मुक्ति का पहला चरण - शरीर का सहज स्वीकार || आचार्य प्रशांत (2015)

Acharya Prashant

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मुक्ति का पहला चरण - शरीर का सहज स्वीकार || आचार्य प्रशांत (2015)

प्रश्न: आध्यात्मिकता का पशुता से क्या सम्बन्ध है? क्यों ऐसा है कि जितने भी आध्यात्मिक प्रतीक हैं, उनके साथ पशुओं की कहानियाँ भी बहुदा जुड़ी रहती हैं?

वक्ता: पशु, द्योतक होता है, शरीर का, देह का, प्रकृति का। पशु, देह का, शरीर का, प्रकृति का द्योतक होता है। जब मन, समाज और परम्परा द्वारा विकृत कर दिया जाता है, तब शरीर दुश्मन हो जाता है।

आप जो हैं, उस पर दो परतें चढ़ी रहती हैं। पहली, देह की। पशु उसी का द्योतक है। और दूसरी, मन की। उसको ऐसे भी कह सकते हैं कि पहली – वृत्ति की, और दूसरी – विचार की। जब मन सधा हुआ नहीं रहता, तब शरीर ही अपना वैरी हो जाता है। और शरीर के कारण इतने दुःख मिलते हैं, इतने दुःख मिलते हैं, कि आदमी यह तक कहने लगता है कि इससे भला तो ये है कि आत्महत्या कर लें।

असल में, जितनी भी बीमारियाँ हमें परेशान करती हैं, जिनको हम ‘मानसिक बीमारियाँ’ भी कह लेते हैं, उन सब की जड़ें तो शरीर में ही हैं ना? ‘काम’, ‘क्रोध’, ‘लोभ’, ‘मोह’, ‘मधु’, ‘मत्सर’ – ये सब शरीर के बिना थोड़ी हैं! ‘शरीर’ माने पदार्थ। पदार्थ न हो, तो लोभ किसका करोगे? पदार्थ न हो, तो भय किसका करोगे? पदार्थ न हो, तो कामना किसकी करोगे?

‘शरीर’ माने मस्तिष्क; मस्तिष्क से जो रसायन उत्सर्जित होते हैं, वो न हों, तो शरीर सम्बन्धी जो तुम्हारी गतिविधियाँ हैं, वो सब बदल ही जानी हैं, या रुक ही जानी हैं। आदमी यह सोचने लग जाता है कि दिक्क़त शरीर के साथ है। दिक्क़त शरीर के साथ नहीं होती है; दिक्क़त यह होती है कि मन, शरीर को सुधारने की कोशिश में, शरीर के खिलाफ़ खड़ा हो गया होता है। फिर से समझेंगें।

मन, शरीर को सुधारने की कोशिश में, शरीर के खिलाफ़ खड़ा हो गया होता है। और मन, शरीर के खिलाफ़ जब भी खड़ा होगा, नतीजा यही निकलेगा कि आपने अपने आप से ही दुश्मनी कर ली, आपने दुनिया से ही दुश्मनी कर ली।

अभी हम यहाँ जैसे बैठे हुए हैं। कपड़ों का एक काम यह हो सकता है कि वो आपको सुविधा दें। और दूसरा, यह हो सकता है कि समाज आपके मन में देह के प्रति इतना अपराध-भाव भर दे, कि आप कपड़े को इस्तेमाल करने लग जाएँ, अपनी ग्लानि को छिपाने के माध्यम की तरह। अब आपकी देह, आपके लिये, दुश्मन की तरह है, जिसे आप एक सामाजिक चादर के द्वारा छिपा रहे हैं।

समझ रहे हो?

जब बात आती है महावीर की, या संत फ्रांसिस की, इन्होंने पहला काम ये किया होता है, कि वह अपने शरीर के मित्र हो गये होते हैं। समाज ने जो सीख दे रखी होती है, कि शरीर वैरी है, संत सबसे पहले तो इस सीख से पीछा छुड़ाता है। ऐसा नहीं है कि वो बाकी सीखें रख लेता है, और इस एक सीख को छोड़ देता है। वो सबसे पहले इस सीख से पीछा छुड़ाता है कि तुम जो कुछ भी हो, शारीरिक रूप से, उसमें कोई दोष है, उसमें कोई ग्लानि है, कोई अभाव है। ये आध्यात्मिकता की पहली सीढ़ी है।

संतों का पशुओं के साथ सहज हो जाना, बस इतना ही दिखाता है कि वो अपने शरीर के साथ सहज हो गये हैं। ये आध्यात्मिक आदमी का पहला, न्यूनतम लक्षण है। जो आदमी अपने शरीर को लेकर ही ओहापोह में रहता हो, वो कहीं से आध्यात्मिक नहीं हो सकता।

आपने देखा होगा कि लोग कितनी कयावद करते हैं, कि अपना रंग बदल लें, कि तन की जो भी प्राकृतिक गंध है, उसे किसी तरीके से दबा दें। ये सब यही बताता है कि आपकी आपके शरीर से कोई मैत्री नहीं है।

