मुक्ति के रास्ते में धन की कितनी अहमियत?

Acharya Prashant

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मुक्ति के रास्ते में धन की कितनी अहमियत?

प्रश्नकर्ता: गुरुदेव, मैं पूछना चाहता हूँ कि कुछ महापुरुष ध्यान साधना करके मुक्ति पाना चाहते हैं, और कुछ आत्मज्ञान होने के बाद भी बार-बार धरती पर आना चाहते हैं दुनिया के सुधार के लिए, ताकि दुनिया उनका अनुसरण कर सके और सुधार हो सके। तो, दोनों में से कौन-सा ठीक है? क्या दुनिया के सुधार के लिए दुनिया में बार-बार आना (जन्म लेना) भी बंधन का कारण है?

आचार्य प्रशांत: आपको मुक्ति मिल जाए ये चुनाव करने की कि आना है या नहीं आना है, फिर जो रास्ता आप चुनें वही श्रेष्ठ है आपके लिए। पर पहले वो मुक्ति उपलब्ध तो हो। जो कहते हैं "नहीं आना", वो भी अपनी मुक्ति में कह रहे हैं कि नहीं आना। जो कहते हैं "आना है" वो भी अपनी मुक्ति में कह रहे हैं कि आना है। दोनों में साझी बात क्या है? कि दोनों को ना भ्रम है, ना भय है, ना दबाव है।

आप पहले उस बिंदु तक तो पहुँच जाइए जहाँ ना भय हो, ना भ्रम हो, ना दबाव हो, उसके बाद आप जो करें वही अच्छा।

प्र: लेकिन गुरुदेव, जैसे फिर आ गए धरती पर तो फिर समस्या में फँस जाएँगे वो?

आचार्य: समस्या में वो फँसता है जो किसी भी जगह समस्याग्रस्त होकर के जाता है। समस्या में वो फँसता है जो समस्या में लिप्त होने का इरादा रखता है।

मुक्त पुरुष की पहचान ही यही है कि वो समस्याओं के बीच भी मुक्त है।

फँसने का क्या सवाल?

प्र: गुरुदेव जैसे कहते हैं: "गुरुर्ब्रह्मा, गुरुर्विष्णु, गुरुर्देवो महेश्वरः।" मेरा ऐसा मानना है कि ब्रह्मा ज्ञान का एक प्रतीक हैं, विष्णु धन-वैभव का प्रतीक हैं और शिव जो हैं वह शक्ति का प्रतीक हैं। तो इस संसार में शक्ति यानि कि ताकत के बल पर और धन-वैभव के बल पर सब कार्य हो रहा है और ज्ञान को श्रेय नहीं दे रहे हैं, इसी कारण दुनिया की इतनी दुर्गति हो रही है। तो धन-वैभव और शक्ति के साथ-साथ जब तक ज्ञान ना हो तब तक दुनिया का विनाश होता रहेगा — ऐसा मेरा मानना है। तो, क्या मैं सही हूँ?

आचार्य: अध्यात्म में ज्ञान और श्रद्धा के अतिरिक्त और कोई धन होता नहीं। अगर आप ये भी कहें कि गुरु विष्णु हैं, और विष्णु धन के प्रतीक हैं, तो कौनसे धन के प्रतीक हैं विष्णु? रुपये और डॉलर के तो हो नहीं सकते न प्रतीक? बात आध्यात्मिक सन्दर्भ में हो रही है। अध्यात्म में कौन सा धन चलता है?

'कबीरा सो धन संचिये, जो आगे को होय।'

किस धन की बात कर रहे हैं?

