प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, आपने एक सत्र में कहा था कि कमज़ोर आदमी ख़ुद को नहीं मार सकता, आत्महत्या बहादुर ही कर सकता है।
आचार्य प्रशांत: याद नहीं है कब कहा था पर आत्महत्या की बात मैंने अहंकार की अर्थ में करी होगी। ख़ुद को मारना मतलब अपनी वृत्तियों के विरोध मे जाना, कमज़ोर आदमी का काम नहीं है।
देखिए, मामला बहुत सपाट है। एकदम ईमानदारी का है। चीज़ पसन्द हो तो दाम चुकाओ और ले जाओ। परमात्मा खड़ा हुआ है तुम्हारे सामने। परमात्मा नहीं बोलना उसको तो कुछ और बोल लो, आनन्द, चैन, शान्ति जो भी बोलना हो, सुकून। खड़ा हुआ है और फिक्स प्राइस शॉप (एक दाम की दुकान) है।
वहाँ लेन-देन नहीं चलता। मोल-भाव नहीं कर लेना। तय बात है; इतना दाम रखो, इतना ले जाओ। चीज़ पसन्द आ गये हो तो किसी से बातचीत करने की भी ज़रूरत नहीं है।
“कबीरा यह घर प्रेम का, खाला का घर नाहीं। शीश कटाए भूई धरे, फिर बैठे घर माहीं।।"
दाम चुका दो, वही पासवर्ड है।
घर में घुस जाओ। चर्चा से थोड़े ही होगा, आप जाकर दुकानदार से घंटों चर्चा करिये, सालों चर्चा करिये, दाम मत चुकाइये, चीज़ मिलेगी? तो एक सीमा के बाद बातचीत व्यर्थ हो जाती है।
एक सीमा के बाद तो एक ही सवाल रहता है, दाम दे रहे हो या नहीं? नहीं तो यहाँ कतार लगी है, ग्राहक बहुत हैं। थोड़ा बहुत संवाद या जिज्ञासा शोभा देते हैं, कि आपने पूछा, भई! क्या है, कैसा है। पाँच-सात मिनट तक तो दुकानदार आपको झेल लेगा, उत्तर देगा, सन्तुष्ट करेगा। उसके बाद वो कहेगा कि सिर्फ़ पूछते ही रहोगे या कुछ ख़रीदोगे भी?
मेरा काम है तुम्हें प्रेरित करना ताकि तुम अपने डर से आगे बढ़ो, यही है दाम चुकाना।
कोई बड़ी क़ीमती चीज़ थोड़े ही होती है जो तुम्हें चुकानी होती है, अध्यात्म तो बड़े मुनाफे का खेल है। अपना सारा घटिया माल रख जाओ और बढ़िया चीज़ ले जाओ। धूल, मिट्टी, पत्थर, सब रख जाओ और हीरे, रत्न उठा ले जाओ। ये है सौदा, ये सौदा भी हम करना नहीं चाहते, कैसे चलेगा? अभी मैंने आपसे कहा न आपको पसन्द होगा प्रेम।
अच्छा बताओ, लोग ये भी बोलते हैं कि हमें ईश्वर से प्यार है और ये भी बोलते हैं कि हमें डर भी बहुत लगता है। दोनों बातें बोलते है न? निन्यानवे प्रतिशत लोग दोनों बातें एक साथ बोलेंगे। उनसे पूछो, डर लगता है? कहेंगे, ‘हाँ’। पूछो ईश्वर से प्रेम है? कहेंगें, ‘हाँ’। उनसे कहो, अच्छा ठीक है, कोई एक छोड़ना है, बताओ कौनसा छोड़ोगे?
और फिर छोड़ना पड़ेगा। उसके बाद छोड़ दिया तो छोड़ दिया। डर छोड़ सकते हो? डरना नहीं छोड़ेंगे। डर तो नहीं ही छोड़ेंगे और अगर दो में से एक चीज़ छूटनी है फिर तो ईश्वर छूट जाएगा। हमें जो चाहिए हमें वही मिलता है। डर हमें इसलिए मिलता है क्योंकि डर हमें उससे (सत्य से) भी ज़्यादा प्यारा है।
डर में सुख बहुत है। तुम ये प्रयोग करके देख लेना, तुम किसी से ईश्वर छुड़वा सकते हो, आस्तिक से उसे नास्तिक बना सकते हो, पर किसी से उसका डर छुड़वाना महाकठिन है। तो दिख गया न ज़्यादा प्यारा कौन है?
श्रोता: डर!
प्र२: डर क्यों नहीं छूटता?
आचार्य: ये तो सब मन की बात है, आ गया किसी पर। (श्रोतागण हँसते हैं)
जाने कैसे, कब, कहाँ प्यार हो गया। हम सोचते ही रह गये, इकरार हो गया।
अब तुम डर से ही इकरार कर आये हो तो हम क्या करें?
प्यार तो बहुत बड़ी बला है, न जाने किससे हो जाता है। और प्यार हुआ-तो-हुआ, इकरार बहुत लम्बा कर लेते हो न। इकरारनामा ही दस्तख़त कर आते हो।
गा तो रहे थे, ‘कैसे बताऍं, क्यों तुझको चाहें।’ (श्रोतागण हँसते हैं)
ख़ुद पता होता तो बता भी पाते। (आचार्य जी हँसते हुए)
कभी फिसले हैं चलते-चलते? क्यों फिसले? क्यों फिसले? अब फिसल गये तो फिसल गये, क्यों का क्या बताऍं, फिसल गये। जिस वजह से चलते-चलते फिसल जाते है, वैसे ही प्यार हो जाता है। इसमें कुछ ‘क्यों’ थोड़े ही है।
प्र: आचार्य जी, डर जो ये दिखाई देता है, वो नुकसान देता है।
आचार्य: इकरारनामा भी तो दिखाई दे रहा है कि नुकसान देता है। कि नहीं दिखाई देता है?