शरीर की जो नैसर्गिक गतिविधियाँ हैं, उनको लेकर के, बच्चे के मन में, बहुदा, कितना क्षोभ का भाव डाल दिया जाता है। संत का पहला काम ये होता है, कि इस प्रकार की सामजिक सीख, से वो पीछा छुड़ा लेता है। उसको अब प्रकृति से कोई बैर नहीं रहा।

समाज आपको प्रकृति से बैर सिखाता है। समाज चाहता तो यही था कि आप प्रकृति से ऊँचे उठें, पर समाज की रचना की है मन ने, और मन की दुनिया में ‘ऊँचे उठने’ जैसा कुछ नहीं होता। मन की दुनिया में इतना ही होता है कि कुछ अगर ठीक नहीं लग रहा, तो उसका जो द्वैत विपरीत है, वहाँ चले जाओ।

मन की दुनिया में अगर काला ठीक न लग रहा हो, तो आपके पास ये विकल्प नहीं होता कि आप काले से ऊपर उठ जाओ, वहाँ आपके पास बस इतना विकल्प होता है, कि काला ठीक नहीं लग रहा, तो सफ़ेद पर चले जाओ।

तो प्रकृति में कुछ, यदि मन को जंच नहीं रहा होता है, तो वो ये नहीं कर पाता कि प्रकृति से ऊपर उठ जाये। वो बस इतना ही कर पाता है कि, प्रकृति के विरुद्ध नफ़रत पाल ले। हम जिसको ‘सभ्यता’ कहते हैं, वो और कुछ नहीं है, वो प्रकृति से नफ़रत करने की शिक्षा है। और जिसने प्रकृति से जितनी नफ़रत पाल ली होती है, हम उसको उतना ही ‘सभ्य’ और ‘सुसंस्कृत’ कहते हैं।

संत, पहले तो, सभ्यता और संस्कृति को पीछे छोड़ता है। जिसने सभ्यता और संस्कृति को पीछे छोड़ दिया, वो प्रकृति के करीब आ जायेगा। यही कारण है कि बुद्ध को बुद्धत्व बाद में प्राप्त होता है, लेकिन सभ्यता और संस्कृति को वो पहले ही छोड़ देते हैं। बुद्ध का महल छोड़ कर के, जंगल में जाना, उसी बात का प्रतीक है। ‘महल’, समाज का प्रतीक है। तो आध्यात्म की ओर पहला कदम यही था, कि समाज को छोड़ कर प्रकृति के पास गये।

संत यही करता है, पहला कदम वो यही लेता है। “*समाज को छोडूँगा, प्रकृति के पास जाऊँगा*। मन को छोडूँगा, शरीर के पास जाऊँगा।” वो ये नहीं कहेगा कि, “खाना तब खाऊँगा जब मन कहेगा”। संत वो जो कहे, “खाना तब खाऊँगा, जब शरीर कहेगा”। अंतर समझियेगा इन दोनों बातों में।

अगर आप खाना तब खाते हैं, जब मन कहता है, तो आप समाज के गुलाम हैं क्योंकि मन तो समाज से ही आया है। और आगर आप खाना तब खाते हैं, जब मन कहता है, तो आप हमेशा बीमार रहेंगे। संत वो, जो खाना तब खाता हो, जब शरीर कहता हो। और उतना ही खाता हो, जितना शरीर को चाहिये, मन को नहीं। हम शरीर के लिये नहीं खाते, हम किसके लिये खाते हैं? हम मन के लिये खाते हैं।

संत वो, जिसने मन के लिये खाना छोड़ दिया। संत वो, जिसने समाज के कहे पर चलना छोड़ दिया। बुद्ध का महल को छोड़ के, जंगल में जाना, वो वही है, कि आत्मा पर जो दो परतें पड़ी हैं, उनमें से सबसे ऊपर वाली परत का हट जाना।

सबसे ऊपर वाली परत होती है – सामजिक शिक्षा की। बुद्ध जिस क्षण जंगल में गये, उस क्षण उन्होंने वो सब छोड़ दिया, जो उन्हें सभ्यता, संस्कृति और समाज ने सिखाया था। उन्होंने वो सारी शिक्षा त्यागी। अभी उन्हें सत्य नहीं मिल गया, लेकिन समाज ज़रुर छूट गया। सत्य और समाज के बीच में एक परत अभी बची हुई है। वो कौन सी परत है? प्रकृति की।

सत्य यदि केंद्र में है, सत्य यदि आत्मा है, तो अभी एक कोष बीच में बाकी है। ‘अहम् वृत्ति’ अभी बाकी है, जड़ अभी बाकी है। लेकिन जड़ से निकलता हुआ बाकी सारा जंगल वो छोड़ गये, समाज को छोड़ गये। इसमें जो सीख है हमारे लिये, वो बहुत महत्त्वपूर्ण है, उसको बिल्कुल समझें।

जो भी मसले शरीर के हैं, उनको शरीर का ही रहने दें, उनको सामाजिक न बना दें। पर हम बड़े होशियार लोग हैं। हम शरीर के मसलो को सामाजिक तो बनाते ही बनाते हैं, कई बार उन्हें आध्यात्मिक भी बना देते हैं। एक उदाहण अभी हमने लिया ही था – खाना खाना, या पानी पीना, शरीर का मसला है। उसे शरीर का ही मसला रहने दीजिये। उसको सामाजिक मत बना दीजिये।

