मुझे क्या पाने की ज़रूरत है? || आचार्य प्रशांत (2013)

Acharya Prashant

14 min
52 reads
मुझे क्या पाने की ज़रूरत है? || आचार्य प्रशांत (2013)

वक्ता: आप जो कुछ भी पाना चाहते हो, वो पहले ही मौजूद है। अगर पहले से ही मौजूद ना हो तो वो इंस्टिंक्ट ही नहीं उठेगी पाने की।

श्रोता: हम ये कह सकते हैं कि जो लक्ष्य है मूलतया वो गन्दगी को साफ़ करने का है ताकि जो हम हैं, उस चीज़ को उजागर कर सकें। आमतौर पर जो भी है, हमें अपने बारे में गलत ही पता है। हम अपनेआप को जानते नहीं है, फिर भी हर व्यक्ति जिस दिशा में बढ़ने का प्रयास करता है, कहीं ना कहीं उसको ये लगता है कि वो ये कर सकता है।

वक्ता: उसको बिलकुल लगता है ये कर सकता है और ये बड़े गहरे विश्वास की बात है कि, ‘’मैं जो पा रहा हूँ, वो मौजूद ही है।’’ ये एक जबरदस्त किस्म का विश्वास देगी बात। इसको समझ रहे हो?

श्रोता१: मुझे अपन लक्ष्य प्राप्त हो चुका है, बस मैंने उसका अभी उत्सव नहीं मनाया।

श्रोता२: मुझे पता हो गया इसका मतलब ये भी तो कह सकते हैं कि आई आलरेडी अचीव्ड द गोल लेकिन मुझे पता नहीं है, मैंने क्या अचीव कर लिया है।

वक्ता: आपको पता नहीं है और उस पता ना होने के कारण आपने दस तरह के झंझट पाल रखे हैं। समझ रहे हो? आप बाहर जो भी करोगे, वो कोई अचीवमेंट इसलिए नहीं होगा क्यूंकि वो तो पहले से ही उपलब्ध है। आप बाहर जो भी अचीव करना चाहते हो, वो प्रिअचीव्ड है, पहले ही है; आप अधिक से अधिक बाहर उसकी अभिव्यक्ति कर सकते हो।

किसी की भी प्राप्ति नहीं होती, बस उसकी अभिव्यक्ति होती है जो पहले से ही प्राप्त है।

ये समझ रहे हो बात, कितने गहरे विश्वास की है? ये भीतर से सारी हीन भावना ख़त्म कर देगी। आप कुछ पाने नहीं निकले हो, आप सिर्फ़ ये जानने निकले हो कि, ‘’मेरे पास पहले ही क्या क्या है।’’ आप पाने नहीं निकले हो। एक बात ये होती है कि, ‘’मैं जा रहा हूँ कमाने,’’ और दूसरी होती है कि, ‘’मैं जा रहा हूँ अपना बैंक बैलेंस देखने।’’ इन दोनों ही स्थितियों में वर्तमान में आपको यही लगता है कि, ‘’मेरे पास कुछ नहीं है।’’ पर दोनों स्थितियाँ हैं बड़ी अलग-अलग, बड़ी अलग-अलग है। जब आप कहते हो, ‘’मैं कमाने जा रहा हूँ, जब आप कहते हो कमाने जा रहा हूँ’’ तो आपने अपनी सेल्फ-वर्थ कर दी है ज़ीरो और जब आप कहते हो, ‘’है पहले ही, देखने जा रहा हूँ।’’

तो आप कह रहे हो बस ठीक है; है पर ज्ञान में नहीं है। तो उसे ज्ञान में लाने जा रहा हूँ या है पर अज्ञान में दबा हुआ है तो अज्ञान हटाने जा रहा हूँ। और ये दोनों बड़ी अलग-अलग बातें है। आप अर्जित नहीं करने जा रहे; आप अज्ञान साफ़ करने जा रहे हो। अचीव नहीं कर रहे हो, बस जान रहे हो कि पहले ही है और वो जानने में मेहनत लग सकती है। वो ठीक है, क्यूंकि कूड़ा-कचरा और इकट्ठा कर लिया, उसकी सफ़ाई होगी।

