खताओं का बिलकुल काला आकाश हो, अंधेरा और उस रात में बीच-बीच में कुछ दीए, कुछ तारे, चेतना के टिमटिमा जाते हों। वरना तो आदमी क्या है? सृष्टि के आरंभ से लेकर अभी तक मूर्ख ही तो है, और क्या है? कुछ मुठ्ठी भर ही तो लोग हुए हैं, जो रौशन थे।

प्र२: मैंने माना कि इंसान तो मूर्ख होता है। हम देखते ही हैं, मेरा ये दोस्त भी काफ़ी मूर्ख है। मगर ईश्वर ने कोई काम किया है, तो उसने तो सोच समझ के किया होगा।

आचार्य: ईश्वर ने क्या करा है?

प्र२: ईश्वर ने जैसे मुझे बनाया है, वैसे ही जानवर को भी तो बनाया है।

आचार्य: हाँ, बनाया है, तो?

प्र२: तो जैसे जानवर, पौधा खाता है, तो मेरे खाने के लिए भी तो जानवर को बनाया है, तो ईश्वर ने तो सोच समझ के बनाया है।

आचार्य: ईश्वर ने जितने जानवर बनाए थे, वो तुम कबके खा चुके। अब जो जानवर हैं वो तुम ख़ुद बनाते हो। कभी बोलते हो, ‘ईश्वर ने जूता बनाया है’, कभी बोलते हो, ये शर्ट ईश्वर ने बनायी है? जैसे तुम अपने पहनने के लिए जूता बनाते हो, वैसे ही अब तुम अपने खाने के लिए जानवर बनाते हो। ईश्वर ने कौन-सा जानवर बनाया है अब? ईश्वर ने जो कुछ बनाया था, वो तुमने कबका मटियामेट कर दिया। सब बर्बाद कर दिया।

ईश्वर के बनाए जानवर जानते हो, किस गति से विलुप्त हो रहे हैं। जीवों की एक सौ से एक हज़ार प्रजातियाँ प्रतिदिन विलुप्त हो रही हैं। विलुप्त मतलब, अब वो कभी लौटकर नहीं आएंगी, वो ईश्वर ने ही बनायी थीं। और उनको इंसान ने ख़त्म कर दिया। वो इंसान ही उनको खत्म कर रहा है। प्रतिदिन सौ से एक हज़ार प्रजातियाँ प्राणियों की, प्रतिदिन एक्स्टिंक्ट हो रही है, सदा के लिए विलुप्त हो रही है। वो कभी लौटकर नहीं आएगी। और ये जो एक्स्टिंक्शन रेट (विलुप्ति डर) है, ये नॉर्मल (सामान्य) से दस से सौ गुना ज़्यादा है। ये इंसान कर रहा है। इसमें ईश्वर को कहाँ बीच में ला रहे हो तुम? तुम्हारी करतूत है, सब कुछ तुम कर रहे हो और ईश्वर के ऊपर डाल रहे हो कि ये तो ईश्वर ने करा, ये तो ईश्वर ने कहा। ईश्वर कहाँ से बीच में आ गया इसमें? कर तुम सब रहे हो, ख़ुद रहे हो और जब कुछ उल्टा-पुल्टा हो या अपने किसी ग़लत काम को, किसी तरीक़े से जस्टिफाई (सही ठहरना) करना हो, तो बोल देते हो, ‘ये तो गॉड ने करा है’ या ‘गॉड ने कहा है’।

प्र१: हमें भी तो ईश्वर ने बनाया है, तो अगर हम कुछ कर रहे हैं, तो ईश्वर ही तो करवा रहा है। हम भी तो ईश्वर की बनायी गयी हैं।

आचार्य: तो तुम सही काम कर लो ना, वो भी ईश्वर ही करवाएगा या जितने तुम घटिया काम करोगे उसी को बोलोगे, हमसे ईश्वर करवा रहा है। ज़िन्दगी में कुछ अच्छे काम कर लो, तो तुम्हारे ईश्वर को भी अच्छा लगेगा। वो बोलेगा, ‘देखो! मैंने बंदा बनाया था, उसने कोई ढंग का काम करा’। मैंने तो आज तक यही देखा है कि जितने लोग सबसे गंदे, बेकार, घटिया काम करते हैं, वही सबसे ज़्यादा दुहाई देते हैं कि ये काम तो मुझसे ईश्वर, अल्लाह, गॉड ने करवाया है। ये क्यों तुम अपनी करतूत का, अपने कर्म का किसी और के सर पर ठीकरा फोड़ रहे हो? जैसे होता है न कि कुछ गंदगी कर दो, फिर बोलो, ‘हे! भगवान ये तूने क्या किया!’ भगवान ने कहाँ किया? करा तुमने और नाम भगवान का लगा रहे हो। क्यों लगा रहे हो बेकार में?