आध्यात्मिक आदमी पहला काम ये करता है कि अव्रती हो जाता है। हिन्दुओं में व्रतों की बड़ी परम्परा है। और अष्टावक्र, जनक से एक बड़ी महत्त्वपूर्ण बात कहते हैं। वह कहते हैं, “अव्रती हो जा। जो अभी व्रतों का पालन करता हो, वो आध्यात्मिक हो ही नहीं सकता।”

‘अव्रती’ का मतलब समझते हैं? कि वो संकल्प ले कर अब कुछ नहीं करता, वो व्रत ले कर अब कुछ नहीं करता। वो पहले से योजना बना कर, अब कुछ नहीं करता। वो ये तय कर के नहीं रखता कि, “अब फ़लाना दिन आ रहा है, उस दिन खाना नहीं खायेंगे”। खाना नहीं ही खाना है, तो आज मत खाओ! तो, संत वो, जिसने शरीर को ‘शरीर’ जान लिया, मन को ‘मन’ जान लिया और आध्यात्म को ‘आध्यात्म’ जान लिया। वो तीनों को मिला नहीं देता है। अब उसको शरीर से कोई विरोध, कोई द्वेष नहीं है।

आज अगर आदमी प्रकृति के प्रति इतना हिंसक है, पेड़-पौधों के प्रति इतना हिंसक है, जानवरों के प्रति इतना हिंसक है, तो उसकी वजह ये है कि वो अपने शरीर के प्रति भी बहुत हिंसक है।

एक स्त्री जा रही होगी, उसने कोट पहन रखा होगा खरगोशों के बालों का, ये वही स्त्री है, जो पार्लर जा कर के अपने भी बाल नुचवाती है। अपने पूरे जिस्म के बाल, अपने भों के बाल, सिर के बाल नुचवाती है। ठीक जैसे उसका अपने शरीर से विरोध है, वैसे ही उसका उस मासूम खरगोश से भी विरोध है।

क्योंकि तुम अपने शरीर के बालों को नुचवाने में ज़रा भी हिचकते नहीं हो, इसीलिये खरगोश के नुचे हए बालों का कोट पहनने में भी तुम्हें ज़रा भी तकलीफ नहीं होती है। जो अपने शरीर के साथ संधि कर लेगा, मैत्री कर लेगा, उसके लिये अब ये संभव नहीं रहेगा कि वो किसी जानवर के प्रति हिंसक हो सके। समझ रहे हैं?

लेकिन हमने शरीर को खूब दबाया है, खूब दबाया है। और वो हमारे बारे में इतना ही बताता है, कि हम सामाजिक गुलामी के नीचे खूब दबे हुए हैं। आप शरीर को जितना दबाओगे, आप समाज के जितने गुलाम रहोगे, आप अस्तित्व के प्रति उतने ही हिंसक रहोगे, गहरी हिंसा से भरे रहोगे। क्योंकि ‘अस्तित्व’ क्या है? अस्तित्व में तो सब कुछ देह है। आपको अपनी ही देह पसंद नहीं, तो अस्तित्व में तो चारों तरफ़ देह ही देह हैं। पहाड़ भी देह हैं, नदी भी देह है, तारे भी देह हैं, पक्षी भी देह हैं, पशु भी देह हैं – सब देह हैं। आपको अपनी ही देह से इनकार है, आपको उनकी देह से प्रेम कैसे हो जायेगा?

देखते हो ना, शिव यदि गले में साँप लिये रहते हैं और अगल-बगल भी एक-आद-दो जानवर बैठाये रहते हैं, तो साथ ही साथ वो नग्न भी रहते हैं, इसीलिये इतने जानवरों को बैठा पाते हैं। तुम ये कल्पना भी नहीं कर सकते कि कोई खूब सजा-संवरा आदमी हो, और उसने अपने उपर साँप-बिच्छु चढ़ा रखे हों। शिव अपने ऊपर साँप-बिच्छु इसलिये चढ़ा पाते हैं, क्योंकि उन्हें अपनी देह से कोई समस्या नहीं रही। नंगे बैठे हैं। अधिक से अधिक एक छाल डाल ली है।

जिसे अब सजना-संवरना नहीं है, जिसे अब बार-बार आईने में अपनी शक्ल नहीं देखनी है, जिसे बार-बार जा कर अपने चेहरे का रंग-रोगन नहीं कराना है, सिर्फ़ वही है, जो अब साँप के साथ भी सहज हो कर जी सकता है – शंकर उसी का प्रतीक हैं। पर जिसको अपने होंठों के रंग से ही दुश्मनी हो, कि हम लिप्स्टिक लगायेंगें; कभी सुना है कि शंकर दिन में तीन बार नहा रहें हैं? उन्हें कोई समस्या नहीं है! इसी कारण उनका नाम ‘पशुपति’ भी है।

वो ‘पति’ इस अर्थ में नहीं हैं, कि स्वामी हैं। ‘पति’ इस अर्थ में हैं कि प्यारे हैं। वो बैल बैठा हुआ है, नन्दी, और इधर-उधर के और भूत-प्रेत सब अपना आकर के बैठें हैं, कोई दिक्कत नहीं। और यही अगर शंकर, रोज़ एक घंटा गुसलखाने में लगाते हो, तो बैठेंने देंगे, कि भूत और प्रेत उनपर आकर के भभूत गिरा कर चले जायें?

