मृत्यु से भय क्यों लगता है?

Acharya Prashant

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मृत्यु से भय क्यों लगता है?

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, परिवारजन या रिश्तेदार की मृत्यु को देखकर भयभीत हो जाती हूँ, कृपया मार्गदर्शन करें।

आचार्य प्रशांत: अध्यात्म के साथ रहिए। पूरा अध्यात्म ही डर से मुक्ति पाने के केंद्रीय लक्ष्य को लेकर है और सब डरों में मूल डर और सबसे बड़ा डर मृत्यु का ही डर है। तो आप जो कह रही हैं उसकी एक ही दवा है, कोई और दवा है ही नहीं और वो दवा रची ही गई है मृत्यु के पार जाने के लिए। अध्यात्म का और कोई उद्देश्य है ही नहीं। यही है कि आदमी डर को लेकर के त्रस्त रहता है जीवन भर, कैसे डर से मुक्त होकर वो जी पाए। जिसको अमरता कहते हैं आप, वो अमरता और कुछ नहीं है, डर से मुक्ति ही है। डर से मुक्ति को ही अमरता कहा गया है। आज बाबा बुल्लेशाह की क़ाफिया पढ़ीं?

प्र: पढ़ा था।

आचार्य: क़ाफिया पढ़िए, भजन पढ़िए, दोहे, श्लोक पढ़िए — जितना आध्यात्मिक साहित्य हो सके पढ़िए। संतों की संगत जितनी करेंगी, शास्त्रों में जितनी गहराई से जाएँगी, डर उतने मिटेंगे। मौत बिलकुल पीछे होती जाएगी।

प्र२: क्या हम अकेले भी उतने ही खुश रह सकते हैं?

आचार्य: जो अपने-आपको भीड़ में एक व्यक्ति समझता है, उसे ही तो मौत आती है। जब तक आप अकेले 'पूरे' नहीं हुए तब तक तो मौत ही सामने खड़ी है और आप उसकी छाया में हैं। ये सब बातें आपस में जुड़ी हुई हैं।

प्र: अभी आपने एक प्रश्न का उत्तर दिया था — होश साधो। कभी-कभी यंत्रवत हो जाते हैं सब काम, तो होश में कैसे रहें?

आचार्य: एक पहाड़ है, देखा है पर्वतारोही कैसे चढ़ते हैं उस पर?

प्र: छोटे-छोटे क़दम लेकर।

आचार्य: अब जाना तो चोटी पर है, पर चढ़ते कैसे हैं?

प्र: एक-एक क़दम लेकर।

आचार्य: एकदम ऊपर भी पहुँचना हो, तो पहले यहाँ पर कील गाड़ी, फिर उस पर लटक कर ऊपर पहुँचे। हम जहाँ हैं उससे थोड़ा-सा ऊपर कुछ गाड़ दो और उसकी सहायता लेकर ऊपर हो जाओ फिर और ऊपर, फिर और ऊपर, फिर और ऊपर। यही है चेतना का ऊर्ध्वगमन और जब तुम यह सब कर रहे होओगे, तो शिखर तो दिखाई भी नहीं दे रहा होगा।

आप चढ़ रहे हो एवरेस्ट पर या कंचनजंघा पर, आपको चोटी दिख रही होती है क्या? पता नहीं कहाँ है चोटी, आपको कहाँ से दिखेगी? आप अभी नीचे हो। अपने से ज़रा-सा ऊपर कुछ पा लो, उसका सहारा लेकर ऊपर चढ़ जाओ फिर थोड़ा और ऊपर, फिर थोड़ा और ऊपर, फिर थोड़ा और ऊपर — एक झटके में नहीं होगा। धीरे-धीरे करके, थोड़ा-थोड़ा ऊपर जाते जाओगे। लेकिन ये थोड़ा-थोड़ा ऊपर जाने के लिए लक्ष्य तो शिखर ही होना चाहिए।

दोनों बातें चाहिए, लक्ष्य हो चरम, परमशिखर — वो लक्ष्य हो, वो हृदय में बसा रहे, वहाँ पहुँचना है। वो हृदय में बसा रहेगा तभी ऊर्जा मिलेगी, वही तो बुलाता है, उसी की ताक़त से तो ऊपर जाते हो। लेकिन व्यवहारिक तौर पर क्या करना है? व्यवहारिक तौर पर ये नहीं सोचना है कि जहाँ पहुँचना है उस पर एक छलाँग मारी और पहुँच गए, वो होगा नहीं। तो व्यवहारिक तौर पर कदम-दर-कदम। (हाथ धीरे-धीरे ऊपर उठाते हुए) इतना किया, इतना किया, इतना किया, इतना किया। लेकिन जो भी किया अपने से ज़्यादा किया, अपने से ऊँचा किया।