प्र२: सर आप जो बात कर रहे हैं, वो मैन मेड (मानव-निर्मित) रिलीजन (धर्म) है। मगर जो गॉड मेड रिलीजन (ईश्वर निर्मित धर्म) है, वो तो मुझे अनुमति देता है न ये सब करने की।

आचार्य: गॉड मेड रिलीजन क्या होता है?

प्र१: मुर्गा भाई, कुछ भी बोल रहे हो क्या? क्या है गॉड मेड रिलीजन ?

प्र२: अरे! नहीं भगवान ने ही तो चीज़ें कहीं हैं।

आचार्य: अरे! तुम्हें कैसे पता वो गॉड मेड है? अपनी बात करो। तुम्हें कैसे पता? या कुछ भी मान लोगे। भई! इंसान हुए हैं और अच्छे ऊँचे इंसान हुए हैं। हम उनका सम्मान करते हैं, हम उनकी कद्र करते हैं। तो उन्होंने अगर कोई बात कही है, हम उस बात को सुनेंगे। ठीक है, लेकिन ये क्यों बोल रहे हो कि वो बात गॉड ने बोली है। तुम्हें कैसे पता गॉड ने बोली है? तुम्हें कैसे पता, विश्वास के अलावा, यकीन के अलावा तुम्हें पास कोई प्रमाण है? और जब कोई प्रमाण न हो लेकिन विश्वास पूरा हो, तो उसको ही तो अंधविश्वास बोलते हैं। बिना प्रमाण के जो विश्वास किया जाए, क्या उसको ही अंधविश्वास नहीं बोलते? सोच के बताना। विश्वास बुरी चीज़ नहीं है, पर बिना प्रमाण के विश्वास करना ही तो अंधविश्वास है।

प्र१: आप कह रहे हो मुर्गा भाई, मेरे सारे दोस्त-यार, ये सब के सब अंधविश्वासी हैं।

आचार्य: तो और क्या? जिस चीज़ का तुम्हें कुछ पता नहीं लेकिन फिर भी माने बैठे हो, वो अंधविश्वास नहीं तो क्या है? जिस चीज़ का तुम्हें कुछ पता नहीं है लेकिन उसमें तुम्हारा यकीन पूरा है, वो अंधविश्वास नहीं तो क्या है? वो और क्या है?

प्र२: मुझे तो बचपन से बोला गया है कि भगवान में विश्वास करो।

आचार्य: भगवान में विश्वास नहीं करा जाता है। भगवान क्या है, ये समझा जाता है। तुम्हारे भीतर ये जो चेतना है न, इसकी ही शुद्धता को भगवत्ता कहते हैं। अपने मन को अधिक-से-अधिक साफ़ करो। अपनी जो भीतरी रौशनी है, उसको अधिक-से-अधिक बढ़ाओ। यही अध्यात्म है, यही भगवत्ता है। यही गॉडलिनस है और इसी गॉडलिनस के लिए शब्द है आत्मा। आत्मा माने मेरी ही शुद्धतम अवस्था। वही भगवान है।

नहीं तो तुम क्या करोगे कि अपने से बाहर की किसी चीज़ को बार-बार भगवान का नाम देते रहोगे। तो जैसे मुझसे बाहर ये एक गिलास रखी है, ये मग रखा है, वैसे ही मैं कह देता हूँ, मुझसे बाहर एक भगवान है। और वहाँ बैठा है भगवान, वहाँ बैठा है। यहाँ पर (अपने हृदय की ओर इशारा करते हुए)। तुम्हीं जब साफ और शुद्ध हो जाते हो, तो जो भीतर है, उसको कहते हैं परमात्मा। और नहीं कुछ होता है। अब तुम भीतर से हो, बिलकुल क्रूर, हिंसक, मांसाहारी, अज्ञान और अंधेरे से भरे हुए और दावा तुम्हारा ये है कि तुम काम जो भी कर रहे हो, वो भगवान के इशारे पर कर रहे हो, तो पागलपन हो गया न। हो गया कि नहीं हो गया? भई! तुम अगर नशे में हो। तुमसे कोई आकर कुछ बोल भी रहा है, तो उस बात का अर्थ कौन करेगा? तुम्हीं करोगे, तो उल्टा-पुल्टा करोगे न। तो तुम तक कोई भी सही बात पहुँचे, इसके लिए तुम्हारी अपनी रौशनी ज़रूरी है न। तभी तो तुम्हें बात समझ में आएगी। हाँ तो तुम्हारी ही जो अपनी रौशनी है, वही आख़िरी चीज़ है, वही परम है। उसका इस्तेमाल करना होता है पूरा, ऐसे नहीं कह देना होता कि उसने बता दिया तो मैंने विश्वास कर लिया, ये था, वो था। हाँ , निश्चित रूप से बाहर ऊँचे लोग हुए हैं। बाहर उत्कृष्ट किताबें हुई हैं। हम उनको पढ़ेंगे। लेकिन हम उनको कुछ नहीं समझ पाएँगे, अगर हम अपनी चेतना का इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं। समझ में आ रही बात ये? मैं जो धार्मिक किताबें हैं, उनको ठुकराने के लिए नहीं बोल रहा हूँ। मैं तो कहा करता हूँ, पढ़ो-पढ़ो-पढ़ो , पढ़ना बहुत अच्छी बात है, पढ़ना बहुत जरूरी बात है। लेकिन जो कुछ भी पढ़ रहे हो, उसमें तुम्हारा विवेक कहाँ है, तुम्हारा डिस्क्रिशन , तुम्हारी चेतना कहाँ है? जो पढ़ रहे हो, उसको तुम समझ कहाँ पा रहे हो? और समझ पा नहीं रहे हो, बस माने ले रहे हो, बिना अपने विवेक का इस्तेमाल करे तो फिर गड़बड़ होगी न?