बड़ी विचित्र दुनिया है, लोग अपने आप को शिव-भक्त भी बोलते हैं और एक घंटा नहा भी लेते हैं। कैसे? ये चमत्कार कैसे कर लेती हैं देवियाँ? कैसे? हमने तो नहीं देखा कि शिव बड़ी सफ़ाई से रहते हैं। पर जो सफ़ाई का अनन्य प्रतीक है, गंगा, वो शिव से ही निकलती है! तुम अपने पाप धोने गंगा में जाते हो, शिव कभी गंगा में नहीं नहाते, वो कहीं नहीं नहाते। हाँ, उनसे गंगा निकलती है, उस गंगा में नहा कर, तुम ज़रुर साफ़ हो जाते हो। शिव सहज हैं, तुम असहज हो। तुम्हें अपने होने को लेकर ही बड़ी पीड़ा है।

तुम्हें बता दिया गया है, कि तुम जैसे हो, तुममें कोई बड़ी खोट है। और तुमने यही दुर्भावना, चारों ओर फैला भी दी है। महावीर अगर अपने वस्त्र त्याग देतें हैं, तो इसलिये नहीं कि वो कोई बहुत बड़ा सन्देश देना चाहते हैं दुनिया को। बस इतनी सी बात है, कि उन्हें अपने ‘होने’ में आनंद आने लग गया है। “अरे, कौन ढोये इतने कपड़े? कौन ढोये?” उन्हें अपने शरीर के साथ कोई बैर नहीं रहा।

और जब आपको अपने शरीर के साथ बैर नहीं होता तो काँटा भी नहीं चाहता है कि आपके पाँव में चुभे, क्योंकि काँटा ठीक वही प्रकृति है, जो आपका शरीर है। जो प्रतीक है उसको समझिये। आपका शरीर ही चुभता था, आपको काँटें कि तरह। आपका शरीर ही, शूल बनके, आपके मन में चुभा बैठा था। अब वो काँटा आपको चुभता नहीं।

तो महावीर की जो कहानी है, कि काँटें उन्हें चुभते नहीं थे, उसका अर्थ यही है कि शरीर-रूपी ‘काँटा’ अब निकल गया उनके ज़हन से; वो एक हैं अस्तित्व के साथ। जैसे कौआ उड़ता है बिना कपड़े के, कि लोमड़ी घुमती है बिना कपड़े के, वैसे ही महावीर भी हैं। पेड़ की तरह हैं, नदी की तरह हैं; निर्वस्त्र।

और ये, मैं आपसे कह रहा हूँ, कि न्यूनतम आवश्यकता है। जो अपने शरीर के साथ सहज नहीं हो पाया, वो आध्यात्मिक तो नहीं ही हो पायेगा, समाज का गुलाम रहेगा। और जब आप समाज के गुलाम होते हैं, तो आपका आपके शरीर से बड़ा असहज रिश्ता होता है, बड़ा टेढ़ा, तिरछा, खुरदरा रिश्ता होता है।

फिर शरीर आपको एक तरफ़ खींचता है, समाज आपको एक तरफ़ खींचता है, और आप ग्लानि में मरे जाते हैं। फिर आप, शरीर की जो सहज आकांक्षाएँ होती हैं, उन्हें दबाने की कोशिश करते हैं, और जितना दबातें हैं, वो उतना भड़कती है, और उतना आप ग्लानि में और डूबते जाते है।

ओर फिर आप कहते हैं, “क्या बताएँ, शरीर काबू में नहीं आता। तमाम तरीके की कोशिशें कर के देख लीं, पर मूलाधार से ऊपर हमारी प्रगति हो ही नहीं रही। ‘राम-राम’ करने बैठेते हैं, और ‘काम-काम’ पर अटक जाते हैं।”

तुम ‘काम-काम’ पर अटक ही इसलिये गये हो, क्योंकि ‘काम’ को तुमने दुश्मन बना लिया है। तुम उसे दुश्मन मत बनाओ, वो नहीं आयेगा तुम पर आक्रमण करने! और तुम उसे दुश्मन बनाते हो पहले, हज़ार तरीके की बंदिशें लगा के, और फिर रोते हो, चिल्लाते हो, “उफ़! ये तो जीने नहीं देता।”

ये कोई संयोग नहीं है कि संतों के शरीर भी बड़े सुन्दर चित्रित किये गये हैं। कुछ एक को छोड़ दें, जिनको किसी उद्देश्य से ही आड़ा-तिरछा निरूपित किया गया है, तो बाकियों को आप देखें, तो बड़े खूबसूरत होते हैं। आप बुद्ध का शरीर देखें, आप महावीर का शरीर देखें, आप कृष्ण का शरीर देखें, आप राम का शरीर देखें, आप जीसस का शरीर देखें।

शरीर का सुंदर होना यही बताता है कि, जैसे वो सुन्दर, वैसे ही उनका शरीर सुन्दर। शरीर से कोई समस्या नहीं है उनको। और शरीर उनका इसलिये नहीं सुन्दर है, कि वो शरीर का रंग-रोगन करते थे। उनके शरीर से कुदरती ‘आभा’ निकलती है।

आप देखिये जीसस को – बिखरे हुए बाल, चेहरे पर धूल, कृशकाय शरीर, पर चेहरे पर क्या तेज़ है, नूर है! वहाँ, शरीर का सहज स्वीकार है। ये वो आदमी थोड़ी है, जो अपने आप को तड़पाता है। आपको लगता है कि जीसस अपने शरीर को ले कर दुविधा में रहते होंगे?

