मृत्यु को कैसे जानें? || आचार्य प्रशांत (2019)

Acharya Prashant

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मृत्यु को कैसे जानें? || आचार्य प्रशांत (2019)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, क्या मरने के बाद ही मृत्यु को जाना जा सकता है?

आचार्य प्रशांत: मर नहीं रहे हो क्या प्रतिपल? मरने का मतलब मिटना ही तो होता है। तुम्हारे शरीर में एक भी कोशिका बची है वो जो जन्म के वक्त थी? जन्म के वक्त तुम्हारे शरीर में जितनी कोशिकाएँ थीं उसमें से एक भी बची है? तो कहाँ है वो जिसने जन्म लिया था? मर ही नहीं गया क्या वो?

अरे बाबा! इसमें (हाथ में मग पकड़े हुए) जितने अणु-परमाणु हैं वो सब बिखर जाएँ, एक भी न बचे तो क्या ये बचेगा? तुमने भी जब जन्म लिया था तो तुम्हारे शरीर में जितनी सेल्स थीं, कोशिकाएँ थीं उसमें से, मैं पूछ रहा हूँ एक भी बची है? एक बता दो, एक। एक भी बची है? अगर नहीं बची है तो तुम तो कब के मर चुके। तुम हो कहाँ! तुम तो प्रतिपल मर रहे हो। ये क्या हो गया! ये तो गड़बड़ हो गई।

शरीर नहीं आगे बढ़ रहा, अहम् है जो आगे बढ़ता जा रहा है। अतीत के साथ अतीत ख़त्म हो जाता है पर तुम अतीत से जुड़े रह जाते हो, तुम्हारा नाम है अहंकार। कल बीत गया पर तुम कल से अभी भी जुड़े हुए हो। पुरानी कोशिकाएँ कब की झड़ गईं, तुम अभी भी अपनेआप को वही मानते हो जो जन्मा था, इसका नाम है अहंकार।

मर तो रहे ही हो, मरने का मतलब होता है जो है अब वो नहीं रहा और जो अभी है वो आगे नहीं रहेगा। समय का अर्थ ही है मृत्यु! मृत्यु तो हो ही रही है।

तुम जब दसवीं में थे तो धनुकलाल से तुमको बहुत प्रेम था, था कि नहीं? तुम्हारे साथ पढ़ता था धनुकलाल। देखो! तुम्हें अब उसका नाम भी नहीं याद है। मुझे याद है क्योंकि अभी बाहर मैं घूम रहा था तो आकर बता गया कि ‘ये बड़े बेवफ़ा निकले, दसवीं में हमारा ही टिफिन खाते थे। हमने ही नकल करवा-करवाकर इनको पास करवाया और हमें भूल ही गए, बिलकुल।’ पूछो, अभी धनुकलाल याद है? पूछो। धनुकलाल नहीं याद तो धनुकलाल का क्या हुआ? मर गया न?

मर गया कि नहीं मर गया? जिसका अब तुमको नाम भी नहीं याद वो मर गया कि नहीं मर गया? देख लो! क्या हो रहा है। कितना कुछ है तुम्हारे अतीत में जो तुम्हें अब याद भी दिलाया जाए तो तुम्हें याद नहीं आएगा, उसका क्या हुआ? मर गया न? वो सम्बन्ध भी नहीं बचा, वो व्यक्ति भी नहीं बचा। जिस व्यक्ति को तुम पूर्णतया भूल चुके हो, ऐसा भूल चुके हो कि तुम्हें अब कितना भी याद दिलाया जाए तुम्हें याद न आये, वो मर गया कि नहीं मर गया? तुम्हारे लिए तो मर ही गया न?

मृत्यु तो लगातार घट ही रही है। तुम माने बैठे हो कि हम हैं और ये तुम लगातार मानते ही रहोगे, क्यों? क्योंकि जब मृत्यु आएगी तब तुम बचोगे नहीं, जब तक तुम हो तब तक तुम मानने के लिए ज़िन्दा हो कि हम तो हैं। अपनी मृत्यु देखने के लिए तो कोई बचता नहीं न? जब तक तुम हो, तुम यही मानोगे कि हम हैं। तुम हो ही नहीं। समझाने वाले समझा गए हैं कि तुम एक भ्रम हो, तुम एक फंडामेंटल मिथ (आधारभूत झूठ) हो। अपनेआप को जो तुम समझते हो वो सबकुछ एक छल मात्र है।

प्र: तो कैसे जानें कि हम मूल रूप से झूठ हैं?