श्रोता: राम नाम के धन की।

आचार्य: तो गुरु का ताल्लुक अगर यहाँ धन से भी बैठाया गया, आपकी बात मान भी लें कि विष्णु धन के द्योतक हैं, तो वो धन भी वही है जो आपको मुक्ति दिलाएगा।

इसी तरीके से शिव को आप कह रहे हैं कि वो शक्ति के प्रतीक हैं, तो अध्यात्म में कौन सी शक्ति है जो महत्वपूर्ण है, जिसकी बात होती है? आत्मबल। दुनिया की बाकि सब ताकतों का भरोसा छोड़ना और आत्मबल के सहारे जीना। तो सारी बातें एक ही तरफ को जाती हैं, उसमें कोई भेद इत्यादि नहीं है।

प्र: गुरुदेव, जिसके पास ताकत है इस संसार में, जिसके पास शक्ति है, धन की ताकत है, या किसी भी प्रकार की ताकत है वो ज्ञान के सहारे आगे बढ़ने वाले को रोकें, तो ऐसी परिस्थिति में क्या करना चाहिए?

आचार्य: आगे बढ़ते रहना चाहिए। आगे बढ़ते रहना चाहिए और क्या? धन के सहारे कोई मुक्ति की ओर कितना बढ़ेगा?

कितना बढ़ सकते हो?

धन से तुम जाओगे अष्टावक्र संहिता की एक प्रति खरीद लाओगे, उसके लिए धन चाहिए। तुम ये भी कर सकते हो कि तुम अपने लिए कोई शिक्षक लगा लो, जिसको कहो कि, "इतना धन दूँगा सिखा दो", धन यहाँ पर जाकर रुक जाएगा। उसके बाद वो तुमको अष्टावक्र के और निकट तो नहीं ला पाएगा।

तुम ये तो नहीं सकते कि, "मुझे अष्टावक्र का बोध खरीदना है और ये रहे दस लाख रुपये कि दस करोड़ रुपये", मिल जाएगा क्या? तो धन या किसी भी तरह की सांसारिक शक्ति मुक्ति के मार्ग पर कितनी सहायक होगी, ये तो बता दो? मैं नहीं कह रहा हूँ निर्धनता सहायक होगी, पर धन भी कितनी सहायता कर लेगा?

तो धन अधिकांशतः अप्रासंगिक है, इर्रिलिवेंट है इस पूरे मसले में। कुछ हद तक उसकी उपयोगिता है, निश्चित रूप से है। इतनी गर्मी है और तुम्हारे पास छत भी नहीं है सर छुपाने को और तुमसे फिर कहा जाए कि भजन गाओ तो तुमसे हो नहीं पाएगा। या आप यहाँ आकर के बैठे हैं और कहा जाए कि जब एक बजे, दो बजे (सत्संग) खत्म होगा तब उसके बाद रात का भोजन होगा, तो मामला ज़रा गड़बड़ हो जाएगा। पहले भोजन इत्यादि निपटा लें, पंद्रह-बीस मिनट पचा लें, उसके बाद बातचीत शुरू हो तो अच्छा लगता है। है न?

तो उस हद तक तो ठीक है, धन की एक सीमित उपयोगिता है। उसके आगे बताइए मुझे कि धन आपको मुक्ति कैसे दिला देगा? फिर कह रहा हूँ निर्धनता नहीं मुक्ति दिला देगी, कुतर्क मत करने लग जाइएगा कि एकदम गरीब हो गए तो ये और वो। मैं नहीं कह रहा हूँ कि आप एकदम गरीब हो जाएँ और पैसा सब जाकर जला आएँ कहीं।

कोई पर्सनल-जेट से आए अगर इस शिविर में, तो मेरी बात क्या ज़्यादा समझ लेगा? और आप भी सब लोग अलग-अलग साधनों से आए होंगे, सब की आर्थिक स्थिति भी अलग-अलग ही है। फ्लाइट (हवाई-जहाज़) से आए हुए भी लोग होंगे, ट्रैन (रेलगाड़ी) से आए हुए भी लोग होंगे, कोई दुपहिया से आया होगा, कोई चौपहिया से आया होगा, कोई आसपास का हो तो पता नहीं पैदल ही आ गया हो। तो जो बेचारे बस या ट्रैन में आए हैं, उनको फ्लाइट वालों से कम समझ में आ रहा है क्या?