यहाँ तो, समाज का, शरीर पर इस हद तक वर्चस्व है, कि अगर प्राकृतिक वायु भी उत्सर्जित करनी है, तो आपके लिये जीवन-मरण का प्रश्न हो जाता है, ख़ासतौर पर अगर दो-चार लोग बैठे हों।

(सभी श्रोता हँसतें हैं )

ये बात चुटकुले से आगे की है। समाज ऐसा चढ़ के मन पर बैठा हुआ है, कि शरीर से दुश्मनी हो गयी है। भले आंतें फट जायें अंदर, वो मंज़ूर है। और अगर कोई यहाँ पर ऐसा हो जो खुले-आम घोषणा कर दे, तो देखिये कैसी नज़रें उठेंगी उसकी ओर।

(सभी श्रोता हँसतें हैं )

देखिये, दुनिया भर के संविधानों में इसका निषेध है। ये देख रहे हो, ये क्या है? समझो इसको। ये शरीर से हमारा बैर है, शरीर से हमारा बैर है। संत शरीर से बैर त्याग देता है। देखो कि किन-किन रूपों में शरीर को लेकर तुम्हारे मन में, ग्लानि की भावना भरी गयी है। जहाँ कहीं उसको पकड़ पाओ, उसको तुरंत छोड़ दो, तुरंत छोड़ दो।

मैं जो बार-बार बोलता हूँ, कि किसी भी प्रकार के सौन्दर्य-प्रसाधनों से बचो, वो यही है। मैं जो बार-बार बोलता हूँ कि कपड़े बदलना अच्छी बात है, लेकिन यह आदत मत बना लो कि रोज़ कपड़े बदलने ही हैं। कपड़े गंदे हो गये हैं, बड़ी बांस आती है, तो बदल लो। नहीं तो क्यों ज़रुरी है? क्यों ज़रुरी है? कपड़े धोने में व्यर्थ पानी जाता है, व्यर्थ साबुन लगता है, तुम मशीन चलाते होगे। क्यों बदलने हैं रोज़ कपड़े? तुम्हें कपड़ो को लेकर के जो असुविधा है, वो वास्तव में तुम्हारी अपने शरीर से असुविधा है।

तुम्हारा शरीर माँग कर रहा है, तो दिन में एक बार नहीं, तीन बार नहाओ, पर मौसम यदि अनुकूल है। शरीर माँग नहीं कर रहा है, तो क्यों ये नियम है कि तुम्हें रोज़ शरीर को…? ये सिर्फ़ यही बताता है कि तुम्हें चैन नहीं है शरीर के साथ। मैं फिर कह रहा हूँ – जिसे शरीर के साथ चैन नहीं है, उसे अस्तित्व में किसी चीज़ के साथ चैन नहीं हो सकता क्योंकि अस्तित्व में सब कुछ ‘शरीर’ ही है।

शरीर जानता है। वो जानता है कि उसे कब खाना है। तुम्हें नियम बनाने की ज़रूरत नहीं है कि, “इतने बजे खाऊँगा।” जब मन नहीं था, शरीर तब भी था। विचार बाद में आयें हैं, शरीर पहले था। उसकी अपने इंटेलिजेंस (समझ) है। वो जनता है, वो माँग लेगा जब उसे खाना होगा। तुम्हारे नियमों की उसे आवश्यकता नहीं है।

तुम्हारे शरीर में जो कुछ हो रहा है, वो तुम्हारे विचारों के कारण नहीं हो रहा है। तुम नहीं सोचो, तो क्या ह्रदय धड़केगा नहीं? और तुम्हारे शरीर में प्रतिपल जो कुछ घटनायें चल रहीं हैं, वो क्या इसलिये चल रहीं हैं कि तुम उनका विचार करते हो? तो विचारों को शरीर से दूर रखो, वो जानता है उसे क्या करना है। और अगर ये नहीं करोगे, तो नतीजा ये निकलेगा कि जीवन में शरीर ही शरीर भर जायेगा। फिर सब कुछ शरीर ही शरीर हो जाना है।

जो खूब उपवास रखते हैं, उन्हें सपने भी रसगुल्लों के ही आते हैं। शरीर ही शरीर भर जायेगा। ये जो तथाकथित ब्रह्मचारी होते हैं, इनसे ज़्यादा नारियों का विचार कोई ही करता होगा। तुम लोग जब *आत्म*–स्मरण शिविर में गये थे, तो याद है मैं बोलता था कि, “तुम्हें सत्र आज का बहुत अच्छा लगा ना? उसकी वजह बस इतनी है, कि आज का खाना अच्छा था?”