जितनी बार अपने से ऊँचा कुछ करो अपने-आपको शाबाशी दो। अपने से ऊँचा कुछ करने के लिए अपने ख़िलाफ़ जाना पड़ता है, थोड़ी कठिनाई झेलनी पड़ती है, कुछ बुरा भी लग रहा हो तब भी करना पड़ता है। मन नहीं कर रहा बिस्तर छोड़ने का, छोड़ना पड़ता है। किसी पर गुस्सा बहुत आ रहा हो, तब भी मुस्कुराना पड़ता है। गुस्सा आ रहा हो तब भी मुस्कुरा लो फिर उसके बाद अपने-आपको शाबाशी दो — "कुछ किया। अपने ख़िलाफ़ किया, अपने से आगे जाकर किया, अपनी सीमाओं का उल्लंघन करके किया। जितना हम सामान्यतः कर पाते उससे ज़्यादा किया।" बहुत देर तक शाबाशी मत देते रह जाना। एक बार (अपनी पीठ थपथपाने का इशारा करते हुए) ऐसे करो और फिर और आगे बढ़ो।

अपने ख़िलाफ़ जाए बिना, कोई आध्यात्मिक प्रगति संभव नहीं है। जो आदमी अपना विरोध करने को तैयार नहीं वो वहीं पड़ा रह जाएगा जहाँ वो है। जिन्हें तरक्क़ी चाहिए उन्हें अपने ख़िलाफ़ जाना ही पड़ेगा। ऐसे कह लो — अगर अपना प्यार पाना है तो अपने ख़िलाफ़ जाना सीखो। या तो अपना प्यार पा लो या अपनी सुरक्षा कर लो, दोनों एक साथ नहीं होंगे। या तो उसको पा लो जिससे प्रेम है या फिर उसे बचा लो जो तुम बने बैठे हो। दोनों एक साथ नहीं होंगे कि जो तुम बने बैठे हो वो बचा भी रहे और जिससे तुम्हें प्रेम है वो हासिल भी हो जाए। ये एक साथ नहीं होता।

प्र२: आचार्य जी, आपने बताया था कि हम (पति-पत्नी) मिल-बैठ कर नितनेम करने का अभ्यास करें। पर वो संभव नहीं हो रहा। अपनी कोशिश करने के बाद भी सुबह इकट्ठे बैठकर, गुरुबाणी बीच में रखकर — वह हो नहीं पा रहा।

आचार्य: ठीक है, समझ गया। तो हो ये रहा है कि गुरुबाणी से ज़्यादा महत्व हो जा रहा है गुरुबाणी का पाठ करने वालों का। होना तो यह चाहिए कि एक बार गुरुओं की वाणी बीच में रखी हुई है तो उसके दोनों तरफ जो व्यक्ति बैठे हैं, वो एक दूसरे को भूल जाएँ और मात्र गुरुदेव को याद रखें, मात्र वाणी का स्मरण रखें। पर वैसा नहीं हो पाता है अगर अभ्यास नहीं है। अगर एक सीमा तक अभी प्रगति नहीं करी है तो नहीं हो पाता है कि हम एक-दूसरे को भुलाकर सिर्फ़ ग्रंथ पर ध्यान दे पाएँ। ग्रंथ से ज़्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है वो दूसरा व्यक्ति जो ग्रंथ के साथ बैठा हुआ है और वो व्यक्ति अगर बहुत पसंद नहीं आ रहा है तो ऐसा लगता है कि ग्रंथ को भी थोड़ी देर के लिए पीछे ही छोड़ दो।