हाँ, इतना होना चाहिए कि फ्लाइट ना सही, बस से तो आ जाओ। उतना ठीक है।

धन न बहुत सहायता करेगा, और न ही वो बहुत बड़ा अवरोध खड़ा कर सकता है। एक सीमा के बाद वो अप्रासंगिक है। एक सीमा तक उसकी उपयोगिता भी है। उसके बाद तो करोगे क्या उसका? है, चलो रखा हुआ है सामने, करोगे क्या?

तुम्हें ना शर्ट चाहिए, ना पैंट चाहिए, तुम कह रहे हो कि, "मैं तो आध्यात्मिक साधक हूँ मुझे तो मुक्ति चाहिए।" लो यहाँ पर रख दिया बहुत सारा (धन); खरीद लो मुक्ति! या जो भी चीजें तुम्हें चाहिए, धन से खरीद लो। हाँ, तुम्हें अभी शर्ट-पैंट मकान वगैरह चाहिए तो रुपया काम आ जाएगा।

धन के विषय में यही दृष्टि रखो — काम आ रहा है क्या? नहीं काम आ रहा, तो बोझ ही है।

जैसे मरने के बाद अपने साथ लेकर नहीं जाते, किसी और को सौंप जाते हो न? किसी और को क्यों सौंप जाते हो मरने के बाद अपना पैसा? ये क्यों नहीं कहते, "चिता में सब जला देना मेरे साथ ही"? क्यों नहीं? सब बैठे हो सब मरोगे, और सब मरते समय अपने बैंक अकाउंट में कुछ-न-कुछ छोड़कर जाओगे, है न? तो ये क्यों नहीं कहते कि, "अब मर रहा हूँ तो ये जो पैसा है इसको भस्म कर दो।" उसको किसी और के लिए छोड़कर क्यों जाते हो?

सीधा सवाल है पर जवाब दूर तक जाता है। समझो, क्यों किसी और के लिए छोड़कर जाते हो। तुम कहते हो, "उसके लिए छोड़ दो जिसके काम आएगा, मेरे तो काम नहीं आएगा न।" ठीक है। धन की यही बात है। धन उसके पास होना चाहिए जिसके काम आए, व्यर्थ अपने साथ बाँधे-बाँधे मत घूमो।

ये प्रश्न किया करो, "मेरे पास है तो कितना मेरे काम आ रहा है? कितना मेरे काम का है और कितना वो मेरा बोझ है?"

तुम्हारे काम का है तो निस्संदेह अपने साथ रखो, तुम्हारे काम का नहीं है तो किसी ऐसे को दे दो जो उसका सार्थक उपयोग कर लेगा। जैसे मरते वक्त अपने बेटे को दे जाते हो न, वैसे ही जीते-जी भी मरना सीखो।

कॉलेजों में कार्यक्रम चला करते थे — एचआईडीपी (समग्र वैयक्तिक विकास कार्यक्रम), तो, किसी कॉलेज के चेयरमैन का एक बार मेरे पास फोन आया। नाराज़ थे, बोले, "आपके लोग बार-बार फोन करते हैं, परेशान कर रहे हैं।"

मैंने कहा, "किस चीज़ के लिए फोन करते हैं, परेशान कर रहे हैं?"

बोले, "पेमेंट (भुगतान) के लिए। अरे! बड़े फोन आते हैं आपके यहाँ से।"

मैंने कहा, "जो तिथि तय हुई थी उसके पहले ही फोन आ गये क्या?"

बोले, "नहीं, तिथि तो बीत गयी तीन महीने पहले, पर उसके बाद भी फोन क्यों आ रहे हैं?"