ये जो पूरा उपलब्धि का खेल है, उसको एक ही प्रश्न काफ़ी है, काट देने के लिए। आप प्राप्त करोगे क्या? जो भी कुछ प्राप्त करने लायक है, वो आप पर पहले ही मौजूद है।

श्रोता: सर, हम लोग उपलब्धि की जब बात करते हैं, तो आमतौर पर उपलब्धि की बात हमेशा हमारी इच्छाओं के प्रसंग में करते हैं, तो इसको हम कैसे रिलेट करें?

वक्ता: क्या इच्छा है? जैसे? बोलो।

श्रोता: घर चाहिए।

वक्ता: घर क्यों चाहिए?

श्रोता: मुझे लगता है, ‘’मैं उससे खुश हो जाऊँगी।‘’

वक्ता: और अगर पता चले, वो ख़ुशी पहले ही अपने पास है तो? घर जिस ख़ुशी का प्रॉक्सी है, अगर पता चले कि वो तो पहले ही है और फ़ालतू ही होगा इतनी मेहनत करना कि घर खरीदो और झंझट पालो, तो?

श्रोता: सर, घर पाने की गलतियाँ तो हम ये करते हैं कि पता नहीं घर मिलेगा या नहीं मिलेगा, तो दुविधा में रहते हैं, जब ये पता चलता है ना जब दुविधा ख़त्म हो जाता है कि हम ये सोच के निकलते हैं, कि ये तो होगा ही होगा, इसको एक्सप्रेशन देना बाकी है।

वक्ता: और फिर घर मिले ना मिले, उससे आप पर बहुत अंतर नहीं पड़ेगा। चलो ठीक है एक्सप्रेशन नहीं भी हुआ। नहीं हुआ एक्सप्रेशन, पर है अपने पास फिर घर मिले ना मिले कोई अंतर नहीं पड़ेगा। आपकी सेल्फ-वर्थ उससे नहीं जुड़ जाएगी। अभी जिम में था तो एक ऐड देख रहा था टी.वी पर, अभी नया आया है। ‘’अब दुनिया मुझे जानेगी अलग रूप में, अब मैं कुछ और हो गई हूँ। एक लड़की आ रही है अपने बाल काट रही है, पहले मैं देविका था; अब मैं देवी हूँ।‘’ और बाल-वाल काट रही है और पता नहीं क्या शेविंग कर रही है, जाने क्या कर रही है! हाँ, सच में उसमें और, ‘’अब मैं देवी हूँ और बिलकुल अब दुनिया मुझे अलग नज़र से देखेगी, माँ बाप भी अब मुझे इज्ज़त देंगे।’’ उसने अपना गेट-अप बदल लिया है बेसीकली, और एक पूरा सीरियल है जो इसी बात पर है की किस तरीके से आप जिंदगी में आगे बढ़ सकते हो।

ये अचीवमेंट यही कराती है कि आप किस तरीके से जिंदगी आगे बढ़ सकते हो, सब कुछ करके। अब चाहे, अब यहाँ पर बात मूर्खता की लगती है क्यूंकि आप देख रहे है कि एक लड़की है, वो सोच रही है कि बाल काट कर और कुछ करके वो अचीवमेंट पा लेगी। और जो आपके सबसे धुरंदर लोग हैं, वो और क्या कर रहे हैं? जिनको आप बौद्धिक वर्ग बोलते हो, जिनको आप अपने अर्थशास्त्री बोलते हो, जिनको आप राजनीतिज्ञ बोलते हो, वो और क्या कर रहे हैं? सारा खेल है। एकैडमिशियन और क्या कर रहे हैं? सारा गेम अचीवमेंट का ही तो खेल रहे है ना? ये अचीव कर लोगे। जिन लोगों को आप नोबेल पुरस्कार भी दे रहे हो, वो लगातार प्राप्त करने का ही तो खेल खिला रहे हो। एक से बढ़ के एक मूर्ख हैं, उस रेस से आप बाहर हो जाओगे।