क्योंकि तुमने शरीर को निर्ममता से दबाया है, इसीलिये शरीर तुम पर बिल्कुल चढ़ आया है। अब तुम्हारा एक-एक संवेग शरीर द्वारा ही निर्धारित होता है, और तुम्हें पता भी नहीं लगता।

(वक्ता ए.सी. चलवाने के लिए इशारा करते हैं )

ये ऐ.सी. मैंने क्यों चलवाया है? ताकि तुम्हें मेरी बातें अच्छी लगने लगें। (हँसते हुए ) जैसे ही माथे का पसीना सूखेगा, तुम आध्यात्मिक हो जाओगे। और अगर पसीना थोड़ा और बढ़ आयेगा, तो तुम कहोगे, “ये बातें कुछ रुच नहीं रहीं हैं।” फिर शरीर ही शरीर रह जाता है। फिर तुम्हारा प्रेम भी, शरीर ही निर्धारित करता है।

अब इतना दबाया है शरीर को, कि कामवासना उमड़ रही है। वो जिधर को भी प्रवाहित हो जाती है, तुम कहते हो, “ये हमारा प्रेमी है”। और वो कुछ भी नहीं है, शरीर की माँग है। पर तुम उसे कहोगे, “ये प्रेमी है मेरा।” ये तुम्हारे साथ सिर्फ़ इसीलिये हो रहा है, क्योंकि तुमने प्रेम के लिये जगह कहाँ छोड़ी। सारी उर्जा तो तुमने शरीर के दमन में लगा दी। तो शरीर ने अब ऐसा विस्तार लिया है, कि वो प्रेम पर भी चढ़ आया है।

एक बात मैंने की, ‘आनंद’ की, कि मैं कुछ बोल रहा हूँ, वो सुनने में अगर तुम्हें आनंद आ रहा है, तो इसका मतलब यह है कि आज तुम्हारा पेट ठीक है। और अब मैं दूसरी बात कर रहा हूँ, प्रेम की। कोई तुम्हें अगर बहुत प्यारा लग रहा है, तो उसका अर्थ बस इतना ही है कि तुम्हारी कामवासना उसे देख कर तृप्त हो रही है। फिर तुम बोलते हो, “ये मुझे बड़ा प्यारा लगता है।” जब शरीर से संधि रहती है, तब प्रेम, ‘प्रेम’ होता है, वासना नहीं। जब शरीर से संधि रहती है तब आनंद, ‘आनंद’ होता है।

बुद्ध प्रेम कर सकते हैं, महावीर प्रेम कर सकते हैं, सामाजिक आदमी प्रेम थोड़ी कर पायेगा! उसने तो शरीर का दमन करा है। तो अब प्रेम के नाम पर, उस दमन से मुक्ति चाहेगा, बस।

बड़ी मज़ेदार बात है, भारत में आध्यात्म का जो स्वर्ण युग था, वो, वो समय भी था, जब भारत में कपड़े बस उतने पहने जाते थे, जितने शरीर के लिये आवश्यक थे। बस उतने पहने जाते थे! पाँचवी-छठी शताब्दी तक, भी ये बड़ी साधारण-सी बात थी कि पुरुष ही नहीं, स्त्रियाँ भी कमर के ऊपर कुछ पहने बिना घूम रही हैं। क्योंकि भारत गर्म देश है, यहाँ कोई तुक नहीं बनता कि तुम बहुत सारे कपड़े डाल के घूम रहे हो।

और फिर, कुछ ही शताब्दियों के भीतर, इसी भारत देश में ‘घूंघट’ चलने लग गया। और फिर घोर पतन हुआ है भारत का। ‘घूंघट’ और उस घोर पतन में बड़ा गहरा रिश्ता है। जो भारत, हर प्रकार से उन्नत था – आध्यात्मिक रूप से, भौतिक रूप से – वो भारत शरीर के साथ भी बड़ा सहज था। और जिस भारत में घूंघट और पर्दा चलने लग गया, उस भारत की हर प्रकार से अवनति हुई।

मैं फिर कह रहा हूँ: जो शरीर को दबायेगा, शरीर उसके ऊपर छा जायेगा। उसके रेशे-रेशे से, बस शरीर आवाज़ देगा, क्योंकि शरीर को तुम दबा सकते नहीं। फिर शरीर इधर से, उधर से, हज़ार तिकड़में कर के, अपने आप को अभिव्यक्त करेगा। जो जगह शरीर को नहीं लेनी चाहिये, उस जगह पर भी शरीर जा कर के बैठ जायेगा।

शरीर तुम्हारी पूजा भी बन जायेगा, शरीर तुम्हारा प्रेम बन जायेगा, यहाँ तक कि तुम्हारा मोक्ष भी शरीर बन जायेगा। जिन्होंने शरीर को खूब दबाया होता है, वो जब मोक्ष की भी कल्पना करते हैं, तो यही सोचते हैं कि हम ऐसे ही कहीं और अवतरित हो जायेंगे। हमें मोक्ष मिल गया, अब हम ऐसे ही किसी और लोक में पहुँच जायेंगे, सशरीर।

शरीर से मुक्ति चाहते हो, तो शरीर को ‘शरीर’ रहने दो। जिन्हें शरीर से मुक्ति चाहिये हो, वो शरीर के दमन का प्रयास बिल्कुल न करें। जिन्हें शरीर से ऊपर उठना हो, वो शरीर से दोस्ती करें। शरीर से डरें नहीं, घबरायें नहीं।

श्रोता १ : सर, ‘शरीर के दमन’ का अर्थ क्या है? ‘दमन’ किस तरह का?