मैंने उनको कहा, "मैं बताए देता हूँ फोन क्यों आ रहे हैं। फोन इसलिए आ रहे हैं क्योंकि वो पैसा आपके पास रहेगा तो आपकी बीवी की दुबई की शॉपिंग (खरीदारी) में इस्तेमाल होगा, और मेरे पास आएगा तो धर्म के प्रसार और प्रचार में इस्तेमाल होगा। इसलिए मैं चाहता हूँ कि वो पैसा आपके पास न रहे, मेरे पास आए।"

और ये बात सबको समझनी चाहिए। वो पैसा अगर आपके पास है तो उसका क्या इस्तेमाल होगा, और वो पैसा अगर आप धर्म को दोगे तो उसका क्या इस्तेमाल होगा?

उन्होंने फोन तो ये सोचकर किया होगा कि मैं कहूँगा, "अरे गलती हो गई, वो बेचारे अकाउंट्स वाले हैं उनको क्षमा कर दें। लड़के हैं, समझते नहीं।" उनको तो कुछ और ही जवाब मिल गया। बुरा ही लगा होगा, दुबई की बात कर दी, पत्नी की बात कर दी। और ये मैं भलीभाँति जानता था कि इनका और इनके पूरे परिवार का बड़ा शौक है कॉलेज के पैसे से दुबई में शॉपिंग करने का, तो बोल दिया। वो बात सब पर लागू होती है याद रखो।

वो धन जो तुम्हारे पास है या वो धन जिसकी तुम आकांक्षा कर रहे हो, क्या वो तुम्हारी मुक्ति के काम आएगा? अगर आ रहा हो तो तुम करोड़ों-अरबों रूपए कमाओ।

कभी ऐसा हो भी सकता है कि भई क्या पता अरब रुपए कमाकर ही मुक्ति मिलती हो। मिल रही हो तो यही कर लो। पर ईमानदारी से देखो अपने जीवन को और पता चले कि, "नहीं! जो मुझे चाहिए उसको पाने में पैसा इर्रिलिवेंट है, अप्रासंगिक है", तो काहे पैसे के लिए जान दे रहे हो?

ये ऐसी ही बात है कि क्रिकेट के मैदान में तुम एम्पायर से जाकर शिकायत करो कि फुटबॉल में हवा का दबाव थोड़ा ज़्यादा है। अरे! फुटबॉल में कुछ भी होगा, तुम खेल कौनसा खेल रहे हो? तुम क्रिकेट खेल रहे हो। क्रिकेट में फुटबॉल में प्रेशर कितना है इससे कोई फर्क पड़ता है क्या? पड़ता है?

तुम कह रहे हो, "नहीं, हमने नेट प्रैक्टिस में फुटबॉल खेली थी तो इसलिए फर्क पड़ता है।" इस वक्त जो खेल तुम खेल रहे हो उसमें फुटबॉल तुम्हारे लिए कुछ भी अर्थ रखती है क्या, बताओ? तो क्या तुम जाकर के एम्पायर से, मैच-रेफरी से शिकायत कर रहे हो और मन पर बोझ लेकर चल रहे हो कि फुटबॉल में हवा का दबाव थोड़ा ज़्यादा है। ठीक ये वैसी ही बात है कि मुक्ति का मैच खेल रहे हो और बात कर रहे हो पैसे की।

सवाल ये नहीं है कि तुम जो पूछ रहे हो उसका उत्तर क्या है; सवाल ये है कि तुम जो पूछ रहे हो, पूछ ही क्यों रहे हो? तुम चिकित्सक के पास जाओ, वो तुमसे कहे "बताइए रोग क्या है आपको?" और, तुम उसे फास्फोरस की वैलेंसी (संयोजकता) समझाओ — ये कहाँ की अक्ल है? वो तुमसे क्या पूछ रहा है? कि बताएँ अपने बारे में कुछ। और तुम उसे बता रहे हो कि हैलोजन्स कौन-कौनसे होते हैं। तुमने जो बताया वो गलत नहीं बताया, बस जो बताया वो अप्रासंगिक है।

अगर हम बातें गलत कर रहे होते, तो चेतना आसान होता। हम आमतौर पर गलत बातें नहीं करते, हम बस इर्रिलिवेंट बात करते हैं। बात सही होगी पर उस बात का मुक्ति से कोई ताल्लुक ही नहीं होगा; ये गलती होती है। "मैच का स्कोर क्या चल रहा है?" तुमने बिलकुल ठीक-ठीक बताया, पर बताओ इसका तुम्हारी मुक्ति से क्या ताल्लुक है?

