मुहूर्त इत्यादि का कुछ महत्त्व होता है क्या? || आचार्य प्रशांत (2019)

Acharya Prashant

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मुहूर्त इत्यादि का कुछ महत्त्व होता है क्या? || आचार्य प्रशांत (2019)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, हिन्दु धर्म में मुहूर्त की बहुत मान्यता है, यहाँ हर काम यह देखकर किया जाता है कि उस दिन अमावस है या पूर्णिमा। जो लोग ऐसा मानते हैं जब उनसे कहा जाए कि शरणागत भाव से किया गया काम कभी भी किया जाए वो ठीक ही होता है, तो तर्क यह दिया जाता है कि कुछ दिन ऐसे हैं जब अवतारों का जन्म हुआ था, तो इसलिए वो शुभ हैं। या ज्योतिष विद्या वेदों से आती है इसलिए उसको मानना चाहिए। हम रोज़मर्रा के जीवन में इन सब बातों का कैसे सामना करें?

आचार्य प्रशांत: पता ही न रहे कब अमावस्या है, कब पूर्णिमा है। इनका ख़याल करोगे तब न ये बातें वज़नी लगेंगी! ख़याल क्या करना है कब अमावस्या, कब पूर्णिमा? साधक को न दिन-रात का पता होता है, न साँझ-सवेरे का पता होता है, न इस मास का पता होता है, न उस मास का पता होता है।

जो वियोग में है वो अमावस और पूर्णिमा देखकर आँसू थोड़े ही बहाएगा। जिसके दिल में ख़ंजर उतरा हुआ है वो किन्हीं ख़ास दिनों पर थोड़े ही रोएगा; वो तो लगातार रोएगा न। उसी लगातार रोने का नाम साधना है, उसका किन्हीं खास दिनों से क्या लेना-देना!

कोई बीमार हो अमावस को, तो अस्पताल नहीं लेकर जाओगे? जब अमावस के दिन बीमार की चिकित्सा नहीं रुकती, तो फिर अमावस के दिन जीवन का कोई भी और महत्वपूर्ण काम क्यों रुके? साधना क्यों रुके? छोटा सा जीवन है उसमें कोई तुमको बोले पाँच दिन बाद का मुहूर्त है और बीच में मौत का मुहूर्त निकल आया, तो?

एक झल्लीलाल थे, उन बेचारों की शादी टूट गयी इसी चक्कर में। लड़की बोल रही थी तत्काल कर लेते हैं, बोले, ‘नहीं पंडित मुहूर्त निकालेगा।' पंडित ने मुहूर्त निकाला तीन महीने बाद का, जब तक तीन महीने बीतते उससे पहले लड़की को पता चल गया यह झल्लीलाल हैं — लेओ अब कर लो शादी!

दो तरह की बातें हैं पुराने ग्रन्थों में: एक वो जिनका सीधे-सीधे मुक्ति से लेना-देना है, दूसरी वो जो विविध विषयों से ताल्लुक रखती हैं। आप बस उन बातों से सरोकार रखिए जिनका सम्बन्ध सीधे-सीधे मुक्ति से है और बाक़ी सब बातों की कोई प्रासंगिकता नहीं, कोई महत्व नहीं।

ज्योतिषी बताते हैं विदेश यात्रा का मुहूर्त है। आदमी कल को चाँद पर रहने लग जाए जहाँ न देश न विदेश, फिर? वो बताते हैं कि विवाह लिखा है कि नहीं लिखा है। कल को मानव सभ्यता ऐसी हो जाए कि विवाह नाम की संस्था ही ख़त्म हो जाए, फिर? अब क्या बताओगे?

शास्त्र सिर्फ़ उनको मानिए जो अहम् को मुक्ति देने की बात करते हों; बाक़ी इधर-उधर की बेकार की बातें जो भी ग्रन्थ कर रहे हैं उन्हें शास्त्र मत मान लीजिएगा। सिर्फ़ इसलिए कि कोई चीज़ संस्कृत में लिखी गयी है, पूजनीय नहीं हो जाती। वेदों का शिखर है वेदान्त, वेदान्त से सम्बन्ध रखिए, जो ऊँचे-से-ऊँचा ज्ञान हो सकता है वो वेदान्त में उपलब्ध है। और ज्ञान का शिखर है भक्ति, भक्ति की बात अगर करनी है तो सन्त-कवियों से मतलब रखिए।

इन दो के अलावा और इधर-उधर कहीं भी जाएँगे तो भटकेंगें। कुछ तीसरा और नहीं या तो वेदान्त या विशुद्ध भक्ति ‘प्रेम-मार्ग’। या तो ज्ञान, नहीं तो भक्ति — और दोनों एक हैं। दोनों में ही गहराई से जाएँगे, तो पाएँगे कि ज्ञान भक्ति है; भक्ति ज्ञान है।

तमाम स्मृतियाँ, संहिताएँ न जाने क्या-क्या घूम रहे हैं। बहुत पुराना देश है, बहुत कुछ लिखा गया है। सबकुछ जो लिखा गया है उससे क्या सरोकार रखना? जीवन आपका इतना बड़ा है कि सबकुछ पढ़ जाएँ, सबकुछ अमल करें? जो श्रेष्ठतम है सिर्फ़ उससे मतलब रखिए, बाक़ी सबकी उपेक्षा करिए।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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