मुक्ति क्या है? वृत्ति क्या है?

Acharya Prashant

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मुक्ति क्या है? वृत्ति क्या है?
जीवन माने वृत्तियाँ और विकार, तो ऐसे जीवन से हटना है। माने किससे हटना है? वृत्तियों और विकारों से। तो मृत्यु का अर्थ ये नहीं होता कि कब तुम्हारी देह मिटेगी, जलेगी; मृत्यु का अर्थ होता है कि कब तुम्हारे जीवन से वृत्तियाँ और विकार हटेंगे। यही ज़िन्दगी जीने का उचित तरीका भी है ‌‌‌‌‌— प्रतिपल ऐसा बिताओ कि तुम्हारे भीतर जो मलिनताऍं हैं, जो दोष हों वो कम, कम और कम होते जाऍं। ये सब वही पुराना चक्र है, वो चले जा रहा है। हाँ, तुम जान गये कि ये पुराना चक्र है, तो ये अनुकम्पा है, ये बोध है। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य जी। आचार्य जी, ओशो ने बताया है कि जीवन एक तैयारी है मृत्यु के लिए, इसका अर्थ क्या है?

आचार्य प्रशांत: जीवन तैयारी है उन सब चीज़ों से मुक्ति पाने की, जो जीवन को नर्क बनाती हैं। बच्चा निर्दोष, निर्विकार नहीं पैदा होता। बच्चा खुद बड़ी आफ़त में पैदा होता है, बड़ी वृत्तियाँ उसमें बैठी होती हैं। और फिर उन्हीं विकारों, उन्हीं वृत्तियों के अनुसार वो जीवन जीता है। जीवन में और कुछ होता ही नहीं है वृत्तियों और विकारों के अलावा। और वो हम जन्म से ही अपने साथ लाये होते हैं, तो जीवन माने वृत्ति और विकार। इस अर्थ में ज्ञानियों ने तुमसे कहा है कि मृत्यु की ओर बढ़ो।

जीवन माने वृत्तियाँ और विकार, तो ऐसे जीवन से हटना है। माने किससे हटना है? वृत्तियों और विकारों से। तो मृत्यु का अर्थ ये नहीं होता कि कब तुम्हारी देह मिटेगी, जलेगी; मृत्यु का अर्थ होता है कि कब तुम्हारे जीवन से वृत्तियाँ और विकार हटेंगे। उस मृत्यु की बात हो रही है। तो ओशो तुमसे कह रहे हैं कि समस्त जीवन तैयारी भर है जीवन से वृत्तियाँ और विकार हटाने के लिए। यही ज़िन्दगी जीने का उचित तरीका भी है ‌‌‌‌‌— प्रतिपल ऐसा बिताओ कि तुम्हारे भीतर जो मलिनताऍं हैं, जो दोष हों वो कम, कम और कम होते जाऍं।

जैसे-जैसे तुम्हारे दोष कम होते जा रहे हैं, ज्ञानियों की भाषा में कहें तो तुम मृत्यु की ओर बढ़ते जा रहे हो। और ये मृत्यु तुम्हें खत्म नहीं करती, ये मृत्यु तुम्हें अमर करती है। क्योंकि बच्चा जो पैदा होता है, उसको तुम कहते हो कि जीवन में आया है, पर वो लगातार बढ़ किसकी ओर रहा है? मृत्यु की ओर।

अर्थात् हमारा जीवन कुछ नहीं है, मृत्यु का ही दूसरा नाम है। जहाँ वृत्तियाँ हैं और विकार हैं, वहाँ पर मृत्यु भी है। तो फिर जब वृत्तियाँ हटीं और विकार हटे तो मृत्यु भी हटी और तुम अमर हो गये।

तो ज्ञानीजन तुमसे वो मौत मरने को कहते हैं जिसके बाद कभी दोबारा नहीं मरना होता, जिसके बाद तुम अमर हो जाते हो। उसका देह की मृत्यु से कोई लेना-देना नहीं है, उसका सम्बन्ध है मानसिक परिमार्जन से। मन से जब अपने सारे दोष हटा दो, सारे दोष हटा दो, जीवन जैसा लेकर के आये थे और जैसा जीवन अभी तक चलता रहा, उसको समाप्त कर दो। पुराना जीवन समाप्त कर दो अर्थात् पुराने जीवन को मृत्यु दे दो। जब तुम पुराने जीवन को मृत्यु दे देते हो तो फिर असली जीवन का सूत्रपात होता है। और उस असली जीवन का कोई अन्त नहीं होता।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, वृत्तियाँ क्या होती हैं और क्या सबकी वृत्तियाँ अलग-अलग होती हैं?