वक्ता: बहुत छोटी-छोटी बातें हैं। किसी को ये कह देना कि “भूख में कुछ ओछा है,” ये शरीर का दमन है। किसी को ये कह देना कि, “काम में कोई पाप है,” ये शरीर का दमन है। बहुत छोटी बातें। किसी को ये कह देना कि, “नींद बड़ा ग्रहित कृत्य हो गया,” बस यही है ‘दमन’।

श्रोता १ : मुझे अगर चौबीसों घंटे नींद आती है, तो?

वक्ता: तुम्हें चौबीसों घंटे नींद इसीलिये आती है क्योंकि, जैसे मैंने कहा, जब शरीर का दमन होता है, तो शरीर तुम्हारे पूरे जीवन पर छा जाता है। शरीर के साथ संधि नहीं है। कहीं ना कहीं, मन में, ये भावना, ये संस्कार, बैठा हुआ है कि, शरीर अपराध है। जिसने शरीर को स्वीकार कर लिया, उसे इतनी नींद आ ही नहीं सकती। क्योंकि उसे जब आयेगी, तो वो भर-पेट सोयेगा।

और जो भर-पेट सो रहा है, वो एक सीमा से ज़्यादा नहीं सो सकता। जो भर पेट सो रहा है, वो गहरी नींद सोयेगा, एक सीमा से ज़्यादा नहीं सो सकता। सात घंटे सो लेगा, आठ घंटे सो लेगा, उसके बाद वो उठ ही जायेगा। अगर कोई सोलह घंटे सो रहा है, तो बात पक्की है कि वो ज़रा भी नहीं सो रहा। क्योंकि वो ज़रा भी नहीं सो रहा, इसीलिये नींद अब उसके चौबीसों घंटे पर छा चुकी है।

श्रोता १: तो वो कर क्या रहा है, इन सोलह घंटे में?

वक्ता: कुछ ऐसा है, जो उसको यह सन्देश दे रहा है कि – सोना गलत है, कि – सोने में कोई पाप है। अब ये सन्देश गलत है। पाप सोने में नहीं है, पाप पूरी तरह न जगने में है। पर आप ये अपने आप से कहोगे नहीं कि, “मेरा दोष ये है कि जब मैं जगा होता हूँ, तब भी मैं पूरी तरह जगा नहीं होता”। आप ये कहोगे, “सो गया था, ये भूल हो गयी।” भूल ये नहीं थी, कि तुम सो गये। भूल ये थी, जब जगे हुए थे, तब कल्पनाओं में थे।

आपको जगने के १६ घंटे मिले, आपने इन १६ घंटो को बर्बाद करा, क्योंकि आपका मन ध्यानी नहीं है। आपने इन १६ घंटो को क्या किया?

श्रोत १: बर्बाद।

वक्ता: अब सोने का समय आया, तो आपके मन में क्या आई? ग्लानि। “मैं सो कैसे जाऊँ? मैंने वो सोलह घंटे तो बर्बाद कर दिये”। अब आप सो सकते नहीं, और जब आप सो नहीं सकते हो, तो नींद आपके चौबीसों घंटों पर छा जायेगी।

तो मूल कारण ये है कि, जागृति के सोलह घंटों में, आपका मन छितराया हुआ था। पर आप ये स्वीकार नहीं करोगे। आप कहोगे क्या? “वो ज़रा कम सो लें, तो ठीक रहेगा।” कम सोने की ज़रूरत नहीं है, ज़्यादा जगने की ज़रूरत है। मैं कह रहा हूँ – पूरा जगो, और जी-भर के सोओ।

तुम्हारा क्या ढर्रा है? ना जगेंगे, ना सोयेंगे। नतीजा? एक उनींदी सी, बेहोशी की सी हालत, चौबिसों घंटे बनी रहेगी। जो ना जागृति है, ना सुषुप्ति है, न स्वप्न है; त्रिशंकु-सी हालत है। जागते हुए सोये हैं, सोते हुए जगे हैं, बीच-बीच में स्वप्न भी ले लेते हैं।

जब जगो, तो पुरे जगो। जब सोओ, तो फिर पूरे सो जाओ।

वक्त १: वैसे ही, अगर खाने की बात करें, तो अगर ऐसा हो रहा है कि मेरे सामने केला है और मेरे सामने एक रोल है। विचार ही चुनाव कर रहा है कि केला शरीर के लिये अच्छा है, तो मैं केला खा रहा हूँ। तो क्या वो चीज़ गलत है?

वक्ता: नहीं, गलत कुछ नहीं है। बस इतनी-सी बात है, कि जब तक तुम फल इस कारण से खाओगे, कि विचार कह रहा है कि, “फल खाओ,” तब तक रोल खाने का दमन भी विचार ने ही करवाया है। सहज स्वास्थय तब उपलब्ध हुआ, जब बिना विचार के ही तुम्हारा हाथ फल की ओर बढ़ जाये। समझ रहे हो ना बात को?

