मुक्ति कैसे पाऊँ? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

Acharya Prashant

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मुक्ति कैसे पाऊँ? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

प्रश्न: सर, मुक्ति कैसे पाऊँ?

वक्ता: जो चीज नहीं है, उसे पाया जाता है। एक मोबाइल फोन नहीं है तुम्हारे पास, एक शर्ट नहीं है तुम्हारे पास, तुम बाज़ार जाओगे और उसे पाने की कोशिश करोगे। फोन ख़रीदना है, शर्ट ख़रीदनी है।

सत्य, मुक्ति, समझ, प्रेम और आनंद कहीं से पाए नहीं जाते। यह सब तुम्हें कोई बाहर वाला नहीं दे सकता। इसको ध्यान से समझना। ये तुम्हारा मूल स्वभाव है। इन्हें तुम बाहर कहाँ पाने जाओगे?

किस दुकान से सत्य खरीदोगे, किस किताब से तुम्हें सत्य मिल जाना है, किस गली में जाओगे कि आज यहाँ प्रेम मिल कर रहेगा? कहाँ जाओगे? किस लाइब्रेरी में बैठ कर समझ मिल जाएगी? ये बातें पाई नहीं जाती, ये हमारे पास होती ही हैं। ये हमारे पास होती ही हैं, ये कहना भी ठीक नहीं है। ये हम ही हैं ।

तुम मुक्त हो, बस तुमने मानना छोड़ दिया है।

श्रोता: सर, कैसे माना जाये ?

वक्ता: तुमने बस मान लिया था कि तुम गुलाम हो। वो मानना छोड़ दो ।

श्रोता: सर, कैसे?

वक्ता: अपने आप से पूछो। जिन भी मौकों पर तुम गुलामी की वकालत करते हो। अपने आप से पूछो उन मौकों पर। जैसे कि आज सुबह के सत्र में एक श्रोता ने कहा था कि सर इंजीनियरिंग तो करनी ही करनी है ना, मैं चाहूँ तो भी नहीं छोड़ सकता। मैं ये नहीं कह रहा कि छोड़ दो। मैंने कहा कि ऐसा क्यों है कि मान बैठे हो कि करनी ही करनी है। तब अचानक उसे समझ में आया कि और कुछ नहीं है कोई डर है। पहले वो इस बात को ऐसे माने बैठे था कि जैसे पेड़ पर फूल निकलते ही निकलते हैं, हवा है तो चलनी ही चलनी है, सूरज है तो उगना ही उगना है, ठीक उसी तरीके से मुझे इंजीनियरिंग करनी ही करनी है। मैंने जैसे ही उससे पूछा कि ध्यान से बताओ कि क्यों, तब उसकी समझ में आया कि इसका कोई वास्तविक कारण नहीं है। कोई प्रभाव है मेरे ऊपर, कोई डर है मेरे ऊपर। फिर शांत हो गया, भीतर देखने लगा कि बात क्या है। जिन भी मौकों पर दिखाई दे कि मैं तो गुलाम ही हूँ, पूछो अपने आप से कि ‘क्या सच में गुलाम हूँ या फिर ये गुलामी मैंने पकड़ रखी है? जैसे की मैं कहूँ कि ये माइक छूट नहीं रहा, कोई छुड़ाओ इस माइक को, ये माइक चिपक गया है मेरे हाथ से। और मैंने क्या किया हुआ है?

श्रोता: माइक पकड़ रखा है।

वक्ता: और पूरी दुनिया में ये दुहाई दे रहा हूँ की देखो! कितना अत्याचारी माइक है ये। मुझे पकड़ कर बैठ गया है और मेरा बड़ा शोषण कर रहा है। माइक मुझे पकड़ कर बैठ गया है या फिर मैं माइक को पकड़े बैठा हूँ? गुलामी तुम्हारे ऊपर हावी हो रही है या तुम गुलामी से चिपके हो? अब्दुल, छोड़ना चाहो तो आज छोड़ सकते हो। उसके लिए पहले तुम्हें अपने मन से बातचीत करनी होगी कि ये तूने जो इतनी कल्पनाएँ सजा रखी हैं ये क्या हैं? उसके लिए बड़ी ईमानदारी चाहिए। जो भी बड़ी ईमानदारी से अपने आप से पूछेगा कि मैं ये दिन रात एक ढर्रे पर चला जा रहा हूँ, चला जा रहा हूँ, ये मैं कर क्या रहा हूँ और क्या वास्तव में मैं इतना मजबूर हूँ कि ये करता रहूँ, उसको जवाब मिल जायेगा, अपने आप ही मिल जाएगा।

सच तुम्हारे भीतर ही बैठा है, जवाब दे देगा तुमको। पर अगर तुमने तय ही कर लिया कि ज़िन्दगी ढोंग में बितानी है, तुमने तय ही कर लिया है कि ज़िन्दगी झूठ में ही बितानी है, तो मैं ये ही दिखाऊँगा कि मैं कितना बेचारा हूँ। ‘अरे! ये अत्याचारी माइक छोड़ ही नहीं रहा, मुझसे चिपक गया है’। और पूरी दुनिया में मैं सहानुभूति लूँगा कि बाहर से मुझ पर गुलामी थोपी गयी है। अगर किसी ने यह ठान ही लिया है तो वो कभी मुक्त नहीं हो पाएगा। मुक्ति की कोई तकनीक नहीं है ।

मुक्ति का मतलब है ये जानना कि जितनी भी गुलामी है वो नकली है, मेरी ही बनाई हुई है ।

मेरी मर्ज़ी के बिना कोई मुझे गुलाम नहीं बना सकता। मेरी सहमति के बिना कोई मुझे गुलाम बना नहीं सकता क्योंकि असली गुलामी है मन की। कोई मेरे हाथ-पाँव बांध सकता है पर मैं गुलाम तभी हुआ जब मेरा मन कोई बांध ले। और मेरा मन सिर्फ मैंने बांधा है, कोई और नही बांध सकता। जो मन से मुक्त है, तुम उसे जेल में भी डाल दो तब भी वो मुक्त रहेगा। तुम उसके हाथ-पाँव ही तो बाँध रहे हो ना, उसका मन नहीं बांध पाओगे।

हमारी जितनी गुलामी है, वो मानसिक है। और ये मानसिक गुलामी हमने खुद पकड़ रखी है, इसमें कोई वास्तविकता नहीं है। तुम में से बहुत कम लोग होंगे जो इस बात को मान पा रहे होंगे। सर, वास्तविकता है, मेरी ऐसी परिस्तिथियाँ हैं जिनमें मुझे गुलाम रहना ही पड़ता है। और मैं तुमसे कहूँगा कि ठीक है, फिर से देखो, ध्यान से देखो कि क्या आवश्यक है कि तुम गुलाम रहो। अगर इमानदारी से देखोगे तो दिख जायेगा।

मुक्ति असली है और किसी भी प्रकार की गुलामी मात्र कल्पना। अगली बार जब भी मन बैठने लगे, डरने लगे, उस पर चारों तरफ से जकड़न आ जाए तो एक बात बोलना अपने आप से, “मन है, असली नहीं है, नकली है”।

जब भी डरो तो मन के सामने घुटने मत टेक देना। मन ही तो है। असलियत क्या है इसमें? बस मन ही तो है। इससे ये याद रखने में सहायता मिलेगी कि मुक्ति तुम्हारा स्वाभाव है, गुलामी तुम्हारी कल्पना।

-‘संवाद’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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