बाहर ऐसे नहीं हो जाओगे कि आप हार गये। बाहर ऐसे हो जाओगे कि जीते ही हुए हैं और इस रेस में दौड़ना अपनी जीत का अपमान है। जैसे कि राजा हो और भिखारियों की रेस चल रही हो कि वहाँ रोटी है, उस तक कौन पहुंचेगा और राजा भी उन्हीं के साथ दौड़ रहा है। राजा कहेगा, ‘’नहीं, वाट डिसगस्ट? हम बादशाह हैं, हम तुम्हारे साथ क्यों दौड़ लगाएँगे? तो इस रेस से आप ऑप्ट आउट कर जाओगे, ये ऑप्ट आउट करना ही संन्यास है।

संन्यास का मतलब ये नहीं होता की दुनिया छोड़ दी; सन्यास का मतलब होता है हम बादशाह है।

तुम दौड़ लगाओ तुम भिखारी हो; तुम लगाओ दौड़ क्यूंकि तुम हो भिखारी, हम हमेशा के राजा है। जिनको कुछ ना चाहिए:

श्रोता: वो शाहन के शाह।

वक्ता: यही बात है, ‘जिनको कुछ ना चाहिए’ का मतलब ये नहीं है की इच्छाएं कहीं मर गई। उनका मतलब ही यही है कि इच्छाएं आती-जाती रहेंगी। सारी इच्छाएं जिसको पाने के लिए है, हम उसको जान गए हैं। आपकी कोई भी इच्छा है — आपने कहा ना ख़ुशी के लिए है — हम उस ख़ुशी को जान गए हैं।

श्रोता: सर, एक वाक्य आया था कि वो जो स्थिति है जिसका इंसान को कुछ नहीं पता।

वक्ता: जो चेतना के स्तर पर वैचारिक रूप में नहीं पता। यह विचार कि क्यूँ भागते रहते हैं हम, विचार कि इतना शर्मिंदा क्यूँ महसूस करते हैं इत्यादि। एक तरफ तो विचार बताता है कि भागो, दूसरी तरफ़ कुछ और है जो आम विचारों से थोड़ा सा हट कर है, वो ये भी बताता है कि नहीं यार इस भागने में कुछ मज़ा नहीं आ रहा। आदमी को कुछ बात ही समझ में नहीं आती। फिर उसको पता है आप क्या कहते हो? दिल और दिमाग की लड़ाई, फिर बोलते हो, ‘’दिल में और दिमाग में संघर्ष चल रहा है।‘’ दिल और दिमाग नहीं है; भारत में जो दिल है, ह्रदय, वो फीलिंग का स्रोत नहीं माना गया है, वो मन का स्रोत माना गया है। देट इज़ नॉट द सेंटर ऑफ़ फीलिंग, देट इस द सेंटर ऑफ़ बीइंग इटसेल्फ। वेस्ट में जो हार्ट है, देट इज़ अ सेंटर ऑफ़ फीलिंग। हमने जिस तरीके से ह्रदय को जाना है, जैसे रमण कहेंगे ‘ह्रदयम’ उसका अर्थ है मन का स्रोत, फीलिंग का नहीं। मन का ही सोर्स, मन का ही स्रोत। फिर समझ में ही नहीं आता विचार कहता है तुम बड़े अपूर्ण हो, पर कुछ और भी है विचार के पीछे, जो कहता है, ‘’नहीं यार, ये दौड़ भाग में कुछ मज़ा नहीं आ रहा है।’’ फिर आप कहते हो, ‘’मिड लाइफ क्राइसेस चल रही है और सेवन इयर ऐज चल रही है।‘’ वो सब यही है कि विचार जितनी दूर तक ले जा सकता है, वहां जा कर भी बैचेनी बनी रहती है। चेतना के स्तर पर नहीं पता न!