श्रोता: दिखाई दे रहा है।
आचार्य: फिर? पकड़ लिया है तो पकड़ लिया है।
प्र: कुछ तो दुख का एहसास होता है?
आचार्य: और क्या?
प्र३: डर से इतना लगाव क्यों है? ये बात समझ नहीं आ रही।
आचार्य: कि डर प्यारा क्यों लगता है? लोग डरावनी फ़िल्में देखने क्यों जाते हैं?
श्रोता: क्योंकि उसमें उत्साह होता है।
आचार्य: अपनी सत्ता का एहसास होता है। हम कुछ हैं, तभी तो हमें ख़तरा है। हम कुछ न होते तो हमें ख़तरा भी क्यों होता? ख़तरे को ही तो डर कहते हो न? तो अगर तुम डर में हो तो इससे क्या साबित होता है?
कि तुम कुछ हो। और अगर तुम और ज़्यादा डर रहे हो तो उससे क्या साबित होता है? कि तुम बहुत कुछ हो। हम तो बहुत कुछ हैं। और उसका प्रमाण है, डर! डर तो प्यारी चीज़ है।
प्र४: आचार्य जी, किसी के कर्मों की सज़ा हमें अपनेआप को देनी चाहिए क्या? मतलब अगर आपने अपना बुरा किया है, मान लीजिए, किसी ने अगर आत्महत्या भी कर ली है तो क्या उसकी सज़ा हमें देनी चाहिए अपनेआप को?
आचार्य: सज़ा कैसे दोगे? सज़ा माने क्या?
प्र: सज़ा मतलब हम उस बात से ख़ुद भी दुखी हो रहे हैं।
आचार्य: हटा दीजिए, अगर हटा सकतीं हैं तो।
प्र: कैसे हटा दूँ?
आचार्य: इसका मतलब ये है कि सज़ा देने में आपका चुनाव नहीं है न? तो फिर ये प्रश्न ही व्यर्थ है।
क्योंकि जब मैं कहूँ कि मैं रोटी खाऊँ या न खाऊँ तो सबसे पहले मेरे पास ये विकल्प होना चाहिए कि मैं चुन पाऊँ कि खाऊँ या न खाऊँ। अगर मेरे पास विकल्प ही नहीं है तो ये प्रश्न पूछना ही काम का नहीं है कि खाऊँ कि न खाऊँ।
अभी मेरे पास दो बटन हों, ‘अ’ और ‘ब’ तो मैं सवाल पूछूँगा न कि कौनसा बटन दबाऊँ। दो बटन हों ही न, एक ही बटन हो और फिर मैं पूछूँ कि कौनसा बटन दबाऊँ, तो सवाल किसी काम का नहीं; या दो बटन हों पर एक बटन जाम पड़ा हो, एक ही दबता हो और फिर मै पूछूँ कि कौनसा दबाऊँ तो ये प्रश्न फिर कुछ मज़ेदार नहीं हुआ।
दोनों रास्ते हैं क्या आपके पास? अगर नहीं हैं तो फिर क्या? फिर तो इसका अर्थ ये है कि कोई चीज़ जबरन घुसकर के आपको परेशान कर रही है। आपका उस पर कुछ हक़ नहीं है, वो आपको बेबस बनाकर, आपके ऊपर चढ़ बैठी है। ऐसा है न? तो आपको प्रेम होगा उस चीज़ से, तभी तो वो चढ़ बैठी है।
कुछ आपके ऊपर जबरन नहीं चढ़ बैठ सकता। आपको जिस चीज़ से मोह लग जाता है न वही आपके ऊपर चढ़ता है। जो लोग परेशान हों, उन्हें परेशानी से मोह हो गया है। हम सब जिसकी औलाद हैं उसने हमें बहुत ताक़त देकर भेजा है।
आपके साथ कोई ज़बरदस्ती कुछ कर ही नहीं सकता। जगत में हो सकती है ज़बरदस्ती, हो सकता है अभी ऊपर से लकड़ी गिरे, आपके सिर पर लग जाये, ख़ून बह जाये। आन्तरिक जगत में किसी के साथ कुछ भी बलात् नहीं किया जा सकता। अन्दर तो वही होगा जो आपको पसन्द आ गया है। तो ये तो आप जानिये कि आपको कष्ट क्यों पसन्द आ गया है। आदमी का कोई भरोसा नहीं।
लोगों को किस-किस चीज़ में सुख मिल जाता है, बड़ी हैरत की बात है। एक बीमारी होती है जिसमें आदमी को अपने ख़ून का स्वाद पसन्द आने लगता है। ख़ून स्वादिष्ट होता है। कुछ लोग ऐसे होते हैं जिन्हें अपने ख़ून का स्वाद पसन्द आने लगता है। समझ ही गये होंगे वो क्या करते हैं। कभी इधर काटेंगे, कभी उधर काटेंगे।
उनका पसन्दीदा काम होता है जबड़े में थोड़ा सा घाव कर लेना, मसूड़े में। थोड़ा-थोड़ा उसमें से लगातार ख़ून आता रहता है। आप कुछ भी कर रहे हो, थोड़े-थोड़े ख़ून का स्वाद मिल रहा है। हम किन चीज़ों में सुख मान लेंगे, कुछ पता नहीं। पर होगा हमारे साथ वही जिसकी हमने अनुमति दी है।