प्र१: तो हमारे रिश्ते का आधार ही ग़लत है?

आचार्य: बिलकुल ग़लत है। तुम्हारा तुमसे ही जो रिश्ता है, उसी का आधार ग़लत है। तुम्हें कोई आत्मज्ञान नहीं। तुम स्वयं को जानते नहीं। तो जो उससे तुम्हारा रिश्ता है वो ठीक कैसे हो जाएगा?

प्र२ : सर मैं आपके सारे आर्गुमेंट (तर्क) मान गया कि मेरे लिए तो, नहीं खाना चाहिए मुझे। मगर जैसे एक फौजी होता है, ठीक है, तो फौजी के लिए तो हम कहते हैं न कि अगर उसको शहादत मिलती है, अगर वो देश के लिए जान कुर्बान करता है, तो बढ़िया चीज़ होती है। उसको हम सम्मान देते हैं, नागरिक सम्मान देते हैं, मेडल्स देते हैं। वैसे ही अगर किसी जानवर को, प्रभु के लिए क़ुर्बान किया जाता है या बलि दी जाती है, तो वो तो भला काम हुआ न। उसके बाद हमने उसको खा लिया, तो ठीक है न।

आचार्य: ये कैसी बातें कर रहा है? क्या जवाब दूँ। ये कह रहे हैं, कि देश के लिए जब सैनिक मरता है तो उसको हम हत्या नहीं कहते हैं, उसको हम कहते हैं सैक्रिफाइस , बलिदान, शहादत। तो वैसे ही जब धर्म के लिए बकरा काटा जाता है तो उसको भी हत्या नहीं कहा जाना चाहिए। भाई! सैनिक इसलिए मरा है, क्योंकि सैनिक को समझ में आया था, कि एक ऊँचा उद्देश्य है, उसके लिए लड़ाई लड़नी है तो अपनी स्वेच्छा से गया था लड़ने के लिए। बकरा कब अपनी स्वेच्छा से आया था कि तुमने उसकी क़ुर्बानी दे दी और कह रहे हो कि हत्या नहीं है, ये तो शहादत है? ये क्या पागलपन है? बकरे ने बोला था क्या कि मैं आ रहा हूँ, अपनी क़ुर्बानी देने? और तुमको देनी है तो अपनी क़ुर्बानी दो, अपनी गर्दन काटो। अपनी क़ुर्बानी क्यों नहीं देते? अगर क़ुर्बानी देना इतनी बड़ी बात है तो सबसे पहले अपनी क़ुर्बानी दो। ये तुलना क्या करी है कि देश के लिए अगर सैनिक मरता है तो उसको हम वीरगति कहते हैं, तो फिर अगर मैंने धर्म के लिए कोई जानवर काट दिया तो जानवर की भी वीरगति होगी। ये क्या है? तुम्हें ये कैसे लग रहा है कि इस तर्क में कुछ भी है?

प्र१: मुर्गा भाई, अब दोस्ती बदलनी पड़ेगी लगता है।

प्र२: आपकी बात मानते हुए भी, ये ज़बान नहीं मानती।

आचार्य: तो इतना ही स्वीकार कर लो न कि ज़बान की हवस है। क्यों उसमें तुम धर्म को बीच में लाते हो? धर्म का नाम क्यों खराब कर रहे हो? क्यों तुम उसमें और तर्क दे रहे हो बेकार में? सीधे बोलो कि जंगल से बाहर आ गया हूँ लेकिन मैं अभी भी जानवर हूँ, तो जब तक मैं मांस न खाऊँ और खून न पीऊँ, तब तक चैन नहीं मिलता। सीधे ही ये बोलो कि बस मेरी हवस है। लेकिन जैसे ही बोलोगे कि जानवर हो तो फिर इंसाफ़ की बात ये होगी कि इंसानों की तरह तुमसे बर्ताव भी ना किया जाए। अगर तुम मान ही रहे हो कि तुम जानवर हो, तो फिर ये उम्मीद भी मत रखना कि दूसरे लोग तुमसे इंसानों वाला बर्ताव करें। फिर तुम्हें नौकरी भी नहीं मिलनी चाहिए क्योंकि जानवरों को तो जॉब्स (नौकरियाँ ) मिलती नहीं और जानवरों को जो जॉब्स मिलती हैं, वही होती हैं जो गधे को मिलती है जॉब , कि चल बेटा, बोझा ढो। तो काम तुम्हें अगर सब जानवरों वाले करने हैं तो फिर जानवरों जैसा ही तुम जीवन भी जियो, वैसी ही जॉब्स करो, वैसी फिर तुम्हें इज़्ज़त भी मिलेगी जानवरों वाली।