आचार्य: उसका प्रमाण तुम्हारे कर्म और तुम्हारा जीवन है। तुम्हें जो चाहिए हो, तुम्हें वो मिल रहा हो, अपने द्वारा जिये जा रहे जीवन से तो फिर मामला सच्चा होगा और अगर नहीं मिल रहा तो फिर सब भ्रम, छलावा ही तो है और क्या है!

मृगमरीचिका होती है, ठीक? और व्यक्ति को लगता है वहाँ पर है, पानी। पानी मिला नहीं, आदमी प्यासा। फिर दोबारा उसे मरीचिका में भ्रम हुआ उसे लगा पानी मिलेगा, पानी मिला नहीं, आदमी प्यासा। कोई अगर ऐसा मिले जो सिर्फ़ भ्रमित-ही-भ्रमित होता हो तो फिर तो ये समझ में आएगा न कि इसने तो भ्रम के साथ ही स्वार्थ जोड़ लिया है। वरना अगर इसे वास्तव में प्यास लगी होती तो कभी तो इसने मरीचिका को छोड़कर के पानी की ओर, सरोवर की ओर भी गमन किया होता। पर इसके कर्मों को देखकर के तो ऐसा लग रहा है कि अगर इसे असली पानी मिलता भी है तो ये असली पानी को छोड़कर के जाता है मरीचिका की ओर। अब ऐसे को तो हम वास्तव में प्यासा भी नहीं बोल सकते हैं वो एक भ्रम मात्र है उसे वास्तविक प्यास भी नहीं है।

जो सदा भ्रम की ही ओर जाता रहे क्या वो असली हो सकता है? जो असली होगा वो कभी तो जाएगा सत्य की ओर न। जो असली होगा वो कभी तो सत्य की ओर, कभी तो असली की ओर जाएगा। जो सदा नकली की ही ओर जाता रहे उसे क्या मैं असली बोलूँ?

इसीलिए समझाने वाले बोल गए कि फंडामेंटल मिथ हो तुम, नकली हो तुम। क्योंकि ये बात तुम्हारे जीवन से ज़ाहिर हो रही है, तुम सदा नकली की ओर ही बढ़ते हो। तुम्हारे सामने असली रखा रहे, तुम उसे ठुकरा देते हो, तुम जाते हो नकली की ओर। जो लगातार नकली की ओर ही जाए उसको कैसे कह दें कि असली है! एक बार तुम सही चुनाव कर लो तो हम कह पाऍं कि असली हो तुम। कभी असली का भी वरण करके दिखा दो तो साबित हो जाए कि असली हो तुम।

दोराहे तो तुम्हें खूब मिलते हैं। हमनें बात करी कि तुम वो हो जो चुनावों का अभ्यस्त है, तुम वो हो जो लगातार चुनता रहता है। वो बात अधूरी थी, मैं बात पूरी करता हूँ, 'तुम सिर्फ़ वही नहीं हो जो लगातार चुनता रहता है, तुम वो हो जो लगातार ग़लत चुनता रहता है।'

प्र: तो क्या उसको जानते रहना मृत्यु को जानना है कि हम चुनाव कर रहे है?

आचार्य: तुम लगातार मृत्यु का ही चुनाव करते रहते हो। शरीर माने मृत्यु। तुम्हारे सारे चुनाव ही शरीर से आश्रित हैं; संसार माने मृत्यु क्योंकि संसार प्रतिपल बदल रहा है। तुम्हारे सारे चुनाव ही संसार से सम्बन्धित हैं तो तुम लगातार मृत्यु का ही तो वरण कर रहे हो। जो लगातार मृत्यु का ही वरण करे उसको तो हम ज़िन्दा भी क्यों बोलें। हम तो ये कहेंगे वो मरा ही हुआ है; जो ज़िन्दा होगा वो कभी तो ज़िन्दगी चुनेगा।

तुम ज़िन्दगी कभी चुनते ही नहीं, तुम मौत-ही-मौत चुनते हो। शरीर को चुनना लगातार, संसार को चुनना लगातार, लगातार मौत को चुनने की ही बात है। जो बार-बार शरीर को ही चुन रहा है, जो बार-बार संसार को ही चुन रहा है वो बार-बार मौत को ही चुन रहा है। कभी तो तुम कुछ और चुनकर दिखाओ न, तो हम कहें कि ज़िन्दा हो तुम।

प्र: वो चीज़ क्या है फिर?