आचार्य प्रशांत: नहीं, वृत्ति सबकी एक होती है, मूल वृत्ति एक ही होती है। वो फिर आगे बढ़कर के इधर-उधर अपनी शाखाऍं फैलाती है तो लगता है सबकी अलग-अलग हैं। मूल वृत्ति एक ही होती है। मूल वृत्ति को ही जीव-वृत्ति बोलते हैं, मृत्यु-वृत्ति बोलते हैं, भय बोलते हैं, अपूर्णता बोलते हैं। कई नाम दिये गए हैं, पर एक बात साफ़ है कि मूल वृत्ति समस्त जीवों की एक होती है। स्त्री-पुरुष की तो एक होती-ही-होती है, समस्त जीवों की एक होती है — गाय, कुत्ता, मछली, ये कीड़ा, सबकी एक होती है।

प्रश्नकर्ता: जो अपूर्णता होती है?

आचार्य प्रशांत: अपूर्णता कह लो। मृत्यु-धर्मा होना मूल वृत्ति है। वो मूल वृत्ति ऐसी होती है कि तुम्हारे जीवन में जो कुछ होता है वो नश्वर होता है। यही मूल वृत्ति है कि तुम जिसे जीवन कह रहे हो, उस जीवन में सबकुछ अपूर्ण होगा। अपूर्ण होगा अर्थात् एक बिन्दु पर जाकर मिट जाएगा, ये मूल वृत्ति है। अपूर्ण होगा, अनन्त नहीं होगा, उसका अन्त आएगा कहीं-न-कहीं। कैसे पता लगे? ज़रा सा देखोगे, पता लग जाएगा।

बच्चा साँस लेता है, बस इसी बात से तुम्हें वृत्ति पता चल गयी। बच्चा पैदा हुआ और पैदा होते ही रोना शुरू कर दिया, हाथ बढ़ाना शुरू कर दिया, दूध माँगना शुरू कर दिया, तुम्हें मूल वृत्ति पता चल गयी। वो अभी एक घण्टे का नवजात है और उसको क्या चाहिए? दूध। और यहाँ पचास साल वालों को देख लो, उन्हें भी तो पेट ही भरना है। देख नहीं रहे हो वही मूल वृत्ति है, एक घण्टे के बच्चे को क्या करना है? पेट भरना है। और पचास साल वाला भी क्या रो रहा है? पेट नहीं भर रहा भाई, यही तो मूल वृत्ति है।

बदलती है क्या ये जीवन भर? और जो एक घण्टे वाला बच्चा है, उसे भी कोई खयाल नहीं कि माँ की क्या हालत है। बच्चा अभी-अभी पैदा हुआ है, माँ हो सकता है बहुत रुग्ण हालत में हो, बहुत रक्तपात हुआ हो, बच्चे को क्या चाहिए? ‘भाई, तेरी कोई भी हालत हो, मुझे मेरा माल मिलना चाहिए।’ और यही काम आप पचास की उम्र में भी कर रहे हो, ‘भाई, तेरी कोई भी हालत हो, मुझे मेरा माल मिलना चाहिए।’ मिले हैं न ऐसे लोग कि भाई, तुम्हारी क्या हालत है वो तुम जानो, हमें हमारा माल दे दो।

वो छोटा बच्चा जो एक घण्टे का है, वो भी तो माँ से यही कह रहा है कि माँ तुझे बुखार हो, कि तू अधमरी हो गयी हो, मुझे तो दूध दे दे तू। या बच्चा ये कहता है कि माँ, तू पहले ठीक हो जा पन्द्रह दिन, उसके बाद दूध पिला देना, ऐसा होता है क्या? यही मूल वृत्ति है — अपूर्णता, स्वार्थ। समझ में आ रही है बात?