इंसान वो है, जिसके पास करुणा हो, प्रेम हो, दया हो, रहम हो, जो सोच सके, समझ सके, जो अपने छोटे स्वार्थ से आगे कुछ देख सके। और ऊँचे-ऊँचे लोग हमारे इतिहास में वो हुए हैं, जिनको हमने सबसे ज़्यादा इज़्ज़त दी है। जिन्होंने दूसरों के लिए अपनी जान भी दे दी है। हम कैसे लोग हैं जो अपने स्वाद के लिए दूसरे की जान ले लेते हैं? दुनिया में, हम उस दिन चर्चा कर रहे थे, याद है न, रोज़ कितने जानवर कटते हैं, तीन करोड़ जानवर रोज़ कटते हैं और बाईस करोड़ मछलियाँ। हम ऐसे लोग हैं। और हम कहते हैं कि जो हमारे सब आदर्श हैं, हम उनके अनुयायी हैं। तुम कैसे अनुयायी हो? क्या वो हिंसक लोग थे? तुम जिनके फॉलोवर्स (अनुयायी) हो, क्या वो हिंसक थे, क्रूर थे? क्रूएल एंड वायलेंट (क्रूर और हिंसक) लोग थे क्या वो? उनको तो हम कहते हैं, वो करुणामूर्ति थे, हम कहते हैं उनमें कंपैशन (करुणा) था और तुम उनको अपना आइडियल (आदर्श) बोलते हो। उनमें कंपैशन (करूणा) था तो तुममें क्यों नहीं है भाई?

ये क्या है कि मैं एक एक जानवर को ज़बरदस्ती पैदा करूँगा, उसकी ज़िंन्दगी ख़राब करूँगा, फिर उसकी गर्दन काटूँगा, फिर मैं उसका खून पीऊँगा। ये क्या है? और मुर्गियाँ, कितनी खराब हालातों में वो रहती हैं, कभी देखा है? अंडों के लिए, उनकी क्या तुम दुर्दशा करते हो? थोड़ा देखो तो, मछलियों को किस कदर हम खाते हैं, मारते हैं, उनको क्या दर्द नहीं होता है? दूध के लिए, हम दूध देने वाले पशुओं पर किस-किस कदर अत्याचार करते हैं और हम सोचते हैं कि दूध ही तो पी रहे हैं, दूध में क्या है? हम तो शाकाहारी हैं। दूध कौन से पेड़ पर उगता है भाई, तुम शाकाहारी कैसे हो गए?

और तुम कैसे भूल जाते हो कि दूध और मांस का चोली-दामन का साथ है। भारत इतना ज़्यादा मांस ख़ास तौर पर बीफ़ (गाय का मांस) एक्सपोर्ट (निर्यात) करता है इसीलिए। इतना तो पता होगा न तुमदोनों को, कि भारत बीफ़ के एक्सपोर्ट में दुनिया में नंबर एक है। जिस देश में हम करुणा की बातें करते हैं और गाय को पूजते हैं, वो देश बीफ़ के एक्सपोर्ट में नंबर एक है। वो कहाँ से आ जाता, इतना-इतना बीफ़, इतनी गाय, भैंसे, स्लॉटर (बलि) कैसे हो जाती है? गाय नहीं तो, मान लो तो जो गोवंश हैं, वो स्लॉटर कैसे हो जाता है? क्योंकि हम हिंदुस्तानियों को दूध से बड़ा प्यार है और हम सोचते भी नहीं कि जो भैंसें या गायें दूध दे रही हैं, जब वो दूध देने लायक नहीं बचती, तब उनका क्या होता है? वहीं से तो भारत बीफ़ के एक्सपोर्ट में नंबर एक बना है। ये सब हमको ख़्याल ही नहीं आता। हम बिलकुल कुछ भी नहीं सोचते। हम सोचते हैं, दूध तो ऐसे ही आ जाता है बस, हम बाज़ार से आ के ले आते हैं दूध। उसकी पूरी प्रक्रिया क्या है, ये जानने में हम कभी जिज्ञासा नहीं करते। और कोई अगर तर्क करे तो हम कह देते हैं, ‘कृष्ण भगवान का भी तो लिखा हुआ की पुराणों में कि वो दही खाते थे और दूध’, तुम ये नहीं देखते कि उस समय की क्या स्थितियाँ थी और आज की क्या स्थितियाँ है। बस एक चीज़ के लिए तुम अपनी तुलना कृष्ण भगवान से कर लेते हो। मैं पूछूँ, ‘उन्हीं कृष्ण की गीता से तुम्हारा क्या सम्बन्ध है, कभी पढ़ी?’, तुम नहीं पढ़ते।

क्या हो गया, कैसे सन्नाटा छा गया? जाओ चिकन-मटन उड़ाओ। सुबह कहाँ कर रहे हो नाश्ता, केएफसी में, कहाँ कर रहे हो?