बहुत सारी बातें हैं जो हमको बिलकुल ठीक-ठीक पता हैं, क्यों पता हैं? पता होनी ही नहीं चाहिए फिर भी पता हैं। व्यर्थ का ज्ञान!

साइबेरिया में पोलर-बियर का एक परिवार रहता है, बताओ उसमें मम्मी-भालू ने पापा-भालू से क्या कहा? मजेदार बात ये है कि तुममें से बहुतों को पता होगा, क्यों पता है? क्यों?

आर्टिफिशल इन्टैलिजेंश (कृत्रिम बुद्धिमत्ता) के साथ अब चलती है ऑग्मेंट रीयल्टी (संवर्धित वास्तविकता), 'एआई' और ' * एआर '। तो, एआर में जो अब नई करतूत आने जा रही है उसमें ये है कि तुम अपना कैमरा लोगे, किसी के भी चेहरे की ओर करोगे, कैमरा उसका चेहरा लेकर के एक बहुत बड़े डेटाबेस में भेज देगा और उसकी सारी जानकारी तुम्हें तत्क्षण मिल जाएगी। और इसको कहा जा रहा है — "वाह क्या बात है! वाह क्या बात है!"

भीड़ में चले जा रहे हैं, कोई अजनबी मिला, बस उसकी ओर कैमरा करना है, उसका सारा विवरण सामने आ जाएगा। आ तो जाएगा पर, क्यों चाहिए? करोगे क्या?

किसी मकान की ओर कैमरा करो, पूरा इतिहास आ जाएगा कि आज यहाँ ये इमारत है, इससे पहले कौनसी इमारत थी, अट्ठारह सौ सत्तर में यहाँ क्या था, सोलह-सौ-चालीस में यहाँ क्या था। जितना कुछ जाना जा सकता है, फीड किया जा सकता है, वो सब तुम्हारे सामने आ जाएगा। ये सब तुम क्यों जानना चाहते हो, बताओ?

भीड़ में जा रहे हो, कोई लड़की अच्छी लग गई, उसके मुँह की ओर कैमरा कर दिया तो उसकी आज की तस्वीर, दो साल पहले की, और पहले की, जन्म लेने की, किस अस्पताल में उसका जन्म हुआ था, कौनसी नर्स लगी थी, उसका जितना कुछ पब्लिकली अवेलेबल (सार्वजनिक रूप से उपलब्ध) जानकारी है, सब आ जाएगा। और, तुम बहुत खुश होगे।

किसी जानवर की ओर तुमने मुँह कर दिया, उस जानवर का पूरा इतिहास आ जाएगा — कौनसी प्रजाति का है, कहाँ से आया है, कहाँ नहीं आया। इस तरह की कुछ ऐप आ चुकी हैं और कुछ आने की तैयारी में हैं। अगले दो-चार-पाँच साल में देखना ये सब आ जाएँगी और लोग इनका इस्तेमाल भी कर रहे होंगे।

प्रश्न ये नहीं है कि उन्होंने तुमको जो जानकारी दी वो सही थी कि गलत थी, प्रश्न ये है कि तुम्हें वो जानकारी चाहिए ही क्यों? एक प्रतिशत लोग होंगे जो उस जानकारी का सार्थक उपयोग करेंगे, निन्यानवे प्रतिशत? व्यर्थ। दुरुपयोग नहीं भी कर रहे तुम उस जानकारी का, तो भी वो जानकारी कम-से-कम व्यर्थ तो है ही।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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