सहज स्वास्थय तब उपलब्ध हुआ, जब तुम्हें सोचना ना पड़े, कि “केला खाऊँ, या सैंडविच खाऊँ?” अगर सोच-सोच के केला खा रहे हो, तो कुछ ही दिनों में केला छूट जायेगा। सोच-सोच कर केला खा रहे हो, तो केला बहुत दिन चलेगा नहीं।

श्रोता २: एक्सर्साइज़ (व्यायाम) के साथ भी यही है।

वक्ता: हर चीज़ के साथ यही है। बात आत्मा से निकले, विचार से नहीं।

श्रोता ३: सर, जैसे हमें लेक्चर लेना होता है, और सुबह भूख नहीं लगी हुई। पर काम ही ऐसा है कि अगर हमने सुबह नहीं खाया, तो फिर बिल्कुल समय नहीं मिलेगा। और अब ये भी होता है कि अगर सुबह एक साथ भर-पेट नहीं खाया, तो शाम तक आपको बार-बार, बीच में, बाहर जाना पड़ेगा। उस चीज़ से बचने के लिये आप एक साथ खाते हो, पर पता लगता है कि आपने ज़्यादा खा लिया है। और ये ठीक नहीं है। उससे दिक्क़त होती है। और एक दूसरी दिक्क़त ये होती है कि, जिस समय भूख नहीं होती है, उस समय खाना पड़ता है।

वक्ता: मैं एक बात पूछना चाहता हूँ। सिर्फ़ खाते ही ज़्यादा हो, सिर्फ़ खाते ही असंतुलन में हो, या सब कुछ ही असंतुलित है जीवन में? ईमानदारी से बताओ। सिर्फ़ खाना-पीना ही अतियों पर जा रहा है, या जीवन में सभी कुछ अतियों पर ही चल रहा है?

‘खाना’, बड़ी स्थूल बात है। तुम वज़न भी नाप सकते हो, कि आज कितना खाया। तो इसलिये उसमें कह लेते हो कि, “आज तो ठूँस लिया,” पर क्या सब कुछ ही ठूँसते नहीं हो? क्या सब कुछ ही असंतुलित नहीं है? और जब बाकी सब कुछ असंतुलित है, तो भोजन कैसे संतुलित हो जायेगा?

इलाज तो एक ही है ना – मन की सफ़ाई। मन ठीक रखो, जीवन में सबकुछ संतुलित रहेगा। और मन ठीक नहीं है, तो सबकुछ असंतुलित रहेगा, जिसमें खाना भी शामिल है। जिसका खाना-पीना गड़बड़ चल रहा हो, उसका बहुत कुछ गड़बड़ चल रहा होगा।

और शुरुआत तुम्हें मन से ही करनी पड़ेगी, क्योंकि सारी शुरुआत और सारे अंत तो वहीँ पर हैं। मन ठीक रखो, मन अपने आप रास्ता बता देगा कि – क्या खाओ, कैसे खाओ, कब खाओ – अपने आप रास्ते फिर निकल आते हैं। बुद्धि और किसलिये होती है? बुद्धि रास्ते निकालने के लिये ही होती है। पर जब मन साफ़ होता है, तो बुद्धि रास्ते फिर सही दिशा में निकालती है। नहीं तो, फिर वही बुद्धि, कुबुद्धि हो जाती है।

साफ़ मन के साथ जो है, उसे कहते हैं, ‘सद्बुद्धि’। दूषित मन के साथ जो है, उसे कहते हैं, ‘कुबुद्धि’।

सुबह उठकर नाश्ते से ज़्यादा ज़रुरी है कि आत्म-स्मरण करो, मन साफ़ करो। सुबह उठकर दांत साफ़ करने से ज़्यादा ज़रुरी है कि मन साफ़ करो। पर विचित्र होते हैं हमारे घर, उनमें ये तो बता दिया जाता है कि सुबह उठ कर शौच करो, और दातून और दांत साफ़ करो, पर ये नहीं बताया जाता कि, “सुबह उठते ही सबसे पहले, आत्म-स्मरण करो”। बिल्कुल नहीं बताया जाता!

पहले होता था कि, कम से कम एक नियम के नाम पर ही सही, पर लोग मंदिर चले जाते थे। वहाँ का पूरा शिल्प कुछ ऐसा होता है कि तुम्हें कुछ याद दिला जाता है। अब तो आत्म-स्मरण की वो विधि भी ख़त्म हो गयी है। आत्म-स्मरण नहीं है, बाकी सारे स्मरण हैं। आप मंदिर जाते हो, ‘ईश्वर’ और क्या है? आत्मा को ही ‘ईश्वर’ कहते हैं।

(हँसते हुए ) जिसका पेट ख़राब हो, उसको मन साफ़ करना चाहिये। ये बात बहुत ध्यान से समझना। तुम्हारी कब्ज़ ऐसे नहीं दूर होगी। इसमें उपनिषद् लगेंगे, कई। बात आ रही है समझ में?

~‘शब्द-योग’ सत्र पर आधारित । स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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