तो मत बैठिए साथ। ग्रंथ का महत्व इतना है कि उसके लिए साथ बैठना पड़े तो भी अच्छा और ग्रंथ की ख़ातिर अगर अलग-अलग बैठ कर पाठ करना पड़े तो भी ठीक; ठीक बस तब नहीं है जब ग्रंथ का पाठ ही नहीं हुआ। वो नौबत नहीं आनी चाहिए। सबसे अच्छा तो ये होता जैसे मैंने सलाह दी थी कि — पति-पत्नी दोनों साथ बैठे और दोनों पाठ करें। पर चलिए नहीं हो पा रहा तो दोनों अलग-अलग बैठकर करें। दोनों भी नहीं कर पा रहे, तो जो कर पा रहा है वो करे। ये ना देखिए कि आज उसने करा कि नहीं करा। आप कहें, "मुझे तो करना ही है न।" और मालिक के खेल निराले हैं, कोई बड़ी बात नहीं कि एक करे तो दूसरे को भी लाभ हो जाए।

ये भी सोचना कि, "मैं पढूँगा तो लाभ तो बस मुझे होगा, वो तो रह ही गया, वह तो अपनी जगह पर बैठा रह गया" — नहीं, ऐसा नहीं होता है। ऊपर वाले के तरीके कैसे चलते हैं हम नहीं जानते। पढ़ता एक है, ज्ञान दूसरे को हो जाता। कई दफ़े ऐसा भी देखा गया कि एक को ज्ञान हो पाए इसके लिए दूसरा पढ़ता है और दूसरा पढ़ इस उद्देश्य से नहीं रहा है कि पहले को ज्ञान हो जाएगा। हो सकता है वो पढ़ अपने ही लिए रहा हो लेकिन पानी यहाँ डाला जाता है और प्यास वहाँ बुझती है। जैसे एक बहुत विशाल वृक्ष हो, जिसकी जड़े हमें नहीं पता कहाँ-कहाँ तक फैली हुई हैं तो बारिश हुई वहाँ और पत्ता खिला यहाँ। पानी वहाँ बरसा पर जड़ इतनी गहरी थी कि पी गई उसको और पत्ता खिल गया यहाँ। तो आप वो करिए जो आपका दायित्व है, आपका धर्म है बाकी उसकी (परमात्मा के) रहमत पर छोड़िए। आएँगी (प्रश्नकर्ता की धर्मपत्नी), मुझसे मिलेंगी, तो मैं बात करूँगा उनसे।

प्र२: बाकी सारी दुनिया से हम दोनों अच्छे से सम्बंध बना पाते हैं, मैं भी वो भी, लेकिन एक दूसरे के साथ नहीं कर पाते।

आचार्य: कई दफ़े हम अपनी सारी नफ़रत उसी के लिए बचा कर रखते हैं जिससे सबसे ज़्यादा प्यार होता है। तो कोई भरोसा नहीं है कि नफ़रत, नफ़रत है या कुछ और है, कौन जाने?

प्र२: बीच-बीच में थोड़ा-थोड़ा सहारा भी मिल जाता है।

आचार्य: मुस्कुरा दिया करो आप। ग़ैरों से कौन नफ़रत करता है? या करते हो? सड़क चलते अपरिचित से किसको द्वेष या घृणा उठती है? उसको तो उपेक्षा, “होगा कोई!” तो तरीका तो ये भी मोहब्बत का ही है, बस बड़ा कष्टदाई तरीका है।

प्र३: आचार्य जी, जब आपको सुनता हूँ और जब कैम्प में भी आता हूँ तो मन में कुछ शांति का एहसास होता है, कुछ स्पष्टता आती है। आपके प्रति कृतज्ञता का भाव आता है कि आपको सुनने से ये सम्भव हुआ। पर कुछ पल बाद वो स्पष्टता चली भी जाती है और कुछ समझ नहीं आता। वो स्पष्टता बनी रहे उसके लिए क्या कर सकता हूँ?

आचार्य: उसी को, उसको पाने को अपनी ज़िन्दगी बना लो और क्या। जो आए-जाए सो तो संसार पर ही आश्रित होता है तो फिर अपने संसार को ही ऐसा कर लो कि वो बनी रहे। जो चीज़ समय और परिस्थितियों के साथ आती है और समय और परिस्थिति के बदलने से चली जाती है, उसको अगर टिकाए रहना चाहते हो तो उसको अनुकूल परिस्थिति दे दो जिसमें वो टिकी ही रहेगी। तो बुद्धि लगाओ कि कैसे ऐसी परिस्थितियाँ रखूँ अपने चारों ओर की फिर ये टिकी ही रहे।

प्र३: आचार्य जी, सच की जो राह है वही एक महत्वपूर्ण रास्ता है, वही एक मात्र सत्य है और वही विशाल है। तो फिर स्पष्ट दिखता क्यों नहीं और हम रुग्णता में क्यों फँसे रहते हैं?