प्र१: कल सुबह तो उपमा होगा।

आचार्य: अच्छा! चिकन उपमा? मटन डोसा? अब तो कंपनियाँ आ गयी हैं, जो पैकेज्ड (डिब्बाबंद) मीट घर में डिलीवर (पहुँचाती) करती हैं और इसको हम बोलते हैं आंत्रप्रेन्योरशिप (उद्यमिता) । छी!

प्र१: सर लेकिन इतनी बड़ी अर्थव्यवस्था सिर्फ़ इसी पर चल रही है। उन लोगों के पेट पर लात पड़ेगी, तो कैसे चलेगा काम?

आचार्य: अब चोरी भी, अनुमति दे दो, बहुत सारे लोग हैं जो चोरी करते हैं, उससे उनका घर चलता है। क्यों रोकते हो? मांस का कंजम्पशन (भोग) अर्थव्यवस्था पर एक नेट (कुल) निगेटिव इंपैक्ट (नकारात्मक असर) डालता है। अगर मांस का कंजंप्शन रुकता है तो वो पूरी इकनॉमी (अर्थव्यवस्था) के लिए अच्छा है क्योंकि मांस से तुम्हें जो मिलता है और मांस बनाने में जो इकनॉमिक इनपुट (निवेश) जाता है, उनमें बहुत अंतर है। तो मांस का कंजम्पशन इकोनॉमी के लिए भी कुल मिलाकर लॉस (घाटे) की बात है। ये कहना कि मांस उद्योग में इतने लोग लगे हैं (ग़लत है) । मांस का कंजम्पशन दुनिया में गरीबी का बहुत बड़ा कारण है।

प्र१: कैसे ?

आचार्य: भई! तुम मांस जिस रेट (दाम) पर खरीद रहे हो न, मांस की असली कीमत उससे कहीं ज़्यादा होती है। दुनिया का हर मांस खाने वाला व्यक्ति सब्सिडाइज्ड मांस खा रहा है और उसको सब्सिडी दे रहे हैं, वो लोग जो मांस नहीं खाते। उदाहरण के लिए हमने कहा कि क्लाइमेट चेंज में ये जो तुम्हारा एनिमल एग्रीकल्चर है, ये नंबर एक या नंबर दो का कंट्रीब्यूटर (योगदान देने वाला) है और भारत की जीडीपी आज जितनी है, आज से पन्द्रह-बीस साल बाद भारत की जीडीपी को इतने का ही नुकसान हो रहा होगा लगभग, जितनी आज भारत की जीडीपी है, किससे? क्लाइमेट चेंज से। और क्लाइमेट चेंज में एक बड़ा कॉन्ट्रिब्यूटर , मीट कंजंप्शन है। पर आज जो मीट का दाम है उस पर क्या हमने ये ग्रीन टैक्स लगाया? कि ये जो मीट है, इसकी जो असली कॉस्ट (कीमत) है, वो बहुत-बहुत हाई (ज़्यादा) है।

हम ये तो जानते हैं कि इकनॉमी को पाँच ट्रिलियन डॉलर का नुकसान होने जा रहा है और पिछले बीस सालों से होना शुरू भी हो चुका है, एक के बाद एक रिपोर्ट छपती रहती हैं। पढ़ना कि 2030 तक साठ ट्रिलियन डॉलर का नुकसान है, 2050 तक इतने ट्रिलियन डॉलर का नुकसान है, वो जो नुकसान है, वो कौन भर रहा है? वो नुकसान करने वाला कौन है? नुकसान करने वाला तो वही तो है न, जो मांस खा रहा है, पर उसकी जेब से तो हम ले नहीं रहे, उस नुकसान की भरपाई। वो तो मांस खा रहे मज़े में।

इकनॉमी को डिप्रेस (गिराता) करता है, मीट कंजम्पशन । ये हम समझ ही नहीं पा रहे बात को और मीट कंजम्प्शन ख़त्म करोगे तो इकनॉमी और आगे बढ़ेगी। लोग कहते हैं, अगर सबने मीट खाना छोड़ दिया तो सब शाकाहारियों के लिए इतनी ज़मीन कहाँ से आएगी। अगर आप शाकाहार पर आ जाओ, तो आज जितनी ज़मीन पर खेती होती है, इसकी एक चौथाई ज़मीन पर खेती पर्याप्त रहेगी। आज जितनी ज़मीन पर खेती होती है, उससे एक चौथाई ज़मीन पर खेती पर्याप्त रहेगी। लोगों के बात ये दिमाग में घुसती ही नहीं। कहते हैं कि ऐसा कैसे हो सकता है। ऐसा ही है।