आचार्य: वो चीज़ ही नहीं है। पर कुछ तो होगा; तुम्हारी बेक़रारी सबूत है कि कुछ तो होगा। अब क्या है, हमें क्या पता!

प्र: मतलब, संसार को नहीं चुनना है?

आचार्य: पता नहीं! इतना सस्ता है कि यूँही बैठे-बैठे आचार्य जी बता देंगे? तुम तीन दिन के लिए आओगे, मेरे लिए एक यूँही सस्ता सा आसन तैयार कर दोगे और दिल पर पत्थर रखकर, रात्रि जागरण कर लोगे तो मैं तुमको बता जाऊॅंगा कि वो चीज़ क्या है? अजी! इतनी आसानी से मिलती होती तो फिर तो लो! हुश! (हाथ जेब में डालकर तुरन्त निकालते हुए)

पर उस चीज़ में बात कुछ ऐसी है कि बहुतों ने जान दे दी उसके लिए। अरे! जान बाद में देना, तुम ज़िन्दगी ही दे दो पहले! और ज़िन्दगी भी बाद में देना, तुम ज़िन्दगी का एक बड़ा हिस्सा ही दे दो!

प्र: क्या जीवन को जानना ही मृत्यु को जानना है?

आचार्य: हाँ, बढ़िया! ये बात बोली बढ़िया! जिसको तुम जीवन कहते हो उसमें लगातार मौत-ही-मौत है। उसी को अगर तुम ईमानदारी से देख लो तो मौत ही दिखेगी।

प्र: तो जब इसको देखना ही शुरू करेंगे तो सब छूटता ही नज़र आएगा।

आचार्य: छोड़ो! कोई ज़बरदस्ती थोड़ी है। क्यों भई! केले किसलिए हैं? केले खाओ, बाजा बजाओ। जहाज़ का क्या है, ससुरा डूबेगा ही। क्यों भाई?

और जहाज़ जब बिलकुल डूबने लगे तो ओला बुला लेना, यह लड़का है (ओला में कार्य करने वाले श्रोता को इंगित करते हुए)। वो गया ही वहाँ इसलिए है कि 'मुक्ति दिलाऊॅंगा लोगों को; भवसागर में न जाने कितने जहाज़ डूब रहे हैं, मैं उनके लिए गाड़ी भेजा करूँगा।’ आध्यात्मिक मिशन पर है लड़का।

प्र: इसका मतलब ज़िद चाहिए।

आचार्य: पता नहीं क्या चाहिए?

प्र: देखते रहना, छूटता भी है तो फिर बार-बार उसका अभ्यास करना है?

आचार्य: इश्क़ चाहिए, ज़िद-विद तो छोटी बातें हैं, इश्क़ चाहिए।

प्र: किसी अंजान से इश्क़ कैसे?

आचार्य: कॉलेज में भी करते थे तुम। और क्या! कोई बस आकर बता जाता था कि छंगीमल कॉलेज में है न बीकॉम सेकंड ईयर की आयी है नयी! (श्रोतागण हँसते हैं) और तुरन्त तुम्हारे बहारें उठने लगती थीं। शक्ल देखी थी उसकी? बस, कोई बता गया, ‘आयी है अभी’ और तुम लगते थे बाइक लेकर कॉलेज का चक्कर मारने। अब जानते भी नहीं हो नाम क्या है, ‘वो कोई हूर आ गई है नयी।’

प्र: सर, उसमें कम-से-कम एक इमेजिनेशन रेफरेंस प्वाइंट (काल्पनिक संदर्भ बिन्दु) तो था। पर यहाँ तो कल्पना भी नहीं कर सकते।

आचार्य: हाँ, इसीलिए फिर मूर्तिपूजा है। जो लोग बस शुरुआत ही करना चाहते हों वो उन्हीं के लिए है क्योंकि तुम मानते ही नहीं कि निराकार से भी प्रेम हो सकता है। तो फिर जो नये-नये पथगामी होते हैं, उनकी यात्रा का आरंभ कराने के लिए उन्हें कोई चित्र, कोई छवि, कोई कल्पना या कोई मूर्ति दी जाती है।

प्र: निराकार को कैसे जानें?