श्रोता: क्या हमें झलक मिल सकती है उस चीज़ की? कभी हमें चेतना के स्तर पर झलक मिल सकती है उस चीज़ कि वो स्थिति कैसी है?

वक्ता: जब सचेत हो, तब तो झलक ही झलक है। बिना चेतना के झलक का सवाल ही नहीं पैदा होता। आप जब सचेत हो, तो सब कुछ वही है। जब सचेत हो, तो पूरी पिक्चर चल रही है; झांकी क्या करनी है? ट्रेलर क्या करना है?

श्रोता: तो सर वो ख़ुशी अभी तक क्यों नहीं मिली?

वक्ता: क्यूंकि सचेत नहीं है।

श्रोता: क्यूंकि अभी तक जीवन सिर्फ़ शर्तों पर जीया है।

वक्ता: सचेत नहीं है ना।

श्रोता: पर ऐसी स्थिति आती है?

वक्ता: कोई स्थिति नहीं है वो, ये स्तर हैं ये, बेहोशी में स्तर होती है; होश कोई स्तर नहीं है। बेहोशी में होती है दस-बारह प्रकार के स्तर गहरी बेहोशी, हल्की बेहोशी। जग के बोलते हो पूर्ण जागरण, अर्ध जागरण, तीन चौथाई जागरण? जगना, जगना है।

चेतना में चारों तरफ वही है। सब कुछ वही है ,खुली किताब।

श्रोता: सर, ये जो निर्वाण उपनिषद है; ये भी उपनिषद का पार्ट ही है?

वक्ता: आपको कोई बहुत कोशिश थोड़ी करनी है, कुछ जानने की उसको कोई उतरा थोड़ी था ये बताने के लिए। जो ऋषि ये बात बोल रहे हैं, इनको कोई उतरा थोड़ी था बताने के लिए। उन्होंने भी बस यही देखा कि ये जो भाग रहा है इस बन्दे की शक्ल देखो, इसकी हरकतें देखो। आज क्या कर रहा है वो देखो और कल क्या कर रहा था वो देखो और सब पता चल जाता है। फिर कहते हैं जब ये बच्चा था, तब कैसा था उसको देखो और कल क्या करेगा उसको देखो। और सब पता चल जाता है। कोई बहुत बड़ा इसमें व्यवस्था थोड़ी बनानी है कि ऐसे कैसे पता करे?

झलक नहीं मिल रही है, सचेत नहीं हो पा रहे हैं। इसमें आदमी की बेचैनी सबूत है ना इस बात का कि दौड़ तो है, पर पाने जैसा कुछ नहीं है! फिर वो बातें बड़े गंदे रूप में सामने आती है। आप ये स्वीकार भी नहीं करोगे कि दौड़ व्यर्थ गई, तो आप झूठ बोलोगे और झूठ पर झूठ खड़े करोगे। आप अगर ये स्वीकार कर लो कि, ‘’मेरा जीवन व्यर्थ गया ठीक-ठीक,’’ तो कम से कम आप अपने बच्चों को ऐसा जीवन नहीं दोगे।

पर आप ये स्वीकार नहीं करना नहीं चाहते कि आपका जीवन बर्बाद हुआ है, तो आपको अपने बच्चों को भी ऐसा जीवन देना पड़ता है। क्यूंकि आप ये स्वीकार नहीं करोगे कि आपकी जिंदगी व्यर्थ ही गई है, इसलिए अपने बच्चों को भी बर्बाद करोगे। आप उनको भी बर्बाद करोगे। आपने जिंदगी भर जो किया, उससे आपको कुछ मिला नहीं है, पर ये बात आप साफ़-साफ़ स्वीकार नहीं कर रहे, तो फिर आप चाहते हो पूरी दुनिया वैसे ही चले। बल्कि अब बहुत आवश्यक हो गया है कि पूरी दुनिया आपके तरीके से चले। अब ये बात समझ में आ रही है कि समाज हमेसा अनुपालन क्यों चाहता है? लोग क्यों चाहते हैं कि सब वैसे ही करें, जैसा हमने करा क्यूंकि अगर दो चार लोगों ने भी कुछ और कर दिया, तो इनका झूठ खुल जायेगा।