मांसाहार मतलब वेस्टफुल यूटिलाइजेशन ऑफ रिसोर्सेस ( संसाधनों का व्यर्थ उपयोग ) उदाहरण के लिए हम कहते हैं, अगला विश्वयुद्ध पानी के लिए लड़ा जाएगा। कभी ये सोचा है कि एक किलो मटन तैयार करने में कितने लीटर पानी बर्बाद होता है, कभी ये सोचा है? और उस पानी की कीमत क्या है?

प्र२: सर मेरी बुद्धि को समझ नहीं पा रही। आप कह रहे मीट खाना इकोनॉमिकली (आर्थिक रुप से) हमको सप्रेस (दबा) कर रहा है। मगर अगर मीट कंजंप्शन बंद होता है, तो मीट इंडस्ट्री बंद होगी, पहली चीज़। आप कह रहे हैं, अगर सब शाकाहार पर आ जाएंगे तो जो फार्मिंग (खेती) के लिए जो हमारी लैंड है वो वन फोर्थ (एक चौथाई) हो जाएगी। देट मीन्स (इसका मतलब) हमारे फार्मर्स (किसानों) की भी जॉब वन फोर्थ हो गयी तो...। और वैसे ही जब बन कम रहा है, तो एक्सपोर्ट कम होगा। तो उससे जुड़ी हुई सारी चीजें भी वन फोर्थ हो गयीं, तो ये तो सारी चीजें क्युमुलेटिवली (इकट्ठे) कम होती हुई दिख रही हैं।

आचार्य: बढ़ेगा क्या? ये मीट इंडस्ट्री है (जग को दिखाते हुए)। इसमें जो इनपुट आता है — वो आता है मीट, डेयेरी, सब मिला लो इसमें जो पूरी ऐनिमल प्रोडक्ट्स इंडस्ट्री है — इसमें जो इनपुट आता है, वो आता है थाउजेंड इकोनॉमिक यूनिट्स का। एक हज़ार इकनॉमिक यूनिट्स ये सोखती है, और ये आउटपुट देती है सौ इकनॉमिक यूनिट का। ये कितने इकनॉमिक यूनिट से इनपुट लेती है, हंड्रेड इकनॉमिक यूनिट्स और ये आउटपुट कितना देती है?

प्र१: सौ ।

आचार्य: जो ये थाउजेंड इकनॉमिक यूनिट्स का इनपुट लेती है, उसमे जानते हो क्या-क्या आता है? उसमें आता है लैंड कॉस्ट, एनवायरमेंटल कॉस्ट, वॉटर कॉस्ट, मेडिकल कॉस्ट (ज़मीन, पर्यावरण, पानी और हेल्थ के खर्चे), हर तरह की कॉस्ट , हज़ार यूनिट्स ये सोखती है और आउटपुट देती है सिर्फ़ सौ-दो सौ इकोनॉमिक यूनिट का। अब ये नहीं रही, तो अब क्या होगा?

प्र१: हज़ार इनपुट बच गई।

आचार्य: आठ सौ बच गया न, हज़ार लेती थी, दो सौ ही देती थी। ये इंडस्ट्री एक वेस्टफुल इंडस्ट्री थी। ये नेट वैल्यू एडिशन नहीं करती है। ये नेट वैल्यू डिलिसन या डिप्लिसन करती है। ये वैल्यू रिड्यूसिंग इंडस्ट्री है। ये नहीं रही इंडस्ट्री तो आठ सौ इकोनॉमिक यूनिट्स का फ़ायदा हो गया न। वो फ़ायदा किसको मिलेगा अब? सारी जनसंख्या को। गरीबी कम होगी न? ये है और वही जो आठ सौ यूनिट्स हैं , वो किसी और काम में अगर लगाए जाएंगे तो उससे अच्छे रिटर्न्स भी आएंगे।

उदाहरण के लिए मांसाहार दुनिया में बहुत सारे रोगों का प्रमुख कारण है। ठीक है। तुमने जो पैसा अस्पताल को दे दिया, तुम मांसाहारी हो, तुमने जो पैसा अस्पताल को दे दिया, अस्पताल को नहीं दिया होता तो तुम उसे कहाँ लगाते? अपने ऊपर लगाते, अपने बच्चे की शिक्षा में लगाते, कोई कंस्ट्रक्टिव (सृजनात्मक) काम करते, कहीं इन्वेस्टमेंट (निवेश) करते। वो पैसा बर्बाद गया न, मांसाहार के कारण ही बर्बाद गया न। मांसाहार हटा दिया, तो इकोनॉमी को फ़ायदा हुआ या नुकसान हुआ? और तुम्हारे पास जो पैसा बच गया, तो तब तुम उस पैसे से कई लोगों को इम्प्लॉयमेंट (रोज़गार) भी दे सकते हो। मांसाहार हटेगा तो इम्प्लॉयमेंट बढ़ेगा या घटेगा? बढ़ेगा! मांसाहार बेरोज़गारी का भी एक बड़ा कारण है।