आचार्य: तुम साकार से ही शुरू कर लो!

प्र: ध्यानमग्नता।

आचार्य: ये जानते हैं, अभी-अभी इन्होंने कुछ बाँटा है (श्रोतागण हँसते हैं)। छंगीमल कॉलेज में बेटा, पाये तो तुम भी जाते थे। अब ज्ञानी हो गये हो। कुछ नहीं होगा ध्यान-व्यान से, इश्क़ माने इश्क़। इश्क़ पहले आता है, ध्यान बाद में आता है और इश्क़ नहीं है तो ध्यान भी तुम्हारा व्यर्थ जाएगा।

प्र: क्या प्यास से भी काम चलेगा?

आचार्य: वही तो इश्क़ है और क्या है?

प्र: क्या ये संभव है कि वो इश्क़ हो और वो चाहत भी हो कि वो जो आप बोले हैं कि एक अल्गोरिदम (विधि) से सक्सेस (सफलता) भी मिले और इश्क़ भी हो जाए?

आचार्य: हाँ, समझ गया (श्रोतागण हँसते हैं) ऐसों के लिए फिर गाने होते हैं:

‘वक्त करता जो वफ़ा आप हमारे होते, हम भी औरों की तरह आपको प्यारे होते।’

"चाहा तो हमने बहुत था तुमको! पर क्या करें, बापू को नहीं मना पाए। 'बैलेंस (संतुलन) बनाकर चलना, देखो! घर की इज़्ज़त का सवाल है।' हम बेवफ़ा नहीं थे, इश्क़ में हमारे कमी नहीं थी, बस ताऊ, कका, चचा और बापू जब सामने खड़े हुए तो बिलकुल हम काॅंपने लगे पैजामें के अंदर। फिर हम कह ही नहीं पाए कि — प्यार किया तो डरना क्या। हाँ, इश्क़ है, इश्क़ है, इश्क़ है।"

ताऊ की ये घणीं मूँछें और साढ़े छह फुट का चचा वो बार-बार डोले हिलाऍं अपने (बाजुओं को रगड़ते हुए)। चार जब मर्द हमारे सामने खड़े हुए तो इश्क़ हवा हो गया। फिर वो ज़िन्दगी भर कहते हैं, ‘हमारी भी एक प्रेमकहानी थी उस प्रेमकहानी का फल अब हमें मामा कहता है।’ (श्रोतागण हँसते हैं)

भारत में सब जवानों के दो काम ज़रूर होते हैं, एक तो सिविल सर्विसेस में असफल रहना, और दूसरा इश्क़ में असफल रहना। भारत के बहुत कम जवान मिलेंगे जिन्हें ये दोनों असफलताएँ न मिली हों। सबने कोशिश ज़रूर करी होती है इन दोनों ही चीज़ों में। दोनों में ही निन्यानवे दशमलव नौ-नौ प्रतिशत फेल (विफल)। सबके पास एक ‘हमारी अधूरी कहानी’ ज़रूर होती है; क्यों जी हामी भरो (एक श्रोता को सम्बोधित करते हुए जिसकी अभी-अभी प्रेम कहानी टूटी है)।

प्र: निराकार में कैसे जिया जाए?

आचार्य: तुम साकार से शुरू करो। फिर दोहरा रहा हूँ। निराकार अगर तुम्हारी बुद्धि के पार पड़ता है — जो वो पड़ेगा ही क्योंकि वो बुद्धि से आगे का है — निराकार अगर तुम्हारी कल्पना में नहीं समाता है — जो कि वो नहीं ही समाएगा क्योंकि वो कल्पना से आगे का है — अरे! तो तुम किसी ऐसे सरूप, साकार से शुरू कर लो न जिसमें तुम्हें उसकी छवि दिखती हो। मन्दिर और किसलिए होता है? मूर्ति और किसलिए होती है? क्योंकि सामान्यजनों के लिए बड़ा मुश्किल होता है अरूप को, अनाम को, असीम को समर्पित हो जाना। तो फिर उनको एक जगह दे दी जाती है, उनको एक विधि दे दी जाती है, उन्हें एक नाम, एक मूर्ति दे दी जाती है कि तुम इसको अपने ध्यान का केन्द्र बना लो। तो कहते हैं, ‘ठीक, प्यारी नहीं है, प्यारी की पायल तो है, उसी को सीने से लगाये रहेंगे।’