आचार्य: जब रुग्णता में फँसे होते हो तब यही बात कह रहे होते हो, इसी मन से?

प्र३: अभी।

आचार्य: अभी नहीं फँसे हो? अभी फँसे हो तो यह सवाल भी रुग्ण होगा?

प्र३: आपने कहा कि जब जीवन में कुछ बड़ा होगा, तो आप बड़े की तरफ बढ़ोगे। यहाँ ये समझ में नहीं आता है कि अगर सत्य विशाल है, बड़ा है तो उस तरफ़ हम अग्रसर क्यों नहीं हो पाते?

आचार्य: क्योंकि छोटे को अभी छोटा नहीं मान रहे न। दुःख जो दे सो छोटा। उपनिषद कहते हैं — "या वै भूमा तत् सुखं", जो बड़ा है उसमें सुख है। उसी बात को पलट दो तो — जो दुःख दे, वो छोटा। तो दुःख है जीवन में कहीं कुछ? तय कर लो पहले। है?

प्र३: हाँ।

आचार्य: तो उस दुःख से संबंधित जो कुछ भी है, वही छोटा है। तो जान गए छोटा किसको बोलते हैं? तो अब जान जाओ बड़ा किसको बोलते हैं।

सारी साधना की, सारे अध्यात्म की शुरुआत होती है — दुःख के तथ्य से। दुःख के तथ्य को स्वीकार करना होगा और उसका परीक्षण करना होगा। "क्या है? कहाँ से आ रहा है? किसके बल पर आ रहा है? किसको आ रहा है? किन परिस्थितियों में आ रहा है? किसके इर्द-गिर्द हैं वो परिस्थितियाँ?" — ये सारे सवाल पूछने होंगे। शुरुआत दुःख से ही होगी। लेकिन वो शुरुआत तुम तब करो न, जब ललक हो कि दुःख से मुक्ति पानी है। दुःख बुरा लगेगा तब तो दुःख से छूटने के लिए कुछ करोगे।

इसीलिए बड़ी अजीब बात है कि कहते हैं, "गुरु का काम होता है आनंद बाँटना।" अभी समय कुछ ऐसा है कि मेरा काम हो गया है तुम्हें दुःख का एहसास कराना। आनंद बाँटना तब गुरु का काम होता है जब साधक साधना पथ पर पहले से लगा हुआ हो। तो गुरु कहता है, "साधना तो ये कर ही रहा था, चलो इसका हाथ पकड़ कर थोड़ा आगे बढ़ा दें तो इसे आनंद की प्राप्ति हो जाए।"

मैं जिस समय में हूँ और मेरे चारों ओर जैसे लोग हैं वो वो नहीं हैं कि जो साधना में लगे हुए हैं और उन्हें साधना में मेरी मदद चाहिए। अधिकांशतः मैं उन लोगों से मिल रहा हूँ जो साधना में लगे ही नहीं हुए। जिन्होंने साधना शुरू ही नहीं करी और साधना उन्होंने क्यों नहीं शुरू करी? क्योंकि उन्हें साधना की कोई ज़रूरत ही नहीं दिखाई देती। वो कहते हैं "सब ठीक तो है।" तो मेरा काम फिर हो जाता है कि मैं उन्हें दुःख का एहसास कराऊँ।

मैं उन्हें दुःख देता नहीं हूँ, मैं बस उनका दुःख उनके सामने उघाड़ देता हूँ। मैं कहता हूँ, "तुम झूठ बोल रहे हो। दुखी तो तुम हो और ये रहा प्रमाण।" पर उसमें भी गड़बड़ हो जाती है। कई बार जिसका दुःख उघाड़ो, उसे लगता है कि तुमने दुःख उघाड़ा नहीं है उसका, उसे दुःख दिया है। तो फिर वो तुम पर आरोप लगाता है, "हम तो आए थे आपके पास आनंद के लिए और आपसे हमको मिल गया दुःख।" तो उनसे फिर मैं हाथ जोड़कर निवेदन करता हूँ, मैं कहता हूँ, "मैंने आपको दुःख दिया नहीं है, मैंने बस आपके सामने प्रकट कर दिया है कि आप पहले से ही दुखी हो।"

तो यही तरीका है — दुःख से परिचय।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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