प्र२: इसमें जो एक तर्क मुझे जो समझ में आ रहा है, कि जो एक हज़ार यूनिट का जो इनपुट है। वो इकनॉमी में अभी कोई कॉस्ट रखता नहीं है। जैसे पानी जो है, पानी का भाव मेज़र नहीं हो रहा है।

आचार्य: वो मेजर भी हो रहा है, एट्रीब्‍यूट नहीं हो रहा है। उदाहरण के लिए, कैंसर हुआ मांसाहार से, उस कैंसर की कॉस्ट का टैक्स (कर) कोई जाकर के किसी मांसाहारी पर नहीं लगा रहा। या चिकन, बर्गर बेचने वालों पर टैक्स नहीं लगाया जा रहा, कि तुम्हारी वजह से ही किसी को कैंसर हुआ है, हार्ट अटैक (हृदयाघात) हुए हैं। हज़ार तरह की और बीमारियाँ हुई हैं, जो सीधे-सीधे पता है कि वो मांस से ही होती हैं। या क्लाइमेट चेंज हुआ, उस क्लाइमेट चेंज की वजह से एक पूरा शहर डूब गया। आज देश के देश हैं, जो क्लाइमेट चेंज की वजह से बर्बाद हो गए। वो जो देश बर्बाद हुआ, उससे ट्रिलियन डॉलर का लॉस हुआ, लेकिन वो जो ट्रिलियन डॉलर है, वो मांसाहार करने वालों से वसूला नहीं जा रहा न।

मांसाहार की वजह से क्लाइमेट चेंज हो गया। क्लाइमेट चेंज की वजह से ज़बरदस्त बारिश हो गयी, जो होनी नहीं चाहिए थी। पूरी फसल ख़राब हो गई। किसान बर्बाद हो गए लेकिन उन किसानों को मुआवज़ा नहीं दिया जा रहा मांसाहारियों की जेब से, जबकि वो जो अतिवृष्टि हुई है, वो जो एक्सेसिव रेनफॉल (अतिवृष्टि) हुई है, वो क्लाइमेट चेंज से हुई है और क्लाइमेट चेंज को एक बड़ा कॉन्ट्रिब्यूटर मांसाहार है। लेकिन जो किसान बर्बाद हुआ और बेरोज़गार हुआ और पता नहीं क्या-क्या हो गया उस किसान के साथ, उसको क्या मुआवज़ा मिल रहा है मांसाहारी की जेब से? नहीं मिल रहा मुआवजा, तो मांसाहार इकोनॉमी को गिराने वाली चीज़ है।

प्र२: मैं सिगरेट पीता हूँ तो मुझे ही कैंसर होता है, तो उसका जिम्मेदार मैं होता हूँ । मगर मैं जो चिकन खाता हूँ, उस कारण से जो मुझे कैंसर होता है, उससे मुझे ही नहीं हो रहा, सभी को हो रहा है।

आचार्य: सबको हो रहा है। और जो तुम सिगरेट पीते हो, वो ज़बरदस्त रूप से टैक्सड होती है। नहीं तो सिगरेट इतनी महंगी क्यों होगी? उसमे है ही क्या ऐसा? पर मांस पर वैसा टैक्स नहीं लगता। जबकि एक आदमी जो मांस खा रहा है, वो सौ और लोगों को बर्बाद कर रहा है। मैं मांस नहीं खाता लेकिन जो मांस खा रहा, वो मुझे भी बर्बाद कर रहा है। लेकिन वो व्यक्ति इस बात का कोई हर्ज़ाना नहीं भरता, मुझे कोई कंपनसेशन (मुआवज़ा) नहीं देता। वो बल्कि ये बोल देता है कि मैं क्या खा रहा हूँ, ये तो मेरा पर्सनल मैटर (व्यक्तिगत मामला) है। भई! ये तुम्हारा पर्सनल मैटर कैसे है? तुम जो कर रहे हो, उससे किसान बर्बाद हो रहा है। तुम जो कर रहे हो, उससे ग़रीब बर्बाद हो रहा है। तुम जो कर रहे हो उससे भुखमरी फैल रही है। वो तुम्हारा पर्सनल मैटर कैसे है, ये जो तुम कर रहे हो?

प्र२: जैसे मैं छुपकर सिगरेट पी लेता हूँ, वैसे छुप के मैं मांस भी खा लेता हूँ, तो इसको रोकें कैसे?