वो पुराने खत तो तुमने भी बचाकर रखे ही होंगे, मोर के पंख वाले और गुलाब की पंखुड़ी वाले? वो जो सब पीले पड़ गए हैं अब और खोलो तो फट जाते हैं। बचाकर रखे हो न? वो इसीलिए, वैसी ही बात है। वो नहीं तो उसकी बात ही सही। ग्रंथ इसीलिए होते हैं न! वो नहीं तो उसकी बात ही सही‌, ग्रन्थ इसीलिए होते हैं। वो नहीं तो उसका ज़िक्र ही सही। इतने सारे ग्रन्थ तुम्हें और क्यों दिए गये हैं? उनसे ही प्यार कर लो।

अभी भी तुम सबकी पॉकेट (ज़ेब) टटोली जाऍं, पर्स इत्यादि खुलवाए जाऍं तो दो-चार तस्वीरें तो ज़रूर निकल आएँगी। निकल आती हैं कि नहीं? अभी देखा जाए कि लैपटॉप में क्या तुमने स्क्रीन सेवर लगा रखा है या मोबाइल फ़ोन ही दिखवा दिए जाऍं तो ख़ूब जानते हो न तुम कि जो दूर होता है, जिसको स्पर्श नहीं कर पाते उसके प्रतीक से काम चला लिया जाता है। जानते हो न?

तो जो उतनी दूर है उसके प्रतीक से ही शुरुआत कर लो। जो तुम्हें उसकी याद दिला दे उसके ही निकट हो लो।

प्र: गुरु जी, चाह तो होती ही है कि साकार को ऑब्ज़र्व (अवलोकन) करके निराकार में जीने की कोशिश करें लेकिन वर्ल्ड (दुनिया) में ऐसी निगेटिविटी (नकारात्मकता) रहती है जो कि खींचती रहती है।

आचार्य: जिसको तुम वर्ल्ड कहते हो बेटा! वो भी तुम्हारी ही तरह बेचारा है और बेकरार है। वर्ल्ड माने यही सब तो लोग! ऐसे ही तो माँस के पुतले! वर्ल्ड माने और क्या? अब वर्ल्ड माने पहाड़ पर जो पेड़ है उसकी तो बात नहीं कर रहे हो तुम।

जब तुम कहते हो कि संसार खींचता है, संसार बाँधता है या तुमने कहा ‘संसार में बड़ी नकारात्मकता है’ तो पत्थरों में और पानीयों में तो नकारात्मकता होती नहीं, तुम इन्सानों की ही बात कर रहे हो, माने यही सब इन्सान। ये इतने जो यहाँ बैठे हैं ऐसे ही तो इन्सान। देख नहीं रहे हो ये क्या चाहते हैं? ये सब भी वही चाहते हैं जो तुम चाहते हो। क्यों तुम इनपर इल्ज़ाम रख रहे हो कि ये निगेटिव (नकारात्मक) हैं या बुरे हैं। अभी मैं तुम्हारे पड़ोसी से पूछूँगा कि ‘क्या दुनिया नकारात्मकता से भरी हुई है?’ तो वो कहेंगी, ‘हाँ’ और तब वो किसको नकारात्मक बोल रही हैं? तुमको।

दुनिया ठीक वैसे ही है जैसे तुम हो। तुम कहते हो, दूसरे तुमको नीचे खींचे डाल रहे हैं, बाँधे डाल रहे हैं। दूसरों से पूछो उनको कौन परेशान कर रहा है और बाँध रहा है? तो वो कहेंगे, ‘तुम बाँध रहे हो।’ सब तुम्हारी ही तरह हारे और बेचारे हैं। किसी दूसरे पर दोष मत रखो, हो सके तो दूसरों की मदद करो।