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, वृत्तियाँ उठती हैं, जैसे कोई भी विचार उठते हैं, वो वृत्ति के कारण ही उठते हैं तो उन्हें कैसे टैकल (पकड़) कर सकते हैं?

आचार्य प्रशांत: नहीं, टैकल वगैरह नहीं करना है, जिस वक्त वृत्ति उठ रही है, उस वक्त अगर बस तुमने इतना कह भी दिया कि ये वृत्ति है, तो तुम बच गये। समझ रहे हो? जब वृत्ति उठती है तो आदमी को इतना भी नहीं मौका मिलता कि वो कह पाये कि ये वृत्ति है। उस वक्त तो तुम कहते हो, ‘ये मैं हूँ, ये मैं हूँ।’ तुम्हें कोई चाहत उठी है बहुत ज़ोर से और उसने तुम्हें अपनी लपेट में ले लिया है, शिकंजा कस लिया है। तुम ये थोड़ी कहते हो कि वृत्ति उठी है, तब तुम तो ये कहते हो न कि मुझे चाहत है। चाहत के उस पल में बस इतना बोल दो कि वही पुरानी वृत्ति है, सिर उठा रही है, तो तुम बच गये। पर वृत्ति ऐसा छाती है, ऐसे धर-दबोचती है कि तुम्हें ये कहने की भी मोहलत नहीं मिलती कि ये वृत्ति है।

तो कोई लम्बी-चौड़ी प्रक्रिया तुम कार्यान्वित कर पाओगे इसकी कोई सम्भावना ही नहीं है कि हम देख रहे हैं और फिर ये कर रहे हैं, और फिर वो कर रहे हैं, और वो कर रहे हैं। अरे! इतनी छूट कहाँ मिलने वाली है तुमको! तुम तो इतना ही कह दो कि जब क्रोध उठे तो ये न कहो कि मैं क्रोधित हूँ, पुराना दर्द है, कभी-कभी उठ जाता है। हो गया बस, बात खत्म, बच गये।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, अन्दर जो उठता है, वो सब तो वृत्ति ही होती है?

आचार्य प्रशांत: अरे! शाबाश! ये बात! ऐसे ही है। सब वही है, तुम भेद ही मत करना, न ये कहना कि कुछ अच्छा है कुछ बुरा है, न ये कहना कि कुछ मेरा है कुछ पराया है। सब वही है, तीन तीलियों वाला चक्का, उसके अलावा कुछ नहीं। और जिसको तुम बोध कहते हो, वो है तीन तीलियों वाले पहिये को तीन तीलियों वाला पहिया कह देना, बस यही बोध है। कुछ दिख रहा हो तो उसे बोध मत कह देना कि वो जो दिख रहा है वो बोध है।

ज्ञान का कुछ विषय बन जाए, ज्ञान की पकड़ में कुछ आ जाए तो उसे बोध मत कह देना। जो पकड़ में आ जाए, जान लेना कि वो तीन तीलियों वाला चक्र ही है, वही पकड़ में आता है। हाँ, जो पकड़ने वाला है, वो बोध कहलाता है। तो भीतर से कुछ भी उठता हो, ये न कह देना कि भीतर से आत्मा उठ रही है, उठे, गिरे, आये, जाए, वो सब क्या है? वही पुराना चक्र, करोड़ों, अरबों साल पुराना चक्र — कभी तुममें उठ रहा है, कभी पानी के मगरमच्छ में उठ रहा है, कभी इस नन्हें से कीड़े में उठ रहा है, कभी नदी-पहाड़ में उठ रहा है, कभी इस ग्रह पर उठ रहा है, कभी किसी और ग्रह पर उठ रहा है। ये सब वही पुराना चक्र है, वो चले जा रहा है। हाँ, तुम जान गये कि ये पुराना चक्र है, तो ये अनुकम्पा है, ये बोध है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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