श्रोता: और इनको अपने लिए आश्वस्ति चाहिए होती है।

वक्ता: आप रहे होंगे जीवन भर एक बहुत सड़ी हुई शादी में, पर आप बिलकुल चाहोगे कि आपके आस-पास वाले सब शादी कर लें क्यूंकि अगर दो चार लोग भी बिना शादी किए हुए भी आनंदपूर्ण रह गए तो आपका झूठ खुल जाएगा। आप जिंदगी भर शादी करके लड़ते रहे, गलते रहे और आपके बगल में एक बैठा हुआ है बिना शादी किए हुए मौज में। तो उसका होना तो आपके उपर धिक्कार है ना और आपको दिन रात याद दिलाएगा कि आपकी जिंदगी कितनी फ़ालतू हुई। तो आपके लिए बहुत आवश्यक है कि आपके आस-पास जितने हैं, वो सब वैसे ही रहें। आपके लिए ज़बरदस्त रूप से आवश्यक हो जाता है, यही कारण है कि हर फुका हुआ माँ-बाप, सबसे पहले ये करता है कि, ‘’बेटा शादी कर!‘’ वो कुछ नहीं कर रहा है, वो अपनी जिंदगी की रक्षा कर रहा है। उसे बेटे से नहीं प्यार है कि वो शादो करले। बेटे ने अगर शादी नहीं की तो माँ-बाप को भी तो दिख जाएगा कि हम भी तो ऐसे रह सकते थे।

हमने काहे को जान गवाई हमसे भला तो यही निकला। उसकी मौज देखोगे और जलोगे। बात समझ में आ रही है?

श्रोता: सर नकारात्मक वो दिया जाता है कि ज़िम्मेदारी नहीं लेना चाहता है।

वक्ता: अरे! वो जो भी लेना चाहता है जो उसमें बात क्या है असली, वो समझो। मामला जो है, वो सीधा है, उसमें कोई बड़ी बात नहीं है। हम तो डूबे ही हैं, तुझे भी ले डूबेंगे। यहाँ गेम बस ये चल रहा है और आकांशा (श्रोता कि ओर इशारा करते हुए) डर गई है देखो, देखना चाहिए ना बॉडी लैंग्वेज सब बता देती है देखो। अब चल रहा होगा समय, नहीं जानती हो फैसिलिटेटर हो, शरीर को पढ़ना नहीं जानती हो? ये क्या है?

मुझे कभी देखा है सेशन में यूँ कर के( मुँह छुपा के) बात करते हुए? यही है जीवन खुली किताब है, वही से उस ऋषि ने सीखा है। सब सामने ही है; झलक नहीं चाहिए, सब खुला हुआ है। देखिए बस, झलक नहीं चाहिए।

श्रोता: एक प्रचार आ रहा था, पता नहीं कौनसा था; सारे एक से ही होते हैं। उसमे एक माँ कह रही है कि मैंने अपने तो बच्चे को पूरी आज़ादी दे रखी है, तभी दिमाग में आया कि जो माँ ये क्लेम कर रही है कि बच्चे को पूरी आज़ादी दे रखी है, वो सबसे ज़्यादा घटिया जिंदगी जी रहा होगा। सिर्फ़ इसलिए क्यूँकी कि आप क्लेम कर रहे हो कि आज़ादी दे रखी है। मैंने तभी अपने मेमो में लिखा ‘आपको अगर किसी को आज़ादी देनी है, तो आप कुछ भी देना बंद कर दो।’ बस बीच में आना बंद कर दो क्यूंकि उसके पास आज़ादी आलरेडी है। आप बस बीच में माँपना मत दिखाओ या बापपना मत दिखाओ। उसके पास आलरेडी आज़ादी है!

शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
LIVE Sessions
Experience Transformation Everyday from the Convenience of your Home
Live Bhagavad Gita Sessions with Acharya Prashant
Categories