कोई बुरा नहीं है, सब एक ही राह के पथिक हैं। तुम दूसरों के लिए बुरे हो, दूसरे तुम्हारे लिए बुरे हैं। तुम दूसरों के लिए अच्छे हो जाओ फिर देखो, दूसरे तुम्हारे लिए अच्छे हो जाते हैं कि नहीं। कभी अच्छे होकर भी देखो और अच्छे होने का अर्थ एक ही होता है, दूसरों की मुक्ति में सहायक हो जाना।

तुम्हें अगर दूसरे बहुत बुरे लगते हैं, दुनिया में तुम्हें बुरे-ही-बुरे लोग दिखाई देते हैं तो एक बात पक्की समझ लेना — तुम दूसरों के लिए बहुत बुरे हो।

अच्छा होना आज़माकर देखो; एक बार आज़माकर देखो अच्छा होना, अच्छा लगेगा। पर दूसरों को अच्छाई तो तब दोगे न जब तुम्हें अपनी अच्छाई पता होगी। जिसे मुक्ति का मोल पता हो वही तो दूसरे को मुक्ति का तोहफ़ा देगा। जो बन्धनों से राज़ी हो गया वो दूसरों को भी तोहफ़े में देगा तो क्या? वही बेड़ियाँ। और क्या?

‘डार्लिंग! तुम्हारे लिए नए कंगन लाया हूँ’, लो, पहना दो बेड़ियाॅं और उसको। हर जगह बेड़ियाँ-ही-बेड़ियाँ पहना दो। गले में पहना दो, बोल दो कि ‘हार’ है। नाक में पहना दो, बोल दो ‘नथनी’ है। कान में पहना दो, बोल दो घण्टा है। पाँव में पहना दो, बोल दो 'पायल' है। तुम्हारा ख़ुद का यही काम है, उॅंगलियों में भी पहना दो बेड़ियाँ, बोलो, अंगूठियाँ हैं ये, रत्नजड़ित!

यही तो कर रहे हो जिनसे केयर (संभाल) करते हो, ‘मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूँ; लो, ये वाली बेड़ी अपनी उँगली में डाल लो, और वादा करो कि जीवन भर नहीं उतारोगी।’ ल्यो! धीरे से पीछे मुड़ो, उसको बोलो, ‘चलो खेलते हैं। दस की गिनती गिनो, मैं भी गिनूँगी।’ और जबतक वो दस की गिनती गिने, तब तक तुम सरहद पार हो जाओ। इतनी ज़ोर से भागो, जब भी कोई आये और कहे कि ‘ये अगूॅंठी लाया हूँ देवी तुम्हारे लिए।’

प्र: लेकिन संसार इस तरह के व्यवहार को अप्रूव (स्वीकृति) नहीं करता।

आचार्य: संसार माने? यही लोग? कौन है भाई, डिसअप्रूव (अस्वीकृत) कर रहा है? डंडा उठाना वो देखो जो वहाँ रखा है!

प्र: इन्हें तो नियंत्रित कर लेंगे।

आचार्य: नहीं, बताओ न। संसार तो यही है, किसपर इल्ज़ाम लगा रहे हो? मुझे आजतक कोई नहीं मिला जो कहे कि ‘मैं बहुत अच्छी हालत में हूँ और दूसरों का बुरा करना चाहता हूँ।’ दूसरों का बुरा करने भी अगर कोई निकलता है तो इस बात से परेशान होकर कि उसकी अपनी हालत बहुत ख़राब है। कोई मुझे दिखा दो जो सर्वथा तृप्त हो और दूसरे का बुरा चाहता हो, दिखा दो!

प्र: कई बार न चाहते हुए भी बुरा करना पड़ता है।

आचार्य: हाँ, यही-यही! सब एक-दूसरे का ऐसे ही बुरा कर रहे हैं। सब एक-दूसरे का ऐसे ही बुरा कर रहे हैं; तुम्हें लगता हैं कि वो बुरा है तो उसकी अच्छाई भी करूँगा तो समझेगा नहीं। और जो तुम्हें लगता है, ठीक वही बात दूसरे को भी लगती है।

मैं कह रहा हूँ, आज़माकर देखो भलाई को। सबकुछ तो आज़मा लिया, एक बार ये भी थोड़ा-बहुत प्रयोग तो करो।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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