आचार्य: नहीं वो छुपना-छुपाना, अभी वो बात नहीं हो रही है न यहाँ पर। अभी बात हो रही है ईमानदारी की। क्या आप समझना चाहते हैं कि बात क्या है? समझने के बाद भी आपको चोरी करनी है, आपको हिंसा करनी है, आपको खून पीना है, तो फिर तो क्या कह सकते हैं?

प्र१: सर, मोहल्ले में भी नाक भी कटती है क्योंकि कोई मांस लेकर आता है तो उसकी एक बात होती है। कोई फूल-पत्ती खाता है, मतलब कोई उसमें कोई पता चलता है कि अच्छे घराने से आ रहे हो, पैसा है घर में।

आचार्य: इसका मेरे पास कोई जवाब नहीं है। सब कुछ तुम मोहल्ले वालों को देख के करते हो क्या? ये क्या बात है, इसका कोई जवाब नहीं होता।

प्र२: हम दोनों दोस्त बहुत पार्टियाँ करते हैं, और बढ़िया-बढ़िया बहुत खर्चा करते हैं और उन पार्टियों का तो फाउंडेशन (आधार) ही रहता है, कि हमलोग मटन दबाते (पेटभर खाना) हैं।

प्र१: मजा ही तब आता है, तब चिकन फाड़ा था भाई के साथ तो।

आचार्य: किसी का कत्ल करके तुम पार्टी करो तो ये तुम्हारी मर्ज़ी है। देखो! तुम अच्छी तरह जानते हो, उसके पास एक चेतना है, जो बहुत ख़ास है। तुम सब्ज़ी खाते हो, तुम ये नहीं कहते कि मैंने सब्ज़ी की हत्या कर दी। पर जब तुम बकरा खाते हो, तुम ख़ुद जानते हो, तुम ख़ुद कहते हो, मैंने उसको स्लॉटर कर दिया। तुम कभी कहते हो, गोभी को स्लॉटर किया? कभी कहते हो क्या? अंतर है। कत्ल करके पार्टी करना, कत्ल करके दावत करना, जश्न करना इंसानियत नहीं है। जो जीव का कत्ल करके खुशी मनाए, ये तो छोड़ दो कि वो धार्मिक आदमी है, मैं कह रहा हूँ, वो आदमी ही नहीं है।

प्र१: फिर तो ये जो मैं लेदर जैकेट (चमड़े का कोट) पहनूँ या फिर मैं ये जो जूते पहनता हूँ, लेदर के, ये भी मांसाहारी हो गया?

आचार्य: तो और क्या। जानवरों का शोषण नहीं करना, ये बात इतनी-सी ही थोड़ी होती है कि मांस नहीं खाऊँगा। तुमने बैल्ट कौन-सी पहन रखी है, तुम नीचे यहाँ पर जूते कौन से पहनते हो। रोटी में घी चुपड़कर खा रहे हो क्या, ये सब बातें भी देखनी पड़ती हैं न, ऐसे ही थोड़े ही है। यहाँ तक कि तुम जाओ कहो कि मुझे तांगे की सवारी करनी है, ये भी कोई बात अच्छी थोड़े ही है। तुम कहीं पर जाओ और बोलो मुझे एलिफेंट सफारी (हाथी की सवारी) करनी है, ये कोई अच्छी बात है, कोई भली बात है?

प्र१: वो आपका वीडियो देखा था, केदारनाथ पर जो।

आचार्य: तुम घर में, पिंजड़े में एक तोता रखे हुए हो। ये कोई अच्छी बात है? वो देखो, तोता, पिंजड़े में तोता। छी!

प्र१: मुर्गा भाई आज तो मतलब सर के साथ बैठ के.... ।

प्र२: कुछ तो चमका है।

प्र१ : मतलब कल सुबह।

प्र२: खाया नहीं जाएगा।

प्र१: धन्यवाद सर।

प्र२: धन्यवाद सर।

प्र२: आचार्य जी, वीडियो के लिए ये नाटक करना पड़ा। क्षमा कीजिएगा, अगर ग़ुस्ताख़ी हुई हो। दर्शकों को भी बता दें कि।

प्र१: ये सब मजाक था।

आचार्य: काश कि ये सब मज़ाक ही होता। मज़ाक से बहुत आगे की बात है। है न।

प्र१: नमस्कार आप सभी को, मुर्गा भाई और बकरा भाई की तरफ़ से एक छोटी सी बात थी। इस वीडियो को रिकॉर्ड जिन्होंने किया है, वही उस वीडियो में आचार्य जी के सामने बैठे भी थे।

प्र२: क्योंकि ये बात बहुत ज़रूरी थी तो इसलिए हमने ख़ुद ही किसी तरीक़े से कैमरा को मैनेज करके और आचार्य जी को आमंत्रित किया स्टूडियो में, और किसी तरीक़े से ये बात आप तक पहुँचायी।

प्र१: तो कैमरे के सामने भी हम थे और कैमरे के पीछे भी हम थे।

प्र२: इस समय भी कैमरे के पीछे कोई नहीं है। धन्यवाद।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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